सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त

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सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त

सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त (अक्टूबर 1887 – 18 दिसम्बर 1952) संस्कृत तथा दर्शन के विद्वान थे। वे विश्व के एक प्रमुख दार्शनिक तथा भारतीय दर्शन और साहित्य के भाग्य विद्वान् थे। कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस की ओर से पांच खण्डों में प्रकाशित उनका 'भारतीय दर्शन का इतिहास' नामक ग्रंथ भारतीय दर्शन के प्रति उनकी एक विशिष्ट देन है।

सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त का मानना है कि सम्पूर्ण विश्व में अपनाई जा रही वैज्ञानिक विधि का प्रतिपादन भारतीय दार्शनिक-वैज्ञानिक गौतम या अक्षपाद ने न्यायसूत्र के रूप में किया था ( एस.एन.दासगुप्ता, हिस्टरी ऑफ इण्डियन फिलोसॉफी)। उनका यह भी विचार है कि न्यायदर्शन की उत्पत्ति आयुर्वेदाचार्यों की चर्चाओं का परिणाम था।[1]

परिचय[संपादित करें]

सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त का जन्म बंगाल के कुश्टिया में एक वैद्य-ब्राह्मण परिवार में हुआ था जो अब बंगलादेश में है। उन्होने कोलकाता के रिपन कॉलेज से संस्कृत में स्नातक (प्रतिष्ठा) परीक्षा उतीर्ण की। इसके पश्चात १९०८ में संस्कृत कॉलेज से मास्टर्स की उपाधि ली। इसके बाद कोलकाता विश्वविद्यालय से पाश्चात्य दर्शन में दूसरी मास्टर उपाधि अर्जित की।

भारत के प्रमुख दार्शनिक मतों के अतिरिक्त साहित्य तथा आयुर्वेद सम्बन्धी उनके विशेष अध्ययन का परिणाम अनेक अंग्रेजी तथा बँगला ग्रंथों में प्रकाशित हो चुका है। विशेषतः एक दार्शनिक के रूप में ही अधिक ख्यात होने पर भी उनका अध्ययन केवल दर्शन-शास्त्र तक ही सीमित न था। ज्ञान की शाखाओं-प्रशाखाओं के अध्ययन के प्रति अदम्य पिपासा के साथ ही उनमें अद्भुत कार्य-क्षमता भी विद्यमान थी। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण अत्यन्त उदार था।उनकी इन विशेषताओं और भिन्नमुखी रुचि के फलस्वरूप ही उनका ज्ञान-त्र अत्यन्त विस्तृत था। वे कहा करते थे कि जीवन के आरंभिक वर्षों में संस्कृत भाषा और साहित्य तथा विज्ञान में उनकी समान रुचि थी। एक ओर वे संस्कृत भाषा की सांगीतिकता से प्रभावित थे और दूसरी ओर जीवविज्ञान तथा शरीर-विज्ञान, कला और साहित्य के प्रति भी उनकी आजन्म एक-सी रुचि बनी रही। इसी कारण जहाँ उन्हें एक ओर गंभीर ज्ञान था वहीं दूसरी ओर जीवन-सम्बन्धी समस्याओं के प्रति उनमें उदार और गंभीर अन्तर्दृष्टि भी थी। अपने अगाध पाण्डित्य तथा अपनी कुशाग्र बुद्धि के बल पर ही वे अपने स्वतन्त्र दार्शनिक सिद्धान्त की स्थापना में सफल हुए। उनकी प्रबल इच्छा थी कि वे विभिन्न दार्शनिक मतों तथा तत्वज्ञान, तर्कशास्त्र, आचारशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र और समाजशास्त्र सम्बन्धी समस्याओं पर अन्य विचारकों के मतों की आलोचना के प्रकाश में दो खण्डों में अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करते। अपने देश के दर्शन का इतिहास प्रस्तुत करना भी वे अपने जीवन का पुण्य कर्तव्य मानते थे। इसी कर्तव्य के निष्ठापूर्वक परिपालन के कारण वे अपनी इच्छा को क्रियात्मक रूप में दे सके और जीवन के अन्तिम क्षणों तक ' भारतीय दर्शन का इतिहास' का पाँचवाँ खण्ड लिखते रह गये। दुर्भाग्यवश उन्हें यह अवसर ही नहीं मिल सका कि वे अपनी वर्षों की साधना को लिखित रूप दे सकें।

अंग्रेजी तथा बँगला की अनेक रचनाओं में वर्षों तक उनके निबन्ध प्रकाशित होते रहे हैं। उन स्फुट निबन्धों को संकलित करके उनके विचारों को सूत्रबद्ध किया जा सकता है।

बँगाली भाषा में वे 'सौन्दर्य-तत्त्व' की सन १९४०-४१ में ही रचना कर चुके थे। इसमें उन्होने पूर्वी और पश्चिमी विद्वानों के सौन्दर्य सम्बन्धी विचारों का विशद व्याख्या सहित अपने विचार व्यक्त किये हैं। प्रथम अध्याय में उन्होने प्राचीन भारतीय सन्दर्य-शास्त्रियों की धारणाओं का स्पष्टीकरण करते हुए सौन्दर्य का गंभीर और मार्मिक विवेचन किया है। इसके साथ ही उन्होंने अपने मौलिक विचारों को भी प्रस्तुत किया है। उनके विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनमें समस्त प्रचलित धारणाओं को आत्मसात करके मौलिक रूप में उपस्थित करने की अद्भुत क्षमता थी।

कृतियाँ[संपादित करें]

  • A History of Indian Philosophy, 5 volumes
  • General Introduction to Tantra Philosophy
  • A Study of Patanjali
  • Yoga Philosophy in Relation to Other Systems of Indian Thought
  • A History of Sanskrit Literature
  • Rabindranath: The Poet and Philosopher
  • Hindu Mysticism

बांग्ला भाषा में[संपादित करें]

  • सौन्दर्यतत्त्व (१९४०-४१)
  • रबिदीपिका
  • काव्यविचार
  • अध्यापक
  • तत्त्वकथा
  • भारतीय प्राचीन चित्रकला

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Science, Technology, Imperialism, and War Archived 2018-06-12 at the वेबैक मशीन edited by Jyoti Bhusan Das Gupta (पृष्ट ६३)

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]