सिख धर्म का इतिहास

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सिख धर्म
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Om
सिख सतगुरु एवं भक्त
सतगुरु नानक देव · सतगुरु अंगद देव
सतगुरु अमर दास  · सतगुरु राम दास ·
सतगुरु अर्जन देव  ·सतगुरु हरि गोबिंद  ·
सतगुरु हरि राय  · सतगुरु हरि कृष्ण
सतगुरु तेग बहादुर  · सतगुरु गोबिंद सिंह
भक्त रैदास जी भक्त कबीर जी · शेख फरीद
भक्त नामदेव
धर्म ग्रंथ
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सम्बन्धित विषय
गुरमत ·विकार ·गुरू
गुरद्वारा · चंडी ·अमृत
नितनेम · शब्दकोष
लंगर · खंडे बाटे की पाहुल


सिख धर्म की स्थापना प्रथम सिख गुरु, गुरु नानक के द्वारा पन्द्रहवीं सदी में भारत के पंजाब क्षेत्र में आग़ाज़ हुआ। इसकी धार्मिक परम्पराओं को गुरु गोबिन्द सिंह ने विसाखी वाले दिन, 13 अप्रैल 1699 के दिन अंतिम रूप दिया।[1] विभिन्न धर्मों, जातियों, क्षेत्रों (हिंदुस्तान/भारतवर्ष के सुदूर स्थानों से) के लोग ने सिख गुरुओं से दीक्षा ग्रहणकर ख़ालसा पन्थ को सजाया। पाँच प्यारों ने फिर गुरु गोबिन्द सिंह को अमृत देकर ख़ालसे में शामिल कर लिया।[2] इस ऐतिहासिक घटना ने सिख धर्म के तक़रीबन 300 साल इतिहास को तरतीब किया।

सिख धर्म का इतिहास, पंजाब का इतिहास और दक्षिण एशिया (मौजूदा पाकिस्तान और भारत) के 16वीं सदी के सामाजिक-राजनैतिक महौल से बहुत मिलता-जुलता है। दक्षिण एशिया पर मुग़लिया सल्तनत के दौरान (1556-1707), लोगों के मानवाधिकार की हिफ़ाज़ात हेतु सिखों के संघर्ष उस समय की हकूमत से थी, इस कारण से सिख गुरुओं ने मुगलों के हाथो बलिदान दिया।[3][4] इस क्रम के दौरान, मुग़लों के ख़िलाफ़ सिखों का फ़ौजीकरण हुआ। सिख मिसलों के अधीन 'सिख राज' स्थापित हुआ और महाराजा रणजीत सिंह के हकूमत के अधीन सिख साम्राज्य, जो एक ताक़तवर साम्राज्य होने के बावजूद इसाइयों, मुसलमानों और हिन्दुओं के लिए धार्मिक तौर पर सहनशील और धर्म निरपेक्ष था। आम तौर पर सिख साम्राज्य की स्थापना सिख धर्म के राजनैतिक तल का शिखर माना जाता है,[5] इस समय पर ही सिख साम्राज्य में कश्मीर, लद्दाख़ और पेशावर शामिल हुए थे। हरी सिंह नलवा, ख़ालसा फ़ौज का मुख्य जनरल था जिसने ख़ालसा पन्थ का नेतृत्व करते हुए ख़ैबर पख़्तूनख़्वा से पार दर्र-ए-ख़ैबर पर फ़तह हासिल करके सिख साम्राज्य की सरहद का विस्तार किया। धर्म निरपेक्ष सिख साम्राज्य के प्रबन्ध के दौरान फ़ौजी, आर्थिक और सरकारी सुधार हुए थे।

1947 में पंजाब का बँटवारा की तरफ़ बढ़ रहे महीनों के दौरान, पंजाब में सिखों और मुसलमानों के दरम्यान तनाव वाला माहौल था, जिसने पश्चिम पंजाब के सिखों और हिन्दुओं और दूसरी ओर पूर्व पंजाब के मुसलमानों का प्रवास संघर्षमय बनाया।

सिख धर्म का कालक्रम[संपादित करें]

  • 15 अप्रैल 1469 को ननकाना साहिब में गुरु नानक का जन्म । परम्परा के अनुसार, गुर नानक को सिख धर्म का संस्थापक माना जाता है। इससे पहले तेरहवीं सदी के प्रारम्भ से ही पंजाब में मुस्लिम राज्य की स्थापना हो गई थी। मुस्लिम शासकों ने मुस्लिमों को उचित स्थान एवं अन्य धर्मों के नागरिकों को दूसरे दर्जे का स्थान दिया और प्रताड़ित किया। दिल्ली सल्तनत की मजहबी कट्टरता की नीति से संघर्ष प्रारम्भ हुआ। सिख धर्म पहले भक्ति प्रधान था जिसके कारण इन्हें बहुत प्रताड़ना सहनी पड़ी। सष्टम गुरु जी ने अपने पिता पांचवे गुरु श्री गुरु अर्जनदेव जी के मुगलिया शासन जहांगीर के द्वारा शहादत के उपरांत सिख पंथ को मार्शल रूप दिया और मिरी पीरी नाम से दो तलवारे पहनी इसके उपरांत सभी सिख गुरु एवम सभ सिख जो की हिंदू परिवारों से आते थे स्वयं को संत–सिपाही के रूप में पारंगत करने लगे। जब कश्मीरी पंडितों का एक जत्था; पंडित श्री कृपाराम जी की अध्यक्षता मे श्री आनंदपुर साहिब श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी से मिला और कश्मीर में औरंगजेब द्वारा जबरन हिंदुओ को मुस्लिम धर्म में तब्दील किया जाने की अत्याचारों भरी व्यथा बयान की, इसपर नौवे गुरु जी ने समाज को सर्व धर्म समभाव और ना डरो ना डराओ का उपदेश देते हुए अंत में दिल्ली में अपने तीन सिखों– श्री दयाला जी, श्री मति दास जी एवं श्री सती दास जी के साथ अपना भी बलिदान धर्म रक्षा हेतु दिया जी।
  • कालक्रम में नौ अन्य गुरुओं ने इस परम्परा को सुदृढ किया। सिख मानते हैं कि सभी 10 मानव गुरुओं में एक ही आत्मा का वास था। 10वें गुरु गोबिन्द सिंह (1666-1708) की मृत्यु के बाद गुरु की अनन्त आत्मा ने स्वयं को गुरु ग्रंथ साहिब में स्थानान्तरित कर लिया। इसके उपरान्त गुरु ग्रंथ साहिब को ही एकमात्र गुरु माना गया।
  • 1487 ई -- गुरु नानक का विवाह माता सुलखनी से हुआ।
  • 1539 -- गुरु अंगद देव द्वितीय गुरु माने जाते हैं। वे गुरु नानक के शिष्य थे। उन्होने नानक देव की शिक्षाओं को स्पष्ट करने का कार्य किया। इस हेतु उन्होंने गुरुमुखी लिपि का विकास किया, नानक देव की वाणी को गुरु वाणी के रूप में लिपिबद्ध कराया, लंगर प्रथा का प्रचलन, सत्संग के केंद्र 'मंझिया' की स्थापना, गुरु ग्रंथ साहिब को संकलित करवाना आदि महत्वपूर्ण कार्य किए।
  • 1552 ईस्वी -- गुरु अंगद देव की मृत्यु। गुरु अंगद देव जी की मृत्यु के बाद उनके शिष्य अमरदास को तीसरा गुरु बनाया गया। उन्होंने लंगर प्रथा, मंजी प्रथा को कठोरता से लागू किया तथा बैंशाखी को त्यौहार बनाया।
  • 1574 -- गुरु रामदास सिखों के चौथे गुरु बने। अकबर ने इन्हें 500 बीघा जमीन प्रदान की जहाँ इन्होंने एक नगर बसाया जिसे रामदासपुर कहा गया। यही बाद में अमृतसर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। रामदास ने अपने पुत्र अर्जुन को अपना उत्तराधिकारी बनाकर गुरु का पद पैत्रिक कर दिया।
  • 1581 -- गुरु अर्जुन देव ५वें गुरु बने। उन्होने ने अमृतसर को सिखों की राजधानी के रूप में स्थापित किया और 'आदि ग्रंथ' का संकलन किया। इन्हें सच्चा बादशाह भी कहा गया। इन्होंने रामदासपुर में अमृतसर एवं सन्तोषसर नामक दो तालाब बनवाये। अमृतसर तालाब के मध्य में 1589 ई0 में हरमिन्दर साहब का निर्माण कराया। यही स्वर्णमन्दिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अर्जुनदेव ने बाद में दो 1595 ई0 में ब्यास नदी के तट पर एक अन्य नगर गोबिन्दपुर बसाया। इन्होंने अनिवार्य आध्यत्मिक कर भी लेना शुरू किया। खुसरो को समर्थन देने के कारण जहाँगीर ने 1606 में इन्हें मृत्युदण्ड दे दिया।
  • 1606 -- गुरु हरगोबिन्द छठे गुरु बने। इन्होंने सिखों को लड़ाकू जाति के रूप में परिवर्तित करने का कार्य किया। अमृतसर नगर में 12 फुट ऊँचा अकालतख्त का निर्माण करवाया। इन्होंने अपने शिष्यों को मांसाहार की भी आज्ञा दी। जहाँगीर ने इन्हें दो वर्ष तक ग्वालियर के किले में कैद कर रखा। इन्होंने कश्मीर में कीरतपुर नामक नगर बसाया वहीं इनकी मृत्यु भी हुई।
  • 1645 -- गुरु हरराय सातवें गुरु बने। इन्हीं के समय में शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध हुआ था। सामूगढ़ की पराजय के बाद दाराशिकोह इनसे मिला था। इससे नाराज होकर औरंगजेब ने इनको दिल्ली बुलाया। ये स्वयं नही गये और अपने बेटे रामराय को भेज दिया। रामराय के कुछ कार्यों से औरंगजेब प्रसन्न हो गया, जबकि गुरू नाराज हो गये। इस कारण अपना उत्तराधिकारी रामराय को न बनाकर अपने छः वर्षीय बेटे हरकिशन को बनाया।
  • 1661 -- गुरु हरकिशन आठवें गुरु बने। अपने बड़े भाई रामराय से इनका विवाद हुआ। फलस्वरूप रामराय ने देहरादून में एक अलग गद्दी स्थापित कर ली। इसके अनुयायी रामरायी के नाम से जाने गये। हरकिशन ने अपना उत्तराधिकारी तेगबहादुर को बनाया।
  • 1664 -- गुरु तेग बहादुर नौवें गुरु बने। ये हरगोविन्द के पुत्र थे। इन्हीं के समय में उत्तराधिकार का झगड़ा प्रारम्भ हुआ। 1675 में औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर को दिल्ली बुलवाया और इस्लाम स्वीकार करने को कहा। मना करने पर इनकी हत्या कर दी गई।
  • 1675 -- गुरु गोविन्द सिंह शिखों के दसवें गुरु बने। इन्होंने आनन्दपुर नामक नगर की स्थापना की और वहीं अपनी गद्दी स्थापित की। आपने खालसा पंथ की स्थापना की जो सैनिक-सन्तों का विशिष्ट समूह था। खालसा प्रतिबद्धता, समर्पण और सामाजिक चेतना के सर्वोच्च गुणों को उजागर करता है।
  • 14 अप्रैल, 1699 -- बैशाखी के दिन ऐतिहासिक आनन्दपुर साहिब में गुरु गोबिन्द ने पंज प्यारों को दीक्षा देकर खालसा पन्थ की स्थापना की। पंज प्यारों के नाम हैं- भाई दया सिंह, भाई धर्म सिंह, भाई हिम्मत सिंह, भाई मोहकम सिंह और भाई साहिब सिंह । इन्हें पहले खालसा के रूप में पहचान मिली। पंज प्यारों ने सिख इतिहास को मूल आधार प्रदान किया और सिख धर्म को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। इन आध्यात्मिक योद्धाओं ने न केवल युद्ध के मैदान में अत्याचारियों से लड़ने की शपथ ली, बल्कि विनम्रता और सेवा भाव को भी दिखाया। आज भी पंज प्यारों को खंडा दी पाहुल को शुरू करने, गुरुद्वारा भवन की आधारशिला रखने, कार-सेवा का उद्घाटन करने, प्रमुख धार्मिक जुलूसों का नेतृत्व करने या सिख धर्म से जुड़े सभी प्रमुख कार्यों व समारोहों में महत्व दिया जाता है।
  • 3 सितम्बर, 1708 -- गुरु गोविन्द सिंह ने नान्देड में लक्ष्मण सिंह को अपना शिष्य बनाया। गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी मृत्यु से पूर्व एक हुक्मनामा लिखकर बन्दा सिंह को पंजाब भेजा। हुक्मनामा में कहा गया था कि आज से आपका नेता बन्दा सिंह बहादुर होगा। गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु के बाद शिखों का नेतृत्व बन्दा बहादुर ने सम्भाला मुगलों से संघर्ष जारी रखा। (जफरनामा देखिए)
  • अक्टूबर, 1708 -- नान्देड में गोदावरी के किनारे शिविर में चुपके से घुसकर एक पठान द्वारा द्वारा गुरु गोविन्द सिंह पर तलवार से जानलेवा हमला ; 7 अक्टूबर को गुरु की मृत्यु। इनकी मृत्यु के साथ ही गुरु का पद समाप्त हो गया।
  • 12 मई, 1710 -- बन्दा सिंह बहादुर द्वारा वजीर खान की हत्या एवं सरहिन्द पर अधिकार। वजीर खान ने ही दोनों साहिबजादों (जोरावर सिंह और फतेह सिंह) की हत्या की थी। इस प्रकार बन्दा सिंह सिखों के पहले राजनीतिक नेता हुए। इन्होने प्रथम सिख राज्य की स्थापना की तथा गुरुनानक तथा गुरु गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के चलवाये।
  • 1715-1716 ई0 -- मुगल बादशाह फारूख सियर की फौज ने अब्दुल समद खां के नेतृत्व में इन्हें गुरूदासपुर जिले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरूदास नंगल गाँव में कई महीनों तक घेरे रखा। खाने-पीने की सामग्री के आभाव के कारण उन्होंने 07 दिसम्बर 1715 को आत्मसमर्पण कर दिया। फरवरी 1716 को 794 सिखों के साथ बांदा सिंह बहादुर को दिल्ली लाया गया जहां 5 मार्च से 13 मार्च तक रोज 100 सिखों को फांसी दी गयी।
  • 16 जून 1716 -- फरूखसियर के आदेश पर बंदा सिंह तथा उनके मुख्य सैन्य अधिकारी के शरीर के टुकड़े-टुकडे कर दिए गए। बन्दा सिंह बहादुर की मृत्यु के बाद सिख समाज नेतृत्वहीन हो गया और कई छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गया।
  • सरबत खालसा एवं गुरुमत्ता -- बन्दा बहादुर की मृत्यु के बाद सिखों में सरबत खालसा एवं गुरुमत्ता प्रयासों का प्रचलन हुआ। शिख लोग जब इकट्ठे होते थे तब इसे 'सरबत खालसा' एवं इकट्ठे होकर जो निर्णय लेते थे उसे 'गुरुमत्ता' कहा गया। 1733 और 1745 के सरबत खालसा प्रसिद्ध हैं।
  • 1748 -- नवाब कपूर सिंह के नेतृत्व में सिखों के छोटे-छोटे वर्ग दल-खालसा के अन्तर्गत संगठित हुए। इस संगठन ने सिखों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए राखी-प्रथा का प्रचलन किया। इस प्रथा के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव से वहाँ की उपज का 1/5 भाग लिया जाता था तथा उस गाँव की सुरक्षा का भार भी लिया जाता था।
  • 1747 से 1769 -- पंजाब पर अफगानों का आक्रमण। 1799 तक उन्होंने लाहौर पर कब्जा कर लिया था।
  • जनवरी 1761 -- पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठे कमजोर हो गये। अतः सिखों को फिर से उभरने का मौका मिला। इसी समय पंजाब में छोटे-छोटे सिख राज्यों की स्थापना हुई। ये मिसाल कहलाते थे। इसेमें 12 मिसाले प्रमुख थी। इनमें भी पाँच अत्यन्त शक्तिशाली थी- भंगी, अहलुवालिया, सुकेरचकिया, कन्हिया तथा नक्कई इसमें भंगी मिसल सर्वाधिक शक्तिशाली थी। इसका अमृतसर लाहौर और पश्चिमी पंजाब के कुछ इलाकों पर अधिकार था। सुकेर चकिया मिसल के प्रधान महासिंह थे। 1792 में उनकी मृत्यु के बाद इसका नेतृत्व रणजीत सिंह ने सम्भाला।
  • 12 अपैल, 1801 --- रणजीत सिंह ने 'महाराजा' की उपाधि धारण की। गुरु नानक जी के वंशज ने इनका राज्याभिषेक किया। इन्होने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और 1802 में अमृतसर की ओर अपना रुख किया। अफगानों से कई युद्ध लड़े और उन्हें पश्चिम की ओर खदेड़ दिया।
  • महाराजा रणजीत सिंह ने 1799 में लाहौर पर तथा 1803 में अकालगढ़ पर कब्जा कर लिया। 1804 ईस्वी में गुजरात के साहिब सिंह पर हमला कर पराजित किया। 1805 में अमृतसर की भंगी मिसल पर अधिकार कर लिया। 1808 ईस्वी में सतलज नदी पार करके फरीदकोट मलेरकोटला तथा अंबाला को जीत लिया।
  • 25 अप्रैल 1809 -- रणजीत सिंह और अंग्रेजों के बीच अमृतसर की संधि। सिखों के बढ़ते प्रभाव से अंग्रेज बहुत भयभीत थे, जिस कारण सिखों से संधि करके अपने राज्य को सुरक्षित करना चाहते थे। अमृतसर की संधि के बाद सतलज नदी के पूरब के प्रदेशों पर अंग्रेजों का अधिकार स्वीकार कर लिया गया।
  • 1839 से 1843 -- रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र खड़ग सिंह गद्दी पर बैठा, परन्तु उसके प्रशासन पर उसके वजीर ध्यान सिंह का नियंत्रण था। खड़गसिंह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र नैनिहाल सिंह शासक बना। यह उनके पुत्रों में सबसे योग्य था। नैनिहाल सिंह के बाद शेरसिंह शासक हुआ। शेर सिंह के बाद 1843 में दिलीप सिंह राजा बने।
  • 1843 -- महारानी जिंद कौर के संरक्षण में दिलीप सिंह को गद्दी सौंपी गयी। उस समय वे केवल पाँच वर्ष के थे। अंग्रेज सरकार इसका लाभ उठाना चाहती थी। दूसरी तरफ महारानी जिंद ने अंग्रेजों की शक्ति को कम आंककर सिख साम्राज्य के विस्तार का आदेश दे दिया।
  • 1849 ई0 -- डलहौजी ने सिख राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।
  • 20वीं शताब्दी के आरम्भ में सिख धर्म में ‘तत खालसा’ के नेतृत्व में गहन सुधार किया गया।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "BBC History of Sikhism - The Khalsa". Sikh world history. BBC Religion & Ethics. 29 August 2003. मूल से 17 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2008-04-04.
  2. Singh, Patwant (2000). The Sikhs. Knopf. पपृ॰ 14. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-375-40728-6.
  3. Pashaura Singh (2005), Understanding the Martyrdom of Guru Arjan, Journal of Punjab Studies, 12(1), pages 29-62
  4. (वीर गडरिया) पाल बघेल धनगर
  5. Lafont, Jean-Marie (16 May 2002). Maharaja Ranjit Singh: Lord of the Five Rivers (French Sources of Indian History Sources). USA: Oxford University Press. पपृ॰ 23–29. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-19-566111-7.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

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