सारस्वत ब्राह्मण

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सारस्वत ब्राह्मणों के साथ परशुराम, कोंकण क्षेत्र की स्थापना हेतु वरुण को समुद्र को पीछे हटाने का का आदेश देते हुए।[1]

सारस्वत ब्राह्मण भारत के हिन्दू ब्राह्मणों का एक समूह है जो सरस्वती नदी के किनारे रहने वालों के वंशज माने जाते हैं। यह लोग पूरे भारतीय महाद्वीप में पाये जाते हैं । सारस्वत ब्राह्मण पांडित्य कार्य करते हैं और साथ ही साथ अन्य व्यवसाय भी करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सारस्वत दिवस 9 जून को मनाया जाता है ।

सारस्वत समाज परिचय

ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रम्हा के मुख से हुई है ब्राह्मण स्वयं ब्रह्मा का सर्जन है सृष्टी के प्रारंभ से ही ब्राह्मण का अस्तित्व रहा है प्राचीन समय में ही ब्राह्मण वर्ण जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ पूरे भारत खण्ड में फैलता चला गया। आगे चलकर भारतीय उपखण्डक ब्राह्माण भौगोलिक आधार पर दो मुख्य समूहों में बंट गये विद्याचल पर्वत के उत्तर में स्थित ब्राह्मण गौड व दक्षिण में स्थित ब्राह्मण द्रविड कहलाये। कालांतर में उनके भी पांच-पांच उपसमुह हो गये इस कारण उत्तर भारत में पंच गौड ब्राह्मण व दक्षिण में स्थित पंच द्रविड ब्राह्मण कहलाने लगे गौड ब्राह्मणों के पांच मुख्य घटक सारस्वत, कान्यकुबज गोड, उत्कल व मेथीली है तथा पंच द्रविड ब्राह्मणों के पांच मुख्य घटक आधा महाराष्ट्र, तमिल केरल व कर्णाटक द्रविड है। यजुर्वेद में एक मंत्र है कि

सारस्वताः कान्यकुबज: गोड: उत्कल मैथुल । पंचगोड: ईती वीरत्याता बीन्ययाचल उत्तरबासीनी ॥ करनायकच्छ तेलुग: द्रवीडाः महाराष्ट्रचाः । गुजराते पंचद्रवीडाः विद्ययाचलः दक्षिणवासीनेः ॥

सार (ज्ञान) + स्वतः (स्वयं या अपने आप) यानी अपने आप में अन्तरयामी, सारस्वत शब्द की उत्पति संभवत वैदिक काल में मानी जाती है अत उस समय सबसे संभ्रात उच्च, फुलिन, विद्वान व वेदों के ज्ञाता को ही सारस्वत कहा जाता था । इस प्राचीनतम 'सारस्वत' शब्द का विश्व प्रसिद्ध ऑक्सफर्ड युनिवर्सिटी के शब्द-कोश में भी समाहित किया गया है जहां फादर कामिल बुल्कं इस शब्द की व्याख्या भी विद्वान व नितियों के ज्ञाता के रूप में की है। सारस्वतों का इतिहास भारत में अन्य समुदायों से ज्यादा उनके संघर्ष और एक लम्बी पलायन श्रृंखला के तौर पर याद किया जाता है। कई पीढ़ियां व सदिया बीत जाने के बाद भी यह समाज अपनी संस्कृति व परंपराओं को अक्षुण्ण रखने में सफल रहा है।

इतिहासकारों के अनुसार सारस्वत ब्राह्मणों का सटिक मुल तो पता लगाना असंभव है पर वेद, रामायण, महाभारत, भागवत तथा भविसूत्र पुराण में सारस्वत ब्राह्मणों का उल्लेख मिलता है. इनकी मानें तो ये आर्य प्रवासि है जिन्होंने लगभग 8000 ई.पू. के आसपास मध्य एशिया से हिन्दुकुश पर्वतमाला होकर ख़ैबर दर्रे के द्वारा भारतीय उपखण्ड में प्रवेश किया उनमें से अधिकांश सरस्वती नदी के किनारों के आसपास बस गये और सारस्वत कहलाने लगे वे वहां पर पशुधन व उत्कृष्ट खेती करते थे उनमें शिक्षा का महत्व सबसे ज्यादा था ये अपने युवाओं को संस्कृत के द्वारा ऋग वेद का उच्च कक्षा का ज्ञान देते थे. सर्वप्रथम सारस्वतों ने ही माँ सरस्वती को देवी के रूप में पूजना शुरू किया था संस्कृत सामान्य बोलचाल की भाषा थी तभी से संस्कृत ब्राह्मणी कहलाने लगी।

शास्त्रों के अनुसार सारस्वत ब्राह्मणों का उद्गम स्थल अति उत्तम व पवित्र नदी श्री सरस्वती का माना जाता है जो कालांतर में भूमी में विलुप्त हो गई व आज भी पंजाब व राजस्थान में भूमी के निचे बहती हुई समुन्द्र में जा मिलती है प्रभास पाटन (सोमनाथ) जहां भगवान श्री कृष्ण ने लौकिक देह का त्याग किया व निज धाम प्रस्थान किया. उनके अस्थि विसर्जन • जिस स्थान पर किये वो स्थान भी त्रिवेणी संगम कहलाता है जहां कपिला, रोहणी व सरस्वती नदियां समुन्द्र में मिलती है अतः (यही ज्यादा सही है कि प्राचीन सरस्वती नदी सिन्ध व वर्तमान राजस्थान से बहती हुई गुजरात में समुन्द्र से जा मिलती थी तथा उनकी एक धारा मध्य भारत में से बहती हुई प्रयाग में त्रिवेणी संगम पर पुनः प्रगट होती है ऋग्वेद में सप्तसेन्द्रव प्रदेश) का बार बार उल्लेख मिलता है ऋग्वेद की नदी स्तुति में जिन सात नदियां का जिक्र है कमशः वे है। सिंधु सरस्वती, वितस्ता (झेलम), सतुदि (सतलज), विपासा (व्यास) परुष्णी (रावी) और अस्किनी (चिनाव)। इनमें भी सरस्वती को विशेष स्थान दिया गया है। ऋग्वैदिक ऋषिगण सरस्वती को अम्बितमे नदीतमे देवीतमे कह कर स्तुति करते थे अतः हम कह सकते हैं कि वेदों की रचना सरस्वती के तटों पर ही की गयी है कालगणना से यह समय लगभग 13000 ई.पू. के आसपास का माना जाता है। पश्चिम के कुप्रचार के तहत आधुनिक भारतीय इतिहासकार वैदिक काल सिर्फ 1500 ई.पू., व उत्तर वैदिक काल का 300-600 ई.पू. का के मानते है जबकि पुराण कृष्ण युग से प्राचीन है क्योंकि महाभारत के बहुत से पात्रों द्वारा पूराणों का संघर्म व स्तुति की गयी है तथा सरस्वती को भी वेदस्मृति कहा गया है। वेदों की रचना करने वालों को आर्य कहा गया है जो वस्तुत सारस्वत ही थे। गंगा व यमुना का वेदों में ज्यादा वर्णन नहीं है ऋग्वेद की अंत की ऋचाओं में सिर्फ एक बार गंगा शब्द आया है शायद वे लोग गंगा यमुना के दोआब तक नहीं पहुचे थे लगभग 3000-5000 ई.पू. के बीच पुराणों व ब्राह्मण ग्रंथों की रचना हुई उत्तर वैदिक काल के ग्रंथों जैसे ताण्डय और जैमिनीय ब्राह्मण में सरस्वती नदी को सुखा हुआ बताया गया है। महाभारत में सरस्वती नदी को मरुस्थल में विनाशन नामक स्थान पर विलुप्त होना बताया गया है महाभारत के अनुसार सरस्वती नदी शिवालिक पहाडियों से थोड़ा सा नौचे आदि बद्री नामक स्थान से निकलती है कुछ शास्त्रों में सरस्वती नदी के उद्गम स्थल के रूप में "प्लक्ष प्रसवन" को बताया गया है भारतीय पुरातत्व परिषद के अनुसार सरस्वती का उद्गम उतरांचल में "रुपण' नाम के हिमनद से होता है रुपण ग्लेशियर को अब सरस्वती ग्लेशियर भी कहते है इस नदी के तट के पास रहकर तथा इस नदी के पानी का सेवन करते हुए ऋषियों ने वेद रचे थे।

शास्त्रों में वर्णन है कि सारस्वतेय नाम के महान ब्राह्मण ऋषि सरस्वती नदी के तट पर निवास करते थे। समयानुसार उनकी संताने हुई वंशवेल बढ़ती गई तथा सने-सने पूरे भारत भर में फैल गये और आज हम उनकी संताने सारस्वत ब्राह्मणों के रूप में जानी जाती है। लगभग 15000 हजार साल पहले सारस्वतेय नाम के महान ऋषि हुए जो ऋषि दधीचि के पुत्र थे। कुछ प्राचिन ग्रंथों के अध्ययन से सार निकलता है कि सारस्वत ऋषि ब्रम्हा व सरस्वती संतान थे। लगभग सभी आदि ग्रंथों में सारस्वत ऋषि व सारस्वतो का वर्णन मिलता है। ऋगवेद में ऋषि सारस्वत को अथर्वा कहकर सम्बोधित किया गया है, तथा एक मुख्य वेद का नाम भी अथर्वा है। इससे यह साबित होता है कि वेदों की रचना सारस्वत विद्वानों के द्वारा ही की गई है। अथवा सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भागवत पुराण, स्कन्ध पुराण विष्णु पुराण व मत्स्य पुराण में सारस्वत ऋषि का काफी उल्लेख आता है। सारस्वतेय ब्राह्मण ऋषि सारस्वती नदी के तट पर अपनी संतान सारस्वत के साथ रहते थे। उस समय उनकी संख्या लगभग 60 हजार के आसपास बतायी गयी हैं बाणभट्ट के "हर्षचरित" नामक ग्रंथ में लिखा है कि एक बार उस क्षेत्र में लगातार 12 साल तक भंयकर अकाल पड़ने के कारण ऋषिगण सरस्वती का क्षेत्र त्याग कर वहां से पलायन करना शुरू कर दिया, परन्तु माता के आदेश पर सारस्वती पूत्र सारस्वतेय ऋषि कहीं नहीं गए फिर सुकाल होने पर जब तक ये ऋषि वापस लौटे तो वे सब वेद आदि भूल चुके थे। उनके आग्रह का मान रखते हुए सारस्वतेय ऋषि ने उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार किया और पुनः श्रुत्तियों का पाठ करवाया, रामायण में उल्लेख मिलता है कि भगवान राम ने सारस्वत ब्राह्मणों को राजसूय यज्ञ में आमंत्रित किया था। सरस्वती और दृष्टावदी जो वर्तमान हरीयाणा में कुरुक्षेत्र में से बहती है के बीच के क्षेत्र को सारस्वत देश कहते थे। यह क्षेत्र सारस्वत ब्राह्मणों की मूल भूमि है प्राकृतिक आपदाओं के कारण सारस्वती नदी विलुप्त हो गयी। नदी पर बसी महान सारस्वत सभ्यता के लिये जीवन यापन मुश्किल होने लगा. भूमि रेगिस्तान में बदलने लगी खाने का आवश्यक अनाज कम होने लगा तथा पानी को भी जरूरत पूरी होने में मुश्किल होने लगी, अतः सारस्वतों ने यहां से पलायन करना शुरू कर दिया 300-600 ई.पू. की यह घटना इतिहास में दर्ज है।

सारस्वतों ने नदियों के विस्तार के हिसाब से मुख्य तीन तरफ पलायन शुरु कर दिया जिसमें से पहला दक्षिण-पश्चिम से यानी वर्तमान सिंध, उतर में कश्मीर व पूर्व में पाटलीपूत्र की तरफ जहाँ गंगा व यमुना के विस्तृत मैदान थे। कुछ सारस्वत सरस्वती नदी के सहारे पश्चिम समुन्द्र किनारे-किनारे वर्तमान द्वारका तक पहुंच गये और वहाँ से समुन्द्री जहाजों द्वारा गोवा व कोकण तक फैल गये, उनमें से कुछ द्वारका क्षेत्र में ही बस गये, उनको "द्वारकीज सारस्वत" कहते हैं। जिनकी संख्या सौराष्ट्र क्षेत्र में आज भी काफी है। द्वारका क्षेत्र महाभारत में सारस्वत तीर्थ के नाम से वर्णन किया है। सारस्वतों के विस्थापन का दूसरा मार्ग पंजाब से होकर कश्मीर था। कश्मीर में परम्पराओं और सांस्कृतिक विचारों के आधार पर कह सकते हैं, कि वहां के समस्त ब्राह्मण सारस्वत ही है। वे वहां पर 32 उपसम्प्रदायों में बंटे हुए है। जम्मू एवं कश्मीर में सारस्वतों के 6 वर्ग एवं 133 गोत्र विद्यमान है। 12 वीं शताब्दी के शुरूआत होते होते कश्मीर में मुस्लिम शासकों का प्रभुत्व बढ़ गया था और उन्होंने सारस्वतों पर भी अत्याचार शुरु कर दिये थे फलस्वरुप ज्यादातर सारस्वत वहां से पलायन कर दक्षिण की तरफ चले गये। कुछ सारस्वत परिवार शेष बचे थे, उनमें से अधिकांश को बेबस होकर अन्य हिन्दुओं के साथ मुस्लिम धर्म अपनाना पड़ा। हालात अनुकुल होने पर दक्षिण की तरफ गये कुछ सारस्वत परिवार वापस कश्मीर लौटे, उस समय ज्यादातर हिन्दु राज्य मुस्लिम राज्यों में तब्दील हो गये थे। कश्मीर उस समय अफगानी आक्रमणकारीयों से त्रस्त था। कश्मीर के सारस्वत व अन्य जातियों अफगानी मुस्लमानों से इतने त्रस्त हो गये थे कि सबने मिलकर पंजाब के तत्कालीन महाराजा रणजीतसिंह से सहायता की गुहार लगाई। महाराजा की सहायता से काफी समय तक वहां शांन्ति स्थापित रही।

उत्तर भारत में जब शक्तिशाली क्षत्रिय राज्यों का उदय हुआ तो कुछ सारस्वत ब्राह्मण यहाँ से इन्द्रप्रस्थ, मथुरा, प्रयाग, काशी व अन्य स्थानों पर चले गये। कुछ राजपुताना (आज का राजस्थान), सिन्ध में आ गये तथा स्थानीय प्रजा के साथ घुलमिल गये। उनमें से कुछ कच्छ व द्वारका की तरफ बढ़ गये सारस्वतों के राजस्थान में प्रवेश का समय लगभग 9 वीं शताब्दी के आसपास का माना जाता है।

जो सारस्वत दक्षिण की तरफ गये थे वे "सारस्वत देश" से गंगा नदी का अनुसरण करते हुऐ त्रिहोत्रपुर यानी वर्तमान त्रिहुत जो उपरी बिहार में स्थित है, पर पहुंचे यह लगभग 300-400 ई.पू. का समय था ज्यादातर सारस्वत कान्यकुबज यानी वर्तमान कानपूर, मगध क्षेत्र में बस गये और "कान्यकुबज" कहलाये तथा मिथीला क्षेत्र में निवास करने वाले मेथिली सारस्वत । उस क्षेत्र में जो सामाजिक व्यवस्था सारस्वत ब्राह्मणों ने शुरू की थी आगे चलकर मौर्य वंश ने उसी का अनुसरण किया था।

       

         संस्कृत व परिस्कृत बुद्धि के कारण सारस्वत प्रजा जल्दी ही स्थानीय प्रजा के साथ घुलमिल गई थी। स्थानीय प्रजा खेती य अन्य पारम्परिक कार्य करती थी जबकि सारस्वत सर्वोत्तम व शिक्षीत होने के कारण जल्दी ही वैशाली के लिछयी राजघराने के मुख्य संचेतक बन गये। मगध सारस्वतों की उत्कृष्ट कार्यप्रणाली व शिक्षा के प्रसार के कारण शक्तिशाली मौर्य व पाल वंश का उदय हुआ। कुछ समय के बाद मुस्लीम आक्रमणकारियों के द्वारा पाल वंश का पतन हुआ पाल वंश के शासक मध्य भारत की तरफ पलायन कर गये। सारस्वतों का मगध देश में रहना एक बार फिर दुष्कर हो गया परिणामस्वरूप सारस्वत ब्राह्मणों ने भी मगध से पलायन शुरु कर दिया इस बार वे दो मुख्य घड़ों में बंट गये एक समुह जो कान्यकुबज सारस्वत का था पूर्व की तरफ बंगला यानी वर्तमान बंगाल की तरफ चला गया व स्थानीय रिती रिवाज अपना लिये तथा दूसरा समूह मिथीला से दक्षिण की तरफ चला जो मध्य भारत में गोदावरी नदी के किनारों पर पहुंच गया। सतयुग में वर्तमान नासिक शहर के पास पंचवटी में ही महान ऋषी अगस्त्य आश्रम बनाकर रहते थे। भगवान राम भी अयोध्या से गोदावरी नदी के सहारे सहारे वहाँ पर पहुचे थे। सारस्वत ब्राह्मणों में भी यही मार्ग अपनाया और गौराष्ट्र पहुंच गये जो आज का गोवा कहलाता है। समय बीतने के साथ उन लोगो ने गोदावरी नदी के सहारे सहारे पश्चिम समुन्द्र तट पर रहने वाली प्रजा के साथ सबन्ध स्थापित किये। वर्तमान उत्तर कन्नड जिले के गोकरण मण्डल विस्तार में बहुतायत से रहने लगे। दक्षिण भारत में सारस्वत ब्राह्मणों के रूप में आर्य जाती का यह सबसे बड़ा पलायन समूह था 1050 ईस्वी के लगभग त्रिहोत्रपुर से कुछ सारस्वत ब्राह्मण गोराष्ट्र आ गये त्रिहोत्रपुर गोड देश में स्थित था वर्तमान बिहार का उत्तरी गंगा नदी का क्षेत्र जो पटना शहर से 55 कि.मी. दूर है वहां से आये हुए सारस्वत ब्राह्मण "गौड सारस्वत कहलाने लगे। मगध व त्रिहोत्रपुर से गोमान्तक यानी गौराष्ट्र तक के सारस्वतों के सफर का वर्णन स्कंदपुराण के सहयाद्ररी खण्ड में भी मिलता है। गोवा चुनने का मुख्य कारण वहां की उपजाऊ भूमी व विशाल समुद्री किनारा था जहां से वे पूरे विश्व के साथ व्यापार कर सके। गोवा व कोकण में निवास करने का दुसरा मुख्य कारण गोवा के कदम्ब राजा जयकेशव (1050 1080 ईस्वी) व त्रिहोत्र के बीच वैवाहिक सबन्ध थे। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि दस गौत्र के 96 सारस्वत परीवारों को त्रिहुत राजा द्वारा कदम्ब राजा की विनती पर गोवा व कोंकण भेजा गया था ताकि धार्मिक विचार एवम् संस्कारों को सुव्यवस्थित तौर पर स्थापित किया जा सके तथा धर्म प्रचार व दर्शन की शिक्षा का प्रसार किया जा सके उधर 700-1000 ईस्वी के आसपास राजपूताना, कच्छ द्वारका व फिर पश्चिम भारत के समुन्द्र किनारे-किनारे सारस्वतों का समुह गोवा व कोकण पहुँच चूका था।

10वीं व 11वीं शताब्दी में कुछ सारस्वत परिवार थाणे व कल्याण आकर बस गये तथा समुन्द्री व्यापार शुरु किया. 12वीं शताब्दी तक सुदुर दक्षिण में मंगलोर त्रिचेरी, व कालीकट में भी काफी संख्या में सारस्वत ब्राह्मण जा कर बस गये थे उसी समय काफी सारस्वत परीवार गोकर्ण तरफ चले गये थे तथा बडी तादाद में भूमि खरीदकर बड़े जमीदार बन गये, कुछ विजयनगर राजघराने में सेवायें देना शुरू कर दिया. 1294 में माधवाचार्य के सम्पर्क में आने के बाद गोवा व आसपास के क्षेत्र के सारस्वत वैष्णव धर्म की और अग्रसर हुए पदमनाभ तिर्थ में वैष्णवत्व में दक्ष होकर उतरादी मठ के गादीपती बन गये, गोवा में स्थित तीन प्रमुख मठ पुर्तगाली मठ, काशी मठ व कवले मठ के मठाधीश सारस्वत ब्रह्माणं ही है। यह वर्णन तो था पूरे भारतवर्ष में सारस्वती के प्रवास का पर अब हम चर्चा करेगें राजस्थान में सारस्वत ब्राह्मणों के आगमन व उनके विकास का जब 300 ई.पू. के आसपास सारस्वत देश में सरस्वती नदी विलुप्त होने लगी व सने-सने खेती व पीने के पानी की कमी महसूस होने लगी तो एक लम्बी पलायन शृंखला शुरु हुई सैकड़ों वर्षों तक सरस्वती पूत्र उपयुक्त जगह तलाशते रहे इस दरमियान सारस्वतों का एक समूह दक्षिण-पश्चिम यानी पूर्वी सिन्ध व राजपूताना की तरफ बढ़ने लगा और 10 वीं शताब्दी आते आते भारत के पश्चिम समुन्द्री किनारे द्वारका होते हुए गोवा व कोकण तक फैल गया वे जहां से निकले वहां अपनी बस्तीयां बसाते चले गये इतिहासकारों के अनुसार राजपूताना यानी आज के राजस्थान में सबसे पहले सारस्वत ब्राह्मणों ने जहाँ से प्रवेश किया तथा अपनी बस्तीयों का निर्माण किया वो क्षेत्र आज का जैसलमेर क्षेत्र था इस क्षेत्र में सारस्वत काफी संख्या निवास करते थे तत्कालिन प्रजा में सबसे शिक्षित समाज होने के नाते सारस्वत सबसे भद्र गिने जाते थे तथा राज व्यवस्था में भी अहम स्थान था। उनमें से एक थे लुद्रजी जो तत्कालीन जैसलमेर रियासत के राजा जयसिंह के दरबार में दीवान थे राजा जयसिंह से किसी बात को लेकर अनबन होने पर लुद्रजी ने रियासत छोड़ दी व वि. स. 934 पौड़ी गढ़वाल के पास लुद्रगढ़ बसाया, उन्हीं लुद्रवजी की सातवीं पीढ़ी में श्री सरस जी महाराज का जन्म हुआ।

प्राचिन ग्रंथों में इस प्रदेश का नाम "मरु कान्तार था। यह पूरा इलाका सारस्वत सभ्यता का क्षेत्र कहलाता था। महाभारत में इस क्षेत्र को 'साल्व' और 'जांगल' कहा गया है। श्री गंगानगर जिले के भादरा, नौहर, हनुमान गढ़, सूरतगढ़ व अनूपगढ़ के क्षेत्र को 'सारस्वत मण्डल (याहयावार) कहा जाता था। कहा जाता है कि सारस्वत सभ्यता का विकास सरस्वती नदी के किनारे हुआ और उनके द्वारा आज से 28 हजार वर्ष पूर्व "बाहवमी लिपी का आविष्कार किया गया था। सरस्वती नदी के किनारों पर हजारों वर्षों तक सारस्वत ब्रह्मणो के नेतृत्व में यज्ञ हवन इत्यादि होते रहे फलस्वरूप इस प्रदेश का नाम सारस्वत प्रदेश पड़ गया। हरियाणा के हिसार, पाकिस्तान के बहाबलपूर जैसलमेर के लोवना का क्षेत्र तथा बीकानेर मण्डल

में आज भी सारस्वतों का बाहुल्य है। सर्वप्रथम ब्राह्मणों की दो जाति थी (1) पंचगोड (2) पंच द्रवीड यजुर्वेद का एक मंत्र है.

सारस्वता: कान्यकुब्ज गोडा: उत्कलमेथुला पंचगोड इतीवीरलीता बन्ध्याचल उतर बासीनी: करनाय कच्छ: तेलुगु : द्राविड महाराष्ट्रा: गुजरात पंच द्राविड वींध्याचलं उतरबासी ने

ब्राह्मणों की विक्रम संवत 1100 के आसपास पुष्कर में छन्न्यात इकट्ठी हुई, क्योंकि अन्य जाति भी ब्राह्मण समुदायों में मिलने लगी थी। इस बात को देखते हुऐ ब्राह्मणों के कूल पुरोहित ने सभी छ न्यात ब्राह्मणों को पुष्कर में इकट्ठा किया और उन छान्यात में अपनी अपनी जाति में एक राव यानी कुलपूरोहित चून करके उनको समाज की सेवा करने व समाज में अन्य जाति न मिल जाए इसका ध्यान रखने की व्यवस्था की। छान्याती ब्राह्मणों की जाति व्यवस्था इस प्रकार थी (1) सारस्वत ब्राह्मण 17 गौत्र 152 जातियां जिनका कुलपुरोहित (राव) मोर जोशी नाडल जी के पुत्र हरचन्द जी को

राव की उपाधी देकर समाज में घुमने व समाज की निगरानी रखने को कहा।

(2) पारीक ब्राह्मण: 12 गोत्र 108 जाति जिसका कुल पुरोहित (राव) महाकाम राम जी पुत्र माधव जी को बनाया गया। (3) दाधीच ब्राह्मण 12 गौत्र 100 जातिया जिसका कुलपुरोहित (राव) कुराडा जोशी जी धनाजी को बनाया गया। (4) गुजर गौड ब्राह्मण: 12 गोत्र 156 जातिया जिसका कुलपूरोहित (राव) धोलजी धामोतिया जोशी को बनाया गया।

(5) सिखवाल ब्राह्मणः 4 गोत्र 49 जाति जिसका कुलपुरोहित सुदोजी तडवाती को बनाया गया। (6) आदि गौड ब्राह्मण 24 गौत्र व 1444 जाति जिनका कुलपुरोहित राघव जी राडा जोशी को बनाया गया। उसके बाद महाराजा जयसिंह जी ने एक अश्वमेध यज्ञ किया जिसमें सभी छः न्याती ब्राह्मणों को बुलाया गया तथा सभी को समानित किया गया। अंत में वहीं निर्णय लिया गया कि सभी छान्याती ब्राह्मण अपनी-अपनी न्यात में ही भोजन व कन्या संबंध रखेंगे।

एक महान अलोकिक व बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे श्री सरस जी महाराज सारस्वतों के ही नहीं पूरे स्थानीय प्रजा के पूजनीय शासक थे। जैसलमेर के लोद्रवा गांव में जन्मे श्री सरसजी महाराज मंडोर राजदरबार में मुख्य दरबारी में नितीविषयक निर्णय में उनको मुख्य भूमिका रहती थी तथा एक बड़ी सेना उनके अधीन थी ये शासक के साथ-साथ देवीय शक्तियों से भी सम्पन थे। कहते है कि ई.स. 1104 (वि.सं. 1161) के आसपास मंडोर महाराजा से मनमुटाब के बाद उन्होंने • अपने अनुयायी सारस्वतों के साथ यह क्षेत्र त्याग दिया था। महाराणा ने क्षेत्र न छोड़ने के लिये काफी याचना कि परन्तु धुन व खमीर के पक्के श्री सरसजी महाराज ने निर्णय नहीं बदला। चलते-चलते श्री सरसजी महाराज अपने अनुयाययों (सारस्वत) के साथ आज के नागौर क्षेत्र में आकर रहने लगे जो उस समय अहिच्छत्रपुर के नाम से जाना जाता था श्री सरसजी की ख्याति दूर-दूर फैली हुई थी। नागौर के तत्कालिन महाराजा पृथ्वीराज प्रथम को मालूम पढने पर स्वयं आकर के उनका आदर सत्कार किया तथा नागौर राज्य में ही निवास करने का निवेदन किया। यह घटना लगभग ई.स. 1105 (वि.स. 1162) के आसपास की है। कर इतिहास में एक घटना का वर्णन है कि महाराणा पृथ्वीराज असाध्य बिमारी कोढ से पिडित थे, वैध-हकीमों को लाख कोशिशों के बाद भी इलाज सम्भव नहीं हुआ हारकर उन्होंने श्री सरसी जी महाराज से याचना की। इस तरह देवीय शक्यिों से सम्पन श्री सरसजी ने महाराजा को इस असाध्य बिमारी से निजात दिलाई। महाराजा ने प्रसन्न होकर जांगल प्रदेश के 1444 गांवों का सूबेदार नियुक्त किया। यहाँ के तत्कालीन दीवान हरनंद नागवंशी इस बात से बहुत खिन्न थे श्री सरसजी महाराज ने गहलोत राजपुत वंश (सिसोदिया) में पैदा एक अपंग बालक को गोद लिया जिनके वंशज गोदारा कहलाये श्री सरसजी महाराज ने ई.स. 1113 यानि वि.सं. 1170 कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष का का अपने नाम पर नय नगर सरसगड राजपूत राजाओं द्वारा नाम बदल वर्तमान श्रीडूंगरगढ़ नींव रखी तथा अपनी राजधानी स्थापित की। इस प्रसंग में एक जनश्रुति है कि नागौर महाराजा ने श्री सरसजी महाराज को कहा कि शाही रसाले में से आप मनपसंद ऊंट ले लीजिए तथा इस ऊंट से सुबह | साय तक जितने गाँवों की जमीन को आप घर लेंगे उस इलाके का राज्य आप करेंगे। पहले तो निःस्वार्थी व संत प्रवृत्ति के श्री सरसजी महाराज ने इस तरह की कोई शर्त मानने से इन्कार कर दिया पर महाराज, के काफी विनंती करने पर एक मरायल व कमजोर दिखने वाली 'माही' ऊटनी (स्योड) लेकर चल पड़े ईश्वरीय चमत्कार से साँझ होते-होते उस मरियल सी ऊंटनी ने काफी बड़े भू-भाग का चक्कर लगा लिया था पर वर्तमान कालू कस्बे के माँ कालका मन्दिर के आगे आकर गिर गयी जहाँ कभी माँ कालका की मूर्ति (देवळ) को अलावा जंगल हुआ करता था, श्री सरसजी महाराज को माता का दृष्टान्त हुआ व कहा कि हे वीर पुरुष मैने तेरी कटनी के घुटने में सोने की मेख (कील) लगा दी है उठ और अपना उद्देस्य पूरा कर ऊटनी ठीक हुई व सही सलामत नागौर पहुंच गई तथा पहुंचने के बाद गिर कर प्राण त्याग दिये। इस प्रसग पर एक लोकोक्ति प्रचलित है

सरस भयो असवार, चंदे घर पेलती गई स्यांड टूट भू पर पड़ी,

प्रगट भई माय, आकाशवाणी तब हुई।

महाराजा ने श्री सरसजी महाराज के बताये प्रसंग को परखना थाहा पर वास्तव में ऊंटनी के घुटने में सोने की कील निकली। उस ऊंटनी की याद में एक दरवाजे का निर्माण करवाया गया जो आज भी नागौर में "माही दरवाजे के नाम से प्रसिद्ध है बताया जाता है कि श्री सरस जी महाराज ने 1444 गांव के भू भाग को घेरे में ले लिया था इस कारण जांगल प्रदेश अश्री गंगानगर, बीकानेर व नागौर) के अधिकतर गांवों के नाम के आगे "सर" लगाया जाता है कालुखेड का माँ कालका

मन्दिर भी अति प्राचीन व मूर्ति स्वयंभू है जहां आज भव्य मन्दिर खड़ा है। श्री सरस जी महाराज ने लगभग 50-55 सालों तक राज्य किया। उनके वंशजों में श्री परसरामजी भी एक अच्छे शासक थे उन्होंने परसनेऊ गांव बसाया था। ये भी चमत्कारिक पुरुष थे। मुस्लिम आक्रमणों के विरुद्ध मेवाड़ के सिसोदिया व टॉक राजघराने से उनकी संघी थी। उनका देहावसान अलग आयु में ही हो गया था। उन्होंने मेवाङ (चित्तीङ) के सिसोदिया राजकुमार को गोद लिया था जिसके वंशज गोदारा (जाट) कहलाये। सरम जी के वंशज झझरीक एक प्रसिद्ध राजा हुए जिन्होंने ई.स. 1206 में झझेऊ गांव बसाया था। उधर कन्नौज (वर्तमान उज्जैन) में तंवर राजघराने का पतन हो गया था तवरी को इधर उधर भागना पड़ा। उनके कुछ सरदारों में महाराज झंझरीक के राज्य में शरण ली थी उनमें कलिया (पवर) राजपूत सरदार भी था उन्होंने महाराज महाराज झंझरीक से बेटी की शादी के लिये गढ मांगा। मितव्ययी महाराज झझरीक ने गढ़ दे दिया। एक सच्चे राजपूत वंश को शान से उलटा छल व कपट पर टिके तथा कबीलाई व्यवस्था के पराधिन तन तथाकथित राजपूत सरदारों ने गढ़ वापस देने से इन्कार कर दिया। महाराज झंझरीक ने अपनी वंश परम्परा व उत्कृष्ट संस्कारों के

अनुरूप झगडना उचित नहीं समझा तथा इस विश्वासघात से क्षुब्ध हो कर बाप दे दिया "फलो फूल गोदारा, कलियां जाओ निस्तारा"

उन ना समझ तथा सत्ता लोलूपों को क्या मालूम था कि यह अन्तरात्मा से निकली श्राप रूपी हाय तुम्हारे कुल का ही नामो निशान मिटा देगी। आत्मग्लानि के कारण महाराज झंझरीक ने आत्मदाह करने का निर्णय लिया। सारस्वतों के आशिर्वाद से ही अस्तित्व में आये गोदारों ने महाराज को ऐसा न करने का अनुरोध किया तथा महाराज के पक्ष में लड़ने का निश्चय किया परचुन के पक्के महाराज झंझरीक अपने निर्णय से जरा भी अडिग नहीं हुए। वहां उपस्थित गोदारा को तिलक लगाकर सरसगढ़ के पास वर्तमान (मोमासर बास) में चिता जलाकर जलती ज्वाला में भस्म हो गये। उनके आत्मदाह के बाद उनके परीवार व काफी संख्यों में उनके अनुयायी सारस्वतों (सारस्वों) ने भी सामूहिक चिताएं जलाकर प्राण त्याग दिये थे। • डेड (नागौर) के गुरावों की बेटी जो सारस्वतों में ब्याही हुई थी अपने पिहर गई हुई थी उसके पेट में पल रहा बच्चा बच गया जो एक मात्र सारस्वा वंश का कारक बना। वे रामदेव के नाम से प्रसिद्ध हुए उनके तीन पुत्र हालू, महादेव व भोजा हुए। उन्होंने माघ सुदी एकादशी वि. सं. 1253 (ई.स. 1193) में रुणिया बसाया सारस्वा (सारस्वत) उनकी संतान है।

इस तरह सारस्वतों के एक और स्वर्णिम राजनैतिक अध्याय का अंत हो गया। राजनैतिक शून्यता के कारण सारस्वत ब्राह्मण बिखरने लगे। सामाजिक व आर्थिक तौर भी पिछड़ते चले गये। सामाजिक जड़ता के कारण संकुचित दायरे में सिमट कर रह गये । तत्कालिन अन्य समुदायों की तुलना में सिर्फ बेचारे से बन गये। इसमें भी विशेषकर जांगल प्रदेश के सारस्वत परीवार अधिक परेशानी में थे रेगिस्तानी प्रदेश में प्राकृतिक परोस्थितियां भी विपरीत भी विशेषकर पानी की किल्लत असहनीय थी। कभी 152 जातियों से भरी जातियों से भरी-पूरी इस सारस्वत बिरादरी में स्थानीय सुविधाओं के आधार पर भेदभाव पनपने लगा था। बीकानेर, चूरु श्री गंगानगर व पश्चिमी नागौर क्षेत्र के सारस्वतों की बजाय अन्य क्षेत्र जैसे जयपूर, जोधपूर व अजमेर क्षेत्र सारस्वत कृषि व पानी जैसी सुविधाओं से सम्पन थे। उनमें शिक्षा का प्रसार भी पश्चिमी राजस्थान की बजाय ज्यादा था। उनमें जैसे यह मानसीकता ही बन गई कि सही मायने में हम ही उच्च है। वे इन्हें हीन दृष्टी से देखते थे। इस इलाके में लडकीया देना तो लगभग बंद ही कर दिया था। एक वाकया प्रसिद्ध है कि एक बार इस सबन्ध में गांव खारा के श्री कुशलाराम जी सारस्वा अपनी बेटी से मिलने डिडवाना गये बेटी के ससुराल वाले कॉफी धनवान व सम्पन्न थे। उन्होंने श्री कुशलारामजी का अपमान किया। इस बात पर क्रोधित होकर उन्होंने ठान ली कि मैं बिरादरी को इक्ट्ठा करुगा तथा प्रण लेंगे की इन लोगों से न लडकी लेगें और नहीं यहां अपनी लडकी देंगे। इस तरह कुण्डिय के प्रस्ताव को शुरुआत हुई। यहाँ में आपको बता दु की मोट जाति का उत्पत्ति मूल रूप में जोधपूर जिले के पालडी गांव से हुई है। इस तरह लगभग 300 साल तक पश्चिम राजस्थान के सारस्वतों का इतिहास अंधकारमय रहा। 16 वीं शताब्दी के प्रारम्भ कुछ सामाजिक आगेवानों में अपने ही समाज में हो रहे भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई तथा बिना भेदभाव के समाज को एक करने के अथक प्रयास किये पर कोई भी हल नहीं निकला आखिकार सभी तरह से विचार विमर्श करने के बाद वि संवत 1607 ई.स. 1550 में रिडी गाँव में पूरे बीकानेर समाग के सारस्वतों का सम्मेलन हुआ व पहली बार हदबंदी की घोषणा को जिसमें पूरा चूरू का क्षेत्र, पूर्व में नागौर से फतेहपूर तक का क्षेत्र दक्षिण में नोखा से कोलायत तक व उत्तर में बीकानेर व हनुमानगढ़ से अनूपशहर तक का क्षेत्र रखा गया था। इस निर्णय को लेकर भी लगभग 100 सालों तक अनिश्चिता का माहौल रहा इस प्रयास की सफलता के सदह के कारण हदबंदी (कुण्डिय) के बाहर के सारस्वतों से अपमान व मखाल भी सहना पड़ा कुछ सम्पन परीवारो के हदबंदी के बाहर भी सम्बंध जारी थे. इस व्यवस्था को और सुदृढ व निति-नियम के साथ लागू करने के लिये गांव-गांव व ढाणी-ढाणी सम्पर्क स्थापित किये गये व समितियां बनायी गयी। उस समय शहरों में निवास करने वाले सारस्वतों का भी सहयोग व विश्वास प्राप्त किया गया जिसमें औझा मुख्य थे उनमें से कुछ के बीकानेर राजघराने से मधुर सम्बन्ध थे। ताकि जरुरत पडने पर राजनैतिक सहयोग प्राप्त किया जा सके। अंत विचार विमर्श व मवन के बाद बीकानेर श्री करणीसिंह जी के सानिध्य में गाव खारडा में पूरे संभाग के सारस्वत ब्राह्मणों का सम्मेलन रखा गया जिसमें सारस्वतों की 152 जातियों में से 22 जातियों ने सर्वसम्मति से कुण्डिय व्यवस्था के अधिन रहना स्वीकार किया तथा वि.सं. 1707 की पौष सुदी सप्तमी दिनाक 29 दिसम्बर 1650 बार बृहस्पतिवार को पूर्ण रूप से कुण्डिय सारस्वत समाज की स्थापना की गयी जिनमें मुख्य निर्णय था कुण्डिय सारस्वत समाज बाहर बेटी व रोटी का व्यवहार में रखना सामाजिक संविधान का चौक जुड़ने के समय अनावश्यक वाद-विवाद व तौहीन जैसी अंवाछनिय प्रवृत्तिया नहीं कर सकते। चोक में बैठने पर सिर पर साफा व पगड़ी पहनना अनीवार्य है। जो अपने को हमारी संस्कृति समाज में समानता व समाज का सम्मान करना हर एक सारस्वत बंधु का नैतिक कर्तव्य है। जैसे नैतिक जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक रखता है। सरस्वती पुत्र अनादिकाल के प्रकृति जल, कलश, स्वास्तिक व विद्या की देवी माँ सरस्वती की पूजा करते थे और आज भी चौक जैसे शुभ अवसर पर सर्वप्रथम दुर्बा, खेजड़ी, श्रीफल (प्रकृति), जल से भरा कलश, कुलगुरू राय के पौधे (विद्या एवं माँ सरस्वति की पूजा व स्थापना करते हैं। इस निरपक्ष न्याय प्रणाली का ही योगदान रहा है। जिसके कारण हमारी यह नौ-हद सारस्वत बिरादरी (कुण्डिय) लगभग 350 सालों में एक सूत्र में बंध कर रह रही है।

नियम तोड़ने पर सजा का प्रावधान किया गया। तत्कालीन सभ्य समाज में यह पहला अलिखित सामाजिक संविधान था जिसके तहत किसी भी प्रकार के सामाजिक वादविवाद को सुलझाने का भरसक प्रयास रहता था। हमारे समाज की न्याय व्यवस्था राजदरबारों में भी प्रशंसा की पात्र रही है। थाम्बा, पंचडगराव कामदार के माध्यम से पूरी न्याय प्रणाली का विकेन्द्रियकरण किया गया औरतों को विशेष सामाजिक सुरक्षा प्रदान की गयी थी। हमारे बुजुगों ने मृत्यु जैसे अवसर को भी न्याय जैसे पवित्र व नेक कार्य से जोड़कर एक सकारात्मक सोच का परीचय दिया था। इस अवसर पर मेला, तेरह गुवाद और पैतालीसा जैसी पंचायत प्रणालीयों के आयोजन के माध्यम से समाज में विश्वास व एकजुटता को बनाये रखा। न्याय प्रणाली के प्रथम प्रेरक अनुशासन को सबसे ज्यादा महत्ता दी गयी यहा तक की चोक (पंचायत) में बादी, परीवादी तथा सामाज के अन्य लोगों के बैठने तक का स्थान निश्चित रहता है।

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में देश आजाद होने के बाद आवागमन के साधनों में वृद्धि हुई तथा शिक्षा का प्रसार हुआ। सारस्वत समाज के बंधुओं ने भी आजीविका के लिए भारत के दूसरे राज्यों की ओर रुख किया। उनमें शहरी क्षेत्र के सारस्वतों की संख्या ज्यादा थी, उन राज्यों में आसाम व बंगाल मुख्य थे धीरे धीरे अपने संबंधों के आधार पर ग्रामीण क्षेत्रों से भी काफी लोग इन राज्यों में गए व अपनी लगन व मेहनत से अच्छा खासा धन व यश अर्जित किया। व्यापार में सेवा के क्षेत्र में सक्षमता के कारण सामाजिक जीवन धारण में काफी सुधार हुआ। उधर राजस्थान नहर (अब इंदिरा गांधी नहर) के सफल आयोजन के कारण कभी बीहड़ व सूखा रेगिस्तानी जांगल प्रदेश श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, विजयनगर सूरतगढ़ पीलीबंगा फसल उत्पादन में मालामाल हो गया। सारस्वत समाज की बहुत बड़ी संख्या को उसका लाभ हुआ। आज हमारे समाज के परिवार पंजाब हरियाणा के सुदूर गांवों तक फैल गए हैं। तथा एक क्षेत्र विशेष तक में सीमित सारस्वत कुडिया ने महासागर का रूप ले लिया है अतः सामाजिक नीति निर्देश भी समय अनुसार बदलने चाहिए। सारस्वत हर क्षेत्र में सुदृढ़ हैं। पश्चिम राजस्थान के रवाजुवाला रावला, घड़साना, लूणकरणसर व बीकानेर की अनाज मंडियों में अच्छी खासी उपस्थिति है। सेवा के क्षेत्र में काफी लोग हैं राजनैतिक रूप से भी ठीक-ठाक पैठ बनाई है। लेकिन संख्या बल होते हुए भी एकता के अभाव में विशेष राजनैतिक उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाए हैं। बहुत से लोग कानूनी पेशे से जुड़े हुए हैं। प्रशासनिक सेवाओं में उपस्थिति ना के बराबर है। समाज से संबंधित क्रियाकलापों को बढ़ावा देने की कोशिश की गई है पर खास प्रगति नहीं हुई है। आज की युवा पीढ़ी समाज के साथ शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ रही है।

कल्हण के राजतरंगिणी (१२वीं सदी) में विन्ध्याचल के उत्तर में रहने वाले पाँच ब्राह्मणों (मैथिल ब्राह्मण, कान्यकुब्ज ब्राह्मण, उत्कल ब्रह्मण, गौड़ ब्राह्मण, सारस्वत ब्राह्मण) में से एक है।[2]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Shree Scanda Puran (Sayadri Khandha) -Ed. Dr. Jarson D. Kunha, Marathi version Ed. By Gajanan shastri Gaytonde, published by Shree Katyani Publication, Mumbai
  2. डी॰ श्याम बाबू और रविन्द्र एस॰ खरे, संपा॰ (2011). Caste in Life: Experiencing Inequalities (अंग्रेज़ी में). पीयर्सन एजुकेशन इंडिया. पृ॰ 168. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788131754399.