सामाजिक यथार्थ

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सामाजिक यथार्थ (social reality) से तात्पर्य "समाज से सम्बन्धित किसी भी घटनाक्रम का ज्यों का त्यों चित्रण" है। दूसरे शब्दों में, समाज में घटित होने वाली सच्ची घटनाओं का यथार्थ चित्रण ही सामाजिक यथार्थ कहलाता है।

यथार्थ शब्द का प्रयोग सत्य, वास्तविकता, वस्तुस्थिति आदि कई अर्थों में किया जाता है। यथार्थ के स्वरूप और चरित्र के बारे में अनेक साहित्य चिंतको एवं मनीषियों ने अपने-अपने मंतव्य प्रकट किए हैं। साहित्य में वह सभी यथार्थ माना जाता है जिसमें साहित्यकार की स्वयं की अनुभूति होती है और जिसे वह दूसरों को भी अनुभव करा सकता है। सामाजिक यथार्थ से ही साहित्य में अभिरूचि उत्पन्न होती है। साहित्य और समाज एक दूसरे के परिपूरक हैं। साहित्य समाज से सामग्री ग्रहण कर हमें मार्ग दर्शन कराता है।

साहित्य तथा यथार्थ दोनों में कल्पना का सत्य रूप विद्यमान रहता है। परन्तु यह कल्पना कोरी कपोल कल्पना न होकर यथार्थ को सुन्दर से सुन्दरतम् ढंग से प्रस्तुत करने के लिए ताने-बाने के रूप में प्रयुक्त होती है। लेखक अपनी रचना में अपने आस-पास के वातावरण को या उस समाज को चित्रित करता है जिसमें वह अपना जीवन व्यतीत करता है। साहित्यकारों ने अपने साहित्य में समाज में व्याप्त वर्ग संघर्ष, सामाजिक विषमता, दरिद्रता, जीवन की असंगतियॉं, काम कुण्ठाएँ और सदियों से सामाजिक और पारिवारिक दमन के दुहरे चक्र में पिसती बेबस अपमान और प्रताड़ना के जाल में छटपटाती समाज के लिए सर्वस्व लुटाती नारी की ओर विशेष रूप से समाज का ध्यान आकृष्ट किया है।

सामाजिक यथार्थ की अवधारणा बदलती रहती है। सामाजिक यथार्थ युगीन परिस्थितियों पर अवलम्बित रहता है।

यथार्थ चेतनाओं को अलग-अलग ढंग से आधुनिक काल के दो मनीषियों- मार्क्सफ्रायड ने मुखरता प्रदान की है। मार्क्स के अनुयायियों ने सामाजिक यथार्थ को महत्ता दी है और फ्रायड ने अन्तर्मन को ही सत्य माना है। महान कथाकार प्रेमचन्द ही हिन्दी के सबसे पहले यथार्थवादी उपन्यासकार थे जिन्होंने यथार्थवाद को बाह्य व आन्तरिक रूप से परखा है।