समस्या-पूर्ति

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समस्या-पूर्ति या समस्यापूरण भारतीय साहित्य में प्रचलित विशेष विधा है जिसमें किसी छन्द में कोई कविता का अंश दिया होता है और उस छन्द को पूरा करना होता है। यह कला प्राचीन काल से चली आ रही है। यह कला चौंसठ कलाओं के अन्तर्गत आती है। समस्यापूर्ति विशेषतः संस्कृत साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है।

ऐसे भी उदाहरण हैं जिसमें कुछ विद्वानों ने कालिदास द्वारा रचित मेघदूतम् की प्रत्येक कविता की प्रथम पंक्ति ज्यों का त्यों 'समस्या' के रूप में लेकर स्वयं उसकी पूर्ति की है।

हिन्दी साहित्य में समस्यापूर्ति[संपादित करें]

हिन्दी साहित्य के भारतेन्दु युग में गृहीत रीतिकालीन काव्यशैलियों में “समस्यापूर्ति ” पर्याप्त लोकप्रिय काव्यपद्धति प्रचलित हुई। कवियों, लेखकों की प्रतिभा और लेखनी कौशल का परखने के लिए कविगोष्ठियों और कवि-समाजों में कठिन-से-कठिन विषयों पर समस्यापूर्ति करायी जाती थी। इसमें भारतेन्दु द्वारा काशी में स्थापित “कवितावर्द्धिनीनीसभा ”, कानपुर का “रसिक समाज”, बाबा सुमेर सिंह द्वारा निज़ामाबाद (वर्तमान आजमगढ़ ) में स्थापित “कवि समाज ” आदि ऐेसे ही मंच थे जहाँ नियमित रूप से कवि गोष्ठियाँ होतीं थीं और किसी भी संदर्भित विषय में “ समस्यापूरण ” ( समस्यापूर्ति ) को प्रतियोगिता के रूप में प्रोत्साहित किया जाता था। प्रतिष्ठित कवि इनमें प्रतिभाग करने में संकोच नहीं करते थे तथा नये नौजवान कवियों -लेखकों का इससे उत्साहवर्द्ध न होता था। कानपुर के प्रतापनारायण मिश्र द्वारा ‘पपीहा जब पूछिहैं पीव कहाँ ’ शीर्षक वाली रचना की अधोलिखित पंक्तियाँ कितनी हृदयस्पर्शी बन पड़ी हैं , देखिए-

बन बैठि है मान की मूरति-सी , मुख खोलत बालै न ‘नाहीं ’ न ‘ हाँ ’ ।
तुम ही मनुहारि कै जारि परे , सखियान की कौन चलाई तहाँ।
बरषा है ‘प्रतापजू ’ धीर धरौ , अब लौं मन को समझायो जहाँ।
यह ब्यारि तबै बदलेगी कछु , पपीहा जब पूछिहै ‘ पीव ’ कहाँ ?

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

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