समयमातृका

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समयमातृका क्षेमेंद्र द्वारा रचित हास्य प्रहसन का अत्युत्तम ग्रंथ है। क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रंथों के रचना काल का उल्लेख किया है, जिससे इनके आविर्भाव के समय का परिचय मिलता है। कश्मीर के नरेश अनन्त (1028-1063 ई.) तथा उनके पुत्र और उत्तराधिकारी राजा कलश (1063-1089 ई.) के राज्य काल में क्षेमेन्द्र का जीवन व्यतीत हुआ। ‘समयमातृका’ का रचना काल 1050 ई. है। समयमातृका में क्षेमेन्द्र ने वेश्याओं और वेश का बड़ा ही जीवित खाका खींचकर उनके फेर में फँसनेवालों की खिल्ली उड़ाई है। विषय की दृष्टि से समयमातृका, अभिनवगुप्त द्वारा रचित कुट्टनीमतम् के सदृश है। कुट्टनीमतम् की तरह समयमातृका की रचना का उद्देश्य भी कुट्टनियों के जाल से धनी युवकों को दूर रखना है ताकि उनको वेश्याओं द्वारा लुटे जाने से बचाया जा सके।

क्षेमेन्द्र ने 'समयमातृका' की रचना १०५० ई० में की थी। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि उन्होंने इस प्रवन्ध का निर्माण उस समय किया था जब कि उनकी कवित्वशक्ति एवं अनुभव पूर्ण परिपक्व हो चुका था। इस ग्रन्थ के बाद उन्होंने केवल 'सेव्यसेवकोपदेश', 'दशावतारचरित', और 'चारुचर्या' की रचना कर अपनी जीवन-लीला समाप्त की थी। इस प्रकार यह प्रबन्ध कवि की समग्र प्रौढ़ि को एकसाथ समेटे हुए पाठकों के समक्ष अपनी चारुता को प्रदर्शित करता है।

'समयमातृका' आठ "समयों" (अध्यायों) में विभक्त ६३५ श्लोकों का एक प्रबन्धकाव्य है। इस ग्रन्थ की केवल एक ही पाण्डुलिपि प्राप्त हुई है जिसमें अनेक स्थानों पर पाठ भ्रष्ट हो गया है जिसे पढ़ा नहीं जा सकता। क्षेमेन्द्र ने इसके निर्माण का एकमात्र उद्देश्य वेश्याओं, कुट्टिनियों तथा विटों से श्रीमानों-धनिकों की सम्पत्ति-रक्षा ही बतलाया है : "श्रीमतां भूतिरक्षायै रचितोऽयं स्मितोत्सवः" । जैसा ऊपर निर्देश किया गया है, क्षेमेन्द्र की लेखनी का एकमात्र उद्देश्य सहृदय व्यक्तियों का मनोरञ्जन ही न होकर समाज में प्रसृत कुप्रवृत्तियों, अनाचारों, व्यभिचारों तथा वञ्चकता का उन्मूलन कर स्वस्थ वातावरण का निर्माण भी था। उन्होंने ग्राम के पटवारी से लेकर न्यायधीश के कार्यों तक की एकसमान आलोचना की है-

उत्कोचारब्धसंघट्टैर्भट्टैः कूटरथादिभिः ।
सादिष्टाभीष्टसंपत्तिर्जग्राह जयपट्टकम् ॥ २.४२॥
( अपने इस मुकदमे के प्रसंग में मृगवती ने न्यायाधीशों को पर्याप्त घूस दिया। उत्कोच (घूस) लेने के कारण परस्पर संघटित हुये, छल-कपट में आकर उन भट्टों (न्यायाधीशों) ने, सम्पत्ति की लोभी उस स्त्री को गृहरूपी सम्पत्ति पर उसके अधिकार का आदेश दे दिया । इस प्रकार उसने विजयपत्र को ग्रहण किया।)

विशेषताएँ[संपादित करें]

  • इस ग्रन्थ में यह स्थापित किया गया है कि वेश्या को यदि अपने पेशे से पैसा कमाना है तो उसके लिए कुट्टनी के रूप में एक अत्यन्त योग्य एवं अनुभवी प्रबन्धक रखना चाहिए, अन्यथा कुछ भी नहीं मिलेगा और अव्यवस्था फैली रहेगी।
  • वेश्या गृहों के वर्णन से ऐसा लगता है कि वे पक्के होते थे, कई मंजिला होते थे। वेश्याएँ ऊपरी मंजिलों पर रहतीं थी।
  • वेश्यावृत्ति के सभी पहलुओं और वेश्यालय में होने वाले विभिन्न क्रियाकलापों का विस्तार से वर्णन है। प्रदोष (सायं), रात में, सुबह क्या-क्या होता है, सबका वर्णन है।
  • वेश्यावृत्ति के साथ जुड़े विभिन्न उप-वृत्तियों (कुट्टनी, दासी, विट, मद्य देने वाले आदि) का वर्णन है।
  • वेश्याओं द्वारा अपनाये जाने वाले विभिन्न छल-कपट, कृत्रिम आचरण, आदि को दर्शाया गया है।
  • विभिन्न प्रकार की ठगी करने वालों का भण्डाफोड़ किया गया है।
  • समाज में बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्ट आचरण को सामने लाया गया है और उनकी खिल्ली उड़ायी गयी है। वैद्य, ज्योतिषी, मठाधीश, तपस्वी, भिक्षु, आदि के भ्रष्ट आचरण दिखाए गये हैं।
  • दिखाया है कि सेनाधिकारी, कोतवाल, पटवारी, काराधिकारी, न्यायधीश (भट्ट), कोशाधिकारी, अमात्य आदि वेश्यालयों में छुपकर जाते हैं और कुमार्ग से छुपकर निकल जाते हैं।
  • देवालय में, कारागार में, मठ में सम्भोग वर्णित किया गया है।
  • कुट्टनी के मुँह से ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी देवताओं को बुद्धिहीन बताया गया है।
  • धन की महिमा का वर्णन है और बताया गया है दुनिया में बुद्धिहीनों की कमी नहीं है, इसलिए बुद्धि से धन कमाना चाहिए। दिखाया गया है कि धन से ब्रह्महत्या का पातक भी दूर किया जा सकता है।
  • सौन्दर्य के अ-स्थायित्व को बार-बार बताया गया है और वेश्या को समझाया गया है कि सौन्दर्य के रहने तक ही उसे पर्याप्त धन अर्जित कर लेना चाहिए।
  • अल्पवयस्क बालक द्वारा वेश्या के साथ सम्भोग दिखाया गया है। इतना ही नहीं, बताया गया है कि उस बालक ने वेश्या को सम्भोग में छका दिया। यह बात थोड़ी विचित्र लग सकती है।
  • दिखाया गया है कि वेश्यालय में मद्य (मदिरा) एवं पान का सेवन खूब होता है।
  • वेश्या द्वारा मत्स्य, मांस, मद्य का सेवन दिखाया गया है।
  • रचनाकार ने कामुकों के राग के विभिन्न प्रकार गिनाए हैं और संक्षेप में उनका वर्णन किया है। रागों के नाम विभिन्न रंगों, धातुओं आदि पर रखे गए हैं।
  • इस ग्रन्थ की भाषा कठिन है। संस्कृत के बहुत से अप्रचलित शब्दों का प्रयोग हुआ है।

कथावस्तु[संपादित करें]

नवयौवना मन्दोन्मत्त वेश्या 'कलावती' और वृद्धा कुट्टिनी 'कङ्काली' के द्वारा फेंके गये जाल में (षड्यन्त्र में) तत्कालीन काश्मीर-भूमि के प्रसिद्ध धनी व्यवसायी "शङ्ख" का स्वल्पवयस्क बालक "पङ्क" आकर फंस जाता है। पहले तो ये दोनों उसका बहुत आदर-सम्मान करती हैं। किन्तु कुछ समय के अनन्तर, उत्तराधिकार में प्राप्तव्य उसकी सम्पूर्ण पैतृक सम्पत्ति को अधिकरणपत्र ( दस्तावेज ) पर 'कलावती' के नाम से लिखवा कर एवं उसके पिता से भी एक लाख मुद्राएँ ठग कर, उसको फटा कम्बल का टुकड़ा पहना कर अपने घर से निकाल देती हैं।

इसके अतिरिक्त कथा की पृष्ठभूमि के रूप में 'कङ्काली' का सम्पूर्ण चरित, प्रदोषवेलावर्णन, राग-भेद-वर्णन आदि भी बड़ी ही विदग्धता के साथ वर्णित हैं, जो कथावस्तु को अग्रसर करने में पूर्ण सहायक बनते हैं। इसमें 'कंकाली' नामक वृद्धा कुट्टनी, 'कलावती' नामक नवयुवती वेश्या को उपदेश दे रही है। 'कंकाली' का शाब्दिक अर्थ है, "जिसके शरीर पर मांस न बचा हो, केवल हड्डियाँ शेष हों"। अपने उपदेश में कंकाली वे सब विधियाँ सिखाती है कि कैसे धनी वणीकपुत्रों का सब कुछ उनसे लिया जा सकता है।

आठ समय
(१) प्रथमः समयः (चिन्ता-परिप्रश्नः)
(२) वितीयः समयः (चरितोपन्यासः)
(३) तृतीयः समयः ( प्रदोष-वेश्यालाप-वर्णनम् )
(४) चतुर्थः समयः ( पूजाधरोपन्यासः )
(५) पञ्चमः समयः ( राग-विभागोपन्यासः )
(६) षष्ठः समयः ( दूत-प्रेषणम् )
(७) सप्तमः समयः ( कामुक-समागमः )
(८) अष्टमः समयः ( कामुक-प्राप्तिः )

प्रथम समय[संपादित करें]

कथा कश्मीर प्रदेश के 'प्रवरपुर' नामक नगर की है। उसी नगर में कलावती नाम की अति सुन्दरी वेश्या रहती थी। प्रथम समय (चिन्ता-परिप्रश्न) में अपने प्रासाद के छत पर खड़ी होकर नीचे देखती हुई कलावती ने कङ्क नामक एक नाई को देखा और संकेत करके उसे ऊपर बुलाया। कंक ने कलावती की चिन्ता का कारण पूछा। कलावती ने बताया कि वैद्य ने उसकी नानी को मार डाला जो उसके घर-सम्पत्ति की रक्षिका थी। उसके मरने के बाद मेरे घर से निर्धन किन्तु बलशाली व्यक्ति निकालने पर भी नहीं निकलते, जिससे धनी व्यक्ति मेरे पास आने ही नहीं पाते (अतः कमाई नहीं हो पाति)। यह सुनकर कंक ने कलावती को समझाया कि इस समय दुःख का परित्याग कर अपने मन को स्थिर कीजिये और गृह की रक्षा के लिये किसी कृत्रिम (अर्थात् वेतन पर काम करने वाली) जननी ( कुट्टिनी) की नियुक्ति कीजिये। क्योंकि जिस वेश्या के घर में कुट्टिनी नहीं रहती वहाँ कामुकजन धृष्टता करते ही हैं। इसलिए हे मानिनी! अत्यधिक धन की अभिवृद्धि के लिए प्रपंच एवं षड्यन्त्र में प्रवीण किसी माता (रक्षाकर्त्री) का अन्वेषण तुम्हे करना चाहिए।

द्वितीय समय[संपादित करें]

द्वितीय समय में कंक (नाई) ने कलावती को कंकाली कुट्टिनी की बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक की कहानी को बड़े विस्तार से सुनाया है। कंकाली का मूल नाम 'घर्घटिका' था। उसकी माँ का नाम 'भूमिका' था जो परिहासपुर के एक धर्मशाला में सेविका थी। घर्घटिका सुन्दर थी किन्तु चोर-प्रवृति की थी। लोग उसे पूर्णिमा आदि पर्वों पर भोजन कराने के लिए बुलाते तो वह उनके घर से ही पूजा के बर्तन आदि झटक लाती थी। जब वह ७ वर्ष की थी तभी वह वार्तालाप में बहुत निपुण बन गयी थी। अपने वार्तालाप के द्वारा वह लोगों का मनोरंजन किया करती थी। उसकी इस प्रवीणता को देकर उसकी माँ ने उसे बाजार में 'जालवधा' नाम की एक अन्य स्त्री के हाथ बेच दिया। उसके बाद वह चुम्बनदान एवं कोमल आलिंगन आदि द्वारा कामुक जनों का मनोरंजन करने लगी। उसने सबसे पहले 'पूर्णिक' नाम के कुमकुम का व्यापार करने वाले एक धनिक वणिक के पुत्र के साथ रात्रि गमन किया। संभोग के बाद जब वह मदिरा के नशे में सो रहा था, तभी उसके सारे गहने उसने एक-एक करके उतार कर छिपा दिए और उसके बाद 'चोर-चोर' 'मैं लुट गयि' आदि का शोर मचा दिया जिससे लज्जा के मारे वह वणिक पुत्र मुंह छिपाकर भाग गया। इसके बाद उसने अपना नाम बदलकर 'मह्लणा' रख लिया और शंकरपुर में रहने लगी। वह इतनी सुन्दर थी कि उसे न दिन में न रात में संभोग से विश्राम मिलता था। इसके बाद वह लड़की अनेकों बार अपना नाम और स्थान बदलती रही और अनेकों व्यवसाय करने वाले कामुकों को ठगा और उनके धन-गहने लेकर भागती रही। एक बार उसे कारागार में भी रहना पड़ा जहाँ उसने कारागार के रक्षक को ही अपने व्यभिचार के जाल में फंसा लिया और अन्ततः जब एक बार वह मदिरोन्मत्त होकर असका आलिंगन कर रहा था, उसने उसकी जीभ ही काट ली और वहाँ से भाग निकली थी।

सागरपर्यन्त अशेष पृथ्वी का भ्रमण कर तथा माया (छल-कपट) और दुर्नीति से निरन्तर उन्नति करने वाली वह स्त्री अन्त में जब वृद्ध हो गयी और उसमें उत्साह व बल नहीं रहा तो वह अपने मूल निवास स्थान को लौट आयी। नाई ने कहा कि यहाँ वह अपने को "भ्र्ष्ट राजा की बेटी" कहती थी लेकिन उसको यहाँ मैने ही पहचाना। नाई ने कहा कि यही स्त्री तुम्हारे लिए कृत्रिम माता बनने के योग्य है। यदि वह तुम्हारी माता का पद ग्रहण कर ले तो समझो कि बिना यत्न के ही कामीलोक की सम्पूर्ण समृद्धि तुम्हारे हाथ आ जायेगी। नाई ने कहा कि क्या-क्या कहूँ, वही इस धरती को बुद्धि से जीतना जानती है। यह कहकर वह कुट्टिनी को लेने चला गया।

तृतीय समय[संपादित करें]

तृतीय समय में शाम (प्रदोष) के समय वेश्यालय में होने वाले कार्यों तथा वेश्याओं के बातचीत एवं छलकपट का विस्तृत वर्णन आया है।

दिन बीता, सन्ध्या हुई, रात हुई। चन्द्रमा निकला। अब वेश्याओं के आवास-भवनों पर विटों और कामुकों का आना-जाना आरम्भ हुआ। कुट्टनियाँ द्वारों पर कान लगाकर बैठीं हैं और बारबार उधर देख रहीं है ताकि किसी कामुक को फंसाया जा सके। जिन मालाओं को दिन में आये हुए कामुकों ने छोड़ दिया था उन्हें निकालकर (साफकर) एवं ताम्बूल आदि के दाग साफ करके, शय्या सजाकर, वेश्याएं प्रतीक्षा कर रहीं है। शय्या पर लेटी वेश्या के नुपुर झंकार कर रहे हैं। कुछ वेश्याएँ अपने ग्रहणों से पूछ रहीं हैं कि क्या आप पहले यहां नहीं आये हैं? कमर में फेटा और सिर पर जटा धारण किए हुए कुछ शठ मठाधीश वारकलह (वेश्याओं के साथ किया जाने वाला कामोत्तेजक प्रेमक्रीडा) में लिप्त हो गए हैं। दो ग्राहकों से द्रव्य (ऐडवान्स) ले चुकी वेश्या तीससे ग्राहक के आने पर उसको लेकर कहीं अदृश्य हो गयी। कहीं पर कोई वेश्या इसलिए दुखी है कि आए हुए ग्राहक को मना कर दिया था और पहले से निश्चित ग्राहक आया ही नहीं। कहीं कोई वेश्या ऐसे कामुक को खुश करने में लगी हुई है जिसे पहले धन न होने से भगा दिया गया था किन्तु अब उसके पास धन आ गया है (वेश्या, पूर्व व्यवहार के लिए माता को 'दुर्जन' कह रही है)। कोई वेश्या किसी कामी से कह रही है कि सरल स्वभाव वाली मेरी माता मधु के समान स्वभाव वाले तुमको पुनः समय न देती तो तुम्हारे वियोग में प्राण धारण करने का मेरे पास क्या उपाय होता? कहीं पर कुट्टनी इसलिए अपने-आप से भला-बुरा कह रही है क्योंकि कोई किसी अन्य के नाम से आकर प्रवेश कर गया है। एक वेश्या का घर पहले से प्रतीक्षारत कामुकों से भर गया तो वह नवागत कामी को लेकर अपनी सखी के घर चली गयी। कहीं किसी दूसरी वेश्या के पास जा रहे कामी को दूसरी वेश्या बिल्ली के बच्चे को बुलाने के बहाने कटाक्ष कर रही है। कोई वेश्या अपनी माता से कह रही है कि "एक अन्दर है, दूसरा भी आ गया है, एक अन्य आज ही सम्भोग का आग्रह कर रहा है, मैं क्या करूँ?" एक जगह कुट्टिनी दूसरी कुट्टनियों से यह कहते हुए समय काट रही है कि "रात बड़ी है, कामी नया है, मेरी बेटी भी किशोरी है"। अपनी शय्या सूनी होने पर कोई वेश्या दूसरी वेश्या से लज्जापूर्वक कह रही है कि "अज्ञात भाटी को ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि मलेच्छ गायक चारों तरफ घूम रहे हैं"। एक वेश्या के घर में कोई क्षीण कामुक जबरदस्ती घुस गया तो वह उससे सिर की उग्र पिड़ा का बहाना बनाकर क्रन्दन कर रही है। कहीं पर कुट्टनी उनका गुणगान कर रही है जो स्वेच्छा से व्यय करते है। कहीं पर एक नवागत कामी आया है और उसे ठगने के निमित्त उसके सामने धूर्त व्यक्ति दस-गुना द्रव्य देते हुए यह कह रहा है "हे भामिनि! हम लज्जित हैं कि हमारे पास धन नहीं है"। एक कुट्टनी एक समृद्ध व्यक्ति से यह कहते हुए तीन गुना धन (भाटी) ले रही है कि "मेरी बेटी प्रवास में गए हुए अधिकारी के बेटे के लिए आरक्षित की गयी है किन्तु मैं उससे आपका संगम करा दे रही हूँ"। कोई कुट्टनी यह कह रही है, " यह शुल्क अल्प है अतः मेरी तरुणी सुन्दर पुत्री के योग्य नहीं है, तुम पहली बार आये हो" ऐसा कहते हुए कुट्टिनी उस कामुक के वस्त्र के एक सिरे को कसकर पकड़े हुए है और उसे छोड़ नहीं रही है। किसी कुट्टनी के पास एक पुराना कामी आया हुआ है जो धनहीन हो गया है, उससे कुट्टनी कह रही है कि "मेरी पुत्री को अमात्य के पुत्र ले गए हैं, अतः आप एक रात्रि के लिए मुझे क्षमा करें", आदि आदि।

चतुर्थ समय[संपादित करें]

चतुर्थ समय में कुट्टिनी रात के समय नाई कंक के साथ कलावती के पास आती है। कलावती उसका चरण-वन्दन करके निम्नलिखित शब्दों में कङ्काली का गुणगान करती है-

वेश्योपदेश-विषये चतुराननत्वान्
माया-प्रपञ्च-निचयेन जनार्दनत्वात् ।
रिक्त-प्रसक्त-कलहैर् अतिभैरवत्वात्
सर्ग-स्थिति-क्षय-विधातृ-गुणा त्वम् एव ॥११॥
( 'वेश्याओं को उपदेश देने' के विषय में आप ब्रह्मा (चतुरानन) के समान हैं; माया-प्रपञ्च दिखाने में आप विष्णु (जनार्दन) के समान हैं ; और धनविहीन हो चुके कामातुरों से कलह करने में आप शिव (अतिभैरव) के समान हैं। अतः आपके पास जगत के सर्जनकर्ता (ब्रह्मा), पालनकर्ता (विष्णु) और संहारकर्ता (शिव) तीनों के सभी गुण हैं। )

इसके बाद कलावती कुट्टिनी से निवेदन करती है, "शरण में आयी हुई इस 'परिकल्पित पुत्री' को अपने शरण में ले लें"। कंकाली कहती है कि यह कंक मेरा जन्म का ही मित्र है। इसने बिटो द्वारा विछिन्न किए गए मेरे नाक को बार-बार सिला है। इसने मुझसे तुम्हारी माता बनने की प्रार्थना की है। मैं मानती हूँ कि तुम ही मेरे उपदेश की उचित पात्र हो। सुनो। प्राण से भी अधिक प्रिय यह धन न कुल से, न शील से, न रूप से और न विद्या से प्राप्त होता है, यह केवल बुद्धि से प्राप्त होता है। किन्तु इस त्रिजगती में देवता, मनुष्य, नाग आदि सभी प्रज्ञाहीन हैं जो कालोचित कर्म नहीं जानते जिसके कारण रोग की भांति रात-दिन पकते रहते हैं।

अज्ञातकालोचितकर्मयोगा रोगा इवाहर्निशपच्यमानाः ।
जगत्त्रये देवमनुष्यनागाः प्रज्ञादरिद्राः खलु सर्व एव ॥

इसके बाद कंकाली ब्रह्मा से शुरू करके विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, राम, युधिष्ठिर, जनमेजय, सभी नागों को एक-एक करके 'बुद्धिहीन' सिद्ध करती है।

का नाम बुद्धि-हीनस्य विधेर् अस्ति विदग्धता ।
कूष्माण्डानां न यश् चक्रे तैलम् ऊर्णां च दन्तिनाम् ॥२३॥
( विधाता बुद्धिहीन है। तभी तो उसने कद्दू में तेल नहीं बनाया, और हाथी में ऊन नहीं दिया।)
रत्नार्थिना जलनिधौ मधुसूदनेन
क्लेशः किलाद्रि-वलन-प्रभवो’नुभूतः ।
किं सैव पूर्वम् अखिलार्थ-विलुण्ठनाय
कान्ताकृतिः कपट-काम-मयी न सृष्टा ॥२४॥
(रत्न प्राप्त करने की इच्छा वाले मधुसूदन ने समुद्र मन्थन के समय पहले अपने पीठ पर पर्वत को धारण करने का दुःख क्यों सहा क्योंकि जब उन्होने बाद में कपट-काम-मयी मोहिनी का रूप धारण किया तो उनकी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो गयीं थीं। तो वही काम पहले ही क्यों नहीं किया?)

इसके बाद कंकाली कहती है कि जब सब जग ही जड़ है तो स्त्रियों पर मुग्ध लोगों की क्या बात की जाय? हम लोग (वेश्यायें) तो केवल बुद्धिहीनों (कामियों) की कृपा से ही जीवित रहतीं हैं।

इसी क्रम में कंकाली एक बुद्धिहीन कामुक की कथा सुनाती है-

मेरी युवावस्था के उषाकाल में 'शंकरवाहन' नाम के एक लड़के ने संभोग की इच्छा से एक रात मेरे घर में प्रवेश किया। अत्यधिक कसे हुये हुये, अतः कठोर शरीरवाले मोटे, नवयौवनसंपन्न उस ब्राह्मण ब्रह्मचारी को देखकर कामवेग के कारण उत्कण्ठित हुई मैंने सोचा-यह अत्यधिक प्रपुष्ट शरीरवाला है। रात्रि भी बड़ी है। कामुकों ने संभोग करके मुझे पहले से ही खिन्न कर दिया है। अतः मुझे प्रयत्नपूर्वक इसके साथ भोग करने की बात टाल देनी चाहिये। काफी देर तक ऐसा सोचकर मैंने, शय्या पर लेटने के अवसर में, विभिन्न कथाओं-बार्ताओं को कह कर रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत कर दिया। कथा को सुनते सुनते निद्रा से आक्रान्त वह युवक बारम्बार मुझ से कहता था-"वस, रहने दो अधिक कहना व्यर्थ है; मैंने इस प्रकार इधर-उधर की काफी बातें सुनी हैं। मेरे नेत्रों में अब निद्रा समा चुकी है।" इसके बाद कथाक्रम के समाप्त होने पर, उस युवक के साथ संभोग से छुटकारा पाने के लिये, मैंने शरीर-दर्द के बहाने से बनावटी चीखना शुरू किया ।
प्रकृति से ही भोला-भाला, अतः मेरे बहाने को भी सत्य समझ कर अज्ञानी बना हुआ उस ब्राह्मणकुमार ने पीड़ा की निवृत्ति के लिये मेरे सभी अंगों की मालिश की। उस युवक के द्वारा धीरे धीरे सुखपूर्वक आदर के साथ सम्पूर्ण अंगों के मलने के कारण मेरी रात्रि 'क्षण' के समान समाप्त हो गई। उसके बाद सुबह हो जाने पर मैंने सोचा-"पशु के समान निर्बुद्धि, वेचारे इस ब्राह्मण कुमार को मैने दर्द के बहाने संभोग से वंचित कर दिया। भेड़ के समान मूर्ख इस युवक ने चार गुना संभोग-शुल्क भी दिया है। इस लिये जैसे-तैसे इसको रति का स्पर्शमात्र करा दिया जाय। ऐसा विचार कर मैंने रात्रि की परिसमाप्ति पर उस युवक के साथ संभोग करना प्रारम्भ किया। संभोग के प्रसंग में मैंने उसके द्रव्य से उऋण होने के लिये बनावटी प्रेम के साथ उस युवक का चुम्बन किया। रतियन्त्र पर आरूढ (अर्थात् भग पर चढकर) उस युवक ने बड़ी ही सहानुभूति के साथ मुझ से कहा-"आप को शरीर-पीड़ा है अतः मुझे आपसे सम्भोग नहीं करना चाहिए। उस युवक को अत्यधिक दयालु बना देने के लिये मैंने झूठे प्रिय लगनेवाले आलापों के द्वारा उसका अनुरंजन किया, और कहा- अहो, तुम्हारे अङ्गों का स्पश तो आश्चर्यजनक ढंग से अमृतपूर्ण है। अभी-अभी मैने अनुभव किया कि इस रमण-स्थल में तुम्हारे प्रपुष्ट अङ्गों से आलिङ्गन करने पर मेरी व्यथा न जाने कहाँ चली गई।
इस प्रकार के मेरे वचनों को सुनकर सहसा अपनी आँखों में आंसू भर कर बीच में ही रति को रोकर वह युवक अपने हाथों से वक्षःस्थल एवं ललाट को पीटकर 'हा बड़ा कष्ट है, मैं तो मर गया' ऐसा कहते हुये मुझ से यह कहने लगा। "मैंने पहले यह नहीं जाना था कि मेरे अङ्गों का संयोग, मणिमन्त्र एवं औषध की भाँति, स्त्रियों की व्यथा का हरण करने वाला है। हे भद्रे ! मैं कितना दुर्भाग्यशाली हूं कि मेरी माता बहुत दिन तक अंग-पीड़ा सहने के बाद मर गई। यदि यह बात मुझे ज्ञात रही होती तो मेर माता से वियोग न हुआ होता। ऐसा कह कर "मैं ठग गया" ऐसा कह कर रोते हुए वह "पुरुष की आकृति वाला किन्तु विना पूंछ वाला बैल" मेरे घर से निकल कर चला गया।

उपदेश के इसी क्रम में कंकाली कहती है कि वेश्या को झुठ और प्रपंच का सहारा लेना चाहिए-

असत्येनैव जीवन्ति वेश्याः सत्यविवर्जिताः।
एताः सत्येन नश्यन्ति मद्यनेव कुलाङ्गनाः ॥ ६८ ॥
(सत्य से विवर्जित वेश्यायें असत्य से ही जीवित रहतीं हैं। ये सत्य से वैसे ही नष्ट हो जातीं हैं जैसे मद्यपान से कुलीन स्त्रियां।)

आगे और कहती है-

धनेन लभ्यते प्रज्ञा प्रज्ञया लभ्यते धनम् ।
प्रज्ञार्थौ जीवलोकेऽस्मिन्परस्परनिबन्धनौ ॥ ८१ ॥
( धन से प्रज्ञा प्राप्त होती है और प्रज्ञा से धन मिलता है। इस जीवलोक में प्रज्ञा एवं धन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं ।। ८१॥
ईश्वरः स जगत्पूज्यः स वाग्मी चतुराननः ।
यस्यास्ति द्रविणं लोके स एव पुरुषोत्तमः ॥ ८२ ॥
( इस संसार में जिस व्यक्ति के पास धन है वही ईश्वर है अर्थात् सब कुछ करने में समर्थ है, वही संसार के प्राणियों में पूज्य है, वही चतुर वक्ता है, वही चतुरानन अर्थात् ब्रह्मा के समान महान् पण्डित एवं कर्त्ता है, वही पुरुषश्रेष्ठ है।)

इसी तरह विविध प्रकार से उसने धन की प्रशंसा और निर्धनता की निन्दा की। उसने वाराणसी के एक ब्राह्मण की कथा सुनायी जिसके कुल की ब्रह्महत्या का पातक सहस्रो लोगों को खिलाने से चली गयी।

इसके बाद कंकाली ने कलावती को समझाया कि जवानी केवल चार दिन की होती है। और यदि सही उपाय न किया जाय तो सौन्दर्य से भी धन नहीं प्राप्त किया जा सकता। तब कलावती ने कंकाली से निवेदन किया कि उसे पर्याप्त धन अर्जित करने का उपाय बताएं।

पञ्चम समय[संपादित करें]

पाँचवे समय में कंकाली ने विभिन्न प्रकार के कामियों एवं उनके रागों के बारे में बताया और कहा कि कामियों के राग की परीक्षा करके ही निश्चित करना चाहिए कि उन्हें त्यागा जाय या अपनाया जाय। कुसुम्भ राग, सिन्दूर राग, कुङ्कुम राग, लाक्षा राग, मांजिष्ठ राग, कासाय राग, हरिद्रा राग और नील राग - ये आठ वर्णक राग हैं। सुवर्ण राग, ताम्र राग, रीति राग, सीसक राग, लौह राग, मणिसमुद्भव राग, काच राग तथा शैल राग - ये धातु का अनुकरण करने वाले राग हैं।

इसी प्रकार अन्य विविध प्रकार से रागों का वर्णन किया है। सभी रागों का वर्णन करके संक्षेप में इनकी विशेषताएं वर्णित की। कुल मिलाकर ८० प्रकार के रागों और उनकी विशेषताएं बतायी और कहा कि सभी रागों को गिनाना किसके लिए सम्भव है?

वारविलासिनी (वेश्या) को चाहिए कि सबसे पहले वह बहुत से मित्र (सुहृद) बनाए क्योंकि अपने मित्रों के माध्यम से ही वह कामुकों के धन, गुण, हृदयग्रहण करने के उपाय, शील तथा अनुरक्ति-विरक्ति को जान पाती है। इसके बाद बताया है कि धनी व्यक्ति का एकलौता पुत्र, सुन्दर युवा पितृहीन व्यक्ति, युवावस्था में पितृहीन एक मात्र पुत्र, आदि वेश्या के लिए चलते-फिरते कल्पवृक्ष हैं।

इसके बाद कंकाली ने वेश्या के लिए कुछ व्यावहारिक सुझाव दिए, जैसे कि वेश्या को चाहिये कि वह सर्वप्रथम, लोगों के द्वारा सम्भोगयाचना करने पर, "मेरे पास खाली समय नहीं है" ऐसा कहे । क्योंकि लोगों का यह स्वभाव होता है कि वे सुलभ (आसानी से प्राप्त) स्त्री की अवमानना करते हैं। सम्भोग न करने के हेतु बहाना बनाने के लिये वेश्या को पहले ही शिर की पीड़ा जैसी सामान्यतः सबको होने वाली व्याधियों को बतलाना चाहिये; किन्तु यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि ये व्याधियाँ ऐसी न बतलाई जायँ जिनके सुनने से लोगों को घृणा हो। वेश्या को चाहिये कि वह, सर्वप्रथम, महाधनी व्यक्ति का पत्री की भाँति चित्त का अनुवर्तन करती हुई पर्याप्त स्वागत सत्कार करे और उससे कहे कि "धन अथवा वशीकरण आदि के प्रयोगों से आपने मुझे अपने वश में कर लिया है। वेश्या को धनी कामुक के साथ सम्बन्ध बनाए रखने के लिए उसके साथ विदेश जाने के बारे में भी मन्त्रणा करनी चाहिए। सो जाने पर उसका चुम्बन करे और जब वह अर्ध निद्रा की अवस्था में हो तब उसके गुणों की प्रशंसा करे। धनी कामुक से वह पुत्रोत्पत्ति की कामना करे। वेश्या को चाहिए कि अति शीघ्र कामान्ध होने वाले कामुक का सब धन हरण कर ले। सुरत के काल में कामुक को अपनी जंघाओं में जकड़कर सब कुछ मांगना चाहिए। जब कामुक का सब धन चूस लिया जाय तो उसका उसी प्रकार तिरस्कार कर दिया जाना चाहिए जैसे गन्ने से रस निकालने के बाद खोई का। यदि तिरस्कारपूर्वक निकालने पर भी धनहीन हुआ कामुक नहीं निकलता है तो उससे कठोर व्यवहार तथा अन्यान्य उपायों से निकालना चाहिए।

षष्ट समय[संपादित करें]

उक्त उपदेश होते-होते सुबह होने लगी। कलावती, कंकाली और कंक के साथ अपने घर के छत पर पहुँच गयी। छत से कंक उस स्थिति का वर्णन कर रहा है जो वेश्यालयों में सुबह-सुबह प्रायः होता है। जैसे जटाधारी 'लीलाशिव' नामक मठाधीश राजपथ को छोड़कर किसी खराब रास्ते (कुमार्ग) से मठ को जा रहा है। कोतवाल के पुत्र 'निधि' द्वारा द्वारा भद्रा वेश्या के यहाँ दिये गए पर्याप्त द्रव्य को विट बांटने में लगे हैं। आदि।

इसी समय कंक कलावती को दिखाता है कि देखो महाधनी 'शंख' नामक बनिए का का 'पंक' नामका पुत्र तुम्हे टकटकी लगाकर देख रहा है। कलंकी ने स्थिति को सही प्रकार समझकर कंक से कहा कि तुम नीचे जाकर उस बालक को यहाँ आने में सहयता करो।

सप्तम समय[संपादित करें]

दूत का काम करने वाले नाई ने कलावती के गृह में दो-तीन बार प्रवेश (आना-जाना) किया। कलावती उस वणिक किशोर से सम्भोग के विषय में मिथ्या निषेध कर रही थी। शाम होते-होते वह सज-धज कर तैयार होने लगी। उसने अपनी नवागता माता से कहा, " मैं इस बालक (किशोर) के साथ सम्भोग करूं यह उचित नहीं है क्योंकि मैं प्रौढ कामुकों के साथ सम्भोग करती रही हूं।" जब कलावती तैयार हो गयी उसी समय उस वणिक पुत्र ने उसके गृह में प्रवेश किया। उसका शरीर सोने के भारी आभूषणो से लदा हुआ था। उसके बाद सात महाविट भी उस कक्ष में आये। उन्होने उस बालक को बाहर ले जाकर वेश्या के साथ समागम का तरीका सिखाया। इसके बाद कलावती के घर में प्रवेश करके वह बालक प्रौढ व्यक्तियों की भांति बैठ गया। जिस प्रकार शिक्षित किया गया शुक एक ही बात (केवल सिखायी गयी बात) बोल सकता है, उसी प्रकार यह बालक भी 'अनाडी' की भांति कलावती से कुछ मजाक किया जो कटु लगने वाले थे।

इसके बाद उस कक्ष में कंकाली आयी और उसने विटो और उस बालक को प्रसन्न करने वाले वचन कहे। पान देने वाली दासी ने वहाँ स्थित विटों का परिचय कराया, किसी को थलसेनाध्यक्ष का बेटा, कलावती का गुरुभाई, कलावती की बहन के पति, किसी को मामा, किसी को सहोदर भाई आदि। कोई सूपकार, कोई नाविक, कोई धोबी, कोई कुम्भकार आदि।

ताम्बूल देने की लीला से कलावती ने उन लोगों को अपने यहाँ से विदा किया। इसके बाद कलावती, मदिरा से मत्त उस बालक को लेकर पलंग पर लेट गयी। पलंग के ऊपर चंदोबा (वितान) लगा हुआ था। सिरहाने हंस के समान तकिया रखी हुई थी। शय्या पर स्वच्छ रेशम की चादर बिछी हुई थी।

अष्टम समय[संपादित करें]

रात बीती, सुबह हुई। जब कंकाली ने कलावती से रात्रिसुख के बारे में पूछा तो उसने कहा-

हे माते उस शिशु वय वाले बालक की प्रवीणता काली मिर्च की तीक्ष्णता के समान है। सुनाती हूं, सुनो। जब चेटी ने उस बालक को खाट पर चढ़ा दिया तब शरीर को निश्चल करके एक क्षण के लिए वह बनावटी से सो गया। अपनी कुतुहल की चंचलता से मैंने उस बालक का आलिंगन किया। उस समय, जीवन में पहली बार सम्भोग करने के अनन्तर वह सहसा निश्चेष्ट हो गया। मैं इस डर से कि वह मर न जाय, ठण्डे जल से भिगाकर अपने हाथों को उसकी छाती पर रखकर उसे होश में लाया। उसके बाद सम्भोग के आस्वाद प्राप्त कर चुका उस् बालक ने मुझे अगणित सम्भोग-मुद्राओं और सम्भोगों से थका दिया।

"बालक रोता है" ऐसा सोचकर दया के कारण मैंने उसके मुख पर दाँत से नहीं काटा, किन्तु देखो, शुक की भाँति उसी बालक ने मेरे लाल-लाल ओठों को कई जगह काट दिया है। उस बालक ने बारम्बार आरोहण और कौतुकपूर्ण आलिङ्गनों किया तथा दबा-दबा कर मेरे स्तनों को "छोटा" बना दिया। उस बालक ने मेरे कोमल शरीर के "अनुचित स्थानों" को भी नाखून से क्षत-विक्षत कर दिया है। बताओ मैं सामाजिकों के सहवास में अपने अङ्गों को कैसे छिपाऊँगी? कंकाली मुस्कायी। उसके बाद कंकाली सम्भोग-गृह में स्थित उस बालक के पास गयी और केलितंत्र की पद्धति से उससे बात करना आरम्भ किया।

हे पुत्र, तुम्हारी पूरी रात सुख से बीती है। कलावती का हृदय चुराने वाले तुम हम लोगों द्वारा बाँध कर रखे जाने के योग्य हो। निश्चय ही तुम्हारा और कलावती का प्रेम जन्म-जन्मान्तर का है। किन्तु इस संगम में मुखे एक भय दिखायी पड़ रहा है। हो न हो ये विट तुम्हारे पिता को तुम्हारे यहाँ होने की सूचना दे दें। अतः यदि तुम एक दिन तक यहाँ छिपकर रहोगे तो निराश होकर ये कुटिल विट यहाँ से चले जाएंगे। पंक ने उसकी बात मान ली और कुछ द्रव्य भी दिया। इसके बाद वह गुप्त मार्ग से अति उच्च महल के सर्वोच्च कोठे पर चला गया। इसके बाद कंकाली विटो के पास जाकर कपटपूर्वक बोली कि तुम लोगों ने वणिक पुत्र के नाम पर एक डाकू का पुत्र लाकर मेरी कलावती को लुटवा दिया। इस पर सभी विट इधर-उधर भग गए किन्तु आपस में वे यही बात करते रहे कि इस कंकाली ने उसे कहीं छिपा दिया है।

प्रतःकाल वह कंकाली बाजार में भाण्डशाला के सामने जाकर उस बालक के पिता की विशाल सम्पत्ति को देखा। उसने देखा कि इतनी सम्पत्ति होने पर भी सम्पत्ति जोडने के लिए वह तरह-तरह के सही-गलत उपाय और कंजूसी कर रहा था। भीड़ के समाप्त होने पर कंकाली उस धनी वणिक के पास गयी और उससे एकान्त में बात करने का निवेदन किया। कंकाली ने उससे कहा कि धूर्त विट ने आपके बेटे को बहलाकर ले गए और उसके आभूषण आदि छीन लिए। उसके बाद मैने उसे देखा और अपने घर ले गयी। वहाँ मुझे पता नहीं कि किस तरह वह मेरी बेटी के हृदय में घुस गया। मेरी पुत्री ने उसे अपने कण्ठ का हार बना लिया है।

मैं कुछ समय के लिए तीर्थयात्रा पर जाने वाली हूँ। आप ही कलावती के सम्पत्ति की रक्षा करें और निवेदन है कि आप अपने पुत्र तथा पुत्रवधू के मंगलचार स्वरूप आज आप मेरे घर भोजन करें। वणिक ने कहा कि मेरा नियम है कि मैं दूसरे के घर भोजन नहीं करता हूँ। यदि तुम मुझसे सुस्वादु भोजन का मूल्य लोगी तभी मैं भोजन कर सकता हूँ। ऐसा कहकर उस वृद्धा को डेढ रूपए दिया और उसे विदा कर दिया। बाद में स्वयं भोजन के लिए गया। वहाँ जाकर देखा कि उसका पुत्र सुन्दर स्त्री के साथ-साथ अनेकों सुनदर-सुन्दर पदार्थों से घिरा है। उसे इस बात की विशेष खुशी हुई कि बिना पैसा खर्च किए इतनी सारी सामग्री खाने के लिए मिल रही है। भोजन मदिरादि से संतुष्ट होकर वह कंकाली के पास जाकर बोला- मैं आप लोगों के समुचित सम्पूर्ण दिन का खर्च दूँगा। किन्तु आप लोग पुनः इतने अधिक व्यय से होने वाले समारोह न करें।

दूसरे दिन कलावती ने अपनी दासी को उस वणिक के पास दिन-खर्च लेने के लिए भेजा। किन्तु उसने बहुत ही अल्प देकर उससे छूतकारा पाया। तीसरे दिन उस वणिक को ठगने की योजना बनाकर एवं कलावती को एकान्त में बताकर स्वयं उस बनिए के पास गयी। उसने दो हीरा-जवाहरात रखने वाले छोटे बक्से बनवाए। एक में बहुत से आभूषण रखे और दूसरे में कंकड़। अपनी कांख में दोनों डिब्बों को छिपाकर वह बनिए के पास गयी। वहाँ जकर कहा कि अतिशीघ्र मुझे वाराणसी की तीर्थयात्रा पर जाना है। इस बक्से में रत्नजड़ित आभूष्ण हैं। ये आपके पुत्र और मेरी पुत्री के धन हैं। आप इनकी रक्षा करें। उसके बाद सम्पूर्ण आभूषणों को दिखाकर उसे बन्द करके उसे वणिक के सामने रखकर मजाक में कंकाली ने कहा कि अन्य किसी प्रकार का खर्चा नहीं है फिर भी देवालयों में भोजन आदि का खर्च एक लाख आयेगा। वह आप मुझे दे दें। लीलापूर्वक यह कहती हुई झट से उसने दोनों बक्सों की अदला-बदली कर दी। इसके बाद एक लाख मुद्रा लेकर अपने घर को चली गयी।

कंकाली के वापस आ जाने के बाद कलावती ने उस लड़के पंक को समझाया कि विवाह करके किसी गृहिणी के साथ रहना जघन्य है-

दिनरमणीयः पुंसां जन्मजघन्यस्तु गेहिनीसङ्गः ।
तदपि विवाहे मोहादविचारतरादराः पशवः ॥९२॥
( पुरुषों का गृहिणी के साथ संगम एक दिन का अर्थात स्वल्प काल तक होता है ; अतः जन्म जघन्य है। फिर भी मोहवश अविचारी पुरुषवर्ग (पशु) विवाह का आग्रह करते हैं।)
नित्यप्रसूतिहतसुस्थिरयौवनेषु वेशोपचाररहितेषु मदोज्झितेषु ।
गोष्ठीविलासरसकेलिनिरादरेषु दारेषु का स्मररुचिः कलहाङ्कुरेषु ॥९३॥
(नित्य बच्चा पैदा करने से विनष्ट जवानी वाली, वेश को आकर्षक बनाने की कला से अनभिज्ञ, मदहीन, सामाजिकों की गोष्ठी में होने वाले विलास की केलि का तिरस्कार करने वाली, कलह के मूल, गृहिणियों में भला पुरुषों की कैसे कामरुचि होती है?)
जात्यैव कामिजनरञ्जनजीवितासु वेशोपचारनिरतासु ससौरभासु ।
कामप्रमोदममकासु सविभ्रमासु वेश्यासु कस्य न रतिः सततस्मितासु ॥९४॥
(जाति से ही कामिजनों का मनोरंजन करके जीवित रहने वाली, वेशभूषा को लुभावना बनाने में संलग्न रहने वाली, सुगन्धित, कामप्रमोद में विदग्ध, हावभाव आदि से परिपूर्ण, सर्वदा हँसमुख वेश्याओं में भला किसकी रति नहीं होगी?)

इसलिये आज ही मेरे विश्वास के लिए अग्नि को साक्षी मानकर धन-धारण पत्रिका लिख दो। वणिक पुत्र ने ऐसा ही किया। इसके बाद कुट्टिनी ने उसे समझाया कि स्त्रियों की जवानी कुछ दिन की होती है, पुरुषों की बहुत दिन तक। इसलिए तुम्हारे पिता के न रहने पर जो जिस सम्पत्ति के तुम स्वामी बनोगे, उसे तुम कलावती के नाम लिख दो। पंक ने यह भी मान लिया और लिख दिया।

इसके बाद उस कुट्टिनी ने उस बालक का आदर-सत्कार करना कम कर दिया। इसके अलावा विभिन्न प्रकार के उलाहनों और छल-कपट से तथा सम्भोग न करने के बहाने से उस लड़के को अन्त में कलावती को प्रेम करने वाले दूसरे कामुक द्वारा हत्या करने का भय दिखाकर फटा कम्बल पहनाकर टुटे-फूटे रास्ते से भागने के लिए मजबूर बर दिया।

इसी प्रकार से क्षीणपुण्यवाली, घृतघ्न वह कुट्टिनी विविध उपायों से कामुक व्यक्तियों की वञ्चना करती रही। खेद की बात है कि जङ्गल में बहुत से हरिण-शिशु, मृगों को नृत्य ही बंधते हुए देखते हैं तथापि वे स्वयं भी कपट-जाल में जाकर फंस जाते हैं अर्थात् वेश्याओं के जाल में फंस कर बहुत से व्यक्तियों को मरते देखकर भी लोग उनके (वेश्याओं के) कूटजाल में फंस ही जाते हैं।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]