सदस्य वार्ता:Sunil dhakad

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-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 12:32, 12 जुलाई 2017 (UTC)[उत्तर दें]

अब श्रीआचार्यजी महाप्रभून के सेवक रजो क्षत्राणी तिनकी वार्ता प्रसंग-[संपादित करें]

अब श्रीआचार्यजी महाप्रभून के सेवक रजो क्षत्राणी तिनकी वार्ता प्रसंग-

भावप्रकाश- लीला मे इनको नाम रतिकला है ।सो रजो क्षत्राणी लीला में ललीता जी की सखी है ।

वार्ता प्रसंग-1 सो रजो नित्य पकवान सामग्री करि रात्रकों ले आवती ।सो श्रीआचार्यजी महाप्रभून आरोगते ।वाके नेम हतो ।

सो एक दिन लक्ष्मन भट्टजी को श्राद्ध दिन हतो सो श्रीआचार्यजीने ब्राम्हन भोजन कों बुलाए हते ।तहां घृत थोरो सो चहियत हतो , तब श्रीआचार्यजी ने एक वैष्णव सों कह्यो , जो रजो के इहां ते घृत ले आवो ।सो एक वैष्णव जाइ के रजो सो कह्यों , जो -श्रीआचार्यजी ने घृत मंगायो है ।तब रजोने वा वैष्णव सों कह्यो , जो घृत काहेको मँगायो है  ? तब वा वैष्णव ने कह्यो , जो -लक्ष्मण भट्टजी को श्राद्ध दिन आज है ।सो ब्राम्हण भोजन को बुलाए हैं तहां घृत घट्यो है ।सो ताते मँगायो है ।तब रजो ने कह्यो , जो -घृत मेरे नाहीं है , जाय कहियो ।तब वैष्णव श्रीआचार्यजी सो कह्यो , जो महाराज  ! रजो के घृत नाहीं है ।तब श्रीआचार्यजी कहे जो -एकबार तू फेरि जा खीजी के कहियो जो घृत दे ।तब वह वैष्णव फेरि आयो , रजो सो कह्यो जो श्रीआचार्यजी खीझत हैं , तातें घी देउ ।तोहू रजो ने घृत दीनो नाहीं कह्यो, मेरे घृत नाहीं हैं , कहां ते देऊं  ? तब वैष्णव फिरि आय श्रीआचार्यजी सो कह्यो , जो महाराज  ! रजो घृत नाहीं देत ।पाछें और ठौरते घी मंगाई काम चलायो ।पाछे रात्र भई ।तब रजो सामग्री सिद्धी करि श्रीआचार्यजी के पास आई , तब श्रीआचार्यजी पीठि दे बैठे ।तब रजोने कह्यो , जो-महाराज , जीव तो दोष ते भर्यो है ।अपराध कहा , जो -आप दरसन नाही देत  ? तब श्रीआचार्यजीने कह्यो , जो आज लक्ष्मण भट्टजी को श्राद्ध हतो ।सो तेंने घृत क्यों नाहीं दीनो  ? तब रजोने कह्यो , मेरे घी नाहीं हतो ।तब श्रीआचार्यजी ने कही , सामग्री कहाँ ते करि लाई  ? तब रजोने कही , महाराज  ! आपु के घर में हू घी हतो क्यों नाहीं लिये  ? तब श्रीआचार्यजी कहे , उह तो श्रीठाकुरजी को हतो ।वामें ते कैसो लियो जाई  ? तब रजो ने कहि , मेरे घरमें कौन है  ? श्रीठाकुर जी ते अधिक आपको स्वरुप है ।सो आपकी लीला -संबंधी सामग्री में ते श्राद्ध मे कैसे दऊं ? और मै लक्ष्मण भट्टकी लोंडी नाहीं हों ।मैं तो आपकी लोंडी हों , आप मेरी परीक्षा लेन अर्थ घी मंगायो ।सो पहले वैष्णव पठायो तब तो लौकिक आवेस सों घी घट्यो ।तब आपु कहे , रजो से ले आवो ।यह लौकिक प्रवाह आज्ञा जानि के मैनें घी की नाहीं करी ।सो पाछें आपु यह मनमे विचारे , जो -श्राद्ध के लिये ब्राम्हन भोजन में वेगे चाहिये ।फेरि जो उह वैष्णव आईकें कह्यो , जो -खीजि के कहे घी देहू ।तब मै मर्यादा जानी जो पुष्टि कार्य में क्रोध को प्रयोजन है नाही ।काहेंते , भावही सो सगरी वस्तु सिद्ध है और मर्यादा में तो वेउ-वस्तु बिना कर्मको नास होई (वस्तु तें ) पूरनता है ।ताते वस्तु के लिये क्रोध है ।जो यह वस्तु आवश्यक चाहिये ।ताते मर्यादा की आज्ञा हु नाहीं माने और मर्यादा के कार्यार्थ घी हू नाही दियो ।पाछें तीसरे पुष्टि के आवेस ते मांगते तो मैं घी देती , और आपको घी मंगवानो हतो ।(तो) इतनो उह वैष्णव सों कहि देते , जो रजो सों कहियो तेरे पुष्टि -धर्म में हानि नाही है , घी दीजो तो मै काहें को फेरती  ? और महाराज  ! जानि बूझि के कूआ में कैसे परुं  ? आपु की कृपा ते इतनो ज्ञान भयो तब मै घी नाहि दियो ।आपु तो बुद्धि प्रेरक हो , मेरे हद्य में बैठि के घी देवे की नाही कहे ।उहां के घी मंगाये ।सो मै बिना मोल की दासी हों आपु कृपा करिये ।

तब श्रीआचार्यजी प्रसन्न होइ के दरसन दिये ।तब रजो ने सामग्री श्रीआचार्यजी के आगे राखी और कह्यो , जो अरोगो ।तब श्रीआचार्यजी ने रजो सों कह्यो , जो आजु श्राद्ध दिन है सो दूसरी बेर लेनो नाही ।तब रजो ने कह्यो , जो महाराज  ! घर की होइ सो लोगन के मर्यादा के लिये मति लेहू ।यह तो लियो चाहिये ।

तब रजो के आग्रह ते श्रीआचार्यजी ताहू दिन सामग्री अरोगे सो वह रजो क्षत्राणी श्रीआचार्यजी महाप्रभून की ऐसी कृपापात्र भगवदिय ही ।ताते इनकी वार्ता कों पार नाही ! सो कहां तांई कहिये ।श्री वल्लभाधिश की जय 👏​👏​👏​👏​👏​👏​👏​👏​👏​ Sunil dhakad (वार्ता) 11:00, 14 सितंबर 2017 (UTC)[उत्तर दें]

अब श्रीआचार्यजी महाप्रभून के सेवक रजो क्षत्राणी तिनकी वार्ता प्रसंग-[संपादित करें]

अब श्रीआचार्यजी महाप्रभून के सेवक रजो क्षत्राणी तिनकी वार्ता प्रसंग-

भावप्रकाश- लीला मे इनको नाम रतिकला है ।सो रजो क्षत्राणी लीला में ललीता जी की सखी है ।

वार्ता प्रसंग-1 सो रजो नित्य पकवान सामग्री करि रात्रकों ले आवती ।सो श्रीआचार्यजी महाप्रभून आरोगते ।वाके नेम हतो ।

सो एक दिन लक्ष्मन भट्टजी को श्राद्ध दिन हतो सो श्रीआचार्यजीने ब्राम्हन भोजन कों बुलाए हते ।तहां घृत थोरो सो चहियत हतो , तब श्रीआचार्यजी ने एक वैष्णव सों कह्यो , जो रजो के इहां ते घृत ले आवो ।सो एक वैष्णव जाइ के रजो सो कह्यों , जो -श्रीआचार्यजी ने घृत मंगायो है ।तब रजोने वा वैष्णव सों कह्यो , जो घृत काहेको मँगायो है  ? तब वा वैष्णव ने कह्यो , जो -लक्ष्मण भट्टजी को श्राद्ध दिन आज है ।सो ब्राम्हण भोजन को बुलाए हैं तहां घृत घट्यो है ।सो ताते मँगायो है ।तब रजो ने कह्यो , जो -घृत मेरे नाहीं है , जाय कहियो ।तब वैष्णव श्रीआचार्यजी सो कह्यो , जो महाराज  ! रजो के घृत नाहीं है ।तब श्रीआचार्यजी कहे जो -एकबार तू फेरि जा खीजी के कहियो जो घृत दे ।तब वह वैष्णव फेरि आयो , रजो सो कह्यो जो श्रीआचार्यजी खीझत हैं , तातें घी देउ ।तोहू रजो ने घृत दीनो नाहीं कह्यो, मेरे घृत नाहीं हैं , कहां ते देऊं  ? तब वैष्णव फिरि आय श्रीआचार्यजी सो कह्यो , जो महाराज  ! रजो घृत नाहीं देत ।पाछें और ठौरते घी मंगाई काम चलायो ।पाछे रात्र भई ।तब रजो सामग्री सिद्धी करि श्रीआचार्यजी के पास आई , तब श्रीआचार्यजी पीठि दे बैठे ।तब रजोने कह्यो , जो-महाराज , जीव तो दोष ते भर्यो है ।अपराध कहा , जो -आप दरसन नाही देत  ? तब श्रीआचार्यजीने कह्यो , जो आज लक्ष्मण भट्टजी को श्राद्ध हतो ।सो तेंने घृत क्यों नाहीं दीनो  ? तब रजोने कह्यो , मेरे घी नाहीं हतो ।तब श्रीआचार्यजी ने कही , सामग्री कहाँ ते करि लाई  ? तब रजोने कही , महाराज  ! आपु के घर में हू घी हतो क्यों नाहीं लिये  ? तब श्रीआचार्यजी कहे , उह तो श्रीठाकुरजी को हतो ।वामें ते कैसो लियो जाई  ? तब रजो ने कहि , मेरे घरमें कौन है  ? श्रीठाकुर जी ते अधिक आपको स्वरुप है ।सो आपकी लीला -संबंधी सामग्री में ते श्राद्ध मे कैसे दऊं ? और मै लक्ष्मण भट्टकी लोंडी नाहीं हों ।मैं तो आपकी लोंडी हों , आप मेरी परीक्षा लेन अर्थ घी मंगायो ।सो पहले वैष्णव पठायो तब तो लौकिक आवेस सों घी घट्यो ।तब आपु कहे , रजो से ले आवो ।यह लौकिक प्रवाह आज्ञा जानि के मैनें घी की नाहीं करी ।सो पाछें आपु यह मनमे विचारे , जो -श्राद्ध के लिये ब्राम्हन भोजन में वेगे चाहिये ।फेरि जो उह वैष्णव आईकें कह्यो , जो -खीजि के कहे घी देहू ।तब मै मर्यादा जानी जो पुष्टि कार्य में क्रोध को प्रयोजन है नाही ।काहेंते , भावही सो सगरी वस्तु सिद्ध है और मर्यादा में तो वेउ-वस्तु बिना कर्मको नास होई (वस्तु तें ) पूरनता है ।ताते वस्तु के लिये क्रोध है ।जो यह वस्तु आवश्यक चाहिये ।ताते मर्यादा की आज्ञा हु नाहीं माने और मर्यादा के कार्यार्थ घी हू नाही दियो ।पाछें तीसरे पुष्टि के आवेस ते मांगते तो मैं घी देती , और आपको घी मंगवानो हतो ।(तो) इतनो उह वैष्णव सों कहि देते , जो रजो सों कहियो तेरे पुष्टि -धर्म में हानि नाही है , घी दीजो तो मै काहें को फेरती  ? और महाराज  ! जानि बूझि के कूआ में कैसे परुं  ? आपु की कृपा ते इतनो ज्ञान भयो तब मै घी नाहि दियो ।आपु तो बुद्धि प्रेरक हो , मेरे हद्य में बैठि के घी देवे की नाही कहे ।उहां के घी मंगाये ।सो मै बिना मोल की दासी हों आपु कृपा करिये ।

तब श्रीआचार्यजी प्रसन्न होइ के दरसन दिये ।तब रजो ने सामग्री श्रीआचार्यजी के आगे राखी और कह्यो , जो अरोगो ।तब श्रीआचार्यजी ने रजो सों कह्यो , जो आजु श्राद्ध दिन है सो दूसरी बेर लेनो नाही ।तब रजो ने कह्यो , जो महाराज  ! घर की होइ सो लोगन के मर्यादा के लिये मति लेहू ।यह तो लियो चाहिये ।

तब रजो के आग्रह ते श्रीआचार्यजी ताहू दिन सामग्री अरोगे सो वह रजो क्षत्राणी श्रीआचार्यजी महाप्रभून की ऐसी कृपापात्र भगवदिय ही ।ताते इनकी वार्ता कों पार नाही ! सो कहां तांई कहिये ।श्री वल्लभाधिश की जय 👏​👏​👏​👏​👏​👏​👏​👏​👏​ Sunil dhakad (वार्ता) 11:06, 14 सितंबर 2017 (UTC)[उत्तर दें]