सदस्य वार्ता:Rochellejr208/प्रयोगपृष्ठ

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दोहरा व्यक्तित्व[संपादित करें]

व्यक्तित्व की दो परस्परविरोधी अथवा सर्वथा भिन्न शैलियों का उसकी एक ही इकाई में अपनी पृथक्‌ सत्ता सुरक्षित रखते हुए, इकट्ठे रहने का बोध द्विव्यक्तित्व (Dual Personality) है। एक ही व्यक्ति के घेरे में रहकर भी ये अपने में सुसंबद्ध एवं व्यवस्थित होते हैं; एक दूसरे के प्रति तटस्थ एवं विस्मृत रहते हैं। जब एक व्यक्तित्व-खंड चेतना के धरातल पर सक्रिय रहता हैं तो दूसरे की स्मृति नहीं रहती, यद्यपि स्मृति के मामले में अपवाद भी होते हैं। अपने ही भिन्न स्वरूपबोधों की असंपृक्तता व्यवहार में प्रकट होकर लोगों को अचरज में डाल देती है। सर्वथा विरोधी आचरणों से उसके सामाजिक संबंध लगातार बाधित एवं व्यतिक्रमित होते हैं, टूट जाते हैं। द्विव्यक्तित्वधारी, मानसिक चिकित्सा का एक नैदानिक विषय (पैथालाजिकल केस) बन जाता है।

ये व्यक्तित्व-खंड दो से ज्यादा भी होते है। इनके कई नाम भी चलते हैं- बहुव्यक्तित्व (मल्टिपुल पर्सनैलिटी), खंडित व्यक्तित्व (स्प्लिट पर्सनैलिटी); असंपृक्त व्यक्तित्व (Dissociative personality), एकांतरित तथा स्थानांतरित (आल्टर्नेंट तथा डिस्प्लेस्ड) व्यक्तित्व आदि। लोककथाओं तथ साहित्य में ऐसे व्यक्तित्व परिवर्तन के दृष्टांत मिलते हैं। राबर्ट लुई सटीवेंसन के प्रसिद्ध उपन्यास 'डॉ॰ जोकिल ऐंड मि. हाइड' की चर्चा इस सन्दर्भ में मनोविज्ञानवेत्ता भी करते हैं। चीनी लोककथा में एक व्यक्ति जंगल में सो जाता है; सोते ही शेर बन जाता है तथा अपने ही बंधु को मार डालता है। अपने पूर्व रूप में आने पर बिना इस बात के ज्ञान के कि यह उसका ही कृत्य है, बंधु की मृत्यु पर अफसोस करता है।परस्पर विरोधी वृत्तियाँ अथवा उनका एक ही व्यक्ति में प्राप्त होना मनोविज्ञान क्या, सामन्य ज्ञान के लिए भी नई वस्तु नहीं। युंग का 'अंतर्मुख' एवं 'बहिर्मुख' (इंट्रोवर्ट एक्स्ट्रोवर्ट) व्यक्तित्व-प्रकार तथा ब्ल्यूलर कथित 'अंतर्बहिर्मुख' (एंबीवर्ट; लै. 'एंबी' = दोनों) व्यक्ति की वृत्ति - 'द्वैधभाव' (एंबीवैलेंस), आदि प्रसिद्ध ही हैं। मनोरोग में भी क्रेश्चमर संमत 'सिजाएड' तथा 'साइक्लाएड', क्रेपलिन कथित उत्साह विषाद मनोचक्र (मैनिक डिप्रेसिव साइकोसिस) तथा मनोविदलता या मनोह्रास ('डैमेंशिया प्रीकावस' या सिजोफ्रीनिया) आदि के निरूपण समष्टि में इसी एक तथ्य की पुष्टि करते हैं कि व्यक्ति में मन: शक्ति को बाहरी जगत्‌ से संबद्ध कराने की विधायक-वृत्ति तथा बाह्य जगत्‌ से खींचकर कछुए की भाँति अंतर्जगत्‌ में सिकोड़ लेने की निषेधात्मक वृत्ति, दोनों ही काम करती रहती हैं। किसी एक का अपेक्षाकृत अधिक प्राधान्य व्यक्तित्व के 'प्रकार' (टाइप) का निरूपक होता है। 'द्वैधभाव' में कभी तो दोनों वृत्तियों का संतुलन रहता है, जो कि आदर्श स्थिति होती है, कभी दोनों ओर बारी-बारी बेसाख्ता ढुल जाने की स्थिति होती है। अंतिम ही अपने चरम उत्कर्ष में 'द्विव्यक्तित्व' बनता है।

डॉ॰ मोर्टन प्रिंस ने एक ऐसा दृष्टांत पूरी वैज्ञानिकता के साथ रखा जो 'ब्यूशैंपकेस' नाम से प्रसिद्ध हो गया (1905)। अपने स्वाभाविक व्यक्तित्व तथा सम्मोहन (हिप्नाटिज्म) द्वारा जाग्रत किए गए व्यक्तित्व के अतिरिक्त रोगिणी के अंदर तीन और विभिन्न ढंग के स्वात्मभाव ('selves') देखे गए- सभी परस्पर असंबद्ध, भिन्न एवं विरोधी से थे। वैज्ञानिक पूर्णता के बावजूद प्रिंस के विश्लेषण की बहुत्ववादी अपवादात्मक तथा अधिक शरीरशास्त्रीय होने के कारण, आलोचना हुर्ह। मैक्डूगल ने 'द्विव्यक्तित्व' की आलोचना करते हुए कहा कि इन्हें कभी भी सामान्य लोगों के व्यावहारिक जीवनस्तर पर नहीं रखा जा सकता क्योंकि विशेष परिस्थितियों में यह हम सबमें एक छिपी संभावना के रूप में स्थित है; इसके विपरीत यह कहा जा सकता है कि हर मानव मन एकाकी एवं संगठित पूर्णता है ('एनर्जीज ऑफ मैन' : मैकडूगल)। डॉ॰ प्रिंस के पूर्व एलिकॉट ने सर्वप्रथम (1815) तक ऐसे रोगी का वैज्ञानिक विवरण प्रकाशित किया तथा पो ने सर्वप्रथम 76 रोगियों के दृष्टांतों का साहित्य प्रस्तुत किया।

परवर्ती मनोवैज्ञानिकों ने 'खंडों' पर कम और मानसिक एकता पर अधिक जोर दिया। उपचेतन की सर्वथा अलग कटी मनोभूमि की वकालत करने के लिए फ्रायड की तीव्र आलोचनाएँ हुई हैं किंतु प्रसिद्ध फ्रायडवादी अर्नेस्ट जोंस इसी अलगाव को कुछ समीप लाता हुआ कहता है कि हमारी दमित वासनाएँ जो मूलत: यौन प्रकृति की होती हैं अपना एक स्वतंत्र विकास करने लगती है और कभी कभी इतनी तीव्र बन जाती हैं कि कुछ काल के लिए चेतन धरातल पर भी प्रभुत्व जमा लेती हैं। निद्राचारण (सोम्नांबुलिज़्म) जैसी अतिमानसिक अवस्थाएँ इसी छिपे शक्तिमान 'व्यक्तित्व' की अभिव्यक्तियाँ हैं। (ऐसे ही 'व्यक्तित्व' की प्रस्तुति गजानन मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता 'दिमागी गुहांधकार का उरांग ओटान' में हुई है)। युंग की कथ्य शैली में, 'अचेतन' में उद्भूत प्रभुसत्ता के सम्मुख चैतन्य नपुंसक हो जाता है।

युंग ने 'छद्मविस्मृति' के बारे में बताया है कि बहुत सी पुरानी अनुभूतिरंजित स्मृतियों की 'ग्रंथि' बन जाती हैं जो चेतनमन के धरातल के नीचे रहकर यथावसर हस्तक्षेप करती रहती है। इससे भी दैनंदिन व्यक्तिजीवन में आकस्मिक विलक्षण का उदय हो जाता है। ईसा जैसी पवित्रात्मा की शूली के अगल बगल दो दस्युओं के शूली पर लटकने के द्वैधभाव का प्रतीकार्थ युंग समझता है कि ईसा जो हमारे सामूहिक- 'अंह एवं व्यक्तित्व-उत्कर्ष का प्रतीक है, परस्पर सर्वथा विरोधी भावों से गुजरकर सलीब की पीड़ा झेलता हुआ अपनी दिव्यता उजागर करता है। अपने साहित्य में युंग ने संस्कृत 'द्वंद्व' शब्द का विश्लेषण इसी अर्थ में अनेक स्थलों पर किया है।

प्रेतविद्याविद् तथा परा-मनोवैज्ञानिक एक सूक्ष्मात्मा (सब्लिमिनल सेल्फ) की कल्पना करते हैं जो इस प्रकार की व्यक्तित्व-द्वैधता उत्पन्न करती हैं (उदा. एफ. डब्लू. एच. मियर्स तथा उसके विचारपोषक मिचेल, कैरिंगटन, टिरेल आदि)। यह विचाराधारा वैज्ञानिक जगत्‌ को अभी संतोष नहीं दे पाई है।

विलियम जेम्स ने द्विव्यक्तित्व का कारण स्मृति का खो जाना बताया है। स्मृति के आत्यंतिक अभाव में अपना निजी अर्थात्‌ मूल मनोजगत्‌ पहचानना कठिन हो जाता है और व्यक्ति बिल्कुल अजनबी आचरण करने लगता है (मिलाइए, गीतोक्त 'स्मृति भ्रंशाद् बुद्धिनाशो')। जेम्स कहता है कि साधारण जीवन में भी हम अपने किए हुए वादे, ली हुई जिम्मेवारियाँ आदि भूलने पर अपने आचरण में दूसरों के लिए एक चौंका देनेवाला परिवर्तन ले आते हैं। पूरा व्यक्तित्व बदल जाने की स्थिति तथा इस सामान्य स्थिति में केवल मात्रा का फर्क है। मनोरोग के स्तर पर यह परिवर्तन अपने आप होता है। दार्शनिक लॉक ने बहुत पहले कहा था कि स्मृतियाँ बदल जाने से व्यक्तित्व भी बदल जाता है। फ्रायड का आलोचक शिष्य एडलर कहता है कि व्यक्ति की 'जीवन शैली' में जब आमूल परिवर्तन आ जाता है तो उसकी पुरानी स्मृतियों का संकलित पुंज भी तदनुकूल बिल्कुल बदल जाता है।