सदस्य वार्ता:Ramrajya abhiyan

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हिन्दी ०४:५६, २८ मार्च २०१० (UTC)

स्वागतम्[संपादित करें]

गिरीश जी, हिन्दी विकिपिडिया पर आपका हार्दिक स्वागत है। -- अनुनाद सिंहवार्ता ०८:३३, २९ मार्च २०१० (UTC)


                                            रामराज्य अभियान 

रामराज्य अभियान यहाँ में देश की विभिन्न समस्याओ को उठाता रहूंगा । उनके संभव कारणो को तलाशकर उनके हल सुझाने का प्रयास करूंगा ।हम सभी इस सत्य से भली भांति परिचित है कि देश राष्टीयभावना का अभाव हो गया है और चुनौतिया परतंत्रता से अधिक कठिन और हजारो गुना जटिल हो गई है और कोई राष्टीयता की भावना से ओतप्रोत राष्टीय छवि वाला नायक हमारे बीच नही है जो इससे हमे निकलने में मदद करे । जाहिर है हमें ही हमारी समस्याओ का हल खोजना होगा । इसके लिए राष्टीय चरित्र के निर्माण की आवश्यकता होगी । अपने इस अभियान के माध्यम से अभी तो अत्यंत विषम परिस्थिति में इसी प्रयास की कड़ी में यह यात्रा प्रारम्भ कर रहा हूँ । इस अभियान में सभी का खुले दिल से सहयोग प्राप्त होगा। यही आशा और विश्वास है। इस अभियान को नाम दिया है राम राज्य अभियान यहाँ राम से अभिप्राय धर्म से नही हमारी समृद्ध सांस्कृतिेक विरासत से है जिसमें समानता,भाईचारा,उद्दात प्रेम ,न्याय और सभी जीवो को अभय प्राप्त हो । . आपका ही गिरीश नागड़ा

खतरनाक है यह उदासीनता


प्रश्न सिर्फ विरोध की राजनीति का नही है प्रश्न है सत्यनिष्ठा का, प्रश्न है कि हम किस चीज के लिए क्या दांव पर लगाने जा रहे है उसे देखनासमझना अब जरूरी हो गया है । सत्य को नजरंदाज करके उसका विरोध करने से र्जोर््र भी निहीतार्थ हल हो रहे हो या अहंकारवश बांधा गया द्वेष इसमें अपनी भूमिका निभा रहा हो वहां तक तो ठीक है परन्तु इसके प्रतिकारस्चरूप क्या प्रस्थापित करने जा रहे है यह अवश्य विचार करने वाली बात है और अगर इस प्रस्थापना से उन सिद्घान्तो और मूल्यो को गहरा आघात लगता है र्जोर््र राष्ट््र के हित से जुड़े है तो यह मामला बेहद गम्भीर रूप से चिन्ताजनक और विचारणीय बन जाता है । आज अधिकांशतः लोग ऐसा सब करते हुए इस सच्चाई के प्रति अति उदासीन रूख अपनाते हुए प्रायः ही पाये जाते है हमारा मीडिया इसका शानदार उदाहरण है क्योकि आज प्रायः समूचा मीडिया इसी तरह का व्यवहार करते हुए पाया जा रहा है इसमे अहंकार वश बांधे गये द्वेष के अलावा टी.आर.पी की चाहत और ठेठ व्यवसायिकता के घुस जाने से उसका यह आम व्यवहार हो गया है एक दिन कोई गंभीर आरोप या स्टोरी को उछाला जाता है या छद्म धर्म निरपेक्षता की आड़ में निशाने साधे जाते है जिसके सच या झूठ होने का अपना राष्ट््रहित में महत्व भी होता है जिससे सामाजिक और नैतिक सरोकार जुड़े रहते है ,परन्तु अगले एक दो दिनो में मामला आश्चर्यजनक ़ंग से सिरे से ही गायब हो जाता है ,और सारे अनुतरित प्रश्न अनुतरित ही धरे रह जाते है पूछो तो दो टूक सच सामने आता है कि खेल हो चुका है । अधिक कुरेदो तो पूरी बेशर्मी से बताया जाता है कि धंधा है जनाब शुद्ध धांधा और सारे सरोकार केवल दिखावटी मुखोटे है । करोड़ो रूपयो की ये जो लागत है यह, धन ,सुख ,सम्पन्नता पाने के लिए ही है । अब चाहे वह अगले दरवाजे से आये या फिर पिछले दरवाजे से ,उसका स्वागत तो हमको करना ही है देशसेवा आदि तो सब बाते है सबसे ब़ा सच तो रूपया है । ऐसी मान्यता वाले सभी से यही कहना है कि भैया रूपये का सच भी तब तक ही है जब तक यह राष्ट है जब अगर राष्ट की अस्मिता ही खतरे मे आ गई है तो क्या यह राष्ट जीवित रह पायेगा और अगर राष्ट जीवित नही रहेगा तो क्या तुम्हारा यह रूपया रह पायेगा ,क्या कोई स्वार्थ हल हो पायेगा ?

 आज शहरी कालोनियो के स्तर तक तो अब यह बात देखने में आ रही है कि अपनी कालोनी के हित में जागरूक सि्रक्रय्र लोग इतना समझने लगे है कि पडोसी को बाहरी शक्तियो से तकलीफ हुई है और हम नही बोले तो कल हमारे साथ भी यह तकलीफ आ सकती है अब यही बात राष्ट के साथ भी इसी तरह से सच है 

बस इसी सच को जानने समझने की आज आवश्यकता है । जब जंगल में आग लगी हो तो आपका घोंसला चाहे जितना मजबूत हो ,चाहे जितने उंचे वृक्ष की उंची और मजबूत शाख पर हो और वृक्ष भी चाहे जितना मजबूत हो वह सुरक्षित नही है आज नही तो कल उसे भी सभी के साथ जलनाही होगा । उसे जलने से बचना है तो एक ही उपाय है कि वह निजी स्वार्थों व अंहकार से स्चयं को उपर उठाये और सभी से समरसता पूर्वक सांमजस्य बैठाये मिल जुल कर जंगल के खिलाफ खतरो पर,शत्रुओ की रणनीति पर विचार करे उनको समय से पूर्व पहचाने । इसी प्रकार से हमें भी झूठ को प्रस्थापित कर सच्चाई को पदच्युत करने वालो को आज पहचानने की आवश्यकता है । रामराज्य अभियान एक जागरूकता अभियान है । इसके माध्यम से ंमेरा राष्टीय चरित्रकी चेतना जगाने का प्रयास रहेगा । ंमै जानता हूं कि हम भक्त नही है हम हद दर्जे के स्वार्थी है हमारे अन्दर राष्टीयता की भावना मर चुकी है और उसका स्थानशुद्ध व्यवसायिकता ने ले लिया है ।आजकल एक जुमला खूब प्रचलन मे ंहै कि हमारे यहां हर चीज विक्रय के लिए उपलब्ध है बशतेंर सही तरीके से सही कीमत लगाई जाये ,परन्तु एक चीज है जिसकी बोली से हर कोई इन्कार कर देगा और वह बोली उसके अपने अस्तीत्व की होगी । आज प्रकारान्तर से अस्तीत्व की बोली तो सीधे सीधे नही लगाई जा रही है परन्तु झूठ को प्रस्थापित करने वाले लोगो द्वारा जाने या अनजाने में वही कार्य किया जा रहा है । हम चीजो को र्जोर््रडकर नही देख पा रहे है तमाम तरह के दांवपेंच कोलाहल निज स्वार्थो ने ऐसा धुंधलका फैला रखा है कि आम आदमी आपस में अनावश्यक रूप से उन प्रश्नो के लिए एक दूसरे से गुत्थमगुत्था हो रहा है जिनका वास्तव में अस्तीत्व ही नही है या,र्जोर््र प्रश्न क्रत्रिम रूप से चारे के रूपा में हमारे सामने फेके गये है ताकि हम इनमें ही उलझे रहे और सत्य के बाबत कोई भी विचार ही न करे ।इन्ही प्रश्नो ने आम आदमी को घेर रखा है यह प्रश्न दाल रोटी के है ,िशक्षा के है ,स्वास्थ्य के है ,बस इन्ही से आमआदमी लड़ रहा है और टूट रहा है ।आमआदमी को इसी टूटन से बचाना है और उन प्रश्नो से ,खतरो से अवगत करवाना है जो हमारे सर पर लटक रहे है ,जो वास्तव में अपना ठोस अस्तीत्व रखते है ये वे खतरे है जो लगातार देश की और ब रहे है या योजनाबद्ध तरीके से बाये जा रहे है और राष्ट्र कें रूप मे या अपने अस्तीत्व के संकट के रूप में हम उनसे उदासीन बने हुए है । इन पर आगे आने वाले दिनो में चर्चा करेगें ।.... गिरीश नागड़ा

अब गण पॄाये तंत्र को नैतिकता का पाठ मोटा पाठ[संपादित करें]

गिरीश नागड़ा

हमें खुशी है कि आज हमारा गणराज्य इकसठ वे वार का लोकतांत्रिक संप्रभु राट्र कहलायेगा ।परन्तु क्या हमने साठेतर परिपक्वता प्राप्त कर ली है या सिर्फ धूप में ही अपने बाल सफेद कर लिये है ।क्या साठेतर गणतंत्र का पाठ जो हमने अब तक लिखा है और आगे लिख रहे है वह हमारी आने वाली पी के लिए शिक्षाप्रद होगा ,या वह हमे ंस्थिति को इस हद तक बिगाडने और बिगड़ जाने देने के लिए कोसेगी, दोाी ठहरायेगी । 26 जनवरी 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ ,तब अनैको चुनौतियां हमारे सामने थी और हम राट्रप्रेम के उत्साह से भरे हुए थे गांधीजी को खो देने के बावजूद गांधीजी का ग्राम और स्वदेशी आधारित अत्यंत व्यवहारिक दशर्न हमारे मार्गदशर्न के लिए अनमोल खजाने के रूप में हमे उपलब्ध था । हम कर्ज से मुक्त और संपदा से युक्त एक राट्र थे । हम समूचे विश्व को नयी राह दिखाने की क्षमता वाले सक्षम राट्र थे, परन्तु पता नही, क्या हुआ ,क्यो हुआ । जैसे मेरा देश नजरा गया है । उसके बाद जो कुछ भी हुआ और होता रहा है वह देश के हित में कम नेताओ के उनके वंशजो के बाबू अधिकारियो के और पूंजीपतियो के हित मे अधिक हुआ । लाखो करोड़ो रूपये देश की पंचवाीर्य योजनाओं की भेट़ च़ गये ।देश का तो जो विकास होना था सो हुआ या नहीं न तो किसी को इसका ठीक ठीक पता है न ही किसी यह सब देखने में रूची है । हां नेताओ की पंचवाीर्य योजनाएं अच्छी तरह से मनती चली गई है और उनका भारी भारी विकास होता चला गया है । एक अनुमान के अनुसार हमारे देश के नेताओ का एक लाख करोड़ रूपये से अधिक काला धन स्वीस बैंको में और छदम संपतियो में रखा और निवेशित किया गया है ।इतने धन से भारत की तस्वीर बदली जा सकती है।काफी हद तक गरीबी दूर की जासकती है। परन्तु यह धन आम जनता की गरीबी दूर करने के लिए नही है , बल्कि यही धन आम जनता से छीनकर उन्हे गरीब किया गया है ,इस देश को कर्जदार बनाया गया है ।और भारी विमता की इस खाई को रचा गया है । एक वक्त था कि देश उतमर्ण था । उसके बाद छदम विकास के नाम पर कर्ज लेकर घी पीने की संस्कृति का अनुसरण किया गया ,जिसके अर्न्तगत देश ने कर्ज लिया और नेताओ बाबूओ अधिकारियो ने उसका घी पिया ।और उससे होने वाले भारी भारी घाटो को पाटने के लिए जनता पर टेक्स पर टेक्स लगाये गये ।कीमतो में लगातार बेंतहासा वृद्धि की गई और फिर कर्ज और मंहगाई को आसमान कीउंचाईयो तक पहुंचा दिया गया । वि"kमताओ की खाई इतनी गहरी और चौड़ी हो गई कि घबराकर हजारो लोगो ने आत्महत्याएं कर ली और यह सिलसिला आज भी बददस्तूर जारी है । नेताओ को ठसकी रतीभर भी परवाह या चिंता नही है । बकोल धूमिल भुक्खड जब गुस्सा करेगा अपनी ही उंगलिया चबायेगा॥ भ्रटाचार का सिलसिला प्रारंभ मे तो आटे में नमक के समान था ,उसके बाद नमक आटा आधा आधा हो गया ,और आज तो स्थिति यह हो गई है कि अब नमक में आटा मिलाया जाता है ,वह भी इसलिए ताकि यह सनद रहे कि हमने आटा भी डाला है । अब क्या कितना है इसका नि"पक्ष फैसला करने के लिए कोई नही है ।न किसी की ताकत है कि इतना नमक हजम कर चुके महाबलियों पर उंगली उठा सके न कोई ऐसी हिमाकत करता है । और जो मूर्ख यह भूल करता भी है उसे या तो शहीद होना पडता है या उसकी हालत ऐसी कर दी जाती है कि वह अपनी किस्मत पर रोता है कि उसने ऐसा क्यो किया । क्योकि किसी ने सच ही कहा है कि ॔॔शरीक ए जुल्म यहां हर किसी का चेहरा है ,किसका इंसाफ किससे कराया जाये’’ ? चाहे राट्र के विकास का प्रश्न हो चाहे उदारीकरण और बाजारवाद की नीति को अपनाने का प्रश्न हो ,एक एक नीति ,एक एक कदम सभी के पीछे सभी अंतरग निहितार्थो से भ्रटाचार की मजबूत डोर जुडी हुई है । अर्थ के इस भ्रट और गंदे खेल में हमारा गणतंत्र केवल झंडा फहराकर जनगण मन अधिनायक जय है जय है जय है गाने के लिए विवश और लाचार है । जनगण विवशताभरी डबडबाई आंखों से सब देखभर सकता है चिकन की दुकान के दडबे में बंद मुर्गे की तरह , बस । हर वार हमारे गणतंत्र की क्लास मे ब्लेकबोर्ड पर पुराना वार मिटाकर नया वार डाल दिया जाता है । स्कूल के ग्राउंड से लेकर लाल किले तक झंडावंदन हो जाता है । मेरे देश की धरती एवं ऐ मेरे वतन के लोगो का रेकार्ड बजा दिया जाता है बच्चे तालिया बजाते हैऔर नुक्ती के प्रसाद का वितरण हो जाता है ।इसके बाद फिर से नेता और अधिकारी मिलकर नयी योजनाओ के साथ नयी उर्जा से भरकर आपसी भाईचारे के साथ तनमन से जनगण को लूटने में लग जाते है । विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राट्र के राट्रपति का शपथविधि समारोह भी इतना सादगीभरा होता है कि अगर वे हमारे पा"kर्द के चुनाव का भी नजारा देख ले तो शरमा जाए ।हमारे गणतंत्र दिवस के एश्वर्यशाली समारोह ,व हमारे राट्रपति जो मात्र रबर स्टाम्प होते है उनकी शान और शौकत देखकर विश्वभर के मेहमानो को भी लगता है कि भारत भी कोई गरीब नही वरन महासम्पन्न विकसित देश है । राजामहाराजाओं को तो नेताओ ने ठिकाने लगा दिया है परन्तु हमारे नेताओ ने उनके एश्वर्य को भी पीछे छोड़ दिया है ।किसी बड़े से बड़े राजा महाराजा ने भी अपने राज्य के स्वर्णकाल में भी ऐसा एश्वर्य देखा और भोगा नही होगा जो हमारे गणतंत्र में हमारे ये सेवक भोग रहे है ।और गण की स्थिति तो ठगे हुए और लुटे हुए शख्स की तरह हो गई ।धूमिल ने हमारे गण की स्थिति की व्याख्या करते हुये लिखा है कि जनता क्या है ? एक शब्द ....सिर्फ एक शब्द कुहरा ,कीचड़ और कांच से बना हुआ ,वह एक भेड़ है जो दूसरो की ठंड के लिए अपनी पीठ पर उन की फसल ो रही है । परन्तु क्या अब समय नही आ गया है कि गण को तंत्र से जोड़ा जाए । और तंत्र को गण की सच्ची देखभाल करने के लिए विवश किया जाए । हमारे नेताओ को अटलजी की संसद में दी गई सीख याद दिलाई जाए कि आखिर एक व्यक्ति को कितना पैसा चाहिए ,उसकी कोई तो सीमा होना चाहिए । यह तो तय है कि वह व्यक्ति स्वयं तो अपने इस असीमित काले धन का कोई उपभोग नही कर पायेगा ।किसी दिन स्वीस बैंक में ही रह जाएगा या फिर चौराहे पर ही उनके पाप का भंड़ाफोड़ हो जायेगा या फिर कुते खीर खायेगे।

नया कोर्स :चौपट न कर दे ग्रामीण स्वास्थ को[संपादित करें]

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संदर्भ सा़<+s तीन व"kZ का बी.आर.एम.एस.कोर्स

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ड़ॉ गिरीश नागड़ा


गांव मे डॉक्टरो का अभाव है । स्वास्थ सुविधाये पूरी तरह से शून्य है ।और गांव तक डॉक्टर जाने के लिए तैयार नही है । सरकार ने सदा की तरह इसका कारण तलाशने और उन कारणोको जडमूल से दूर करने के सीधे रास्ते को अपनाने के स्थान पर इस समस्या के पत्तो पर अपना ध्यान केद्रित किया है । उसी के तहत सरकार ने मेडिकल कांउसिल ऑफ इंडिया को यह समस्या दूर करने कीजिम्मेदारी सौपी है कि वह इस समस्या को हल करने के लिए कुछ करे।सो अब मेडिकल कांउसिल नेगांव में जाने की शर्त पर सो तीन व"kZ का बी.आर.एम.एस बैचलर अॉफ रूरल मेडिसिन एंड सर्जरी कोर्स प्रारंभ करने का निर्णय लिया है । क्या इससे समस्या का पर्याप्त और पूर्ण हल हो सकेगा क्या यह कदम उचित है ? क्या देश में डॉक्टरो का अभाव है ? हम केवल म.प्र. में बेरोजगार डॉक्टरो के आंकडे देखें तो बsहद चिन्ताजनक स्थिति हमारे सामने आती है । म.प्र. में 15400 एलोपैथिक डॉक्टर ,7090 आयुर्वेदिक डॉक्टर , 5080होम्योपैथिक डॉक्टर और 1700यूनानी डॉक्टर बेरोजगार घूम रहे है । अगर राट्रीय स्तर पर यह आंकडे देखेगे तो बेहद निराशाजनक व भयावह चित्र हमारे सामने उपस्थित होता है । इस हिसाब से अगर एक एक गांव में दस दस चिकित्सक भी हम भेज देते है तो भी बेरोजगार डॉक्टर शोा बच जायेगे । क्या सरकार ने इन बरोजगार डॉक्टरो को गांव में भेजने के बारे में गभीरता से कोई विचार करने का कोई प्रयास किया है ?परन्तु सरकार तो रटा रटाया जवाब देना जानती है कि क्या करे डॉक्टर गांव मे जाने के लिए तैयार ही नही है ।यह जवाब पर्याप्त नही है अब सरकार को इस दिशा में कुछ सोचना चाहिए ,न कि दोयम दर्जे की फोज खडी करने का निर्णय लेना चाहिए। आईये हम उन कुछ कारणो को देखने समझने का प्रयास करते है जिनकी वजह से गांवो में डॉक्टर जाना नही चाहते है हम शहरी डॉक्टरो की वर्तमान स्थिति पर विचार करते है तो पाते है कि शहर के डॉक्टर और गांव के डॉक्टरो की आर्थिक और सामाजिक स्थिति मे जमीन आसमान का फर्क है।एक और तो सोने के अम्बार है तो गांवो की स्थिति चिक्त और अंधी खाई के समान है ।शहर के डॉक्टर को तो नाममात्र की नौकरी बजाना है और फिर अपनी नौकरी की प्रतिठा के आधार पर अपनी डिस्पेन्सरी ,अस्पताल, या नर्सिग होमो मे मनचाही कमाई करने का भरपूर अवसर मौजूद है ।डॉक्टर नौकरी में नही है तो भी उन्हे प्राइवेट अस्पतालो ,नर्सिगहोमो में या स्वयं की प्रेक्टीस कर हजारो रूपये कमाने के अवसर मौजूद है ।अगर सर्जन है और अपनी मार्केटिग में कुशल है तो लाखो रूपये प्रतिदिन कमाना भी शहरो मे संभव है और कमा भी रहे है । धन कमाने के अलावा सामाजिक जीवन में हाई प्रोफाईल लोगो की कम्पनी में उठना बैठना ,उंचे और महंगे क्लबो में मनोरंजन करना ,स्टार होटलो में भोजन करना ,बच्चो का हाईप्रोफाईल लोगो के बच्चो के साथ मंहगेस्टार स्कूलो ,कालेजो में पॄना ,मंहगी कारो को चमचमाती सडको पर दौडाना आदि आदि ।अर्थात खूब सारा धन कमाना और दिल खोलकर खर्च करना ।सारी शान शौकत और एश्वर्य को भोगना ।अपने दोस्तो रिश्तेदारो ,सोसायटी के बीच अपना रूतबा ,दबदबा कायम करना और खूब दिखावा करना । सारे सुख उनके हाजरे हजूर है ,और कोई उँगली उठाने वाला भी नही है । दवा कम्पनियो की भेंट़ सौगातो पर हालाकि अब प्रतिबंध लगा दिया गया है परन्तु पिछले दरवाजे से वह सब बेहिचक जारी है । दवा कम्पनियां अपना मुनाफा बंटोरने अन्य कंपनियो से प्रतिस्पर्धा में आगे रहने के लिए कोई भी हथकन्डा अपनाने से गुरेज नही करती है।शहरो में डॉक्टर,नर्सिगहोम,अस्पताल,पेथोलाजिकल लेब,अन्य जांच सेन्टर, दवा निर्माण कम्पनियां,दवा विक्रेता इन सब में आपसी मौसेरी रिश्तेदारी है सभी को धन कमाने की अंधी और भारी भूख है । भुक्खडता की व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते सारी मानवीयता और नैतिेकता के तकाजे को पूरी तरह से दफन कर चुके है ।विश्व स्वास्थ संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रसव आपरेशन के लगभग 60 प्रतिशत मामलो में भारत मे केवल पैसा कमाने के लिए गैर जरूरी प्रीप्लान आपरेशन किये प्रसव किये जा रहे है ।सर्जरी के कई मामलो में भी रूपयो के लिए गैर जरूरी प्रीप्लान आपरेशन किये जाते है ।और कई सर्जनो को तो हजारो,लाखो रूपये लेने से भी संतोा नही होता है तो वे सर्जरी के दौरान किडनी भी चुरा लेते है । मानवअंगो की तस्करी के रूप मे भी उनका एक घिनोना चेहरा सामने आया है । अर्थात धन कमाने की लालच के चलते यह नोबल पेशा शहरो में बुरी तरह से पतन के गर्त में चला गया है सेवा के इस पावन कार्य करने वालो को जहाँ जनता तो भगवान समझती है परन्तु इनके लिए तो आज धन ही इमान है और धन ही भगवान है । दूसरी और हम गांवो की स्थिति देखते है तो गांव में उन्हे धन कमाने के अवसर तो छोडिए प्रारंभिक रूप से अनिवार्य सुविधाये भी उपलब्ध नही है क्योकि गांवो में न तो बिजली है,न पानी है ,न सडक है न शिक्षा है ,न सुरक्षा है ,न कोई सामाजिक जीवन है ।इसीलिए डॉक्टर शहरो में बेरोजगार बनकर रहना पसंद करते है परन्तु गांव में जाना ही नही चाहते है । परन्तु इसके लिए उन्हे दोा देना या गिनती से बाहर कर देना तो कदापि उचित नही है और नही इस खाई को पाटने के लिए दोयम दर्जे के डॉक्टरो की फौज उतारना कोई सही हल है ।क्योकि ये दोयम दर्जे के डॉक्टर ग्रामीण जनता के स्वास्थ के साथ जो खिलवाड करेंगे वह तो और भी भयावह होगा । और आज गांव की जो वर्तर्र्मान परिस्थितिया है उनमे मुझे पूर्ण विश्वास है कि ये दोयम दर्जे के डॉक्टर भी दिल से गांव में रह नही पायेगे । दिल की तो बात छोडिए,शरीर से भी गांवो में भी अनुपस्थित रहकर अपनी उपस्थिति दशार्ने की जुगाड मे पहले दिन से ही लग जाऐंगे । क्योकि जो कार्य उन्होने शर्त के डंडे के बल पर प्रारंभ किया है वे स्वाभाविक ही है कि उस डंडे को झांसा कैसे दिया जाए इस बारे मे सोचेगा ही ।यह स्वाभाविक ही है ।अथार्त गांव की स्थिति तो लगभग जस की तस बनी ही रहेगी और सरकार द्वारा यह दोयम दर्जे के इन डॉक्टरो की नई समस्या खडी कर ली जाएगी । इस सब कवायद के स्थान पर सरकार कुछ ऐसे उपाय क्यो नही करती कि डॉक्टर गांव में जाने के लिए तैयार भी हो जाये और इन बेरोजगार डॉक्टरो को अच्छा रोजगार भी प्राप्त हो जाये ।वे उपाय क्या हो सकते है आईये इस बारे में हम कुछ विचार करते है सबसे पहले तो गांव की स्थिति में सुधार किया जाना प्रारंभिक व प्राथमिक रूप से बहुत जरूरी है । सच पूछा जाये तो गांव की तस्वीर वाोंर से वही है और गांव के हक में अभी तक कोई भी कार्य गम्भीरतापूर्वक नही किया जा रहा है ।काम को तो छोडिये ,गांव को लेकर सरकार के पास कोई ईमानदार ठोस परिवर्तनकारी मौलिक सोच ही नही है ।गांधीजी के ग्रामीण आधारित दशर्न को बहुराट्रीय कम्पनियो के बाजारवादी दशर्न के आगे सरकार लगभग खारिज कर ही दिया है ।शहरो में तो सिंगापुर के दशर्न होने लगे है परन्तु गांव कुछ नाम मात्र के परिवर्तनो के अलावा एक सदी पूर्व की दुर्दशा पर स्थिर होकर रह गये है । अब सरकार को गांवो की स्थिति की वर्तमान दुर्दशा पर अपना ध्यान केन्द्रित कर गांव के विकास के लिए गांवो में बुनियादी सुविधाये जुटाने के लिए गम्भीरतापूर्वक पूर्ण ईमानदारी से फोकस कर समयबद्ध विकास लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए । जिन डॉक्टरो ने शहरो में पन्द्रह वार पूर्ण कर लिए है उनके लिए मेडिकल कांउसिल के माध्यम से एक अनिवार्य आदेश जारी किया जाये कि उन डॉक्टरो को चाहे वे सरकारी सेवाओ में हो या न हो आगामी दस वार जिस गांव में जाने के आदेश दिया जाता है उसी गांव में जाकर डॉक्टरी करना अनिवार्य होगा । उनके साथ दो जूनियर डॉक्टर भी रहेगे । इससे ग्रामीणो को अनुभवी डॉक्टरो की चिकित्सा का लाभ भी मिल सकेगा । गांव में नियुक्त डॉक्टरो को विशोा आकार्क वेतन,भत्ते और सुविधाये दी जानी चाहिए । गांव में नियुक्त ये डॉक्टर पूर्ण ईमानदारी से सदभावपूर्वक बिना किसी भेदभाव के नियमित अपनी ड्रयूटी कर कर रहे है यानही इसकी सतत व गुप्त मानिटरिग की जाना चाहिए ।वर्तमान स्थिति को देखते हुए बेहद जरूरी है । सरकार को सभी पैथियो के साथ समानता पूर्वक व्यवहार करना चाहिए । अगर सरकार अन्य पैथियो को अविश्वसनीय मानती है तो उनकी शिक्षा ही उसे बन्द कर देना चाहिए परन्तु ऐसा भेदभावपूर्ण व्यवहार तो नही करना चाहिए ।उन्हे भी आगे आने और सेवा करने का अवसर दिया जाना चाहिए क्योकि उन्होने भी सा़ेपांच वार की विधिवत डॉक्टरी शिक्षा प्राप्त की है । इस प्रकार सरकार द्वारा कुछ ऐसा रास्ता निकाला जाना चाहिए कि सा़े तीन वार के दोयम दर्जे की पॄाई की आवश्यकता ही न रहे और हमारे बेरोजगार डॉक्टरो को भी बेहतर अवसर प्राप्त हो सके और जनताखासकर ग्रामीण जनता के स्वास्थ के साथ कोई समझौता भी न करना पडे । हपतपेीण्दंहकं/लींववण्बवउ

<nowikएक महायज्ञः नेत्रिशविर यहाँ निवेश करें</nowiki>[संपादित करें]

एक महायज्ञः नेत्रिशविर कैसे करे, एक सुव्यवथित नेत्रिशविर का आयोजन ड़ॉ. गिरीश नागडा

मेोतियाबिन्द एक उम्र के बाद होने वाली आम बिमारी है।अधिकांशतः प्रो को कभी न कभी यह कट आ ही घेरता है।निजी तौर पर इसका आपरेशन एक महंगा सौदा है,जो अधकांश गरीब और निम्नमध्यमवर्ग के लिये काफी भारी या लगभग असंभव होता है। और कई बार, कई लोग करवा ही नही पाते है। विभिन्नसामाजिक संस्था और दानदाताओ ने इस समस्या को समझा है और इसके हल के रूप में नेत्रिशविरो का प्रचलन चल पडा,जो एक श्रेठ और पुण्य का कार्य तो है ही ,गरीब और कमजोर वर्ग को भारी राहत देने वाला भी होता है ।देशभर में जगह जगह वार्भर नेत्रिशविर शासन,व दानदाताओ के सहयोग से विभिन्न समाजसेवी संस्थाये आयोजित करती रहती है ,और समस्त व्यवस्था और खर्च का भार दानदाताओ के सहयोग से वहन किया जाता है। नेत्रिशविरो की सर्वाधिक आवश्यकता गा्रमीणअंचलो मे होती है।अतः अधिकांशतः ग्रामीण कस्बो,गांवो में ही े ये लगाये जाते है।जिससे अधिक से अधिक जरूरतमंद लोगो को लाभ मिल सके।अगर भारत मे ये सेवाभावी िश्विर लगने का प्रचलन नही होता तो कई गरीब निम्नवर्ग के लोग पुनःदेख नही पाते ।यह गरीब और निम्नमध्यमवर्ग के अंधेरे में प्रकाश का उजास भर देनेवाला वरदान साबित होता है। कई लोग इसकी तुलना महायज्ञसे,कई भागवतजी की कथा से करते हुए नेत्रिशविर के पुण्य को ेतुलनात्मक रूप से अधिक पुण्यकारी मानते है।क्योकि यह माना जाता हैकि किसी की आंखो को रोशनी देने का पुण्य जीवनभर दुआ के आशीर्वाद के रूप में बरसता रहता है।ओर उसमे किसी भी रूप मे सहयोग करने वाले के खाते मे भी पुण्य का अंश उसकी सेवा की तुलना के अनुपात मे अवश्य जाता है।इसी भावना के चलते शिविर मे सेवा और सहयोग करने के लिए अनैको स्वयंसेवक,कार्यकर्ता अपना नाम, आगे आकर उत्साहपूर्वक दर्ज करवाते है । हमारे देश में लगभग पचास वार से भी पूर्व से नेत्र शिविर का सिलसिला चलते हुए समाज को राहत पहुंचा रहा है परन्तु कई नेत्रिशविरो को देखने के बाद ऐसा लगा कि इन शिविरो में भारी अव्यवस्था हो जाती है।किसी को कुछ ठीक ठीक पता नही होता कि वास्तव में क्या,कैसे,कब करना है जिसे जैसा सूझता है वह वैसा करता है।तालमेल का भारी अभाव होता है। और अंततः यह स्थिती हो जाती है कि बस किसी भी तरह से काम निपटाना है।सारी अव्यवस्था देखकर दानदाता का भी मन मायूस हो जाता है।रोगी भी तरह तरह से कट उठाने के लिए विवश होते है। अगर हम नेत्रिशविरो के पूर्व ही सारी आवश्यक जानकारी जुटा लें,ओर फिर योजनाबद्ध तरीके से उसका किसी योग्य व्यक्ति की देखरेख मे आयोजन करें तो सुव्यवस्थित ,सुखद ,यादगार नेत्रिशविर आयोजित कर सकते है और वह बहुत कठिन या असंभव कार्य नही है।आइये देखे कि किस तरह से हम एक सुन्दर, सुव्यवस्थित नेत्रिशविर का आयोजन कर सकते है? सबसे पहले कितने रोगियो का अधिकतम आपरेशन किये जाने का लक्ष्य है,उसकी संख्या बजट संसाधनो के अनुरूप तय कर ले।क्योकि उसी के आधार पर सारी तैयारिया करनी होगी । रोगी और कार्यकर्ताओ की संख्या के अनुरूप :पलंग संभव हो सके तो: गादी,तकिये,बिछाने की दो चादरे,ओने की एक चादर। और एक एक रजाई होना चाहिए । गर्मियो मे तीन रोगियो पर एक पंखा होना चहिए । प्रति 10 रोगियो पर कम से कम 1टायलेट, 1बाथरूम ,पर्याप्त पानी की व्यवस्था के साथ होना चाहिए । प्रति 12 घंटे बाथरूम और टायलेट सहित साफ सफाई होनी चाहिए । साफ और शुद्ध पेयजल की पर्याप्त व्यवस्था होनी चहिए । प्रति व्यक्ति 1थाली 1गिलास,1-चम्मच, 2गिलास का सेट होना चाहिए । दो बिस्तरो के बीच कम से कम 2फुट का अंतर होना चहिए । प्रति पांच रोगियो पर कुल 3 अटेन्डेट :स्वयंसेवकः सेवा मे तैनात होने चाहिए जो 88 घांटे मे अपनी पाली बदले ।वे पूर्णतः सेवाभावी हो । प्रति पांच रोगी एक स्लाईन बाटल स्टेण्ड उपलब्ध हो ।प्रति बीस रोगी एक आक्सीजन सिलेण्डर उपलब्ध हो एक साफ सुथरा आपरेशन थियेटर,जिसमे पर्याप्त जगह हो,प्र्याप्त फोकस वाली लाईट व्यवस्था हो,

नेत्रिशविर भाग2

एक एक्जास्ट फेन,मोसम के अनुरूप कूलर या हीटर,साथ ही ब्लडप्रेशर,ूब्लडशुगर,चेक करने के इस्ट्रूमेन्ट,दो स्अे्रचरट्राली । प्रति10 स्वयंसेवको पर एक टीम लीडर हो । नर्स और कम्पाउंडरो की प्र्याप्त संख्या मे उपलब्धता । एक एम्बुलेन्स ड्रायवर के साथ ।एवं एक अतिरिक्त वाहन । एक नेत्र रोग विशोाज्ञ,एक अन्य सहयोगी डाक्टर,व दो सहयोगी । प्रति पांच रोगी एक आल आउट । दो सफाईकर्मी ।भोजनशाला के लिए बरतन सफाई करने वाली दो बाईयां । कम से कम दस कार्यकर्ता आपतकालीन आपूर्ति के लिए । रक्तदाताओ की सूची,फायरबिगे्रड,पुलिस,सेवाभावी निजी चार पहिया वाहन मालिको की सूची । एक पूछताछ,सम्पर्क सूत्र,सहायता केन्द्र ,टेलिफोन सहित ।सभी कार्यकर्ताओ के नाम ,पते,फोन नं.,एवं उनके दायित्व का उल्लेख । एक भोजनशाला,उसके एक प्रमुख इंचार्ज,जिनके सुपुर्द सबंधित सारी व्यवस्था हो । एवं सहयोग करने वाले कार्यकर्ता । एक प्रमुख ,प्रभावी ,उत्साही ,विनम्र, व्यवस्थापक,कार्यकर्ता ।सभी जिसके आधीन ,निर्देशन मे सुचारूरूप से कार्य कर सके ।वह ट्रबलशूटर भी हो ।िेकसी भी व्यक्ति को कोई भी समस्या हो,आवश्यकता हो, वे सभी उनसे सम्पर्क करेंगे । व्यवस्थापक ही सभी कार्यकर्ताओ का चयन,उनके दायित्वो का वितरण भी करेगे । एक जनरेटर या इनवर्टर । इस प्रकार से हम अगर उपरोक्त बिन्दुओ का गम्भीरता पूर्वक ध्यान रखते है ,तो हम एक यादगार,सफल, नेत्रिशविर का आयोजन कर सकते है । जिससे हमारी आत्मा को सच्ची खुशी मिलेगी ।उसकी तुलना मे संसार की कोई भी प्राप्ति छोटी लगती है ।और जिनकी आंखो को रोशनी मिली है,उनके चेहरे की खुशी और संतोा देखकर हम धन्यधन्य ही,हो जाते है ।और हमारे मन को एक अच्छा भलाई और सच्ची सेवा का कार्य करने का सकून मिलता है ।जो अदभूत होता है । हां यह सब ऐसा ही हो तो बहुत ही अच्छी बात है परन्तु हो सकता है कई बार सब इसी प्रकार से जुटाना करना चाहकर भी संभव नही हो पाता है ।और यह सोचकर आयोजन ही न किये जाये ।या यह आयोजन करने का विचार ही खारिज कर दिया जाये ।नही वह तो बहुत अधिक गलत होगा ।हमारा यह आशय कतई नही है ।जैसे भी संभव हो आयोजन तो अवश्य किये जाना चाहिए ।क्योकि इससे गरीब वर्ग को बेहद लाभ मिलता है ।और यह करने योग्य सर्वोतम सेवाकार्य है ।हमारा आशय मात्र इतना है कि यह संभवतया निर्दाो और अच्छे से ,व्यवस्थित किये जाये ।और पूर्व मे रूपरेखा आयोजना बना कर किये जाने से यह संभव हो सकेगा ।ओर आयोजना मे सहायता के लिए ही न्यूनतम बिन्दुवार जानकारी यहां दी गई है ।जो आयोजको के लिए मददगार मार्गदशर्क बने अवरोधक नही । आपका यह शुभ आयोजन व्यवस्थित और सफलता पूर्वक सम्पन्न हो ,यही हमारी कामना है ।शुभेच्छा है ।

डॉ॰गिरीश नागडा प्रस्तुतकर्ता girish.nagda पर १०:११ AM 1 टिप्पणियाँ

                        युवाओ के लिए अनुकरणीय नही, घातक है थ्री इडियट 

थ्री इडियट जिन्दगी को रिवाइन्ड नही किया जा सकता आल इज नॉट वेल

डॉ॰गिरीश नागड़ा

यह किसी फिल्म की समीक्षा नही है और न ही यहाँ पर किसी फिल्म के बारे में कोई गंभीर और लंबी चर्चा करने का सामान्यतया कोई औचित्य ही है परन्तु कोई बात गंभीर हो और समाज के एक तबके खासकर युवावर्ग के उसके प्रभाव में आकर गलत कदम उठाने का अंदेशा पैदा हो जाए,और फिल्म पर छात्रो द्वारा आत्महत्या एवं रेगिंगके लिए प्रेरित करने के आरोप लग भी रहे है तो उसपर कुछ गंभीर और खुलासेवार चर्चा करना बेहद जरूरी हो जाता है ।हाल मे आयी ये फिल्म ॔थ्री इडियट’ बहुत पसंद की जा रही है खासकर युवावर्ग द्वारा ।इस बात का अंदेशा है कि फिल्म से प्रभावित युवावर्ग भावुकता में बहकर अपनी पॄाई बीच मे ही छोड़ दे ।क्योकि फिल्म में इस बात की सशक्त वकालत करने का प्रयास किया गया है ।यह बिल्कुल सच है कि जीवन में बहुत दबाव है तनाव है । परन्तु यह भी इस समय का उतना ही बडा सच है कि हम अपने जीवन में उनमुक्त ंएंव ,स्वतंत्र नही है । थ्री इडीयट की बहुत प्रशंसा हो रही है परन्तु यह प्रशांसा अर्द्धसत्य की है । पूरा सच वह नही है जो फिल्म में चतुराई से हास्य के साथ मिलावट कर दिखाया गया है ।फिल्म में आल इज वेल की प्रेरणा अंधे चौकीदार से ली गई है जो जानता ही नही कि आल इज वेल है या नही ।क्योकि नही दिखता तो होप सो सब वेल ही होना चाहिए । हां यह सच है कि ऐसा होना चाहिए और यह अर्द्धसत्य हमारे जीवन का पूर्णसत्य होना चाहिए । परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नही है । जो होना चाहिए वह और जो है कम से कम हमारे देश में उसके बीच में एक बहुत गहरी ओेेेेेैर विक्त खाई है। यह खाई सिर्फ माता पिता की इच्छा की खाई नही है । यह हमारी व्यवस्था की खाई है ।आज जो है और जो होना चाहिए उसके बीच विरोधाभास के इतने सारे मोंड है कि अगर किसी एक मोड पर रतीभर भी चूके तो भयानक एक्सीडेन्ट तय है । इस देश में लाखो ऐसे दुर्भाग्यशाली है जिनकी परीक्षा परिणाम का एक कम अंक उनके जीवन को ,उनके समूचे भविय कों सदा के लिए घनघोर अंधकार में डुबा देता है । और जिस एक अंक अधिक लाने वाले का चयन होता है उसकी तो लाटरी ही निकल आती है उसका तो जीवन ही जश्न बन जाता है । एक अंक से कोई योग्यता का फर्क नही होता है परन्तु दोनो के जीवन में जमीन आसमान का फर्क कर देता है । बात मात्र अंको की नही है जीवन के हर पहलू में यह सच हमें देखने को मिलता है । रूची पसंद और चाहने का प्रश्न जो फिल्म में दिखाया गया है उस प्रश्न का सच क्या है? बेशक कुछ भाग्यशाली ऐसे होते है जो अपनी इच्छा ,अपनी पसंद, अपनी रूची के अनुकूल अपना पेशा चुनते है और सफल अभिनेता,गायक,चित्रकार,लेखक,शायर, या कि्रकेटर बन जाते है परन्तु कितने ? उनका प्रतिशत कितना अधिक नगण्य होता है क्या इस बात का ध्यान नही रखा जाना चाहिए ? जीवन के रंगमंच पर रीटेक के लिए कोई अवसर या संभावना नही होती है । क्या डाल से चूका हुआ बन्दर कह सकता है कि एक बार फिर से कोशिश करने का अवसर उसे मिलना चाहिए ,क्या जिन्दगी इसके लिए उसे दुबारा मौका देगी? फिल्म में दिखाया गया है कि केम्पस सलेक्शन मे नोकरी देने आयी कम्पनियो को इन्टरव्यू देने के स्थान पर और इंजिनीयरिंग। के अंतिम सेम की परीक्षा मे शामिल होने के स्थान पर छात्र फरहान को उसकी रूची के केरियरं वाईल्ड लाईफ फोटोग्राफी मे जाने को प्रोतसाहित कर जायज ठहराया गया है ।इसके लिए उसने पॄाइ्रर बीच में ही छोड दी । क्या यह कोरी आत्मघाती भावुकता नही है ?आज कितने वाईल्ड लाईफ फोटोग्राफर है जिनका शानदार केरियर है? प्रतिभाओ की तो हमारे देश में कोई कमी नही है छोटे से गांव में भी अभाव ्र तंगहाली का जीवन जीते हजारो अनग़ हीरे मिल जायेगे जिन्हे हल्खा सा तराशा जाए तो वह सितारा बनकर, स्थापित सितारे की चमक को फीका कर दें ।परन्तु ऐसे अनग़ हीरो को खोजने परखने वाला जौहरी आज तक पैदा ही नही हुआ । क्योकि वर्तमान व्यवस्था में उसकी कोई आवश्यकता ही नही समझी गई है । आज तो हमारी समूची व्यवस्था का सच और विशोषता यह है कि वह यह अच्छी तरह से जानती है कि प्रतिभा का गला कैसे घोटा जाता है और यह कार्य वह बहुत अच्छी तरह से करती है । लेकिन यहां हम फिल्म के इस तर्क कों मान भी लेते है कि वह छात्र विश्वस्तर का वाईल्ड लाईफ फोटोग्राफर बन भी जाता है,परन्तु यह कार्य वह इन्टरव्यू देकर, अंतिम सेम की परीक्षा देकर भी तो कर सकता था ।वाईल्ड लाइफ उसकी प्रतिभा के लिए छः माह और प्रतिक्षा कर सकती थी ।यह जीवन कोई सर्कस नही है जिसमें अगर एक झूले को छोडकर जब दूसरे झूले को पकडने में कोई चूक भी होती है तो नीचे लगी नेट जीवन को बचा लेती है परन्तु इंजिनीयिंरग की डाल को छोडकर वाईल्ड लाइफ फोटोग्राफी की डाल पकडने में असफल हो गये तो हमारी इस क्रूर व्यवस्था के पैने नाखून वाईल्ड लाइफ के खूंखार जानवरो से भी कई गुना पैने है ये प्रतिभा को फाड़कर खा जायेगे और डकार भी नही लेगे क्या यह बात उतनी ही सच नही है ?आज के अधिकांश युवा स्वयं में सचिन तेन्दुलकर को,शाहरूखखान को देखते है तो क्या आप सलाह देगें कि उन्हे अपनी पॄाई बीच में छोडकर बल्ला लेकर निकल पडना चाहिए ।या मुबंई की ट्रेन पकड़ लेना चाहिए ? ंफिल्म में फरहान अपने पिता को तर्क देता है कि क्या फर्क पडता है कि उसके पास अपेक्षाकृत छोटा घर ,छोटी गाडी थोडा कम पैसा होगा पर कम से कम वह खुश तो रहेगा,परन्तु कोई गारंटी है कि रूची के अनुरूप अपनाये गये जाब में अपेक्षाकृत थोड़ा कम तो मिल ही जायेगा ? हम देखते है कि व्यवहारिक जीवन मे इसकी कोई गारंटी नही है कि बडी गाडी न सही अपेक्षाकृत छोटी गाडी तो होगी ,बल्कि यह भी हो सकना मुमकिन है कि सायकल भी दुश्वार हो जाए ।अपने आसपास हमे ऐसे अनैको उदाहरण देखने को मिल जायेगें ।इसीलिए मातापिता चाहते है कि उनका बेटा ऐसे केरियर को चुने जो आज का आम प्रचलित केरियर हो या जो कम से कम जुआ न साबित हो ।जीवन को कोरी भावुकता के हवाले करने के स्थान पर उस केरियर के सभी आस्पेक्ट पर विचार कर संबधित सभी तथ्यो को जान लिया जाए तो गलत क्या है ?युवावर्ग को निश्चित रूप से अपनी रूची का केरियर चुनने की आजादी होना चाहिए ।उसके लिए प्रोत्साहन देने वाली न्यायपूर्ण व्यवस्था होना चाहिए ।इसके लिए आमूलचूल परिवर्तित शिक्षा प्रणाली होना चाहिए ।भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति और प्रशासन होना चाहिए । यह सब होना चाहिए अवश्य, परन्तु है नही ।जो होना चाहिए वह हमारे हाथ में नही है ,और उसे हम है ऐसा मानकर चलेगें और उसका अनुसरण करने का प्रयास करते हुए कदम आगे बायेगे तो हमारा वह कदम आत्मघाती हो सकता है ।किसी भी युवा को ऐसा कोई भी कदम उठाने से पहले हजार बार सोचना चाहिए कि वह जो कुछ करने जा रहा है क्या वह उचीत है ?क्योकि जिन्दगी को रिवाइन्ड नही किया जा सकता है । हपतपेीण्दंहकं/ लींववण्बवउ

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== '''यूनीक आई डी नम्बर --- यह योजना ठीक तरह से प्लान नही की गई है''' == मीडिया:उदाहरण.ogg[संपादित करें]

यू.डी.आई.डी.ए.आई के चेयरमेैंन नन्दननीलेकणी ने कहा है कि यूनीक आई डी नम्बर दौ सौ साल आगे तक की प्लानिग स्ो प्लान की गई एक महत्वकांक्षी योजना है । यह नंबर सिर्फ पहचान ही नही देगा बल्कि जीवन के कई काम आसान कर देगा ।परन्तु आगे जो नीलेकणी ने बताया उससे बहुत ही मायूसी हुई है । उन्होने कहा कि यह एच्छिक होगा । नागरिकता का प्रमाण नही होगा । और आपके अन्य पहचान पत्रो या कार्डो का विकल्प नही होगा । और नागरिको को अन्य सभी कार्डो को भी अपने पास रखने की आवश्यकता होगी । और उन सब से जुड़े कार्यो में पूर्ववत कार्ड प्रस्तुत करना होगें,चाहे लायसेंस हो ,पेनकार्ड हो ,वोटर कार्ड हो ,राशनकार्ड हो या अन्य प्रमाणपत्र हो । इसकायह अर्थ है कि यह योजना ठीक तरह से प्लान नही की गई है । और इस हिसाब से यह योजना अपूर्ण और अविश्वसनीय है ।

यहां कुछसुझाव प्रस्तुत कर रहा हूं कि यूनीक आई डी कुछ इस प्रकार की होना चाहिए

सबसे पहले यह नागरिकता की विश्वसनीय पहचान का प्रमाण होना चाहिए । यह अनिवार्य होना चाहिए । एच्छिक नही । इसके लागू होने के बाद किसी कार्ड की आवश्यकता नही रहना चाहिए । नागरिक केवल अपना पहचान नं.बताए और उसके कार्य सम्पन्न हो जाने चाहिए । देंशभर में सभी जगह जहां भी नागरिक की पहचान की आवश्यकता हो वहां के कम्प्यूटर में इसका डाटाबेस मौजूद होना चाहिए सभी कम्प्यूटर आन लाइन सेन्ट्र्र्ल सर्वर से भी जुड़े हुए होना चाहिए । नागरिक की अधिकतम जानकारी इसमे शामिल होना चाहिए । और जानकारी को अपड़ेट करने का प्रावधान भी होना चाहिए । वर्तमान व्यवस्था में नागरिक एक चोर है या वह वो नही है जो वह बता रहा है ।अगर यह बात गलत है तो वह अपने वह होने का पर्याप्त प्रमाण लेकर आये और सिद्ध करे कि वह स्वयं है । और इसमे भी किसी को कोई प्रमाण मंजूर है तो किसी को वही प्रमाण नामंजूर है । इस योजना के बाद से नागरिक पहचान की यह जिम्मेदारी सरकार को ही वहन करना चाहिए । और हर देशवासी स्वयं को चोर नही ससम्मानित नागरिक महसूस करे ऐसी व्यवस्था होना चाहिए । लाभ नागरिको की पहचान सिद्ध करने और पहचान पत्रो को बनवाने के लिए भटकने ,उनको सम्हालने की समस्या समाप्त हो जायेगी । बहुत सारे धोखाधड़ी के मामले सहज रूप से असंभव हो जायेगे । सहज पकडे भी जायेगे । घुसपैठिये अवैध नागरिको की तुरन्त धरपकड हो सकेगी । नागरिको के श्रम,समय,धन ,की भारी बचत होगी और परेशानी से बचेगे । राप्ट्रीयता की भावना मजबूत होगी । संदेह का वातावरण दूर होगा। कार्यो में गति आयेगी । भ्रप्टाचार में कमी होगी । लीकेज कम होगे ।

अर्थात तकनीक के आधार पर हमने जो यह बहुउपयोगी महत्वकांक्षी योजना बनाई है उसकी देश को महती आवश्यकता है परन्तु उसे आधाअधूरा ,अविश्वसनीय रखने के स्थान पर बहुउदेशीय और परिपूर्ण होना चाहिए । उसकी विश्वसनीयता भी होनी चाहिए और मानी भी जानी चाहिए । जहां तक इसके दुरूपयोग का प्रश्न है उसके लिए स्केन वेरिफिकेशन कभी भी कही भी किसी भी स्तर पर किया जा सकता है । आकस्मिक जांच ,दोहरी जांच या संदिग्ध की जांच भी की जा सकती है ।परन्तु अगर नीलेकणी की वर्तमान विचार और प्लानिग के हिसाब से इस योजना को आधा अधूरा ही रखा गया तो यह अर्थहीन ही होगी ।

वर्तमान हालातों को आंखे खोलकर देखो भाई! [संपादित करें]

आज हमारी राजनीति में देश सेवा के लिए कोई स्थान शेष नही है भारत की राजनीति का मूल जीवंत स्त्रोत कांग्रेस से है । और कांग्रेस का अर्थ है ोंग दिखावा लालच ,शक्तिआकांक्षा ,वंशवाद, पैसा,पद,प्रतिप्ठा की हवस ,घनघोर बेशर्म भ्रष्टाचार ,प्रकारान्तर से आज सारे राजनैतिक दल कांग्रेसमय हो गये है बल्कि उससे भी आगे निकल गए है । सारे राजनैतिक दलो के नेता कहते है कि राजनीति में कोई साधु बनने नही आये है ,अर्थात शैतान बनने आये है ?वे कहते है कि हमारे भी बालबच्चे परिवार है ,हमे भी कुछ लगता है ।उन्हे यह पहली बात पता ही नही कि राजनीति कोई व्यवसाय नही है । शुद्ध सेवाकार्य है । फिर भी उन्हे वेतन भत्ते,पेन्शन आवास ,यात्रा ,वाहन ,चिकित्सा आदि की अनैको भरपूर सुविधाए मिलती है । उससे भी उनका पेट़ नही भरता है तो वे भ्रष्टाचार करते है। और वह भी कितना ?एक बार तो अटलजी संसद मेंबोल ही पे थे कि भ्रष्टाचार की कोई तो हद होना चाहिए ,आखिर एक व्यक्ति को कितना धन चाहिए ,उसकी कोई तो सीमा होना चाहिए ?परन्तु ये भ्रष्ट नेता कहते है कि अब अटलजी को क्या मालूम उनके तो कोई आस औलाद है नही हमें तो अपनी चौदह पीयों की भी चिन्ता करना है न! सात पी का दुगना । सो कम से कम चौदह लाख करोड़ तो चाहिए ही न! और जिसने इतना भी कर लिया है फिर भी संतुष्ट नही है उसका कहना है कि भैया मंहगाई का तो कोई ठिकाना है नही ,क्या पता अगले आने वाले समय में मंहगाई का क्या हाल हो । रूपये कम प गये तो क्या होगा ? अत;सभी समझदार अपना अपना कोटा फुल करने में लगे रहते है । और जिनका कोटा फुल हो चुका है उसके बाद भी वे लगे हुए है धन समेटने में उनका आगे कहना पॄता है कि घर बैब्े आई आयी गंगा मेंस्नान करने से इन्कार भी नही किया जा सकता । ऐसा अवसर तो जिनकी किस्मत में लिखा हो ऐसे ही भाग्यशाली को मिलता है ,किसी ऐरे गेरे नत्थू खेरे को थोडी मिलता है ,पिछले जन्मो मेंकितने हमने पुण्य का अर्जन किया होगा ,कितना जप,तप ,ध्यान किया होगा तब तो यह पुण्य अवसर प्राप्त हुआ है ,अर्थात यह तो हमारा हक ही है और घर बैठे आयी लक्ष्मी को ठुकराकर उनका निरादर करने की मूर्खता भी हम नही कर सकते है न!आम जनता के तो भाग्य में ही कष्ट उठाना लिखा है भाग्य के लिखे को तो हम मिटा नही सकते न ! जनता तो कम अधिक कष्ट उठा ही लेगी ,उसकी तो आदत में है ,उसे क्या फर्क पडेगा ?परन्तु हमे तो बहुत फर्क पता है न! और यहां तक पहुचने के बाद हमने इतना भी न किया तो फिर हमारा मतलब क्या हुआ ? अब इसे व्यंग समझो तो व्यंग और यथार्थ समझो तो यथार्थ यही हमारे अधिकांश नेताओ का चाहे वे किसी भी दर्जे के हो यही सच है।अब हमें यह समझना ही होगा कि स्थिति कितनी बुरी तरह से बिगड़ चुकी है और अगर अब भी हम नही चेते, जागे तो फिर कुछ भी शेष नही बचेगा । क्योकि हमारे इन भ्रष्टनेताओ का पेट़ इतना बड़ा हो गया है कि समूचे देश को डकार जाये तो भी इनका पेट भरने वाला नही है ।बेशर्म इतने हो गये है कि जगजाहिर रूप से ये गलेगले तक भ्रष्टाचार में डूबे होने के बावजूद कहते है जब तक अंतिम अदालत में यह साबित नही हो जाता तब तक वे पूरी तरह से निर्दोष और गंगाजल की तरह पवित्र है ।अब जिस देश के नीतिनियंता कर्णधार ऐसे हो और चूंकि देश केसामने वैसे ही अनैको तरह के चौतरफा संकट व खतरे मुंह बांये खडे ही है और उनके भी कईरूप,कई मुंह हो गये है ऐसी स्थिति मेंभी देश के लिए गम्भीरता से सोचविचार न करना ,और अपने में मस्त रहना और सोचना कि कुछ भी नही है सब अच्छा है तो दुष्यंत कुमार की वो कविता याद आती है कि ’तुम्हारे पैरो के नीचे जंमी नही कमाल है फिर भी तुम्हे यंकी नही ’ । आज राष्टी्रयचरित्र का तो लोप हो गया है उपभोक्तावाद ,बाजारवाद की शक्तियो ने आदमी को इतना अधिक आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बना दिया है कि वह सिर्फ अपने परिवार का हित देख रहा है परन्तु कोई भी थोड़ा सा जागरूक होकर और निष्पक्षरूप से सोचता है तो वह निश्चित रूप से यह समझ जायेगा कि यह अब अधिक समय तक चलने वाला नही है ,राष्ट्र के लिए हमओगे पीछे करो या मरो की आवश्यकता अनुभव करना ही होगी ।अपने आसपास के हालातो को आंखे खोलकर देखने और उसका मूल्यांकन,अर्थघटन करने पर हम पाते है कि कुल मिलाकर स्थिति फ्रेम दर फ्रेम बिगडती ही जा रही है और इस चाल व चरित्र से इसके आगे सुधरने के कोई आसार नही है बल्कि आगे विकट संकट के गहराने के पूरे प्रबल आसार है ,ऐसी विकट स्थिति में देश के लिएगम्भीरता सेसोच विचार करना हर देशभक्त के लिए बेहद ही आवश्यक हो गया है । रामराज्य अभियान भी राष्ट्रीयता की भावना जगाने का ,ऐसे राष्ट्रभक्तो को जोडने का अभियान है जो देश के सामने खडे खतरो से अवगत है ,चिन्तित है ,और स्वयं कुछ करने की भावना रखते है । ऐसे सभी भाई बहनो का आव्हान है कि वे आये और इस अभियान से जुड़े और इसे मजबूत बनाये ।इसमे सबसे प्रथम हमे राष्ट्रहितो से जुड़े प्रश्नो मुद्दो को यहां उठायेगें और लोगो का ध्यान इस और आकर्षित करेगे ।और जो लोग अन्य किसी भी रूप यह कार्य करते हुए मिलते है उनका समर्थन और सहयोग करेगे। गिरीशनागड़ा

भ्रष्टाचार करने वालो जरा सोचो तो सही कि तुम्हारा धन अंततः किस गति को प्राप्त करने वाला है? <nowiki></now[संपादित करें]

भ्रष्टाचार करने वालो जरा सोचो तो सही कि तुम्हारा धन अंततः किस गति को प्राप्त करने वाला है? ---fxjh'k ukxM+k समूचे देश के स्वास्थ्य का ध्यान रखने वाले डाक्टरो की नियामक संवैधानिक अथारिटी के अध्यक्ष केतन मेहता दो करोड की रिश्वत लेते हुए पकडे गये । उनके पास डेड टन सोना 18हजार करोड़ रूपये नगद प्राप्त हुए । और ाई हजार करोड़ रूपये और बरामद होने की संभावना है ।इस सबके अलावा कई महत्वपूर्ण दस्तावेज भी मिले है यह धनराशी इतनी अधिक है कि वे स्वप्न में भी खर्च नही कर सकते । और इतना सोना वो और उनका परिवार पहनना तो दूर की बात है सब मिलकर उठा भी नही सकते । धन की प्रथम गति भोग सो पूरी जी जान लगाकर भी संभव नही है ये भोग ही नही सकते । दूसरी गति दान जो स्वप्न में भी कर नही सकतेक्याकि ऐसा चरित्र और स्वभाव नही है ।अतः यह तय था कि पाप की तीसरी गति नाश ही होना थी ,इस मामले में वह सी.बी.आई के हाथो हुई, अन्यथा किसी और तरह से होती ,क्योकि धन अपनी तीन गतियो में से एक को अवश्य प्राप्त करता ही है । इस पाप की कमाई को प्राप्त करने के लिए मेडिकल कालेज खोलने के लिए जिन अमीरजादो को मानक योग्यता के अभाव में भी मेडिकल कालेज चलाने की अनुमतियां दे रखी है उन कालेज के संचालको ने अपने लगाये हुए करोड़ो रूपये वसूल करने के लिए धनी छात्रो से लाखो रूपये लेकर मानक योग्यता ना होने पर भी प्रवेश देकर उन्हे डाक्टर बनाया ही होगा ।और वे छात्र भी लाखो खर्चकर डाक्टर बनकर न केवल जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड करेगें बल्कि उन्हे जी भरकर लूटेगें भी । वे मरीज को कम उनकी जेबो को अधिक जांचेगेंऔर उनको किसी भी बहाने लूटेगें चाहे वह मंहगी अनावश्यक जांचे हो ,मंहगी अनावश्यक ,दवाईया हो या फिर अनावश्यक आपरेशन हो ,सभी हथकंडे अपनाये जायेगें,अपनाये जा रहे है नीचे से उपर तक खुली लूट मची हुई यही सब हम आज देख रहे है ।एक नोबल प्रोफेशन सबसे भ्रष्ट संवेदनाहीन लूटेरा प्रोफेशन बनकर रह गया है और अधिकांश डाक्टर ,डाक्टर नही लूटेरे बन गये है । आज इस प्रोफेशन का ही सबसे अधिक गंभीर और मेजर आपरेशन करने की अति अनिवार्य आवश्यकता महसूस की जा रही है । केतन मेहता जैसे लोग शीर्ष पर देशभर में बैठे है । वे यही सब फैला रहे है । केतन मेहता ने छापे के समय सी.बी.आई के अधिकारियो को प्रधानमंत्री कार्यालय तक की धौंस दी थी। तो कह ही नही सकते कि इस भ्रष्टाचार की जडे कहां तक व किस गहराई तक पैंठी हुई है । इस देश मेंपैसो के लिए किसी भी स्तर पर कुछ भी हो सकता है । यहां प्रश्न यह है कि इतनी भारी धनराशियां जब घर में मिल रही है तो स्वीस बैंक में कितनी होगी ? स्वीसबैंक में रखना तो मजबूरी है क्योकि दो नं. की इतनी भारी भरकम राशी को न खर्च किया जा सकता है न ही कही निवेश क्योकि कालेधन को कौन, कब ,कहां डकार जाये कह नही सकते न ही इस मामले में किसी का भी विश्वास ही किया जा सकता है,कहावत भी है कि चोर का माल चंड़ाल खाये। परन्तु स्वीसबैंक में जमा धन के 75 प्रतिशत मामलो में यह धन लावारिस हो जब्त हो जाता है ।इसके कारण है उसमे मुख्य है कही और छुपाना भी आसान नही है और न ही खर्च करना आसान है ,उंूठ की चोरी निवरे निवरे नही हो सकती । धनराशी का यह आकार ही जी का जंजाल बन जाता है । संतानो में रिश्तेदारो मे धन को लेकर असीम वैमनस्य फैलता ही है यहां तक एक दूसरे के वे जान के दुश्मन बन जाते है ,एक दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र रचा जाता है ,परिवार में प्रेम ,स्नेह ,सहयोग,सद्भाव सोहार्द लुप्त हो जाता है हलाहल विष,,द्वेष,इष्र्या ,घृणा,और नफरत पैदा हो जाती है उनका जीवन ही नर्क बन जाता है । कोई भी भ्रष्ट करोडपति ,अरबपति थोडा सा भी सोचविचार करे तो यह सब गतियां होने की अवश्यसंभावी सच्चाई को आसानी से जानकर ,समझ,महसूस कर सकता है और इसमे कोई भी बात काल्पनिक या अविश्वसनीय नही है। इस सबकें बावजूद जो कोई इससे बाज नही आता है तो उससे बडा मूर्ख दुसरा नही होगा । लूट मेंइतने होशियार ये लोग इतनी छोटी और आसान सी बात कि वे धन नही बल्कि हर तरह से मुसीबत मोल ले रहे है ,क्यो समझ नही पाते यह आश्चर्य की बात है ।केतन मेहता की तरह से न जाने कितने लोग अपनी अपनी तरह से लाखो लोगो के मुंह का निवाला छीन कर ,उन्हे मर्मान्तक पीडा पहुंचाकर या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनके प्राण तक लेकर धन का संग्रह करते हुए धन के टापू बने है । उन्होने अपना जीवन तो खराब किया ही किया इस देश को भी गहरे घाव दिये है इन्होने लालच और हवस मे डूबकर बहुतेरे लोगो का हक छीनकर विषमता की खाई को बुरी तरह से गहरा और विषाक्त बना दिया है ।शीर्ष पर बैठे लोंग जब इस कदर भ्रष्ट होते है तो उसके भ्रष्टाचार के समाज और देश पर पडने वाले दुष्प्रभाव के साथ ही उनसे संचारित कीटाणु श्रृंखला की अंतिम कडी तक को भ्रष्ट होने के लिए मजबूर करता है और यह बुराई नीचे तक विस्तृत होकर फैलती है । ऐसे लोगो को जो भी सजा दी जाए वह कम ही होगी ।इनपर लगाये गए आरोपो में भ्रष्टाचार के अलावा देश और उसकी जनता के साथ गद्दारी करने का आरोप भी अवश्य ही लगाया जाना चाहिए । girish nagda

' नया कोर्स :चौपट न कर दे ग्रामीण स्वास्थ को' -गिरीश नागडा[संपादित करें]

संदर्भ सा़<+s तीन व"kZ का बी.आर.एम.एस.कोर्स


गांव मे डॉक्टरो का अभाव है । स्वास्थ सुविधाये पूरी तरह से शून्य है ।और गांव तक डॉक्टर जाने के लिए तैयार नही है । सरकार ने सदा की तरह इसका कारण तलाशने और उन कारणोको जडमूल से दूर करने के सीधे रास्ते को अपनाने के स्थान पर इस समस्या के पत्तो पर अपना ध्यान केद्रित किया है । उसी के तहत सरकार ने मेडिकल कांउसिल ऑफ इंडिया को यह समस्या दूर करने कीजिम्मेदारी सौपी है कि वह इस समस्या को हल करने के लिए कुछ करे।सो अब मेडिकल कांउसिल नेगांव में जाने की शर्त पर सो तीन व"kZ का बी.आर.एम.एस बैचलर अॉफ रूरल मेडिसिन एंड सर्जरी कोर्स प्रारंभ करने का निर्णय लिया है । क्या इससे समस्या का पर्याप्त और पूर्ण हल हो सकेगा क्या यह कदम उचित है ? क्या देश में डॉक्टरो का अभाव है ? हम केवल म.प्र. में बेरोजगार डॉक्टरो के आंकडे देखें तो बsहद चिन्ताजनक स्थिति हमारे सामने आती है । म.प्र. में 15400 एलोपैथिक डॉक्टर ,7090 आयुर्वेदिक डॉक्टर , 5080होम्योपैथिक डॉक्टर और 1700यूनानी डॉक्टर बेरोजगार घूम रहे है । अगर राट्रीय स्तर पर यह आंकडे देखेगे तो बेहद निराशाजनक व भयावह चित्र हमारे सामने उपस्थित होता है । इस हिसाब से अगर एक एक गांव में दस दस चिकित्सक भी हम भेज देते है तो भी बेरोजगार डॉक्टर शोा बच जायेगे । क्या सरकार ने इन बरोजगार डॉक्टरो को गांव में भेजने के बारे में गभीरता से कोई विचार करने का कोई प्रयास किया है ?परन्तु सरकार तो रटा रटाया जवाब देना जानती है कि क्या करे डॉक्टर गांव मे जाने के लिए तैयार ही नही है ।यह जवाब पर्याप्त नही है अब सरकार को इस दिशा में कुछ सोचना चाहिए ,न कि दोयम दर्जे की फोज खडी करने का निर्णय लेना चाहिए। आईये हम उन कुछ कारणो को देखने समझने का प्रयास करते है जिनकी वजह से गांवो में डॉक्टर जाना नही चाहते है हम शहरी डॉक्टरो की वर्तमान स्थिति पर विचार करते है तो पाते है कि शहर के डॉक्टर और गांव के डॉक्टरो की आर्थिक और सामाजिक स्थिति मे जमीन आसमान का फर्क है।एक और तो सोने के अम्बार है तो गांवो की स्थिति चिक्त और अंधी खाई के समान है ।शहर के डॉक्टर को तो नाममात्र की नौकरी बजाना है और फिर अपनी नौकरी की प्रतिठा के आधार पर अपनी डिस्पेन्सरी ,अस्पताल, या नर्सिग होमो मे मनचाही कमाई करने का भरपूर अवसर मौजूद है ।डॉक्टर नौकरी में नही है तो भी उन्हे प्राइवेट अस्पतालो ,नर्सिगहोमो में या स्वयं की प्रेक्टीस कर हजारो रूपये कमाने के अवसर मौजूद है ।अगर सर्जन है और अपनी मार्केटिग में कुशल है तो लाखो रूपये प्रतिदिन कमाना भी शहरो मे संभव है और कमा भी रहे है । धन कमाने के अलावा सामाजिक जीवन में हाई प्रोफाईल लोगो की कम्पनी में उठना बैठना ,उंचे और महंगे क्लबो में मनोरंजन करना ,स्टार होटलो में भोजन करना ,बच्चो का हाईप्रोफाईल लोगो के बच्चो के साथ मंहगेस्टार स्कूलो ,कालेजो में पॄना ,मंहगी कारो को चमचमाती सडको पर दौडाना आदि आदि ।अर्थात खूब सारा धन कमाना और दिल खोलकर खर्च करना ।सारी शान शौकत और एश्वर्य को भोगना ।अपने दोस्तो रिश्तेदारो ,सोसायटी के बीच अपना रूतबा ,दबदबा कायम करना और खूब दिखावा करना । सारे सुख उनके हाजरे हजूर है ,और कोई उँगली उठाने वाला भी नही है । दवा कम्पनियो की भेंट़ सौगातो पर हालाकि अब प्रतिबंध लगा दिया गया है परन्तु पिछले दरवाजे से वह सब बेहिचक जारी है । दवा कम्पनियां अपना मुनाफा बंटोरने अन्य कंपनियो से प्रतिस्पर्धा में आगे रहने के लिए कोई भी हथकन्डा अपनाने से गुरेज नही करती है।शहरो में डॉक्टर,नर्सिगहोम,अस्पताल,पेथोलाजिकल लेब,अन्य जांच सेन्टर, दवा निर्माण कम्पनियां,दवा विक्रेता इन सब में आपसी मौसेरी रिश्तेदारी है सभी को धन कमाने की अंधी और भारी भूख है । भुक्खडता की व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते सारी मानवीयता और नैतिेकता के तकाजे को पूरी तरह से दफन कर चुके है ।विश्व स्वास्थ संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रसव आपरेशन के लगभग 60 प्रतिशत मामलो में भारत मे केवल पैसा कमाने के लिए गैर जरूरी प्रीप्लान आपरेशन किये प्रसव किये जा रहे है ।सर्जरी के कई मामलो में भी रूपयो के लिए गैर जरूरी प्रीप्लान आपरेशन किये जाते है ।और कई सर्जनो को तो हजारो,लाखो रूपये लेने से भी संतोा नही होता है तो वे सर्जरी के दौरान किडनी भी चुरा लेते है । मानवअंगो की तस्करी के रूप मे भी उनका एक घिनोना चेहरा सामने आया है । अर्थात धन कमाने की लालच के चलते यह नोबल पेशा शहरो में बुरी तरह से पतन के गर्त में चला गया है सेवा के इस पावन कार्य करने वालो को जहाँ जनता तो भगवान समझती है परन्तु इनके लिए तो आज धन ही इमान है और धन ही भगवान है । दूसरी और हम गांवो की स्थिति देखते है तो गांव में उन्हे धन कमाने के अवसर तो छोडिए प्रारंभिक रूप से अनिवार्य सुविधाये भी उपलब्ध नही है क्योकि गांवो में न तो बिजली है,न पानी है ,न सडक है न शिक्षा है ,न सुरक्षा है ,न कोई सामाजिक जीवन है ।इसीलिए डॉक्टर शहरो में बेरोजगार बनकर रहना पसंद करते है परन्तु गांव में जाना ही नही चाहते है । परन्तु इसके लिए उन्हे दोा देना या गिनती से बाहर कर देना तो कदापि उचित नही है और नही इस खाई को पाटने के लिए दोयम दर्जे के डॉक्टरो की फौज उतारना कोई सही हल है ।क्योकि ये दोयम दर्जे के डॉक्टर ग्रामीण जनता के स्वास्थ के साथ जो खिलवाड करेंगे वह तो और भी भयावह होगा । और आज गांव की जो वर्तर्र्मान परिस्थितिया है उनमे मुझे पूर्ण विश्वास है कि ये दोयम दर्जे के डॉक्टर भी दिल से गांव में रह नही पायेगे । दिल की तो बात छोडिए,शरीर से भी गांवो में भी अनुपस्थित रहकर अपनी उपस्थिति दशार्ने की जुगाड मे पहले दिन से ही लग जाऐंगे । क्योकि जो कार्य उन्होने शर्त के डंडे के बल पर प्रारंभ किया है वे स्वाभाविक ही है कि उस डंडे को झांसा कैसे दिया जाए इस बारे मे सोचेगा ही ।यह स्वाभाविक ही है ।अथार्त गांव की स्थिति तो लगभग जस की तस बनी ही रहेगी और सरकार द्वारा यह दोयम दर्जे के इन डॉक्टरो की नई समस्या खडी कर ली जाएगी । इस सब कवायद के स्थान पर सरकार कुछ ऐसे उपाय क्यो नही करती कि डॉक्टर गांव में जाने के लिए तैयार भी हो जाये और इन बेरोजगार डॉक्टरो को अच्छा रोजगार भी प्राप्त हो जाये ।वे उपाय क्या हो सकते है आईये इस बारे में हम कुछ विचार करते है सबसे पहले तो गांव की स्थिति में सुधार किया जाना प्रारंभिक व प्राथमिक रूप से बहुत जरूरी है । सच पूछा जाये तो गांव की तस्वीर वाोंर से वही है और गांव के हक में अभी तक कोई भी कार्य गम्भीरतापूर्वक नही किया जा रहा है ।काम को तो छोडिये ,गांव को लेकर सरकार के पास कोई ईमानदार ठोस परिवर्तनकारी मौलिक सोच ही नही है ।गांधीजी के ग्रामीण आधारित दशर्न को बहुराट्रीय कम्पनियो के बाजारवादी दशर्न के आगे सरकार लगभग खारिज कर ही दिया है ।शहरो में तो सिंगापुर के दशर्न होने लगे है परन्तु गांव कुछ नाम मात्र के परिवर्तनो के अलावा एक सदी पूर्व की दुर्दशा पर स्थिर होकर रह गये है । अब सरकार को गांवो की स्थिति की वर्तमान दुर्दशा पर अपना ध्यान केन्द्रित कर गांव के विकास के लिए गांवो में बुनियादी सुविधाये जुटाने के लिए गम्भीरतापूर्वक पूर्ण ईमानदारी से फोकस कर समयबद्ध विकास लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए । जिन डॉक्टरो ने शहरो में पन्द्रह वार पूर्ण कर लिए है उनके लिए मेडिकल कांउसिल के माध्यम से एक अनिवार्य आदेश जारी किया जाये कि उन डॉक्टरो को चाहे वे सरकारी सेवाओ में हो या न हो आगामी दस वार जिस गांव में जाने के आदेश दिया जाता है उसी गांव में जाकर डॉक्टरी करना अनिवार्य होगा । उनके साथ दो जूनियर डॉक्टर भी रहेगे । इससे ग्रामीणो को अनुभवी डॉक्टरो की चिकित्सा का लाभ भी मिल सकेगा । गांव में नियुक्त डॉक्टरो को विशोा आकार्क वेतन,भत्ते और सुविधाये दी जानी चाहिए । गांव में नियुक्त ये डॉक्टर पूर्ण ईमानदारी से सदभावपूर्वक बिना किसी भेदभाव के नियमित अपनी ड्रयूटी कर कर रहे है यानही इसकी सतत व गुप्त मानिटरिग की जाना चाहिए ।वर्तमान स्थिति को देखते हुए बेहद जरूरी है । सरकार को सभी पैथियो के साथ समानता पूर्वक व्यवहार करना चाहिए । अगर सरकार अन्य पैथियो को अविश्वसनीय मानती है तो उनकी शिक्षा ही उसे बन्द कर देना चाहिए परन्तु ऐसा भेदभावपूर्ण व्यवहार तो नही करना चाहिए ।उन्हे भी आगे आने और सेवा करने का अवसर दिया जाना चाहिए क्योकि उन्होने भी सा़ेपांच वार की विधिवत डॉक्टरी शिक्षा प्राप्त की है । इस प्रकार सरकार द्वारा कुछ ऐसा रास्ता निकाला जाना चाहिए कि सा़े तीन वार के दोयम दर्जे की पॄाई की आवश्यकता ही न रहे और हमारे बेरोजगार डॉक्टरो को भी बेहतर अवसर प्राप्त हो सके और जनताखासकर ग्रामीण जनता के स्वास्थ के साथ कोई समझौता भी न करना पडे ।

यह प्रजातंत्र तो नही हो सकता[संपादित करें]

एक बार फिर आम बजट को देखकर हम कह सकते है कि यह आम बजट आम के लिए नही बल्कि खास लोगो ( कारपोरेट वर्ग ) को ध्यान में रखकर जैसे उनके लिये ही बनाया गया है भारत एक प्रजातांत्रिक देश है जनता का जनता के लिए जनता के द्वारा शासन है और जनता का हित सर्वोपरीय है । जनता से अभिप्राय वह आम जन जो सबसे पीछे खड़ा है और उसका सबसे पहले सबसे अधिक ध्यान रखना अर्थात प्रजातंत्र । क्या भारत में ऐसा है बहुत खेद के साथ कहना पढ़ता है कि कतई नही है आजादी के बाद से ही भारत मे जो राज रहा है उसे सही मायनो में हम प्रजातंत्र नही कह सकते है क्योकि उसको चलाने में न तो कभी उसकी कोई भूमिका कभी रही है न ही कभी उसके हितो का किसी प्रकार से कोई वास्तविक ध्यान रखा गया है न उसकी परवाह की गई है न ही किसी को उसकी कभी कोई फिक्र रही है । सारा तंत्र अमीर ,बाहुबली माफिया , अर्थात ताकतवर लोग चला रहे है और उनके हितो के अनुसार ही सारे नीति नियम बनाये जाते है और उनकी सुविधा का हर तरह से भरपूर ध्यान रखकर उन्हे पोषित किया जाता है ,सभी कुछ उनकी इच्छा और इशारो पर निर्भर करता है , प्रजा तो बेचारी दो मुट्ठी गेंहॅूं चाँवल रियायती दरो पर पाने के लिए कड़ी धूप में लंबी लाइनो में खडी रहती है और ये ताकतवर देश के कर्णधार करोड़ो अरबो रूप्या बैठे बैठे यूँ ही डकार जाते है न ही इन्हे कोई पकडने वाला है न ही नही कोई कुछ पूछने वाला है । कहने को हमारे देश में आजाद प्रेस है आजाद न्यायपालिका है परन्तु आज तक न तो किसी कांड़ का कोई फालोअप मिलता है नही आज तक किसी बड़ी मछली को कोई सजा ही हो पाई है । प्रजातंत्र मे प्रजा के पास सर्वाधिक विकल्प होने चाहिए परन्तु हमारे इस प्रजातंत्र मे हम देखते है कि प्रजा के लिए कोई विकल्प ही नही रखा गया है सारे रास्ते ताकतवर लोगो के महलो पर जाकर रूक जाते है ,और जिस प्रजातंत्र में प्रजा के लिए कोई विकल्प ही न हो वह प्रजातंत्र तो नही हो सकता ।

हेलमेट अनिवार्य करने के निर्णय पर पुनर्विचार किया जाए[संपादित करें]

दिल्ली हाईकोर्ट के फेसले के मद्देनजर केन्दीय परिवहन मंत्रालय ने राज्यो के मंत्रालयो और उसके द्वारा सभी जिलो के परिवहन अधिकारियो को हेलमेट की अनिवार्यता के लिए कार्य योजना बनाने के आदेश दिये गये है। यह एक अव्यवहारिक रूप से थोपा गया निणर्य है ।सच्चाई केवल टू व्हीलर चलाने वाले ही जानते हैन कि फोर व्हीलर वाले कि हेलमेट पहन कर टू व्हीलर चलाना बेहद असुविधाजनक है । एक टू व्हीलर चलाने वाले को साइडो को देखकर ,दूसरे वाहनो कीगति ,आव्हरटेक ,गल्तियो से ,सामने से ,अचानक उपर च दौडने वाले वाहनो से या अचानक रोडका्रस करने वाले वाहन के बीच मे आ जाने वाले वाहनो से स्वयं को चारो और से चौकन्नारहकर बचाना होता है ।हेलमेट पहनकर यह सब बेहद कठिनाईभरा व मुश्किल हो जाता है । उससे दुर्घटनाओ की संभावना बेहद ब जाती है । हेलमेट से नजर की क्षमता मे कमी आती है । हेलमेट से चश्मा पहने वालो को बेहद असुविधा होती है । हेलमेट से अपराधी छुपकर बच निकलने की हेलमेट से पूरी संभावना बनती है।और हेलमेट का अपराधी तत्व भरपूर लाभ उठायेगे । आज अपराधी अधिकांश अपराधो मे टू व्हीलर का ही उपयोग करते है ।और अधिकांश मामलो मे पुलिस उनका चेहरा देखकर,पहचान कर ,भांपकरया संदेहकर उस आधार पर ही अपराधियो को गिरफ्तार करने में सफलता प्राप्त करती है । हेलमेट पहन कर दुर्घटनाये कम होती है या अधिक इसपर अगर कोई रिसर्च होती है तो निश्चित रूपसे दोगुनी वृद्धि पायी जायेगी इस प्रकार हेलमेट को अनिवार्य किये जाने का निर्णय पूरी तरह से अव्वहारिक है । इसे कदापि अनिवार्य नही किया जाना चाहिए ।और इसपर पुर्नविचार किया जाना चाहिए । -गिरीश नागड़ा

आटे में नमक या नमक में आटा[संपादित करें]

हमें खुशी है कि आज हमारा गणराज्य इकसठ वे वर्ष का लोकतांत्रिक संप्रभु राष्ट्र कहलायेगा ।परन्तु क्या हमने साठेतर परिपक्वता प्राप्त कर ली है या सिर्फ धूप में ही अपने बाल सफेद कर लिये है ।क्या साठेतर गणतंत्र का पाठ जो हमने अब तक लिखा है और आगे लिख रहे है वह हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षाप्रद होगा ,या वह हमे स्थिति को इस हद तक बिगाडने और बिगड़ जाने देने के लिए कोसेगी, दोषी ठहरायेगी । 26 जनवरी 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ ,तब अनैको चुनौतियां हमारे सामने थी और हम राष्ट्रप्रेम के उत्साह से भरे हुए थे गांधीजी को खो देने के बावजूद गांधीजी का ग्राम और स्वदेशी आधारित अत्यंत व्यवहारिक दशर्न हमारे मार्गदशर्न के लिए अनमोल खजाने के रूप में हमे उपलब्ध था । हम कर्ज से मुक्त और संपदा से युक्त एक राष्ट्र थे । हम समूचे विश्व को नयी राह दिखाने की क्षमता वाले सक्षम राष्ट्र थे, परन्तु पता नही, क्या हुआ ,क्यो हुआ । जैसे मेरा देश नजरा गया,उसके बाद जो कुछ भी हुआ और होता रहा है वह देश के हित में कम नेताओ के उनके वंशजो के बाबू अधिकारियो के और पूंजीपतियो के हित मे अधिक हुआ । लाखो करोड़ो रूपये देश की पंचवर्षीय योजनाओं की भेट़ च़ढ़ गये,देश का तो जो विकास होना था सो हुआ या नहीं न तो किसी को इसका ठीक ठीक पता है न ही किसी को यह सब देखने में रूची है । हां नेताओ की पंचवर्षीय योजनाएं अच्छी तरह से मनती चली गई है और उनका भारी भारी विकास होता चला गया है । कहा जाता है कि 'भारत गरीबों का देश है, मगर यहां दुनिया के बड़े अमीर बसते हैं।' काफी गुजारिश के बाद स्विस बैंक असोसिएशन ने इस बात का खुलासा किया है कि उसके बैंकों में किस देश के लोगों का कितना धन जमा है। इसमें भारतीयों ने बाजी मारी है। इस मामले में भारतीय अव्वल हैं। भारतीयों के कुल 65,223 अरब रुपये जमा है, दूसरे नंबर पर रूस है जिनके लोगों के करीब 21,235 अरब रुपये जमा है। हमारा पड़ोसी चीन पांचवें स्थान हैं, उसके मात्र 2154 अरब रुपये जमा है। तकनीकी रूप से वह हमारे जीडीपी का 6 गुना है , इतने धन से भारत की तस्वीर बदली जा सकती है।काफी हद तक गरीबी दूर की जा सकती है। परन्तु पिछले दिनों विदेशी बैंकों में जमा काले धन के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जब सरकार से पूछा गया कि आखिर वह विदेशी बैंकों में भारतीय खातेदारों के नाम को क्यों नहीं उजागर करना चाहती है तो सरकार का जवाब हैरान कर देने वाला रहा। कोई ठोस उत्तर देने की बजाय वह ज्ञान बांटती नजर आई कि अगर नामों का खुलासा हुआ तो अंतरराष्ट्रीय संधि का उल्लंघन होगा और इससे भारत की छवि को भी धक्का पहुंचेगा। वाशिंगटन स्थित ग्लोबल फिनांशल इंटीग्रिटी (जीएफआई) द्वारा से अवैध वित्त प्रवाह के कारक : 1948-2008 शीर्षक से जारी रिपोर्ट में पाया गया कि 1991 में शुरू किए गए आर्थिक सुधार के बाद से आर्थिक वृद्धि दर में तेजी आने से आय वितरण में गिरावट आई, जिससे भारत से अवैध धन बाहर गया। रिपोर्ट के मुताबिक, ये अवैध धन प्रवाह मुख्यतौर पर कर चोरी, भ्रष्टाचार, घूस और आपराधिक गतिविधियों के परिणाम स्वरूप हुआ। रिपोर्ट में कहा गया है, भारत का कुल अवैध वित्तीय प्रवाह का वर्तमान मूल्य कम से कम 462 अरब डॉलर है। यह अल्पकालिक अमेरिकी ट्रेजरी बिल पर आधारित है। इस तरह से कुल अवैध धन प्रवाह भारत पर विदेशीकर्ज के मुकाबले दोगुने से अधिक है। भारत पर विदेशी कर्ज 230 अरब डालर के करीब है। जीएफआई के निदेशक रेमंड बेकर ने कहा, इस रपट से पता चलता है कि भारत से अवैध धन प्रवाह के चलते देश में गरीबी का स्तर तेजी से बढ़ा है और भारत के गरीब और अमीर के बीच खाई बढ़ी है। इसका अर्थ यह है कि यह धन आम जनता की गरीबी दूर करने के लिए नही है , बल्कि यही धन आम जनता से छीनकर उन्हे गरीब किया गया है ,इस देश को कर्जदार बनाया गया है ।और भारी विषमता की इस खाई को रचा गया है । एक वक्त था कि देश उतमर्ण था । उसके बाद छदम विकास के नाम पर कर्ज लेकर घी पीने की संस्कृति का अनुसरण किया गया ,जिसके अर्न्तगत देश ने कर्ज लिया और नेताओ बाबूओ अधिकारियो ने उसका घी पिया ।और उससे होने वाले भारी भारी घाटो को पाटने के लिए जनता पर टेक्स पर टेक्स लगाये गये ।कीमतो में लगातार बेंतहाशा वृद्धि की गई और फिर कर्ज और मंहगाई को आसमान की उंचाईयो तक पहुंचा दिया गया ।विषमताओ की खाई इतनी गहरी और चौड़ी हो गई कि घबराकर हजारो लोगो ने आत्महत्याएं कर ली और यह सिलसिला आज भी बददस्तूर जारी है । नेताओ को उसकी रतीभर भी परवाह या चिंता नही है । बकोल धूमिल भुक्खड जब गुस्सा करेगा अपनी ही उंगलिया चबायेगा॥ भ्रटाचार का सिलसिला प्रारंभ मे तो आटे में नमक के समान था ,उसके बाद नमक आटा आधा आधा हो गया ,और आज तो स्थिति यह हो गई है कि अब नमक में आटा मिलाया जाता है ,वह भी इसलिए ताकि यह सनद रहे कि हमने आटा भी डाला है । अब क्या कितना है इसका निसपक्ष फैसला करने के लिए कोई नही है ।न किसी की ताकत है कि इतना नमक हजम कर चुके महाबलियों पर उंगली उठा सके।न कोई ऐसी हिमाकत करता है । और जो मूर्ख यह भूल करता भी है उसे या तो शहीद होना पडता है या उसकी हालत ऐसी कर दी जाती है कि वह अपनी किस्मत पर रोता है कि उसने ऐसा क्यो किया । क्योकि किसी ने सच ही कहा है कि ॔शरीक ए जुल्म यहां हर किसी का चेहरा है ,किसका इंसाफ किससे कराया जाये’’ ? चाहे राष्ट्र के विकास का प्रश्न हो चाहे उदारीकरण और बाजारवाद की नीति को अपनाने का प्रश्न हो ,एक एक नीति ,एक एक कदम सभी के पीछे सभी अंतरग निहितार्थो से भ्रष्टाचार की मजबूत डोर जुडी हुई है । अर्थ के इस भ्रष्ट और गंदे खेल में हमारा गणतंत्र केवल झंडा फहराकर जनगणमन अधिनायक जय है जय है जय है गाने के लिए विवश और लाचार है । जनगण विवशताभरी डबडबाई आंखों से सब देखभर सकता है चिकन की दुकान के दडबे में बंद मुर्गे की तरह , बस । हर वर्ष हमारे गणतंत्र की क्लास के ब्लेकबोर्ड पर पुराना वर्ष मिटाकर नया वर्ष डाल दिया जाता है । स्कूल के ग्राउंड से लेकर लाल किले तक झंडावंदन हो जाता है । मेरे देश की धरती एवं ऐ मेरे वतन के लोगो का रेकार्ड बजा दिया जाता है बच्चे तालिया बजाते है और नुक्ती के प्रसाद का वितरण हो जाता है ।इसके बाद फिर से नेता और अधिकारी मिलकर नयी योजनाओ के साथ नयी उर्जा से भरकर आपसी भाईचारे के साथ तनमन से जनगण को लूटने में लग जाते है । विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र के राष्ट्रपति का शपथविधि समारोह भी इतना सादगीभरा होता है कि अगर वे हमारे पार्षद के चुनाव का भी नजारा देख ले तो शरमा जाए ।हमारे गणतंत्र दिवस के एश्वर्यशाली समारोह ,व हमारे राष्ट्रपति जो मात्र रबर स्टाम्प होते है उनकी शान और शौकत देखकर विश्वभर के मेहमानो को भी लगता है कि भारत भी कोई गरीब नही वरन महासम्पन्न विकसित देश है । राजामहाराजाओं को तो नेताओ ने ठिकाने लगा दिया है परन्तु हमारे नेताओ ने उनके एश्वर्य को भी पीछे छोड़ दिया है ।किसी बड़े से बड़े राजा महाराजा ने भी अपने राज्य के स्वर्णकाल में भी ऐसा एश्वर्य देखा और भोगा नही होगा जो हमारे गणतंत्र में हमारे ये सेवक भोग रहे है ।और गण की स्थिति तो ठगे हुए और लुटे हुए शख्स की तरह हो गई ।धूमिल ने हमारे गण की स्थिति की व्याख्या करते हुये लिखा है कि जनता क्या है ? एक शब्द ....सिर्फ एक शब्द कुहरा ,कीचड़ और कांच से बना हुआ ,वह एक भेड़ है जो दूसरो की ठंड के लिए अपनी पीठ पर उन की फसल ढ़ो रही है । परन्तु क्या अब समय नही आ गया है कि गण को तंत्र से जोड़ा जाए । और तंत्र को गण की सच्ची देखभाल करने के लिए विवश किया जाए । हमारे नेताओ को अटलजी की संसद में दी गई सीख याद दिलाई जाए कि आखिर एक व्यक्ति को कितना पैसा चाहिए ,उसकी कोई तो सीमा होना चाहिए । यह तो तय है कि वह व्यक्ति स्वयं तो अपने इस असीमित काले धन का कोई उपभोग नही कर पायेगा ।किसी दिन स्वीस बैंक में ही यह धन रह जाएगा या फिर चौराहे पर ही उनके पाप का भंड़ाफोड़ हो जायेगा या फिर कुते खीर खायेगे।

भारतीय रेल :यह सरओम डकैती है?- गिरीश नागड़ा[संपादित करें]

मेरा आज इन्दौर से हावडा जाना बेहद जरूरी है और मेरे पास रिजर्वेशन नही है सामान्य बोगी जिसे जनरल भी कहा जाता है उसमें पैर रखने की भी जगह नही है प्रथम श्रेणी वातानुकूलित में या हवाई यात्रा करना मेरे बस में नही है और एक पैर पर शोचालय मे खडे होकर इतनी लंबी यात्रा के अनुकूल स्वास्थ्य नही है फिर मै क्या करुंगा ? क्या करुंगा! अपनी यात्रा रद्द करने के अलावा मेरे पास और कोई विकल्प ही नही है वही मै करुंगा । और बेहद जरूरी कार्य के न कर पाने की हानि उठाउंगा और शर्मिन्दगी झेलूंगा बस इसके अलावा और मै कर भी क्या सकता हूँ ? अगर समूची ट्रेन सामान्य बोगी की होती तो मुझे किसी न किसी बोगी में पैर रखने की जगह तो मिल ही जाती और मै इस हानि और शर्मिन्दगी से भी बच जाता । मेंरे जैसे जाने कितने ही लोग है जो इस परिस्थिति से प्रतिदिन दो चार होकर परेशान और विवश होते है और उनके पास भी मेरी तरह से कोई विकल्प नही होता है । कहते है प्रजातंत्र में तो सबसे अधिक विकल्प मौजूद होते है परन्तु भारत मे हम देखते है कि आम प्रजा के लिए ही तो कहीं कोई विकल्प नही होता जो जैसा है यही उनका भाग्य है या कहे दुर्भाग्य है और इसी विवशता के साथ उन्हे निर्वाह करना है।

ऐसा क्यो है यह तंत्र को गंभीरता के साथ सोचना चाहिए। रेल्वे मे भी ऐसा ही है रेलमंत्री को भी इस विषय में सोचना चाहिए कि भारत मे शासन चाहे किसी भी दल का हो किसी भी रेलमंत्री ने आज तक आम जनता के बारे में कभी सोचा ही नही न ही कभी उनकी कोई परवाह की है। 

प्रश्न यह है कि आम जनता की सामान्य बोगी की यात्रा का आज तक कभी विचार क्यो नही किया गया क्यो आम जनता की यात्रा की इतनी गंभीर उपेक्षा की गई ? दस प्रतिशत रेल का स्थान नब्बे प्रतिशत आम जनता के लिए क्यो सुरक्षित रखा जाता है और नब्बे प्रतिशत स्थान दस प्रतिशत खास लोगो के लिए क्यो सुरक्षित रखा जाता है? और नब्बे प्रतिशत रेले खास रेल्वे स्टेशनो के लिए और दस प्रतिशत रेले नब्बे प्रतिशत स्टेशनो के लिए क्यो तय है ?

सारा ध्यान राजधानी, दुरन्तो, शताब्दी ,आदि ए सी गाडियो पर और बडें बडे रेल्वे स्टेशनो पर ही क्यो केन्द्रित रहता है ? 

क्या प्रजातंत्र में प्रजा की यात्रा को कष्ट साध्य मुश्किलो भरा बनाकर मोटी तन्खाह वाले खास एंव धनवानो की सुखद यात्रा के लिए प्रजा के पैसो से राजधानी दुरन्तो और शताब्दी जैसी एसी ट्रेने चलाना उचित है ? नही यह सरओम डकैती है । प्रजातंत्र मे शासन के द्वारा संचालित एवं सार्वजनिक उपयोग के किसी भी मामले में आम को नजरअंदाज कर खास को महत्ता देना उस सेवा का न केवल पूरी तरह से दुरूपयोग करना, बल्कि आम प्रजा के अधिकारो पर डाका डालना है रेल्वे के मामले में शासन यही कर रहा है इस मामले में न्यायालय को भी संज्ञान अवश्य ही लेना चाहिए । आज सभी जानते है कि आम रेल यात्रा कितनी अधिक भयावह रूप से कठीन हो गई है जनरल बोगी मे स्थान पाना तो किसी चमत्कार से कम नही होता । ऐसी कठीन परिस्थिति मे ए सी एवं प्रथम श्रेणी की ट्रेन चलाना तो बहुत ही गलत बात है ही परन्तु ट्रेन में प्रथम श्रेणी और ए सी की एक भी बोगी रखना भी पूरी तरह से अनुचित व अन्यायपूर्ण है यह पूरी तरह से बंद होना चाहिए । कैसे कब और क्यो हमारे प्रजातंत्र में राजधानी दुरन्तो और शताब्दी जैसी ट्रेने रेल्वे में शामिल कर ली गई और किसी भी नेता या दल के द्वारा इस सरओम डकैती के प्रयास का विरोध तक नही किया गया आश्चर्यजनक और दुखद है। हमने आजादी के वक्त गांधीजी के आदर्शो पर चलने की कसम खायी थी ऐसे तो हरगिज नही थे नही थे गांधीजी के आदर्श ? विकास हो और सबको आरामदायक सुख सुविधा मिले यह तो अच्छी बात है परन्तु आम और बहुसंख्यक जनता को कष्ट में रखकर उनकी छाती पर खडे होकर तो इसकी अनुमति कदापि नही दी जा सकती । जब तक आप आम जनता की आम प्राथमिक यात्रा को कष्ट रहित एवं सरल नही कर देते तब तक ट्रेन सहित शासन के द्वारा संचालित एवं सार्वजनिक उपयोग के किसी भी मामले में आम को नजर अंदाज कर खास को महत्ता विशेषाधिकार देना जैसे प्रथम श्रेणी ,वातानुकूलित श्रेणी बनाना उस सेवा की पूरी तरह से डकैती करना ही कहा जायेगा । जब तक आम जनता के सम्पूर्ण संबधित कष्ट हल नही हो तब तक प्रजातंत्र मे यह प्रजा के साथ यह अन्याय अपराध ही माना जाकर प्रतिबंधित रहना चाहिए। जी हां इस एसी क्लास को कम से कम सार्वजनिक सेवाओ से पूरी तरह से तब तक बंद कर देना चाहिए जबतक हम साधारण क्लास की न्यूनतम आधारभूत आवश्यकता को पूरा नही कर देते । आपको जानकारी होगी कि भारत में ट्रेनो में बेहद भीड रहा करती है और एक माह पूर्वतक के रिजर्वेशन भी कठिनाई पूर्वक ही मिल पाते है इसका अर्थ है कि यात्री अधिक है और स्थान कम है ,सच पूछा जाये स्थान कम तो नही है परन्तु उसका दुरूपयोग किया जा रहा है ।एक समूची एसी ट्रेन केवल तीन सौ लोगो को लेकर ,जंक्शन से जंक्शन या महानगर से महानगर दौडती है अगर यही ट्रेन साधारण बोगी की हो और सामान्य स्टापेज करे, तो तीन हजार लोग भी थोडी सुविधा असुविधा के साथ उसमे यात्रा कर सकते है क्योकि वे बेसब्री से प्रतिक्षारत है ,जरूरतमंद है . आपका यह मानना सही भी हो सकता है कि तीन सौ लोगो के टिकट का मूल्य तीन हजार यात्रियो के टिकट के मूल्य से अधिक हो सकता है परन्तु किस कींमत पर ! दोहजार सात सौ यात्रियो को उनकी यात्रा के अधिकार से वंचित करके, क्या यह मूल्य कुछ अधिक नही लगता ?

दूसरी और यह मानकर क्यो चला जा रहा है कि यात्रा का अधिकार और सुविधा की केवल शहर के लोगो को ही आवश्यकता है जबकि सत्तर प्रतिशत जनता गांवो में ही निवास करती है गांधीजी ने भी कहा है कि भारत की आत्मा गांव में बसती है फिर उनको क्यो इस कदर नजर अंदाज किया गया और लगातार किया जा रहा है । तमाम नेता ताकतवर लोग और मीडिया शहरो मे निवास करता है और वह गांव में तब ही पहुंचता है जब चुनाव होता है या कोई बडी दुर्घटना होती है तो फिर गांवो की आवाज कौन उठायेगा ? होना यह चाहिए कि गांवो की सुविधाओ मे कटौती करने के स्थान पर गांवो को अतिरिक्त रियायत और सुविधा देना चाहिए ताकि गांवो में रहने वालो को कुछ अनुकुलता प्राप्त हो और गांव से पलायन की गति कुछ कम हो । जबकि आज रियायतो के नाम पर गांवो के साथ उन्हे नजरदांज कर सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। होना यह चाहिए कि हर गांव को पैसेजर ट्रेन के साथ साथ कम से कम एक एक एक्सप्रेस ट्रेन का स्टापेज अवश्य दिया जाना चाहिए । गांव के मामले में स्टापेज के साथ आय के गणित को कदापि नही जोडा जाना चाहिए। हमारा उद्देश्य गांवो को रियायत देकर गांव के साथ शहर की दूरी को कम करना होना चाहिए ।गांव समूचे देश का पालन करते है इसका उन्हे ईनाम मिलना चाहिए जबकि रेल्वे एवं शासन प्रशासन गांवो को सजा देने की नीति पर चल रहे है जो पूरी तरह से गलत है । रेल्वे को अपनी भूलसुधार के लिए कुछ आधारभूत सुझाव यहां प्रस्तुत है जिन पर अमल कर रेल्वे अपने चेहरे को प्रजातंत्र के कुछ निकट ला सकता है 1 रेल्वे से कमाई के गणित को दूर रखा जाये जनहित एवं जनसुविधा का ही प्राथमिकता के साथ ध्यान रखा जाना चाहिए 2 भारतीय रेल को केवल आम लोगो के लिए पूरी तरह से आरक्षित कर दिया जाना चाहिए 3 रेलो में केवल तीन ही विभाजन हो वह भी दूरी के हिसाब से हो एक अत्यंत छोटी यात्रा जिसमे -सौ किलोमीटर तक की छोटी यात्रा करने वाले अप डाउन करने वाले स्थान उपलब्ध होने पर बैठकर या फिर खडे होकर यात्रा कर सके छोटी यात्रा के लिए कुर्सीयान अर्थात -तीन सौ किलोमीटर तक की यात्रा जिसमे बैठने की व्यवस्था उपलब्ध कराई जाये तीसरी लंबी यात्रा के लिए शयनयान- तीन सौ किलोमीटर से अधिक की यात्रा जिसमे यात्री को शयन करने की सुविधा उपलब्ध कराई जाए। 4 कोई भी कर्मचारी ,अधिकारी ,नेता, पत्रकार, मुफ्तयात्रा करने का अधिकारी न हो । 5 सभी यात्रियो के साथ सम्मानजनक एवं समान व्यवहार किया जाए । 6 ट्रेन में उतरने और च़ढ़ने के लिए अलग अलग द्वार निर्धारित हो 7 हर बोगी में एक व्यक्ति की डयूटी हो वह ही टिकिट दे यात्रियो को स्थान बताए और उनकी मदद भी करे । आश्यकता होने पर डाक्टर पुलिस या टे्न के चालक से सम्पर्क करे । 8 ट्रेनो में यात्रा का किराया कम से कम होना चाहिए । 9 गांव से शहर या शहर से गांव की टिकिट पर भारी रियायत दी जाना चाहिए । 10 रात दस बजे के बाद उतरने वाले यात्रियो को रेल्वे स्टेशन पर रात्री विश्राम /शयन करने की विश्रामघर में सुविधा होनी चाहिए ।इसमे वर्तमान के अनुसार कोई श्रेणी विभाजन भी नही होना चाहिए । वर्तमान समय में सामान्य रेल्वे स्टेशनो के (जंक्शन स्टेशनो जिला स्टेशनो को छोडकर क्योकि वहां शयनयान एवं प्रथमश्रेणी के साफ सुथरे विश्रामघर होते है) विश्रामघरो मे इतनी गंदगी रहती है कि कोई भला आदमी वहां विश्राम कर ही नही सकता । बाथरूम और शोचालयो में तो आप पैर भी नही रख सकते । 11 रेल्वे स्टेशनो पर सुरक्षा ,शोचालय ,पानी, पेयजल, साफसफाई, चाय - नाश्ता, भोजन ,चिकित्सा आदि की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए वर्तमान में रेल्वे स्टेशनो पर गुंडो का राज रहता है सुरक्षाबल उनसे दोस्ती और वसूली में विश्वास रखता है। साफ सफाई बिल्कुल नही रहती है।और खाने पीने के जो भी खाद्य एवं पेय पदार्थ वहां बेचे जाते है वे एकदम घटिया और मंहगें होते है । इस सब पर न किसी की निगाह होती है न ही नियंत्रण दिखाई देता है यह सब भी देखा जाना चाहिए और इसके लिए स्टेशन मास्टर को जिम्मेदार बनाया व ठहराया जाना चाहिए । 12 वर्तमान में हमारे ट्रेक पचास किमी प्रति घंटे के हिसाब से बने हुए है और हमारी ट्रेनो की औसत रफ्तार भी यही है हम दुनिया की नकल न भी करे तो भी यह रफ्तार सौ किमी की करने का प्रंयास होना चाहिए । 13 वर्तमान समय मे इतनी संचार क्रांति के बावजूद रेलो के आने व जाने का बिल्कुल सही समय बताने की कोई व्यवस्था नही है जबकि यह कोई बहुत कठीन नही है और इसके लिए लापरवाही ही जिम्मेदार है । इसे ठीक करना चाहिए । 14 रेल्वे में शिकायत की व्यवस्था होने के बावजूद जनता उसका कोई उपयोग नही कर पाती क्योकि शिकायत करने वाले को स्टेशन मास्टर के दफ्तर में जाना पडता है और वहां उसे शिकायत रजिस्टर देने के पहले अनैक सवालो का जवाब देना होता है और फिर शिकायत न करने के लिए समझाया या डराया जाता है कि उसे चक्कर लगाना होगे परेशान होना होगा आदि । अब इसकी जगह एक टोल फ्री नम्बर टिकिट पर अंकित होना चाहिए जिस पर चौबिस घंटे वह अपनी शिकायत दर्ज कर सके । अगर इन बातो सुझावो पर ध्यान दिया जाकर अगर अमल किया जाता है तो आमजनता को कुछ राहत महसूस होगी और रेल्वे को भी अपना चेहरा कुछ उजला महसूस होगा । पुनश्च - रेल्वे से एसी और मुफत यात्रा की विदाई हो जाने से निश्चिंतरूप से कुछ लोगो की सुखसुविधा मे कमी होगी और उनके अहंकार को भी चोट पहुंचेगी वे इसका विरोध भी करेंगें ऐसे सभी लोगो से मेरा निवेदन है कि वे इस सच को स्वीकार करते हुए कि प्रजातंत्र में सार्वजनिक सेवाओ में विशेषाधिकार चाहना ,भोगना अनुचित है वे अपने सौजन्य का परिचय का परिचय देंगे और न केवल उदारता पूर्वक इसे स्वीकार कर लेंगें साथ ही आशा ही नही वरन पूर्ण विश्वास है कि वे स्वयं आगे आकर इसके लागू होने मे सहयोग भी करेगे । आपसे भी निवेदन है कि आप अपने पद हैसियत स्थान के हिसाब से इस लेख में दिये गये सुझावो को अमल में लाने के प्रयासो को बल गति और समर्थन देने का कष्ट करे अगर आप राजनीति से जुड़े है तो वर्तमान सांसदो तक इस लेख को फारवर्ड करने और इस मुददे को संसद में उठाने की मांग करने की कृपा करे । यह सच्ची जनसेवा है ।

                        आपका बहुत आभार व धन्यवाद ।

भारतीय रेल :यह सरओम डकैती है?- गिरीश नागड़ा[संपादित करें]

भारतीय रेल :यह सरओम डकैती है?- गिरीश नागड़ा मेरा आज इन्दौर से हावडा जाना बेहद जरूरी है और मेरे पास रिजर्वेशन नही है सामान्य बोगी जिसे जनरल भी कहा जाता है उसमें पैर रखने की भी जगह नही है प्रथम श्रेणी वातानुकूलित में या हवाई यात्रा करना मेरे बस में नही है और एक पैर पर शोचालय मे खडे होकर इतनी लंबी यात्रा के अनुकूल स्वास्थ्य नही है फिर मै क्या करुंगा ? क्या करुंगा! अपनी यात्रा रद्द करने के अलावा मेरे पास और कोई विकल्प ही नही है वही मै करुंगा । और बेहद जरूरी कार्य के न कर पाने की हानि उठाउंगा और शर्मिन्दगी झेलूंगा बस इसके अलावा और मै कर भी क्या सकता हूँ ? अगर समूची ट्रेन सामान्य बोगी की होती तो मुझे किसी न किसी बोगी में पैर रखने की जगह तो मिल ही जाती और मै इस हानि और शर्मिन्दगी से भी बच जाता । मेंरे जैसे जाने कितने ही लोग है जो इस परिस्थिति से प्रतिदिन दो चार होकर परेशान और विवश होते है और उनके पास भी मेरी तरह से कोई विकल्प नही होता है । कहते है प्रजातंत्र में तो सबसे अधिक विकल्प मौजूद होते है परन्तु भारत मे हम देखते है कि आम प्रजा के लिए ही तो कहीं कोई विकल्प नही होता जो जैसा है यही उनका भाग्य है या कहे दुर्भाग्य है और इसी विवशता के साथ उन्हे निर्वाह करना है।

ऐसा क्यो है यह तंत्र को गंभीरता के साथ सोचना चाहिए। रेल्वे मे भी ऐसा ही है रेलमंत्री को भी इस विषय में सोचना चाहिए कि भारत मे शासन चाहे किसी भी दल का हो किसी भी रेलमंत्री ने आज तक आम जनता के बारे में कभी सोचा ही नही न ही कभी उनकी कोई परवाह की है। 

प्रश्न यह है कि आम जनता की सामान्य बोगी की यात्रा का आज तक कभी विचार क्यो नही किया गया क्यो आम जनता की यात्रा की इतनी गंभीर उपेक्षा की गई ? दस प्रतिशत रेल का स्थान नब्बे प्रतिशत आम जनता के लिए क्यो सुरक्षित रखा जाता है और नब्बे प्रतिशत स्थान दस प्रतिशत खास लोगो के लिए क्यो सुरक्षित रखा जाता है? और नब्बे प्रतिशत रेले खास रेल्वे स्टेशनो के लिए और दस प्रतिशत रेले नब्बे प्रतिशत स्टेशनो के लिए क्यो तय है ?

सारा ध्यान राजधानी, दुरन्तो, शताब्दी ,आदि ए सी गाडियो पर और बडें बडे रेल्वे स्टेशनो पर ही क्यो केन्द्रित रहता है ? 

क्या प्रजातंत्र में प्रजा की यात्रा को कष्ट साध्य मुश्किलो भरा बनाकर मोटी तन्खाह वाले खास एंव धनवानो की सुखद यात्रा के लिए प्रजा के पैसो से राजधानी दुरन्तो और शताब्दी जैसी एसी ट्रेने चलाना उचित है ? नही यह सरओम डकैती है । प्रजातंत्र मे शासन के द्वारा संचालित एवं सार्वजनिक उपयोग के किसी भी मामले में आम को नजरअंदाज कर खास को महत्ता देना उस सेवा का न केवल पूरी तरह से दुरूपयोग करना, बल्कि आम प्रजा के अधिकारो पर डाका डालना है रेल्वे के मामले में शासन यही कर रहा है इस मामले में न्यायालय को भी संज्ञान अवश्य ही लेना चाहिए । आज सभी जानते है कि आम रेल यात्रा कितनी अधिक भयावह रूप से कठीन हो गई है जनरल बोगी मे स्थान पाना तो किसी चमत्कार से कम नही होता । ऐसी कठीन परिस्थिति मे ए सी एवं प्रथम श्रेणी की ट्रेन चलाना तो बहुत ही गलत बात है ही परन्तु ट्रेन में प्रथम श्रेणी और ए सी की एक भी बोगी रखना भी पूरी तरह से अनुचित व अन्यायपूर्ण है यह पूरी तरह से बंद होना चाहिए । कैसे कब और क्यो हमारे प्रजातंत्र में राजधानी दुरन्तो और शताब्दी जैसी ट्रेने रेल्वे में शामिल कर ली गई और किसी भी नेता या दल के द्वारा इस सरओम डकैती के प्रयास का विरोध तक नही किया गया आश्चर्यजनक और दुखद है। हमने आजादी के वक्त गांधीजी के आदर्शो पर चलने की कसम खायी थी ऐसे तो हरगिज नही थे नही थे गांधीजी के आदर्श ? विकास हो और सबको आरामदायक सुख सुविधा मिले यह तो अच्छी बात है परन्तु आम और बहुसंख्यक जनता को कष्ट में रखकर उनकी छाती पर खडे होकर तो इसकी अनुमति कदापि नही दी जा सकती । जब तक आप आम जनता की आम प्राथमिक यात्रा को कष्ट रहित एवं सरल नही कर देते तब तक ट्रेन सहित शासन के द्वारा संचालित एवं सार्वजनिक उपयोग के किसी भी मामले में आम को नजर अंदाज कर खास को महत्ता विशेषाधिकार देना जैसे प्रथम श्रेणी ,वातानुकूलित श्रेणी बनाना उस सेवा की पूरी तरह से डकैती करना ही कहा जायेगा । जब तक आम जनता के सम्पूर्ण संबधित कष्ट हल नही हो तब तक प्रजातंत्र मे यह प्रजा के साथ यह अन्याय अपराध ही माना जाकर प्रतिबंधित रहना चाहिए। जी हां इस एसी क्लास को कम से कम सार्वजनिक सेवाओ से पूरी तरह से तब तक बंद कर देना चाहिए जबतक हम साधारण क्लास की न्यूनतम आधारभूत आवश्यकता को पूरा नही कर देते । आपको जानकारी होगी कि भारत में ट्रेनो में बेहद भीड रहा करती है और एक माह पूर्वतक के रिजर्वेशन भी कठिनाई पूर्वक ही मिल पाते है इसका अर्थ है कि यात्री अधिक है और स्थान कम है ,सच पूछा जाये स्थान कम तो नही है परन्तु उसका दुरूपयोग किया जा रहा है ।एक समूची एसी ट्रेन केवल तीन सौ लोगो को लेकर ,जंक्शन से जंक्शन या महानगर से महानगर दौडती है अगर यही ट्रेन साधारण बोगी की हो और सामान्य स्टापेज करे, तो तीन हजार लोग भी थोडी सुविधा असुविधा के साथ उसमे यात्रा कर सकते है क्योकि वे बेसब्री से प्रतिक्षारत है ,जरूरतमंद है . आपका यह मानना सही भी हो सकता है कि तीन सौ लोगो के टिकट का मूल्य तीन हजार यात्रियो के टिकट के मूल्य से अधिक हो सकता है परन्तु किस कींमत पर ! दोहजार सात सौ यात्रियो को उनकी यात्रा के अधिकार से वंचित करके, क्या यह मूल्य कुछ अधिक नही लगता ?

दूसरी और यह मानकर क्यो चला जा रहा है कि यात्रा का अधिकार और सुविधा की केवल शहर के लोगो को ही आवश्यकता है जबकि सत्तर प्रतिशत जनता गांवो में ही निवास करती है गांधीजी ने भी कहा है कि भारत की आत्मा गांव में बसती है फिर उनको क्यो इस कदर नजर अंदाज किया गया और लगातार किया जा रहा है । तमाम नेता ताकतवर लोग और मीडिया शहरो मे निवास करता है और वह गांव में तब ही पहुंचता है जब चुनाव होता है या कोई बडी दुर्घटना होती है तो फिर गांवो की आवाज कौन उठायेगा ? होना यह चाहिए कि गांवो की सुविधाओ मे कटौती करने के स्थान पर गांवो को अतिरिक्त रियायत और सुविधा देना चाहिए ताकि गांवो में रहने वालो को कुछ अनुकुलता प्राप्त हो और गांव से पलायन की गति कुछ कम हो । जबकि आज रियायतो के नाम पर गांवो के साथ उन्हे नजरदांज कर सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। होना यह चाहिए कि हर गांव को पैसेजर ट्रेन के साथ साथ कम से कम एक एक एक्सप्रेस ट्रेन का स्टापेज अवश्य दिया जाना चाहिए । गांव के मामले में स्टापेज के साथ आय के गणित को कदापि नही जोडा जाना चाहिए। हमारा उद्देश्य गांवो को रियायत देकर गांव के साथ शहर की दूरी को कम करना होना चाहिए ।गांव समूचे देश का पालन करते है इसका उन्हे ईनाम मिलना चाहिए जबकि रेल्वे एवं शासन प्रशासन गांवो को सजा देने की नीति पर चल रहे है जो पूरी तरह से गलत है । रेल्वे को अपनी भूलसुधार के लिए कुछ आधारभूत सुझाव यहां प्रस्तुत है जिन पर अमल कर रेल्वे अपने चेहरे को प्रजातंत्र के कुछ निकट ला सकता है 1 रेल्वे से कमाई के गणित को दूर रखा जाये जनहित एवं जनसुविधा का ही प्राथमिकता के साथ ध्यान रखा जाना चाहिए 2 भारतीय रेल को केवल आम लोगो के लिए पूरी तरह से आरक्षित कर दिया जाना चाहिए 3 रेलो में केवल तीन ही विभाजन हो वह भी दूरी के हिसाब से हो एक अत्यंत छोटी यात्रा जिसमे -सौ किलोमीटर तक की छोटी यात्रा करने वाले अप डाउन करने वाले स्थान उपलब्ध होने पर बैठकर या फिर खडे होकर यात्रा कर सके छोटी यात्रा के लिए कुर्सीयान अर्थात -तीन सौ किलोमीटर तक की यात्रा जिसमे बैठने की व्यवस्था उपलब्ध कराई जाये तीसरी लंबी यात्रा के लिए शयनयान- तीन सौ किलोमीटर से अधिक की यात्रा जिसमे यात्री को शयन करने की सुविधा उपलब्ध कराई जाए। 4 कोई भी कर्मचारी ,अधिकारी ,नेता, पत्रकार, मुफ्तयात्रा करने का अधिकारी न हो । 5 सभी यात्रियो के साथ सम्मानजनक एवं समान व्यवहार किया जाए । 6 ट्रेन में उतरने और च़ढ़ने के लिए अलग अलग द्वार निर्धारित हो 7 हर बोगी में एक व्यक्ति की डयूटी हो वह ही टिकिट दे यात्रियो को स्थान बताए और उनकी मदद भी करे । आश्यकता होने पर डाक्टर पुलिस या टे्न के चालक से सम्पर्क करे । 8 ट्रेनो में यात्रा का किराया कम से कम होना चाहिए । 9 गांव से शहर या शहर से गांव की टिकिट पर भारी रियायत दी जाना चाहिए । 10 रात दस बजे के बाद उतरने वाले यात्रियो को रेल्वे स्टेशन पर रात्री विश्राम /शयन करने की विश्रामघर में सुविधा होनी चाहिए ।इसमे वर्तमान के अनुसार कोई श्रेणी विभाजन भी नही होना चाहिए । वर्तमान समय में सामान्य रेल्वे स्टेशनो के (जंक्शन स्टेशनो जिला स्टेशनो को छोडकर क्योकि वहां शयनयान एवं प्रथमश्रेणी के साफ सुथरे विश्रामघर होते है) विश्रामघरो मे इतनी गंदगी रहती है कि कोई भला आदमी वहां विश्राम कर ही नही सकता । बाथरूम और शोचालयो में तो आप पैर भी नही रख सकते । 11 रेल्वे स्टेशनो पर सुरक्षा ,शोचालय ,पानी, पेयजल, साफसफाई, चाय - नाश्ता, भोजन ,चिकित्सा आदि की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए वर्तमान में रेल्वे स्टेशनो पर गुंडो का राज रहता है सुरक्षाबल उनसे दोस्ती और वसूली में विश्वास रखता है। साफ सफाई बिल्कुल नही रहती है।और खाने पीने के जो भी खाद्य एवं पेय पदार्थ वहां बेचे जाते है वे एकदम घटिया और मंहगें होते है । इस सब पर न किसी की निगाह होती है न ही नियंत्रण दिखाई देता है यह सब भी देखा जाना चाहिए और इसके लिए स्टेशन मास्टर को जिम्मेदार बनाया व ठहराया जाना चाहिए । 12 वर्तमान में हमारे ट्रेक पचास किमी प्रति घंटे के हिसाब से बने हुए है और हमारी ट्रेनो की औसत रफ्तार भी यही है हम दुनिया की नकल न भी करे तो भी यह रफ्तार सौ किमी की करने का प्रंयास होना चाहिए । 13 वर्तमान समय मे इतनी संचार क्रांति के बावजूद रेलो के आने व जाने का बिल्कुल सही समय बताने की कोई व्यवस्था नही है जबकि यह कोई बहुत कठीन नही है और इसके लिए लापरवाही ही जिम्मेदार है । इसे ठीक करना चाहिए । 14 रेल्वे में शिकायत की व्यवस्था होने के बावजूद जनता उसका कोई उपयोग नही कर पाती क्योकि शिकायत करने वाले को स्टेशन मास्टर के दफ्तर में जाना पडता है और वहां उसे शिकायत रजिस्टर देने के पहले अनैक सवालो का जवाब देना होता है और फिर शिकायत न करने के लिए समझाया या डराया जाता है कि उसे चक्कर लगाना होगे परेशान होना होगा आदि । अब इसकी जगह एक टोल फ्री नम्बर टिकिट पर अंकित होना चाहिए जिस पर चौबिस घंटे वह अपनी शिकायत दर्ज कर सके । अगर इन बातो सुझावो पर ध्यान दिया जाकर अगर अमल किया जाता है तो आमजनता को कुछ राहत महसूस होगी और रेल्वे को भी अपना चेहरा कुछ उजला महसूस होगा । पुनश्च - रेल्वे से एसी और मुफत यात्रा की विदाई हो जाने से निश्चिंतरूप से कुछ लोगो की सुखसुविधा मे कमी होगी और उनके अहंकार को भी चोट पहुंचेगी वे इसका विरोध भी करेंगें ऐसे सभी लोगो से मेरा निवेदन है कि वे इस सच को स्वीकार करते हुए कि प्रजातंत्र में सार्वजनिक सेवाओ में विशेषाधिकार चाहना ,भोगना अनुचित है वे अपने सौजन्य का परिचय का परिचय देंगे और न केवल उदारता पूर्वक इसे स्वीकार कर लेंगें साथ ही आशा ही नही वरन पूर्ण विश्वास है कि वे स्वयं आगे आकर इसके लागू होने मे सहयोग भी करेगे । आपसे भी निवेदन है कि आप अपने पद हैसियत स्थान के हिसाब से इस लेख में दिये गये सुझावो को अमल में लाने के प्रयासो को बल गति और समर्थन देने का कष्ट करे अगर आप राजनीति से जुड़े है तो वर्तमान सांसदो तक इस लेख को फारवर्ड करने और इस मुददे को संसद में उठाने की मांग करने की कृपा करे । यह सच्ची जनसेवा है ।

                        आपका बहुत आभार व धन्यवाद ।

लालच ने एक नोबल प्रोफ़ेशन को कितना नीचे गिरा दिया[संपादित करें]

शिक्षा के साथ साथ आज स्वास्थ्य-चिकित्सा के क्षेत्र मे भी व्यवसायिकता अपने संपूर्ण घृणित जलाल के साथ हावी हो गई है अर्थात गंदे धंधो की सभी गंदी बुराईया अपने गंदे रूप मे स्वास्थ्य-चिकित्सा के क्षेत्र मे भी घुसपैठ कर चुकी है । हां यह भी सच है कि चिकित्सा विज्ञान ने बेहद तकनीकि विकास किया है । नयी दवाये, नई विधिया ,नई मशीने और जगह जगह चमचमाते नये नये अस्पताल भी खुल गये है परन्तु सब कुछ आम और यहॉ तक की मध्यमवर्ग के लिए भी बहुत ही महंगा है और उसकी पहुंच से बाहर है आज अगर किसी व्यक्ति को कोई बडी बिमारी पकड लेती है तो उसका घर खाली हो जाता है, कर्ज भी करना पडता है , मकान,जमीन, जायजाद बेचने को मजबूर भी होना पडता है,और उसके पास कोई चारा ही नही रहता है इसीलिए कहते है कि भगवान दुश्मन को भी अस्पताल की सीढ़िया न चढाये। हमारे तमाम विकास के बावजूद हमने आम और मध्यमवर्ग जो %80 से भी अधिक है के बारे में कभी कुछ भी विचार करने का प्रयास ही नही किया , फ़िक्र ही नही की है । 

इस परिस्थिति के लिए बहुत हद तक हमारे ड़ाक्टर जिम्मेदार है ,क्योकि आज डाक्टरो का व्यवहार बेहद अमानवीय रूप से व्यवसायिक हो गया है । वे खुलकर बेशर्मी के साथ कहते है ,स्वीकार करते है, कि पढाई मे करोड-करोड रूपया खर्च करने के बाद यह डिग्री मिली है । इतना रूपया लगाया है तो ब्याज सहित ,कई गुना वसूल तो करेगे ही । वैसे यह अलग बात है कि इन डाक्टरो की योग्यता के यह हाल है कि इतनी मंहगी डिग्री लेने के बावजूद इनकी पेशेवर योग्यता और निपुणता की औचक जांच की जाये तो अनैक डाक्टर अपनी डिग्री की योग्यता पर भी खरे नही उतरते है। अपनी विशेषज्ञता के बावजूद कई डाक्टर जांच परीक्षण और चिकित्सा के लिए दवा लिखते हुए चिकित्सा करते हुए,आपरेशन करते हुए, न सिर्फ भयंकर गलतियां करते है बल्कि जानते बूझते हुए बेहद चौकाने वाली लापरवाही करते हुए पाये जाते है अब इनके इस कदाचार ,अनाचार ,भ्रष्टाचार लापरवाही को केवल कोई ड़ाक्टर ही तो उजागर कर सकता है परन्तु एक ड़ाक्टर ,ड़ाक्टर की पोल कम ही खोलता है क्योकि इनमे भी एक मौसेरा भाईचारा तो रहता ही है |

एक लतिफ़ा है 'जो है तो अतिश्योक्तिपूर्ण लतिफ़ा परन्तु ड़ॉक्टरो की भूल, लापरवाही, गलती और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार की ओर स्पष्ट सांकेतिक ईशारा बहुत अच्छे से अवश्य ही करता है                                           

लतिफ़ा है- पप्पू की टांग नीली हो गयी। ड़ॉक्टर के पास जाता है डॉक्टर (पप्पू से)- जहर है तुम्हारी टांग काटनी पड़ेगी। टांग काटकर नकली लगा दी गयी। 2 दिन बाद नकली टांग भी नीली पड़ गयी। डॉक्टर - अब तुम्हारी बीमारी समझ मे आयी , तुम्हारी जींस रंग छोड़ती है।

        दुखी, परेशान, कराहता  मरीज  डाक्टर के पास जाता है उसे भगवान समझकर  परन्तु  डाक्टर के लिए वह मा़त्र एक ग्राहक, शिकार , बनकर रह जाता है ।और उसे बेदर्दी से लूटा नोचा जाता है । इस सारे मामले को और डाक्टरो  को  और  अधिक  पथभ्रष्ट करने के लिए %40 से %400 तक के मुनाफ़ा कमाने वाली दवा कम्पनियो ने आग में घी का काम किया है । दवा कम्पनियो के लालच का एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है कि एक नई दवा कम्पनी ने कुछ साल पूर्व अपना एक महंगा टानिक सायरप प्रोडक्ट लांच किया। उसके फार्मूले मे बेतुका अनावश्यक संयोजन था और खतरनाक बात यह थी कि उसमे अनावश्यक रुप से स्टेराईड मिलाया गया था । उसकी एक हजार शीशिया लिखने वाले डाक्टर को एक मंहगा तोहफा दिया जाना था ।आजकल कारपोरेट के जमाने में तो यह गिफ्ट विदेश यात्रा पैकेज टूर तक विस्तार पा गया है । उस दवा  कम्पनी के प्रतिनिधि ने  एक  बाल रोगविशेषज्ञ को इस मंहगे तोहफे का आफर दिया था और उस  डाक्टर.ने  अगले पन्द्रह दिन मे आने वाले अपने हर बाल रोगी को चाहे उसे किसी भी तरह की बिमारी हो उसे अनिवार्य रूप से यह टानिक लिखा और अपना लक्ष्य प्राप्त किया । अब उससे किस बच्चे को क्या व कितने साईड इफेक्ट हुए, इस सबसे उन्हे कोई  लेनादेना नही , उन्हे तो उनका  तोहफा मिल गया बस। हो सकता है वे बच्चे उन " स्टेराईड साईड इफेक्टो" को जीवन भर भोगे, जिसके तहत, उनका शारीरिक मानसिक विकास अवरूद्ध भी हो सकता है , शरीर बेहद मोटा हो सकता है, लड़कियो को मूछें निकल सकती है या बच्चे को जीवन भर की विकलांगता भी हो सकती है । 
पिछले दिनो जयपुर. शहर के प्रमुख डॉक्टरों के यहां आयकर विभाग की टीम ने छापे मारे आयकर विभाग के अधिकृत सूत्रों के अनुसार डॉक्टरों पर हुई कार्रवाई में अघोषित रूप से डॉक्टरों के प्रॉपर्टी में भारी निवेश का पता चला है। डॉक्टरो ने जयपुर के अलावा दिल्ली और वहां आसपास के इलाकों में प्रॉपर्टी की खरीद की है। प्रॉपर्टी की खरीद के मामले की आयकर विभाग की टीम जांच कर रही है। गौरतलब है कि आयकर विभाग ने बुधवार 8/6/2011 को एक साथ नौ डॉक्टर्स पर कार्रवाई की थी। गुरुवार तक आठ डॉक्टरों ने 16 करोड़ 75 लाख रुपए की अघोषित आय सरेंडर की थी, लेकिन एक हड्डी रोग विशेषज्ञ ने दूसरे दिन शुक्रवार 9/62011 को 2 करोड़ 20 लाख रुपए की अघोषित आय सरेंडर की । डॉक्टरों  को संसाधन और  दवाइयां  सप्लाई करने वाली कंपनी के यहां भी इनकम टैक्स के अफसर पहुंचे तो उनकी लेखा पुस्तकों में डॉक्टरों को विदेश ट्रिप कराने के साथ ही अन्य यात्राओं के बिल भी मिले। इस संबंध में कंपनी के अधिकारियों ने बताया  कि डॉक्टर मोटा कमीशन लेने के अलावा विदेश ट्रिप के लिए हमेशा दबाव बनाकर रखते हैं। विदेश ये डॉक्टर जाते हैं और खर्चा कंपनी को  भुगतना  पड़ता  है।  विदेश  यात्राओं का खर्चा  उठाना  हमारी मजबूरी  है।  अंततः असर  यह  मरीज से ही कीमतो को बढ़ा करके वसूल किया जाता है और मरीज  को  मिलने  वाले  संसाधनों, दवाओ की  कीमते  बढ़ा  दी  जाती  है। इस प्रकार न जाने कितने उदाहरण लालच की वजह से हर दिन घटित हो रहे है परन्तु उसे रोकने की हमारे पास कोई व्यवस्था या उपाय ही नही है और इस प्रकार से यह सब चिकित्सा क्षेत्र मे लोभ की वजह से फैली हुई आज महाबुराईया आम हो गई है ।                                   
   सबसे अधिक हलाहल लूट मचाई है अस्पताल नर्सिंग होम के मालिको के साथ मिलकर सर्जनो ने । पहले पहले इसकी शुरूआत हुई थी डिलेवरी केसो से ।  उसमे मरीज की थोडी सी भी सम्पन्नता दिखाई दे जाने पर सर्जरी के लिए दबाव बनाया जाने लगता है , मरीज भर्ती हुई कि दर्द निवारक दवाये सलाईन के साथ देना शुरू कर देते है फिर एकदम से डराया जाता है कि दर्द नही उठ रहा है जच्चे बच्चे की जान को खतरा हो सकता है, जहर फैल सकता है, तुरन्त आपरेशन करना होगा, परिजन घबराकर तुरन्त सर्जरी की सहमति दे देता है इस प्रकार से , अनावश्यक रूप से मरीज के साथ उसकी जेब की भी सर्जरी हो जाती है । आप खुद आंकड़े उठाकर देख ले कि आज कितने प्रतिशत डिलेवरी बिना सर्जरी के होती है तो आपको पता चल जायेगा कि सच्चाई कितनी लोभ मे ड़ूबी हुई और भयानक है । परन्तु यह बात केवल कुछ हजार रुपयो तक की ही थी और है  ।

इसके बाद हल्ला आया हार्ट सर्जरी का और अब किड़नी ट्रांसप्लांट सर्जरी, लीवर ट्रांसप्लांट सर्जरी का । आज पैसा बनाने मे सबसे उपर ये नाम है उनमे ये सर्जरी ही मुख्य है । हार्ट की सर्जरी का विस्तार दस लाख तक और किड़नी ट्रांसप्लांट सर्जरी लीवर ट्रांसप्लांट सर्जरी का विस्तार पचास लाख तक हो गया है । और जिन्होने यह दुकाने खोल रखी है उन्हे ग्राहक तो चाहिए और ग्राहक को खोजने फंसाने के लिए नये नये हथकंड़ो का इस्तेमाल होता है उसके लिए भरपूर कमीशन भी बांटे जाते है । भ्रष्टाचार अनियमितता यहां तक होती है कि सर्जरी के कुछ हजार रूपयो के आधारभूत खर्च को लाखो रूपयो तक खींच ड़ाला जाता है । और इसके लिए नये नये फंडे अपनाये जाते है उदा. के लिए विकासशील नगरो में वहां के स्थानीय डाक्टरो को अपना गुप्त एजेन्ट नियुक्त कर देते है, जो सर्जरी की वास्तविक आवश्यकता वाले मरीजो के अलावा ऐसे मरीजो को भी ड़राकर रेफर कर देते है जिन्हे सर्जरी की वास्तविक आवश्यकता ही नही होती है हां परन्तु वे सर्जरी का खर्च उठा सकते है, और यहां वही सक्षमता उनका अपराध भी साबित होती है ! महानगरो के डाक्टर विकासशील नगरो में वहां के स्थानीय डाक्टरो के सहयोग से मुफ्त जांच शिविरो का आयोजन करते है जिसमे उनके पास दो थर्मामीटर होते है एक वे मरीज के शरीर पर लगाते है दूसरा मरीज की जेब पर लगाते है । जेब का तापमान देखकर वे उनमे से कुछ मरीजो को छांट कर अगली जांच के लिए अपने महानगर के बड़े भारी चमचमाते अस्पताल मे बुलाते है जितने लोग वहां पहुंचते है उन्हे फिर से दूसरा थर्मामीटर लगाया जाता है जिनकी जेब वास्तव में अधिक गर्म होती है उन पर सर्जरी का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जाता है और फिर उनका शिकार किया जाता है अर्थात सर्जरी की जाती है । यह बात समझ मे नही आती कि किसी एक सर्जरी के लिए एक सर्जन लाखो रूपये किस बात के लेता है, क्या अपने ज्ञान और कौशल के लेता है ? नही ये लाखो रूपये पीड़ित की मजबूरी के लिए जाते है | यह नैतिक रूप से सरासर अनुचित ही नही अपराध भी है । कोई अन्य व्यक्ति जो अपने तकनीकि ज्ञान से कोई अन्य कार्य करता है वह भी अपने कार्य का डाक्टर सर्जन ही तो होता है परन्तु वह कुछ सौ या हजार रूपयो मे अपना कर्तव्य निभा देता है जबकि सर्जन लाखो रूपये लेता है यह कहॉ का न्याय है और इस परिस्थिती मे गरीब और मध्यम वर्ग क्या करेगा इस बाबत किसी ने कुछ सोचने का कभी प्रयास भी नही किया है । डॉक्टर जिसका इलाज कर सकते है ,अस्पतालो मे जिन्हे ठीक किया जा सकता है ,ऐसे कई मरीज अस्पतालो के गेट पर पैसा न होने से दम तोड़ देते है। मरूस्थल में अगर किसी के पास पानी हो और वह प्यास से तड़फते व्यक्ति से एक गिलास पानी के बदले उसके पास से एक करोड़ रूपया मांग ले या जितना धन हो वह सब मांग ले तो वह उसे देना ही होगा और मजबूरी में वह देगा भी क्योकि वह रूपया पानी की कीमत नही जान की कीमत है । प्रकारांतर से यह उस डाकू के समान ही है जो जान बख्शने के बदले सारा धन ले लेता है और उसको वह देना ही पड़ता है वह भी जान की ही कीमत है । इसी प्रकार से डॉक्टर भी वही करता है फर्क यह है कि वह जान बचाने के लिए ढ़ेर सारे पैसे मांगता है। डाकू.- अब तेरी जान ले लूंगा / डॉक्टर - अब तेरी जान बचाउंगा नही । दोनो में दांव पर तो जान ही लगी है परन्तु डाकू जितना व्यक्ति के पास मे है उतना लेकर बख्श देता है ज्यादा वाले से ज्यादा ले लेता है कम वाले से कम ले लेता है लेकिन डॉक्टर किसी को भी बख्शता नही है ,उसे तो निश्चित रूपया ,चाहिए याने चाहिए, नही है तो कर्ज लो ,घर बेचो ,खेती बेचो या अपने आपको बेचो कही से भी लेकर के आओ और मुझे दो । इस तरह से तो डाकू ज्यादा मानवीय मालूम पड़ता है परन्तु डाकू के पास आदमी खुद होकर नही जाता जबकि मजबूरी है कि डॉक्टर के पास आदमी को खुद होकर जाना पङता है । अस्पतालो में जगह खाली हो तो पुराने मरीजो को छुट्टी नही दी जाती । आई. सी. यू और वेन्टीलेटरो पर मृत मरीज को भी चढ़ाये रहते है नयी नयी अनावश्यक मंहगी जांचे बार-बार कराई जाती है अनावश्यक मंहगी दवाये लिखी जाती है , अनावश्यक सर्जरी बेहद जरुरी बता कर दी जाती है । और भी न जाने क्या क्या किया जाता है यह पता ही नहीं चलता क्योकि सारे अस्पताल बेहद अनावश्यक गोपनीयता बरतते है ,अपने मरीज की फाईल किसी को नही देते , देते है तो केवल डिस्चार्ज कार्ड और भारी भरकम बिल। यह बेहद अनावश्यक गोपनीयता की गलत परम्परा अस्पतालो की अपनी सुरक्षा,बचत ,अपनी गल्ती, भूल, लापरवाही, अपनी लूटमार, ड़कैती आदि को छुपाने के लिए अस्पतालो ने अपना रखी है इससे पारदर्शिता का पूर्णतया लोप हो जाता है और वे मनचाही लूट मचाने के लिये भी बिल्कुल स्वतंत्र रहते है । इस अनावश्यक गोपनीयता को भी आपराधिक कृत्य घोषित किया जाना चाहिए ।

                                                                                             कृपया शेष भाग--- 2  मे देखे
                                          





                                                   भाग--- 2  
                                    लालच ने  एक नोबल प्रोफ़ेशन को कितना नीचे गिरा दिया
                                                             -  2

डाक्टरो और अस्पतालो की लापरवाही का एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है --- एक परिचित व्यक्ति जिनकी किडनी मे समस्या थी और उसके लिए वे मंहगी दवाये खा रहे थे परहेजी जीवन जी रहे थे । एक दिन वे स्कूटर पर कहीं जा रहे थे एक ट्रक ने उन्हे टक्कर मारी वे गिरे और उनके बांये पैर मे गंभीर चोटें आई | उन्हे पूना के एक प्रसिद्ध अस्पताल मे भर्ती किया गया उनके पैर का आपरेशन किया गया । उन्हे होश आ चुका था और वे घर जाने के बारे मे सोचने लगे थे । उनके घाव सुखाने के लिए उन्हे अत्यंत महंगे एवं हैवी एंटी बायोटिक के इन्जेक्शन लग रहे थे जो उनकी किडनी के लिए जहर के समान साबित हुए और अचानक किडनी के फेल हो जाने से उनकी मौत हो गयी । इस इलाज मे उनका घर भी बिक गया । वास्तव मे यह ड़ाक्टरो की आपराधिक लापरवाही का उदाहरण है ,क्या इलाज करते हुए यह ड़ाक्टरो की ङ्यूटी नही है कि कोई भी दवा देते समय वे देखें कि यह दवा इस मरीज के लिए जानलेवा तो साबित नही होगी, क्या डाक्टरो को यह भी नही देखना चाहिए था कि वह पहले ही किडनी की दवा खा रहे है उन्हे इतने हैवी एंटीबायोटिक न दिये जाये । परन्तु हो सकता है कि उस एंटीबायोटिक बनाने वाली कम्पनी ने उन्हे कुछ टारगेट दिया हो । उनके छोटे से लालच के आगे मरीज के जीवन का क्या मूल्य ? और उन्हे इसके लिए कही कोई पूछने वाला भी नही है । एक अन्य उदाहरण मे - इन्दौर के पास के एक गांव मे रहने वाले एक गरीब व्यक्ति जिनकी कामन बाइल डक्ट मे रूकावट हो गयी थी इन्दौर आये और एक प्रसिद्ध सर्जन को दिखाया उसने एक प्रसिद्ध अस्पताल मे उन्हे भर्ती कर ऐन्ड़ोस्कोपी से एक कृत्रिम नली लगा दी । और उनसे सत्तर हजार रूपये ले लिए । तीन माह बाद उन्हे वहां फिर से रूकावट हो गयी और उसमे बहुत तेज दर्द भी हो रहा था उन्होने उसी डाक्टर से सम्पर्क किया डाक्टर ने कहां कि एक लाख रूपया हो तो मेरे पास आना । नहीं तो आने की कोई जरूरत नही है । अब उनके पास एक लाख रूपया नही था सो वे बड़े सरकारी अस्पताल में भर्ती हुए वहां के डाक्टर को प्रायवेट में फीस देकर भी आये परन्तु वह डा. तीन दिन तक फीस लेकर भी खुद अस्पताल में होते हुए उन्हे देखने भी नही आया तबियत ज्यादा बिगड़ने पर रातोरात घबराकर वे फिर एक प्रायवेट अस्पताल मे भागे वहां भी कुछ लूटामारी हुई और वहां उन्होने प्राण त्याग दिये इस बीच उन्होने असीम पीडा भोगी । इस इलाज के लिए उन्हे अपनी पुरखो की खेती भी बेचना पडी ।

मरीज के परिजनो ने बाद मे आशंका व्यक्त की थी कि मरीज को प्रायवेट अस्पताल मे भर्ती की प्रक्रिया करते हुए ही मौत हो गई थी फिर भी दो घंटे तक परिजनो को शव के पास जाने देखने भी नही दिया और बाद मे कपड़े से सी करके दे दिया दो घंटे मरीज के शव के साथ उस प्रायवेट अस्पताल वालो ने क्या किया, कही उनके शरीर के अंग चुराने जैसी कोई हरकत तो नही कर ली गई ? शोकाकुल परिवार जन विलाप करते हुऐ एक दूसरे को कठिनाई पूर्वक किसी तरह संभाल रहे थे इस गम्भीर गमगीन माहोल में उन्होने अपने सन्देह व आशंका को उजागर करना उचित नही समझा और मौन रह गये । इस तरह कॆ कांड़ किये जाना कोई बहुत बड़ी बात नही है क्योकि इस तरह की अनैको घटनाये हमारे देश मे पहले भी हो चुकी है उनमे से कुछ मामले उजागर भी हुए है और अंगचोर गिरोह गिरफ़्तार भी किये गये थे जिनमे ड़ाँक्टर भी शामिल थे । हिला देने वाली इस प्रकार की हजारो जानी अनजानी दुखद घटनाऔं के कलंक से हमारा चिकित्सा जगत शर्मशार है । इस प्रकार से समूचे चिकित्सा क्षेत्र में ऐसा कुछ हुआ है और हो रहा है जो नही होना चाहिए ये लोग अपने छोटे से लाभ के लिए आप पर पहाड़ जैसा संकट धकेल सकते है एक समाचारपत्र ने निम्न घटना पर लिखते हुए लिखा था कि मेरे शहर के डाक्टर डाक्टर नही रहे वे तो डाकू बन गये है , देखिये इतने नोबल प्रोफेशन को उन्होने कितना नीचे गिरा दिया है ।
      पूर्व में दानी धर्मात्मा सेवा की भावना से अस्पताल आदि बनवाते थे और उनमे मुफ्त इलाज किया जाता था परन्तु आज तो हमारे अस्पताल को निवेश का एक बेहद ही शानदार लाभदायक व्यवसाय माना जाने लगा है धनी लोग अस्पताल में खूब निवेश कर रहे है क्योकि उससे उन्हे लाभ कई गुना रिटर्न होकर मिल रहा है । आज तो धर्मात्माओं के द्वारा बनवाये गये अस्पतालो को भी इन लालची लोगो ने अपने मकड़जाल मे फंसाना शुरू कर दिया है लाभ का प्रतिशत इतना भारी है कि लोभ का संवरण करना बेहद कठिन है होटलो की चेन की तरह अस्पतालो की ग्रुप चेन बन गई है और अस्पतालो मे सितारे लटक गये है । 

क्या यही हमारे विकास की गोरवशाली कहानी है , क्या इसे हम सच्चा विकास कह सकते है ,क्या इस तरह से कार्पोरेट सेक्टर को मनमाने व्यवसाय की इजाजत दी जानी चाहिए थी ,क्या इस तरह से लूटखसोट कर मरीजो की पीड़ा , कराहो से खेलकर लोभ लालच का यह भारी लाभदायक व्यवसाय खड़ा करने की अनुमति दी जानी चाहिए थी , कदापि नही , अब इस लालच का कोई तो अंत होना ही चाहिए ? कहते है कि डाकन भी एक घर छोड देती है ,जब व्यवसाय के इतने सारे क्षेत्र खुले हुए है तो जनता के दुख और पीड़ा से खेलकर ही व्यवसाय करने की क्या आवश्यकता है ? और अगर मुनाफा ही मापदंड है तो मुझे तो जो नशे के ड्रग का व्यवसाय करते है उनमे और इन व्यवसायियो में ज्यादा फर्क दिखाई नही देता है क्याकि दोनो आज अपने लालच के चलते किसी भी हद तक गिर सकते है । मानवता के प्रति इस गम्भीर अपराध को अब तो रोका ही जाना चाहिए ? डाक्टरो के चिकित्सा पेशे के बारे में बात करे और नर्सो के बारे में चर्चा न करे तो बात अधूरी रह जायेगी । क्योकि नर्सिंग का भी चिकित्सा कार्य मे बराबर का महत्व है एक समय था जब नर्सिंग के पेशे को भी बहुत ही पवित्र सम्मान प्राप्त था वह मरीज के दुखदर्द को अपनी सेवा, स्नेह ,ममता से दूर कर देती थी मरीज मे शीघ्र अच्छा होने का विश्वास पैदा कर देती थी वे मरीज की सेवा को भगवान की पुजा के बराबर मानती थी अनैको महिलाओ ने नर्सिंग को मानवसेवा का सुअवसर प्राप्त हो सके केवल इसलिए ही चुना था और इसके लिए कई महिलाओ ने विवाह भी नही किया ऐसे उदाहरण भी मौजूद है । परन्तु अब बहुत खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज नर्सिंग से भी सेवा भावना समाप्त हो गई है ममता और स्नेह तो बहुत दूर का विषय हो गया है लापरवाही और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार उनके आचरण का भी अंग बन गया है और यह सब स्वाभाविक भी है कि जब सब कुछ बिगड़ चुका हो तो सिर्फ उनसे ठीक बने रहने की उम्मीद करना भी अनुचित ही होगा । परन्तु अगर हमे सम्पूर्ण चिकित्सा के पेशे मे आमूलचूल सुधार करना है तो नर्सिंग के पेशे मे भी सुधार की और अनिवार्य रूप से ध्यान देना होगा क्योकि उसके बिना कोई भी सुधार अधूरा ही रहेगा । इन सब बुराइयो से निजात पाने के लिए सुझाव है कि ---

चूंकि चिकित्सा यह एक अत्यावश्यक सेवा है अतः सर्वोतम उपाय है कि समूचे चिकित्सा जगत का राष्टीयकरण कर दिया जाए। सारी चिकित्सा सेवा सरकार के आधीन व देखरेख में हो । समय समय पर डाक्टरो के ज्ञान की गुणवता की जांच होती रहनी चाहिए ।चिकित्सा पेशे का स्वास्थ ठीक रखने के लिए इसमे भ्रष्टाचारमुक्त छापामार जांच की परम्परा भी विकसित की जानी चाहिए । और जांच मे सेटिंग न हो पाये इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए । इस मामले ,मे हम ब्रिटेन का भी अनुसरण कर सकते है । आयुर्वेद ,होम्योपैथी को भरपूर प्रोत्साहन देना चाहिए अगर हम प्रजातांत्रिक देश है तो यह अवश्य होना ही चाहिए।  

उपरोक्त लेख को हो सकता है अतिश्योक्ति या अपवाद कहकर खारिज कर दिया जाये और खारिज करने के उनके पास आधार भी हो परन्तु यह भी हो सकता है कि सच्चाई और कई परतो और घृणित रूप मे छुपी हो, फिर भी हमारा आशय यह नही है कि सारे डाक्टर ही ऐसे है और सारे मामलो में सर्जरी गैर जरूरी ही होती है , और सारे अस्पताल केवल लूटामारी मे लगे हुए है परन्तु आजकल इस दूसरी प्रवृति का काफी विस्तार और तेज गति से अनुसरण किया जाना पाया जा रहा है। अतः अब तो ज्यादा अच्छा तो यह होगा कि समय रहते इस पवित्र पेशे की पवित्रता पूर्णतः नष्ट न हो जाये इसके पहले ही जाग जाये और इस पवित्र पेशे की पवित्रता को पुर्नस्थापित करने के लिये आवश्यक सख्त कदम उठा ले यही आज समय की मांग और महती आवश्यकता है |

                                                                                                                                                           - गिरीश नागड़ा






लालच ने एक नोबल प्रोफ़ेशन को कितना नीचे गिरा दिया

अधोपतन एक नोबल प्रोफ़ेशन का

लालच ने एक नोबल प्रोफ़ेशन को कितना नीचे गिरा दिया[संपादित करें]

                                                                         अधोपतन एक नोबल प्रोफ़ेशन का 
                           
शिक्षा के साथ साथ आज स्वास्थ्य-चिकित्सा के क्षेत्र मे भी व्यवसायिकता अपने संपूर्ण घृणित जलाल के साथ हावी हो गई है अर्थात गंदे धंधो की सभी गंदी बुराईया अपने गंदे रूप मे स्वास्थ्य-चिकित्सा के क्षेत्र मे भी घुसपैठ कर चुकी है । हां यह भी सच है कि चिकित्सा विज्ञान ने बेहद तकनीकि विकास किया है । नयी दवाये, नई विधिया ,नई मशीने और जगह जगह चमचमाते नये नये अस्पताल भी खुल गये है परन्तु सब कुछ आम और यहॉ तक की मध्यमवर्ग के लिए भी बहुत ही महंगा है और उसकी पहुंच से बाहर है आज अगर किसी व्यक्ति को कोई बडी बिमारी पकड लेती है तो उसका घर खाली हो जाता है, कर्ज भी करना पडता है , मकान,जमीन, जायजाद बेचने को मजबूर भी होना पडता है,और उसके पास कोई चारा ही नही रहता है इसीलिए कहते है कि भगवान दुश्मन को भी अस्पताल की सीढ़िया न चढाये। हमारे तमाम विकास के बावजूद हमने आम और मध्यमवर्ग जो %80 से भी अधिक है के बारे में कभी कुछ भी विचार करने का प्रयास ही नही किया , फ़िक्र ही नही की है । 

इस परिस्थिति के लिए बहुत हद तक हमारे ड़ाक्टर जिम्मेदार है ,क्योकि आज डाक्टरो का व्यवहार बेहद अमानवीय रूप से व्यवसायिक हो गया है । वे खुलकर बेशर्मी के साथ कहते है ,स्वीकार करते है, कि पढाई मे करोड-करोड रूपया खर्च करने के बाद यह डिग्री मिली है । इतना रूपया लगाया है तो ब्याज सहित ,कई गुना वसूल तो करेगे ही । वैसे यह अलग बात है कि इन डाक्टरो की योग्यता के यह हाल है कि इतनी मंहगी डिग्री लेने के बावजूद इनकी पेशेवर योग्यता और निपुणता की औचक जांच की जाये तो अनैक डाक्टर अपनी डिग्री की योग्यता पर भी खरे नही उतरते है। अपनी विशेषज्ञता के बावजूद कई डाक्टर जांच परीक्षण और चिकित्सा के लिए दवा लिखते हुए चिकित्सा करते हुए,आपरेशन करते हुए, न सिर्फ भयंकर गलतियां करते है बल्कि जानते बूझते हुए बेहद चौकाने वाली लापरवाही करते हुए पाये जाते है अब इनके इस कदाचार ,अनाचार ,भ्रष्टाचार लापरवाही को केवल कोई ड़ाक्टर ही तो उजागर कर सकता है परन्तु एक ड़ाक्टर ,ड़ाक्टर की पोल कम ही खोलता है क्योकि इनमे भी एक मौसेरा भाईचारा तो रहता ही है | Italic text

एक लतिफ़ा है 'जो है तो अतिश्योक्तिपूर्ण लतिफ़ा परन्तु ड़ॉक्टरो की भूल, लापरवाही, गलती और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार की ओर स्पष्ट सांकेतिक ईशारा बहुत अच्छे से अवश्य ही करता है                                           

लतिफ़ा है- पप्पू की टांग नीली हो गयी। ड़ॉक्टर के पास जाता है डॉक्टर (पप्पू से)- जहर है तुम्हारी टांग काटनी पड़ेगी। टांग काटकर नकली लगा दी गयी। 2 दिन बाद नकली टांग भी नीली पड़ गयी। डॉक्टर - अब तुम्हारी बीमारी समझ मे आयी , तुम्हारी जींस रंग छोड़ती है।

        दुखी, परेशान, कराहता  मरीज  डाक्टर के पास जाता है उसे भगवान समझकर  परन्तु  डाक्टर के लिए वह मा़त्र एक ग्राहक, शिकार , बनकर रह जाता है ।और उसे बेदर्दी से लूटा नोचा जाता है । इस सारे मामले को और डाक्टरो  को  और  अधिक  पथभ्रष्ट करने के लिए %40 से %400 तक के मुनाफ़ा कमाने वाली दवा कम्पनियो ने आग में घी का काम किया है । दवा कम्पनियो के लालच का एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है कि एक नई दवा कम्पनी ने कुछ साल पूर्व अपना एक महंगा टानिक सायरप प्रोडक्ट लांच किया। उसके फार्मूले मे बेतुका अनावश्यक संयोजन था और खतरनाक बात यह थी कि उसमे अनावश्यक रुप से स्टेराईड मिलाया गया था । उसकी एक हजार शीशिया लिखने वाले डाक्टर को एक मंहगा तोहफा दिया जाना था ।आजकल कारपोरेट के जमाने में तो यह गिफ्ट विदेश यात्रा पैकेज टूर तक विस्तार पा गया है । उस दवा  कम्पनी के प्रतिनिधि ने  एक  बाल रोगविशेषज्ञ को इस मंहगे तोहफे का आफर दिया था और उस  डाक्टर.ने  अगले पन्द्रह दिन मे आने वाले अपने हर बाल रोगी को चाहे उसे किसी भी तरह की बिमारी हो उसे अनिवार्य रूप से यह टानिक लिखा और अपना लक्ष्य प्राप्त किया । अब उससे किस बच्चे को क्या व कितने साईड इफेक्ट हुए, इस सबसे उन्हे कोई  लेनादेना नही , उन्हे तो उनका  तोहफा मिल गया बस। हो सकता है वे बच्चे उन " स्टेराईड साईड इफेक्टो" को जीवन भर भोगे, जिसके तहत, उनका शारीरिक मानसिक विकास अवरूद्ध भी हो सकता है , शरीर बेहद मोटा हो सकता है, लड़कियो को मूछें निकल सकती है या बच्चे को जीवन भर की विकलांगता भी हो सकती है । 
पिछले दिनो जयपुर. शहर के प्रमुख डॉक्टरों के यहां आयकर विभाग की टीम ने छापे मारे आयकर विभाग के अधिकृत सूत्रों के अनुसार डॉक्टरों पर हुई कार्रवाई में अघोषित रूप से डॉक्टरों के प्रॉपर्टी में भारी निवेश का पता चला है। डॉक्टरो ने जयपुर के अलावा दिल्ली और वहां आसपास के इलाकों में प्रॉपर्टी की खरीद की है। प्रॉपर्टी की खरीद के मामले की आयकर विभाग की टीम जांच कर रही है। गौरतलब है कि आयकर विभाग ने बुधवार 8/6/2011 को एक साथ नौ डॉक्टर्स पर कार्रवाई की थी। गुरुवार तक आठ डॉक्टरों ने 16 करोड़ 75 लाख रुपए की अघोषित आय सरेंडर की थी, लेकिन एक हड्डी रोग विशेषज्ञ ने दूसरे दिन शुक्रवार 9/62011 को 2 करोड़ 20 लाख रुपए की अघोषित आय सरेंडर की । डॉक्टरों  को संसाधन और  दवाइयां  सप्लाई करने वाली कंपनी के यहां भी इनकम टैक्स के अफसर पहुंचे तो उनकी लेखा पुस्तकों में डॉक्टरों को विदेश ट्रिप कराने के साथ ही अन्य यात्राओं के बिल भी मिले। इस संबंध में कंपनी के अधिकारियों ने बताया  कि डॉक्टर मोटा कमीशन लेने के अलावा विदेश ट्रिप के लिए हमेशा दबाव बनाकर रखते हैं। विदेश ये डॉक्टर जाते हैं और खर्चा कंपनी को  भुगतना  पड़ता  है।  विदेश  यात्राओं का खर्चा  उठाना  हमारी मजबूरी  है।  अंततः असर  यह  मरीज से ही कीमतो को बढ़ा करके वसूल किया जाता है और मरीज  को  मिलने  वाले  संसाधनों, दवाओ की  कीमते  बढ़ा  दी  जाती  है। इस प्रकार न जाने कितने उदाहरण लालच की वजह से हर दिन घटित हो रहे है परन्तु उसे रोकने की हमारे पास कोई व्यवस्था या उपाय ही नही है और इस प्रकार से यह सब चिकित्सा क्षेत्र मे लोभ की वजह से फैली हुई आज महाबुराईया आम हो गई है ।                                   
   सबसे अधिक हलाहल लूट मचाई है अस्पताल नर्सिंग होम के मालिको के साथ मिलकर सर्जनो ने । पहले पहले इसकी शुरूआत हुई थी डिलेवरी केसो से ।  उसमे मरीज की थोडी सी भी सम्पन्नता दिखाई दे जाने पर सर्जरी के लिए दबाव बनाया जाने लगता है , मरीज भर्ती हुई कि दर्द निवारक दवाये सलाईन के साथ देना शुरू कर देते है फिर एकदम से डराया जाता है कि दर्द नही उठ रहा है जच्चे बच्चे की जान को खतरा हो सकता है, जहर फैल सकता है, तुरन्त आपरेशन करना होगा, परिजन घबराकर तुरन्त सर्जरी की सहमति दे देता है इस प्रकार से , अनावश्यक रूप से मरीज के साथ उसकी जेब की भी सर्जरी हो जाती है । आप खुद आंकड़े उठाकर देख ले कि आज कितने प्रतिशत डिलेवरी बिना सर्जरी के होती है तो आपको पता चल जायेगा कि सच्चाई कितनी लोभ मे ड़ूबी हुई और भयानक है । परन्तु यह बात केवल कुछ हजार रुपयो तक की ही थी और है  ।

इसके बाद हल्ला आया हार्ट सर्जरी का और अब किड़नी ट्रांसप्लांट सर्जरी, लीवर ट्रांसप्लांट सर्जरी का । आज पैसा बनाने मे सबसे उपर ये नाम है उनमे ये सर्जरी ही मुख्य है । हार्ट की सर्जरी का विस्तार दस लाख तक और किड़नी ट्रांसप्लांट सर्जरी लीवर ट्रांसप्लांट सर्जरी का विस्तार पचास लाख तक हो गया है । और जिन्होने यह दुकाने खोल रखी है उन्हे ग्राहक तो चाहिए और ग्राहक को खोजने फंसाने के लिए नये नये हथकंड़ो का इस्तेमाल होता है उसके लिए भरपूर कमीशन भी बांटे जाते है । भ्रष्टाचार अनियमितता यहां तक होती है कि सर्जरी के कुछ हजार रूपयो के आधारभूत खर्च को लाखो रूपयो तक खींच ड़ाला जाता है । और इसके लिए नये नये फंडे अपनाये जाते है उदा. के लिए विकासशील नगरो में वहां के स्थानीय डाक्टरो को अपना गुप्त एजेन्ट नियुक्त कर देते है, जो सर्जरी की वास्तविक आवश्यकता वाले मरीजो के अलावा ऐसे मरीजो को भी ड़राकर रेफर कर देते है जिन्हे सर्जरी की वास्तविक आवश्यकता ही नही होती है हां परन्तु वे सर्जरी का खर्च उठा सकते है, और यहां वही सक्षमता उनका अपराध भी साबित होती है ! महानगरो के डाक्टर विकासशील नगरो में वहां के स्थानीय डाक्टरो के सहयोग से मुफ्त जांच शिविरो का आयोजन करते है जिसमे उनके पास दो थर्मामीटर होते है एक वे मरीज के शरीर पर लगाते है दूसरा मरीज की जेब पर लगाते है । जेब का तापमान देखकर वे उनमे से कुछ मरीजो को छांट कर अगली जांच के लिए अपने महानगर के बड़े भारी चमचमाते अस्पताल मे बुलाते है जितने लोग वहां पहुंचते है उन्हे फिर से दूसरा थर्मामीटर लगाया जाता है जिनकी जेब वास्तव में अधिक गर्म होती है उन पर सर्जरी का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जाता है और फिर उनका शिकार किया जाता है अर्थात सर्जरी की जाती है । यह बात समझ मे नही आती कि किसी एक सर्जरी के लिए एक सर्जन लाखो रूपये किस बात के लेता है, क्या अपने ज्ञान और कौशल के लेता है ? नही ये लाखो रूपये पीड़ित की मजबूरी के लिए जाते है | यह नैतिक रूप से सरासर अनुचित ही नही अपराध भी है । कोई अन्य व्यक्ति जो अपने तकनीकि ज्ञान से कोई अन्य कार्य करता है वह भी अपने कार्य का डाक्टर सर्जन ही तो होता है परन्तु वह कुछ सौ या हजार रूपयो मे अपना कर्तव्य निभा देता है जबकि सर्जन लाखो रूपये लेता है यह कहॉ का न्याय है और इस परिस्थिती मे गरीब और मध्यम वर्ग क्या करेगा इस बाबत किसी ने कुछ सोचने का कभी प्रयास भी नही किया है । डॉक्टर जिसका इलाज कर सकते है ,अस्पतालो मे जिन्हे ठीक किया जा सकता है ,ऐसे कई मरीज अस्पतालो के गेट पर पैसा न होने से दम तोड़ देते है। मरूस्थल में अगर किसी के पास पानी हो और वह प्यास से तड़फते व्यक्ति से एक गिलास पानी के बदले उसके पास से एक करोड़ रूपया मांग ले या जितना धन हो वह सब मांग ले तो वह उसे देना ही होगा और मजबूरी में वह देगा भी क्योकि वह रूपया पानी की कीमत नही जान की कीमत है । प्रकारांतर से यह उस डाकू के समान ही है जो जान बख्शने के बदले सारा धन ले लेता है और उसको वह देना ही पड़ता है वह भी जान की ही कीमत है । इसी प्रकार से डॉक्टर भी वही करता है फर्क यह है कि वह जान बचाने के लिए ढ़ेर सारे पैसे मांगता है। डाकू.- अब तेरी जान ले लूंगा / डॉक्टर - अब तेरी जान बचाउंगा नही । दोनो में दांव पर तो जान ही लगी है परन्तु डाकू जितना व्यक्ति के पास मे है उतना लेकर बख्श देता है ज्यादा वाले से ज्यादा ले लेता है कम वाले से कम ले लेता है लेकिन डॉक्टर किसी को भी बख्शता नही है ,उसे तो निश्चित रूपया ,चाहिए याने चाहिए, नही है तो कर्ज लो ,घर बेचो ,खेती बेचो या अपने आपको बेचो कही से भी लेकर के आओ और मुझे दो । इस तरह से तो डाकू ज्यादा मानवीय मालूम पड़ता है परन्तु डाकू के पास आदमी खुद होकर नही जाता जबकि मजबूरी है कि डॉक्टर के पास आदमी को खुद होकर जाना पङता है । अस्पतालो में जगह खाली हो तो पुराने मरीजो को छुट्टी नही दी जाती । आई. सी. यू और वेन्टीलेटरो पर मृत मरीज को भी चढ़ाये रहते है नयी नयी अनावश्यक मंहगी जांचे बार-बार कराई जाती है अनावश्यक मंहगी दवाये लिखी जाती है , अनावश्यक सर्जरी बेहद जरुरी बता कर दी जाती है । और भी न जाने क्या क्या किया जाता है यह पता ही नहीं चलता क्योकि सारे अस्पताल बेहद अनावश्यक गोपनीयता बरतते है ,अपने मरीज की फाईल किसी को नही देते , देते है तो केवल डिस्चार्ज कार्ड और भारी भरकम बिल। यह बेहद अनावश्यक गोपनीयता की गलत परम्परा अस्पतालो की अपनी सुरक्षा,बचत ,अपनी गल्ती, भूल, लापरवाही, अपनी लूटमार, ड़कैती आदि को छुपाने के लिए अस्पतालो ने अपना रखी है इससे पारदर्शिता का पूर्णतया लोप हो जाता है और वे मनचाही लूट मचाने के लिये भी बिल्कुल स्वतंत्र रहते है । इस अनावश्यक गोपनीयता को भी आपराधिक कृत्य घोषित किया जाना चाहिए ।

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डाक्टरो और अस्पतालो की लापरवाही का एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है --- एक परिचित व्यक्ति जिनकी किडनी मे समस्या थी और उसके लिए वे मंहगी दवाये खा रहे थे परहेजी जीवन जी रहे थे । एक दिन वे स्कूटर पर कहीं जा रहे थे एक ट्रक ने उन्हे टक्कर मारी वे गिरे और उनके बांये पैर मे गंभीर चोटें आई | उन्हे पूना के एक प्रसिद्ध अस्पताल मे भर्ती किया गया उनके पैर का आपरेशन किया गया । उन्हे होश आ चुका था और वे घर जाने के बारे मे सोचने लगे थे । उनके घाव सुखाने के लिए उन्हे अत्यंत महंगे एवं हैवी एंटी बायोटिक के इन्जेक्शन लग रहे थे जो उनकी किडनी के लिए जहर के समान साबित हुए और अचानक किडनी के फेल हो जाने से उनकी मौत हो गयी । इस इलाज मे उनका घर भी बिक गया । वास्तव मे यह ड़ाक्टरो की आपराधिक लापरवाही का उदाहरण है ,क्या इलाज करते हुए यह ड़ाक्टरो की ङ्यूटी नही है कि कोई भी दवा देते समय वे देखें कि यह दवा इस मरीज के लिए जानलेवा तो साबित नही होगी, क्या डाक्टरो को यह भी नही देखना चाहिए था कि वह पहले ही किडनी की दवा खा रहे है उन्हे इतने हैवी एंटीबायोटिक न दिये जाये । परन्तु हो सकता है कि उस एंटीबायोटिक बनाने वाली कम्पनी ने उन्हे कुछ टारगेट दिया हो । उनके छोटे से लालच के आगे मरीज के जीवन का क्या मूल्य ? और उन्हे इसके लिए कही कोई पूछने वाला भी नही है । एक अन्य उदाहरण मे - इन्दौर के पास के एक गांव मे रहने वाले एक गरीब व्यक्ति जिनकी कामन बाइल डक्ट मे रूकावट हो गयी थी इन्दौर आये और एक प्रसिद्ध सर्जन को दिखाया उसने एक प्रसिद्ध अस्पताल मे उन्हे भर्ती कर ऐन्ड़ोस्कोपी से एक कृत्रिम नली लगा दी । और उनसे सत्तर हजार रूपये ले लिए । तीन माह बाद उन्हे वहां फिर से रूकावट हो गयी और उसमे बहुत तेज दर्द भी हो रहा था उन्होने उसी डाक्टर से सम्पर्क किया डाक्टर ने कहां कि एक लाख रूपया हो तो मेरे पास आना । नहीं तो आने की कोई जरूरत नही है । अब उनके पास एक लाख रूपया नही था सो वे बड़े सरकारी अस्पताल में भर्ती हुए वहां के डाक्टर को प्रायवेट में फीस देकर भी आये परन्तु वह डा. तीन दिन तक फीस लेकर भी खुद अस्पताल में होते हुए उन्हे देखने भी नही आया तबियत ज्यादा बिगड़ने पर रातोरात घबराकर वे फिर एक प्रायवेट अस्पताल मे भागे वहां भी कुछ लूटामारी हुई और वहां उन्होने प्राण त्याग दिये इस बीच उन्होने असीम पीडा भोगी । इस इलाज के लिए उन्हे अपनी पुरखो की खेती भी बेचना पडी ।

मरीज के परिजनो ने बाद मे आशंका व्यक्त की थी कि मरीज को प्रायवेट अस्पताल मे भर्ती की प्रक्रिया करते हुए ही मौत हो गई थी फिर भी दो घंटे तक परिजनो को शव के पास जाने देखने भी नही दिया और बाद मे कपड़े से सी करके दे दिया दो घंटे मरीज के शव के साथ उस प्रायवेट अस्पताल वालो ने क्या किया, कही उनके शरीर के अंग चुराने जैसी कोई हरकत तो नही कर ली गई ? शोकाकुल परिवार जन विलाप करते हुऐ एक दूसरे को कठिनाई पूर्वक किसी तरह संभाल रहे थे इस गम्भीर गमगीन माहोल में उन्होने अपने सन्देह व आशंका को उजागर करना उचित नही समझा और मौन रह गये । इस तरह कॆ कांड़ किये जाना कोई बहुत बड़ी बात नही है क्योकि इस तरह की अनैको घटनाये हमारे देश मे पहले भी हो चुकी है उनमे से कुछ मामले उजागर भी हुए है और अंगचोर गिरोह गिरफ़्तार भी किये गये थे जिनमे ड़ाँक्टर भी शामिल थे । हिला देने वाली इस प्रकार की हजारो जानी अनजानी दुखद घटनाऔं के कलंक से हमारा चिकित्सा जगत शर्मशार है । इस प्रकार से समूचे चिकित्सा क्षेत्र में ऐसा कुछ हुआ है और हो रहा है जो नही होना चाहिए ये लोग अपने छोटे से लाभ के लिए आप पर पहाड़ जैसा संकट धकेल सकते है एक समाचारपत्र ने निम्न घटना पर लिखते हुए लिखा था कि मेरे शहर के डाक्टर डाक्टर नही रहे वे तो डाकू बन गये है , देखिये इतने नोबल प्रोफेशन को उन्होने कितना नीचे गिरा दिया है ।
      पूर्व में दानी धर्मात्मा सेवा की भावना से अस्पताल आदि बनवाते थे और उनमे मुफ्त इलाज किया जाता था परन्तु आज तो हमारे अस्पताल को निवेश का एक बेहद ही शानदार लाभदायक व्यवसाय माना जाने लगा है धनी लोग अस्पताल में खूब निवेश कर रहे है क्योकि उससे उन्हे लाभ कई गुना रिटर्न होकर मिल रहा है । आज तो धर्मात्माओं के द्वारा बनवाये गये अस्पतालो को भी इन लालची लोगो ने अपने मकड़जाल मे फंसाना शुरू कर दिया है लाभ का प्रतिशत इतना भारी है कि लोभ का संवरण करना बेहद कठिन है होटलो की चेन की तरह अस्पतालो की ग्रुप चेन बन गई है और अस्पतालो मे सितारे लटक गये है । 

क्या यही हमारे विकास की गोरवशाली कहानी है , क्या इसे हम सच्चा विकास कह सकते है ,क्या इस तरह से कार्पोरेट सेक्टर को मनमाने व्यवसाय की इजाजत दी जानी चाहिए थी ,क्या इस तरह से लूटखसोट कर मरीजो की पीड़ा , कराहो से खेलकर लोभ लालच का यह भारी लाभदायक व्यवसाय खड़ा करने की अनुमति दी जानी चाहिए थी , कदापि नही , अब इस लालच का कोई तो अंत होना ही चाहिए ? कहते है कि डाकन भी एक घर छोड देती है ,जब व्यवसाय के इतने सारे क्षेत्र खुले हुए है तो जनता के दुख और पीड़ा से खेलकर ही व्यवसाय करने की क्या आवश्यकता है ? और अगर मुनाफा ही मापदंड है तो मुझे तो जो नशे के ड्रग का व्यवसाय करते है उनमे और इन व्यवसायियो में ज्यादा फर्क दिखाई नही देता है क्याकि दोनो आज अपने लालच के चलते किसी भी हद तक गिर सकते है । मानवता के प्रति इस गम्भीर अपराध को अब तो रोका ही जाना चाहिए ? डाक्टरो के चिकित्सा पेशे के बारे में बात करे और नर्सो के बारे में चर्चा न करे तो बात अधूरी रह जायेगी । क्योकि नर्सिंग का भी चिकित्सा कार्य मे बराबर का महत्व है एक समय था जब नर्सिंग के पेशे को भी बहुत ही पवित्र सम्मान प्राप्त था वह मरीज के दुखदर्द को अपनी सेवा, स्नेह ,ममता से दूर कर देती थी मरीज मे शीघ्र अच्छा होने का विश्वास पैदा कर देती थी वे मरीज की सेवा को भगवान की पुजा के बराबर मानती थी अनैको महिलाओ ने नर्सिंग को मानवसेवा का सुअवसर प्राप्त हो सके केवल इसलिए ही चुना था और इसके लिए कई महिलाओ ने विवाह भी नही किया ऐसे उदाहरण भी मौजूद है । परन्तु अब बहुत खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज नर्सिंग से भी सेवा भावना समाप्त हो गई है ममता और स्नेह तो बहुत दूर का विषय हो गया है लापरवाही और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार उनके आचरण का भी अंग बन गया है और यह सब स्वाभाविक भी है कि जब सब कुछ बिगड़ चुका हो तो सिर्फ उनसे ठीक बने रहने की उम्मीद करना भी अनुचित ही होगा । परन्तु अगर हमे सम्पूर्ण चिकित्सा के पेशे मे आमूलचूल सुधार करना है तो नर्सिंग के पेशे मे भी सुधार की और अनिवार्य रूप से ध्यान देना होगा क्योकि उसके बिना कोई भी सुधार अधूरा ही रहेगा । इन सब बुराइयो से निजात पाने के लिए सुझाव है कि ---

चूंकि चिकित्सा यह एक अत्यावश्यक सेवा है अतः सर्वोतम उपाय है कि समूचे चिकित्सा जगत का राष्टीयकरण कर दिया जाए। सारी चिकित्सा सेवा सरकार के आधीन व देखरेख में हो । समय समय पर डाक्टरो के ज्ञान की गुणवता की जांच होती रहनी चाहिए ।चिकित्सा पेशे का स्वास्थ ठीक रखने के लिए इसमे भ्रष्टाचारमुक्त छापामार जांच की परम्परा भी विकसित की जानी चाहिए । और जांच मे सेटिंग न हो पाये इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए । इस मामले ,मे हम ब्रिटेन का भी अनुसरण कर सकते है । आयुर्वेद ,होम्योपैथी को भरपूर प्रोत्साहन देना चाहिए अगर हम प्रजातांत्रिक देश है तो यह अवश्य होना ही चाहिए।  

उपरोक्त लेख को हो सकता है अतिश्योक्ति या अपवाद कहकर खारिज कर दिया जाये और खारिज करने के उनके पास आधार भी हो परन्तु यह भी हो सकता है कि सच्चाई और कई परतो और घृणित रूप मे छुपी हो, फिर भी हमारा आशय यह नही है कि सारे डाक्टर ही ऐसे है और सारे मामलो में सर्जरी गैर जरूरी ही होती है , और सारे अस्पताल केवल लूटामारी मे लगे हुए है परन्तु आजकल इस दूसरी प्रवृति का काफी विस्तार और तेज गति से अनुसरण किया जाना पाया जा रहा है। अतः अब तो ज्यादा अच्छा तो यह होगा कि समय रहते इस पवित्र पेशे की पवित्रता पूर्णतः नष्ट न हो जाये इसके पहले ही जाग जाये और इस पवित्र पेशे की पवित्रता को पुर्नस्थापित करने के लिये आवश्यक सख्त कदम उठा ले यही आज समय की मांग और महती आवश्यकता है |

                                                                                                                                                           - गिरीश नागड़ा







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