सदस्य वार्ता:Jaslin Joseph/प्रयोगपृष्ठ
श्रीकान्त वर्मा जन्म-१८ सितंबर, सन १९३१ ई० स्थान-बिलासपुर, मध्यप्रदेश रचनाएँ-माया दपँण, दिनारंभ, जलसाघर, भटका मेघ, झाडी, संवाद(कहानी संय्रह)
सन १९३६ ई० में 'प्रगतिशील लेखक संध' की स्थापना के बाद बार-बार यह प्रश्न उठता आ रहा है कि साहित्य एवं कला को राजनीतिक-अस्त्र के रुप में प्रयोग किया जाये या नहीं। ह्मारे यहॉ यह नया प्रश्न हो सकता है, पर पश्चिमी जगत में सबसे पह्ले यह प्रश्न प्लेटो ने उठाया था। तब से लेकर आज तक यह प्रश्न किसी-न-किसी रुप में साहित्य एवं कला के क्षेत्र में वर्तमान रहा है।
इसी दृष्टि से तुलसी, सूर, कबीर आदि साहित्यिक रचनाओं को भी धामिक चेतना का अस्त्र समझने की चेष्टा की गई है। धार्मिक मार्गों की प्रशंसा एवं प्रतिपादन को राजनीतिक मार्गों की पक्षधरता जैसा ही समझा गया है। यह प्रश्न बडा ही विवादास्पद है। दृष्टि की प्रौढता के लिये शास्त्र-निष्ठता आवश्यक हुआ करती है। इस विचार से अध्ययन, चिन्तन, मनन आवश्यक होता है। यह भी सम्भव है कि अध्येता को उनमें से कुछ विचार युगीना चेतना और निजी संस्कार की रुचि के कारण अधिक पसन्द आये। ऐसी परिस्थिति में अध्येता दवारा उनका अपनाया जाना स्वाभाविक है और उन्हीं के संस्कार की पृष्ठभूमि पर उसके विचार जगत को समझने-समझाने की चेष्टा करें। यदि ह्म स्वीकारते है कि युगीन संवेदनाएँ भित्र-भित्र हुआ करती है तो यह भी स्वीकार करना पडेगा कि अनुभूतियाँ और उनका आस्वाद भी भित्र-भित्र होगा। शास्त्र-निष्ठता इस प्रकार के वैभित्रय को नहीं स्वीकारती है। वहाँ तो-चिन्तक अपने को समपित करता है और उसकी जकडन को प्रसत्रतापूर्वक स्वीकार करता है। वैचारिक प्रसार-प्रचार के साधन के रुप में कला और साहित्य को स्वीकारने पर ही शास्व निष्ठता को स्थापित किया जा सकता है। मेरे विचार से साहित्य और कला शास्त्र की अगली कडी है। शास्त्र एक विशेष युग की सभी प्रकार की चेतनाओं तथा बोधों के आधार पर एक वैचारिक मार्ग प्रशस्त करता है। कला-साहित्य वर्तमान चेतनाओं को आधार बनाकर उनके आस्वादों का अंकन करती है। कालान्तर में उनके आधार पर नये शास्त्र खडे किये जा सकते है।
संवेदनशील कवि जिस युग में होता है उस युग की चेतनाओं से अपना पीछा नहीं छुडा सकता है। वे चेतनायें राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, नैतिक आदि किसी भी प्रकार की हो सकती है। उनका प्रभाव रचना पर होना सहज एवं स्वाभाविक है। निजी संस्कारों के कारण एक व्यक्ति उन सभी चेतनाओं को समझते हुए भी उन सब का साक्षात्कार नहीं कर पाता। रचनाकार जिनका साक्षात्कार नहीं कर पाता उन्हें रचना में भी उतार नहीं पाता है। इस प्रश्न का सम्बन्ध व्यक्ति की सामर्थ्य से है। अंत: रचना को रचना की भूमि पर ही मूल्यांकित किया जाना चाहिए। सभी स्तरों की रचनाएँ सुन्दर हो सकती है बशतें उनके मूल्यांकन के समय उनकी सीमाओं को ध्यान में रखा जाये। क्षीकान्त वर्मा कविता में राजनैतिक चेतना के दखल को स्वीकार करते है। उन्हें इस बात का भय नहीं है कि कविता को कोई अस्त्र बना कर उपयोग करने लगेगा, किन्तु रचना के निकष के रुप में उन्होंने अनुभुति की गहराई को स्वीकारा है। वस्तुत बीसवी सदी के भारत में कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अपने को पूणँरुपेण राजनैतिक चेतना से मुक्त नहीं कर सकता है क्योकि ह्मारी जिन्दगी में तरह-तरह के राजनैतिक बदलाव आये है और उनका प्रत्यक्ष प्रभाव ह्मारी जिन्दगी पर पडा है। उन प्रभावों की असंगति-विसंगतियों पर से पर्दा उठा है। ऐसी परिस्थिति में एक कवि अपने को उनसे कैसे अलग रख सकता है। नयी काव्य घारा में प्राय: दो प्रकार के-विचारों के अनुभूतियों को रचना में उतारा गया है। कुछ नये कवि व्यक्तिनिष्ठता को मह्त्वपूर्ण समझते रहे है तो कूछ रचनाकार सामाजिक-सामूहिकता को मह्त्व प्रदान करते रहे है। क्षीकान्त वर्मा व्यक्तिनिष्ठता में अपनी आस्था प्रकट करते रहे है। मैं यहाँ उस विवाद को नहों उठाना चाह्ता कि उनमें से कौन क्षेष्ठ और कौन कनिष्ठ है। मेरी दृष्टि में इस प्रकार के प्रश्न रचना के आधार पर ही उठाए जा सकते है जिनका निकष कवि का साक्षात्कार होना चाहिए। बढई और सुनार या राजगीर के कामों का तुलनात्मक अध्ययन कम-से-कम मुझे उप्युक्त नहीं प्रतीत होता है। प्रत्येक की श्रेष्ठता उनके क्षेव में सुरक्षित है। नयी कविता के क्षेत्र में श्रीकान्त वर्मा का प्रवेश कस्बाई मनोवृति और युवा जोश के साथ हुआ। उसमें व्यवस्था, आदि सामाजिक स्थितियों की विकृतता का स्वर प्रबल था। अस्थाई कविता का भी वही स्वर था। नये जोश की ऊष्मा वर्मा की कविता में विशेष नहीं जिसने लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित किया। श्रीकान्त वर्मा बडी जगरुकता एवं रचना-धर्म को निष्ठा तथा तीव्रता के साथ निभाने का प्रयास करते है। समकालीन आदमी के तनावों-दबाओं, विसंगतियों आदि के सजीव चित्र
नाटकीय-संरचना में चिवित करते है। कवि की सहानुभूति आदमी के संकट से सीधा टकराती है और क्षोभ तथा उतेजना की मुद्रा में आकार ग्रह्ण करती है-
"मैं अच्छी तरह जानता/हूँ कि किसी के न होने से कुछ भी नहीं होता, मेरे न होने/से कुछ भी नहीं हिलेगा। मेरे पास कुरसी भी नहीं जो/खाली हो। मनुष्य वकील हो, नेता हो, सन्त हो, मवाली/हो-किसी के न होने से कुछ भी नहीं होता।" कवि की कुछ अन्य पंक्तिया जो जटिल जीवन के संघर्ष का बडी ईमानदारी से आत्मसाक्षात्कार कराती है- "मेरे जीवन में एक ऐसा वक्त आ गया है/जब खोने को/कुछ भी नहीं है मेरे पास/दिन, दोस्ती, रवैया/राजनीति/गपशप, घास/और स्त्री हालाकि वह बैठी हुई है/मेरे पास/" तुकान्तता के आग्रह और थोडे से शब्दों की आवृक्ति तथा उनके बिखराव दवरा कवि होने के संकट को बडी तीब्रता के साथ संवेदित कराता है। समस्त खिलवाड और चमत्कार एक गम्भीर सार्थकता को प्राप्त कर लेता है। समकालीन संकट और आदमी की पीडा के कलात्मक अंकन के लिये कवि कहीं-कहीं फैंटेसी की रचना करता हुआ दिखाई पडता है- "चीख रही है उँगलिया/आँख उतर आई है पीठ पर/ जंघा में घोसला,। आइना टुटकर/गिरा हुआ है जमीन पर/ जबान छिदी हुई तीर से।" वर्मा ने विषय-वस्तु, भाषा,शिल्प सभी को आभिजात्य से ह्टाकर सामान्य के धरातल पर रचना में स्थापित किया। जीवन की मामूली से मामूली बात को काव्य की वस्तु बनाकर उन्होंने संप्रेषित किया है- "लेकिन संप्रति मुझे/इन गर्मियों के लिये/एक टेबिल फँन चाहिए/पूरे शहर के लिये नहीं/अपने तीन कमरों वाले घर के लिये/जो कि तपकर नगर हो गया है। और मैं उसे घर बनाना चाह्ता हूँ।" राजनीतिक समझ में गहराई एवं सजगता है/वर्मा की रचना में सामाजिक समझ होते हुए भी व्यक्तिनिष्ठता सवँत्र बरकरार है। रघुवीर सहय तथा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से भित्र प्रकार का दृष्टिकोण व्यक्ति में आशा तक पहुँचने का है। मूलरुप से रचनाएँ व्यक्ति और सामाजिकता की विसंगतियों, विडम्बनाओं तथा त्रासद संकटपूर्ण स्थितियों को प्रस्तुत करती है।