सदस्य वार्ता:Dindayalmani

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  1. File:GaruDapurANa.pdf
  2. File:GURU_GITA.pdf
  3. File:NavadurgaVidhi.pdf
  4. File:Varivasyaarahasya.pdf
  5. File:YajurVedaSuktas-Sanskrit.pdf

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शिवलिंग तत्त्व और उपासना[संपादित करें]

शिवलिंगोपासना-तत्त्व

शिव स्वयं अलिंग है, उनसे लिंग की उत्पत्ति होती है, शिव लिंगी और शिवा लिंग हैं। ज्ञापक होने से, प्राणियो का आलय होने से एवं लयाधिकरण होने से भी वहीं लिंग हैं- ‘‘लीयमानमिदं सर्वं ब्रह्मण्येव हि लीयते।’’

भिन्न-भिन्न कामना से शिवलिंग के विधान भी पृथक-पृथक हैं- यवमय, गोधूममय, सिताखण्डमय, लवणज, हरितालमय, त्रिकटुकमय (शुण्ठी, पिप्पली, मरीचमय) ऐश्वर्य-पुत्रादिकाम प्रदायक लिंग है। गव्यधृतमय लिंग बुद्धिवर्द्धक है। पार्थिव लिंग सर्वकामप्रद है। तिल-पिष्टमय, तुषज, भस्मोत्थ, गुडमय, गन्धमय, शंर्करामय, वंशांकुरज, गोमयज, केशमयज, अस्थिमयज, दधिमय, दुग्धमय, फलमय, धान्यमय, पुष्पमय, धात्रीफलोद्भव, नवनीतमय, दूर्वाकाण्डसमुद्भव, कर्पूरज, अयस्कान्तमय, वज्रमय, मौक्तिकमय, महानीलमय, महेन्द्र नीलमणिमय, चीरसमुद्भव, सूर्यकान्तामणिज, चन्द्रकान्ता मणिमय, स्फाटिक, शुलाख्यमणिमय, वैडूर्य, हैम, राजत, आरकूटमय, काँस्यमय, सीसकमय, अष्टधातु निर्मित, ताम्रमय, रक्तचन्दनमय, रंगमय, त्रिलोकमय, दारुज, कस्तूरिकामय, गोरीचनमय, कुंकुममय, श्वेतागुरुमय, कृष्णा-गुरुमय, पाषाणमय, लाक्षामय, वालुकामय, पारदमय लिंग भिन्न-भिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिये पूजनीय बतलाये गये हैं। पार्थिव पूजन के लिये ब्राह्मणादि वर्णों को क्रम, से शुक्ल, पीत, रक्त, कृष्णवर्ण की मृत्तिका से शिवलिंग बनाना चाहिये। तोलाभर मिट्टी से अंगुष्ठपर्व के परिमाण का लिंग बनाना चाहिये। पूजा भी वैदिक, तान्त्रिक एवं मिश्र विधि या नाममन्त्रों से करनी चाहिये। किंबहुना, शिवलिंग की विशेषताओं, पूजाओं एवं विधियों पर शास्त्रों में बहुत बड़ी सामग्री भरी पड़ी है।

बाण और नार्मद लिंग की परीक्षा के लिये उसे तण्डुलादि से सात बार तौला जाता है। यदि दूसरी बार तौलने मे तण्डुल बढ़ जाय, लिंग हलका हो जाय, तो वह गृहियों को पूज्य है। यदि लिंग अधिक ठहरे, तो वह विरक्तों के पूजने योग्य है और सात बार तौलने पर भी बढ़े ही, घटे नहीं, तो उसे बाणलिंग, अन्यथा नार्मद लिंग जानना चाहिये। प्रायः शिव को अनार्य देवता बतलाया जाता है, परन्तु वेदों में शिव का बहुत प्रधानरूप से वर्णन है।

‘‘एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः। प्रत्यङ्‌जनांस्तिष्ठति संचुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः।।’

समस्त भुवनों की अपनी ईशनीशक्ति से ईशन करते हुए सबमें विराजमान शिव ही अन्त में सबका संहार करते हैं। बस, वही परमतत्त्व सर्वस्व है, उनसे भिन्न दूसरी वस्तु थी ही नहीं। ‘यदा तमस्तत्र दिवा न रात्रिनं सन्न चासच्छिव एवं केवलः।’’

जब प्रलय में रात-दिन, कार्य-कारण कुछ भी नहीं था, तब केवल एक शिव ही थे। ‘‘स्वधया शम्भुः।’’ ‘‘उमासहायं परमेश्वर प्रभुं त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तम्।।’’

  • ‘नमो नीलग्रीवाय शितिकण्ठाय।’

यहाँ रुद्र के नील और श्वेत दोनों ही तरह के कण्ठ कहे गये हैं। ‘ऋतं सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिंगलम्। ऊर्ध्वरेतं विरूपाक्षं विश्वरूपाय वै नमो नमः।।’’ यहाँ भी कृष्णपिंगल, ऋत-सत्य, ऊर्ध्वरेता विरूपाक्ष को नमस्कार किया गया है।

‘‘भुवनस्य पितरं गीर्भिराभी रुद्रं दिवा वर्धया रुद्रमत्यौ।

  • वृहन्तमृष्वमजरं सुषुम्नमृग्धुवेम कविनेविता सः।।’’

‘‘यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः।

  • हिरण्यगर्भ जनयामास पूर्व स नो बुद्धया शुभया संयुनक्तु।।ʺ

"यो अग्नौ रुद्रो योऽप्स्वंतर्य ओषधीर्वीरुध आविवेश।

  • य इमा विश्वा भुवनानि चाक्लपे तस्मै रुद्राय नमोऽस्त्वग्नये।।’’

‘‘एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुः।।’’ ‘‘एक एव रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुः।।’’ अर्थात अन्य देवों का कारण, विश्व का एक मात्र स्वामी, अतीन्द्रियार्थ ज्ञानी और हिरण्यगर्भ को उत्पनन करने वाला रुद्र हमें शुभ बुद्धि दे, जो अग्नि में, जल में, औषधि एवं वनस्पतियों में रहता है और जो सबका निर्माता है, उसी तेजस्वी रुद्र को हमारा प्रणाम हो।

प्रेरक और ज्ञानी है, उस अजर की हम प्रस्तुति करते हैं इत्यादि। जो कहते हैं कि अग्नि ही वेद के रुद्र हैं, उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि अग्नि, जल क्या, सभी प्रपंच में रुद्र रहते हैं, जब रुद्र से भिन्न दूसरा तत्त्व ही नहीं है, तब अग्नि आदि सभी रुद्र हों यह ठीक ही है।

एक ही परमात्मा के अग्नि, वायु, मातरिश्वा आदि अनेक नाम होते ही हैं- ‘‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।’’ ‘‘अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।’’ परन्तु, अग्नि से भिन्न रुद्र हैं ही नहीं, यह कहना संगत नहीं है। ‘‘ईशानादस्य भुवनस्य भूरेर्न वा उ योषद्रुद्रादसुर्यम्।।’’ इस भुवन के स्वामी रुद्रदेव से उनकी महाशक्ति पृथक नहीं हो सकती। ‘‘अन्तरिच्छन्ति तं जने रुद्रं परो मनीषया।’’ मुमुक्षु उस रुद्र परमात्मा को मनुष्य के भीतर बुद्धि द्वारा जानना चाहते हैं।

‘‘असंख्याताः सहस्राणि ये रुद्रा अधिभूम्याम्’’, ‘‘रुद्रस्य ये मील्हुषः पुत्रा।।’’ ‘‘अज्येष्ठायो अकनिष्ठास एते संभ्रातरो वावृधु सौभगाय युवा पिता स्वया रुद्र एषाम्।।’’ रुद्र से उत्पन्न सब रुद्र ही हैं। तत्त्वमस्यादि महावाक्यों के अनुसार उनकी भी एक दिन महारुद्र परमात्मा होना पड़ेगा।

‘‘स रुद्रः से महादेवः।’’ ‘रुद्रः परमेश्वरः।’’अथर्व. 11।2।3 इत्यादि मन्त्रों में भी परमात्मा को ही रुद्र, महादेव आदि कहा गया है। जो कहते हैं कि शिव से पृथक रुद्र हैं, उन्हे वेदों के ही अन्यान्य मन्त्रों पर ध्यान देना चाहिये, जिनमें स्पष्ट रूप से परमेश्वर के लिये ही शिव, त्र्यम्बक (शिव), महादेव, महेशान, परमेश्वर, ईशान, ईश्वर आदि शब्द आये हैं। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।’’ ‘‘ये भूतानामधिपतयः कपर्दिनः।’’ ‘‘असंख्याताः सहस्राणि ये रुद्रा अधिभूम्याम्।’’ ‘‘नीलग्रीवाः शीतिकण्ठाः।’’ ‘‘तमु ष्टुहि यः स्विषुः सुधन्वा यो विश्वस्य क्षयति भेषजस्य। यक्ष्वामहे सौमनसाय रुद्रं नमोभिर्देवमसुरं दुवस्य।।’’ ‘‘क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरं क्षरात्मानावीशते देव एकः।’’ ‘‘सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात् सर्वगत शिवः। ’’ ‘‘आवो राजानमध्वरस्य रुद्रं होतारं सत्ययजं रोदस्योः। अग्नि पुरातनयित्नोरचिताद्धिरण्यरूपमवसे कृणुघ्वम्।’’ ‘‘त्वमग्ने रुद्रो असुरो महादिवस्त्वं शर्द्धो मारुतं पृक्ष ईशिषे।’’ इत्यादि मन्त्रों में अग्नि को ही रुद्र कहा गया है।

‘स्थिरैरङ्‌गैः पुरुरूप उग्रो बभ्रुः शुकेभिः पिपिशे हिरण्यैः।’’

यहाँ रुद्र को पूरुरूप, असाधारण तेजस्वी और बभ्रुवर्ण कहा गया है। वैदिकों के यहाँ शिव पूजा की सामग्रियों में कोई भी तामस पदार्थ नहीं है। बिल्वपत्र, पुष्प, फल, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से ही भगवान की पूजा होती है। मद्य, मांस का तो शिवलिंग पूजा में कभी भी उपयोग नहीं होता। अतः शिव तामस देवता हैं यह कहना अनभिज्ञता है। हाँ, त्रिमूर्त्यन्तर्गत शिव कारणवस्था के नियन्ता माने जाते हैं। कारण या अब्यक्त की अवस्था अवष्टम्भात्मक होने से तमः- प्रधाना कही जा सकती है। ‘तम आसीत्तमस्यागूढ़मग्रे’’ इस श्रुति में तम को ही सबका आदि और कारण कहा गया है। उसी मैं वैषम्य होने से सत्त्व, रज का उद्भव होता है। तम का नियन्त्रण करना सर्वापेक्षयाऽपि कठिन है। भगवान शिव तम के नियन्ता हैं, तम के वश नहीं है। शिव भयानक भी हैं, शान्त भी हैं, सर्वसंहारक, कालकाल, महाकालेश्वर, महामृत्युंजय भगवान में उग्रता उचित ही है।

ब्रह्मक्षत्रोपलक्षित समस्त प्रपंच जिसका ओदन है, मृत्यु जिसका दालशाक है, मृत्युसहित संसार को जो खा जाता है, उसका उग्र होना स्वभाविक है। शिव से भिन्न जो भी कुछ है, उन सबके संहारक शिव हैं। इसीलिये विष्णु को उनका स्वरूप ही माना जाता है। अन्यथा भिन्न होने पर तो उनमें भी संहार्यता आ जायगी। वस्तुतः हरिहर, शिव विष्णु तो एक ही हैं। उनमें अणुभर भी भेद है ही नहीं। ‘‘भीषास्माद्वातः पवते।’’ भगवान के भय से ही वायु अग्नि, सूर्य मृत्यु अपना काम करते हैं। ‘‘महद्भयं वज्रमुद्यतम’’ समुद्यत महावज्र के समान भगवान से सब डरते हैं, तभी भगवान को मन्यु या चण्ड कोपरूप माना गया है। ‘‘नमस्ते रुद्र मन्यवे’’ हे रुद्र! आपके मन्युस्वरूप की मैं वन्दना करता हूँ। वही शक्तिरूपधारिणी होकर चण्डिका कहलाते हैं, फिर भी वह ज्ञानियों और भक्तों के लिये रसस्वरूप हैं।

  • ‘‘रसो वे सः’’, ‘‘एष ह्येवानन्दयाति। ’’

भगवान रसस्वरूप हैं, निखिलरसामृतमूर्ति भगवान से ही समस्त विश्व को आनन्द प्राप्त होता है, इसीलिये भगवान की अघोरा, शिवातनु घोरतनु से पृथक वर्णित है- ‘‘या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा पापकाशिनी। तया नस्तन्नुवा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि।।’’ भगवान की कल्याण्मयी, शन्तमा, शिवा, तनू परमकल्याणमयी है। ‘‘शान्तं शिवम्’’ ‘अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः। सर्वशर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः।।’’ इस तरह रुद्राध्याय में उग्र श्रेष्ठ और भीमरूप वर्णित हैं।

  • ‘‘नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च
  • मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय।’’

इस मन्त्र में शिव को शिवस्वरूप, कल्याणदाता, मोक्षदाता कहा गया है। इस तरह जब अनादि, अपौरूषेय वेदों एवं तन्मूलक इतिहास, पुराण, तन्त्रों द्वारा शिव का परमेश्वरत्व, शान्तत्त्व, सर्वपूज्यत्व सिद्ध होता है, तब शिव की पूजा अनार्यों से ली गयी है इन बेसिर-पैर की बातों का क्या मूल्य है? Dindayalmani (वार्ता) 16:05, 21 नवम्बर 2019 (UTC)[उत्तर दें]