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विधेय दोष

आमुख[संपादित करें]

विधेय दोष- काव्य में पाये जाने वाला एक प्रकार का दोष को विधेय दोष कह्ते हैं। विधेय दोष अनेक प्रकार के होते हैं , जैसे - अशलील दोष, ग्राम्य दोष, संदिग्ध दोष, जिनमें विधेय दोष भी एक है। व्याकरण के सिध्दातों में विधेय के दो प्रतिस्पर्धा विचार हैं। इन दोनों अवधारणाओं के बीच प्रतिस्पर्धा व्याकरण के सिद्धातों में भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर देती है।विधेय श्ब्द का प्रयोग अनेक रुपों में -

विदेय का प्रयोग[संपादित करें]

कर्ता में - कर्ता वाक्य के दो भागों में एक है, दूसरा भाग विधेय कहलाता है। उदाहरण के लिए - काला कुत्ता बकरी को दौडाने लगा।

वाक्य और वाक्य भेद में- वाक्य के दो भेद होते हैं-उद्देश्य और विधेय जिसके बारे में बात की जाये उसे उद्देश्य कहते हैं और जो बात की जाय उसे विधेय कहते हैं। उदाहरण के लिए, 'मोहन प्रयाग । विधेय दोष में- काव्य में एक प्रकार का दोष । शास्त्र में- पुस्त्कें 'शास्त्र' की कोटि में आ जाती हैं। साधारण:शास्त्र में बतलाए हुए काम विधेय माने जाते हैं और बातें शास्त्रों में वर्जित हैं वे नीषिद्ध और त्याज्य हिन्दी व्याकरण में- अनिवर्य तत्त्व होते हैं - उद्देश्य और विधेय जिसके बारे में बात की जाय उसे उद्देशय और जो बात की जाय उसे विधेय कहते हैं। उदाहरण के लिए- मोहन प्रयाग। तर्कशास्त्र में- प्रत्येक वाक्य में एक उद्देशय पद होता है, एक विधेय पद और उन्हें जोडने वाला संयोजक। विधेय पद कई वर्ग के होते हैं, कुछ उद्देश्य का स्वरुपकथन । संञा- संज्यारुप की प्रस्तुति के बावजूद, विधेय ऐसा विधेय है जो समान्यत: एकवचन कर्ता को नहीं ले सकता ।

मीमांसा दर्शन में- मीमांसा दर्शन में प्राप्त विवेक न्याय से, अथवा अदग्ध दहन न्याय से उद्देश्य विधेय भाव का विचार कर वेद -वाक्यार्थ-निर्णय से कर्ताव्य का विवेक होता है।

प्राचीन मिस्र में - विशेषणात्मक वाक्य का क्रम विधेय-कर्ता है और संग्यात्मक और क्रिया-विशेषणात्मक वाक्य में कर्ता विधेय होता है। यदि वाक्य लम्बा होता है तो उसे कर्ता कहते हैं।

महाम्रित्युञ्ज्य मन्त्र - देव पूजा विहिनो य: स नरा नरकं व्रजेत। यदा कथंचिद देवार्चा विधेया श्राध्दायाविन्त ।ज्न्मचतारत्र्यौ रगन्म्रिद्युत्चैर्व विनाशयेत्