सदस्य:Samar Singh 5/प्रयोगपृष्ठ/1

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भारतीय संस्कृति[संपादित करें]

भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किन्तु भारत की संस्कृति आदि काल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इसकी उदारता तथा समन्यवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों को समाहित तो किया है, किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। तभी तो पाश्चात्य विद्वान् अपने देश की संस्कृति को समझने हेतु भारतीय संस्कृति को पहले समझने का परामर्श देते हैं। भारतीय संस्कृति में बहोत सी विभिन्ता है। भारत पर सैंकड़ों सालों तक विदेशी हमलावरों और अंग्रेजों ने हुकूमत की है। उनका उद्देश्य केवल हमला करके और लूटपाट मचा के वापस जाना नहीं था, बल्कि वे यहां के लोगों को पूरी तरह गुलाम बना कर अपनी सेवा में लगाना चाहते थे। ऐसा करने के लिए उन्होंने सबसे पहले यहां की संस्कृति और धर्म को तहस-नहस करना शुरू किया। भारतीय संस्कृति का अपना ही सार है जिसमे लोग एक साथ रहते है जबकि सबमे बहुत विभिन्ता है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। मध्य प्रदेश के भीमबेटका में पाये गये शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातत्त्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत भूमि आदि मानव की प्राचीनतम कर्मभूमि रही है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के विवरणों से भी प्रमाणित होता है कि आज से लगभग पाँच हज़ार वर्ष पहले उत्तरी भारत के बहुत बड़े भाग में एक उच्च कोटि की संस्कृति का विकास हो चुका था। इसी प्रकार वेदों में परिलक्षित भारतीय संस्कृति न केवल प्राचीनता का प्रमाण है, अपितु वह भारतीय अध्यात्म और चिन्तन की भी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भारतीय संस्कृति से रोम और यूनानी संस्कृति को प्राचीन तथा मिस्र, असीरिया एवं बेबीलोनिया जैसी संस्कृतियों के समकालीन माना गया है। भारतीय संस्कृति के बहुत से अंश हैं जैसे तरह तरह की भाषाएं, कपडे, पहनावा, मेहमान नवाज़ी, बहुत सी विचार धरा, आयुर्वेदा और बहोत सी अन्य चीज़े जो इसके सार को दर्शाता है। भारतीय संस्कृति में आश्रम - व्यवस्था के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों का विशिष्ट स्थान रहा है। वस्तुत: इन पुरुषार्थों ने ही भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का एक अदभुत समन्वय कर दिया। हमारी संस्कृति में जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पहलुओं से धर्म को सम्बद्ध किया गया था। धर्म उन सिद्धान्तों, तत्त्वों और जीवन प्रणाली को कहते हैं, जिससे मानव जाति परमात्मा प्रदत्त शक्तियों के विकास से अपना लौकिक जीवन सुखी बना सके तथा मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा शान्ति का अनुभव कर सके। शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है, यह अमरता मोक्ष से जुड़ी हुई है और यह मोक्ष पाने के लिए अर्थ और काम के पुरुषार्थ करना भी जरूरी है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में धर्म और मोक्ष आध्यात्मिक सन्देश एवं अर्थ और काम की भौतिक अनिवार्यता परस्पर सम्बद्ध है। आध्यात्मिकता और भौतिकता के इस समन्वय में भारतीय संस्कृति की वह विशिष्ट अवधारणा परिलक्षित होती है, जो मनुष्य के इस लोक और परलोक को सुखी बनाने के लिए भारतीय मनीषियों ने निर्मित की थी। सुखी मानव-जीवन के लिए ऐसी चिन्ता विश्व की अन्य संस्कृतियाँ नहीं करतीं। साहित्य, संगीत और कला की सम्पूर्ण विधाओं के माध्यम से भी भारतीय संस्कृति के इस आध्यात्मिक एवं भौतिक समन्वय को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। भौगोलिक दृष्टि से भारत विविधताओं का देश है, फिर भी सांस्कृतिक रूप से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीनकाल से बना हुआ है। इस विशाल देश में उत्तर का पर्वतीय भू-भाग, जिसकी सीमा पूर्व में ब्रह्मपुत्र और पश्चिम में सिन्धु नदियों तक विस्तृत है। इसके साथ ही गंगा, यमुना, सतलुज की उपजाऊ कृषि भूमि, विन्ध्य और दक्षिण का वनों से आच्छादित पठारी भू-भाग, पश्चिम में थार का रेगिस्तान, दक्षिण का तटीय प्रदेश तथा पूर्व में असम और मेघालय का अतिवृष्टि का सुरम्य क्षेत्र सम्मिलित है। इस भौगोलिक विभिन्नता के अतिरिक्त इस देश में आर्थिक और सामाजिक भिन्नता भी पर्याप्त रूप से विद्यमान है। वस्तुत: इन भिन्नताओं के कारण ही भारत में अनेक सांस्कृतिक उपधाराएँ विकसित होकर पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। भारतीय संस्कृति आवाद है और आवाद रहेगा क्यूंकि यह संस्कृति सबसे भिन्न और सबसे महान है।

हिन्दी की भावी अंतर्राष्ट्रीय भूमिका[संपादित करें]

आधुनिक हिन्दी की यह असाधारण विशेषता है कि वह अपने वर्तमान रूप में किसी क्षेत्र विशेष की बोली नहीं है। उन्नीसवीं सदी से प्रचलित खड़ी बोली नाम से उसके किसी क्षेत्र की बोली होने का संकेत नहीं मिलता। यह नाम वास्तव में उसे ब्रजभाषा से भिन्न सूचित करने के लिए दिया गया था। ब्रज की 'ओ' कार बहुलता की जगह उसमें 'आ' कार की प्रधानता है और ब्रज की मधुरता के विपरीत उसमें खरापन या खडखडाहट अधिक है। मेरठ-दिल्ली के अतराफ की बोली से उसका उदय अवश्य हुआ, पर उस क्षेत्र की खड़ी बोली क्षेत्र का नाम भाषा के नामकरण के बाद मिला। बाँगरु, कौरवी और हरियाणवी नाम भी बाद में दिए गए। सबसे पहले इस भाषा को सिंधु के पार के देश 'हिन्द' और उसके निवासी 'हिन्दू' 'हिन्दुई' और 'हिन्दवी' ये सब नाम आठवीं से लेकर ग्यारहवीं-बारहवीं सदी तक लगातार आक्रमण करने वाले अरब, तुर्क, ईरानी और अफ़ग़ानों ने दिए थे। इस तरह हिन्दी भाषा को संपूर्ण देश की भाषा के रूप में सबसे पहले विदेशियों ने पहचाना और उसी के अनुरूप उसे नाम दिया। 'हिन्दुई', 'हिन्दवी' के साथ 'हिन्दी' नाम भी काफ़ी पुराना है, जैसा कि अमीर ख़ुसरो (1253-1325) के उल्लेख से सिद्ध होता है, हालांकि अमीर ख़ुसरो ने 'हिन्दी' नाम से, जान पड़ता है, संस्कृत का भी संकेत किया था, क्योंकि हिन्दी को अरबी के समान कहकर उन्होंने जो प्रशंसा की, वह संस्कृत पर अधिक लागू होती है। बारहवीं-तेरहवीं सदी से शुरू होकर जब वह अपभ्रंश से निकलकर स्वतंत्र भाषा बन रही थी, तभी से हिन्दवी ने अठारहवीं सदी तक सारे देश में दूर-दूर फैलकर संपर्क भाषा का दायित्व संभाल लिया था। विचित्र संयोग है कि उस समय तक और उसके बाद उन्नीसवीं सदी के अंत तक वह हिन्दी साहित्य की मुख्य भाषा भी नहीं थी। अवधी और ब्रज और अंतत: ब्रज का हिन्दी का काव्य भाषा के रूप में पांच सौ वर्ष तक वर्चस्व बना रहा। परंतु अठारहवीं शताब्दी से जो नई सामाजिक चुनौतियां आने लगीं, उनका सामना करने में अपने व्यापक प्रसार के बावजूद ब्रजभाषा असमर्थ सिद्ध हुई। यह भारी जिम्मेदारी उठाने का सौभाग्य हिन्दवी नाम से प्रचलित भाषा को ही मिला। ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी से ही विदेशी विजेताओं के द्वारा राज्य विस्तार के लिए जो सैनिक अभियान किये गए, उनमें यही भाषा जन संपर्क का माध्यम रही। इस कारण शुरू से ही उसकी क्षेत्रीय विशेषताएँ घिसने लगीं और अंतरप्रांतीय व्यवहार में आकर उसका नया रूप निखरने लगा। हिन्दी क्षेत्र की बोलियों के अलावा उसने भारत की प्राय: सभी मुख्य भाषाओं के अनेक तत्त्व आत्मसात् किए और अपनी असीम ग्रहणशीलता के बल पर उसने सारे देश में स्वेच्छा से अपनाए जाने की योग्यता पैदा कर ली। हिन्दी की यही शक्ति उसकी भावी संभावनाओं का स्रोत है। जिस तरह उत्तर-पश्चिमी स्थल मार्गों से आए विदेशियों ने उसे हिन्दी नाम देकर पूरे देश की प्रमुख भाषा बनाया और उसी के माध्यम से अपना शासन उत्तर-पूर्व, दक्षिण और पश्चिम सभी ओर बढ़ाया, उसी तरह दक्षिण-पश्चिमी समुद्री रास्तों से आए यूरोप के व्यापारी, राजनीतिक विजेताओं ने भी हिन्दुस्तानी नाम से उसकी पहचान की। इस तरह दोनों नाम हिन्दी और हिन्दुस्तानी भाषा की अक्षेत्रीय, अंतरप्रांतीय और सर्व भारतीय व्यवहार योग्यता के सूचक है। इसी योग्यता के बल पर और अपनी मूल प्रकृति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अनुराग से यह भाषा अंतर्राष्ट्रीय मान्यता की अधिकारी बन जाती है। हर नए राजनीतिक दौर में विदेशियों के द्वारा प्रतिष्ठा पाना इस मान्यता की गारंटी है। सर्वसाधारण के व्यवहार की हिन्दी या हिन्दुस्तानी अपने दो भिन्न परिनिष्ठित और साहित्यिक रूपों में भारत और पाकिस्तान दो देशों की राजभाषा है। हिन्दी और उर्दू दो स्वतंत्र भाषाओं के रूप में भारतीय संविधान में भी स्वीकृत है। परन्तु यह सर्वविदित है कि उनकी भिन्नता और अभिन्नता, पृथकता और एकता के बीच लगभग एक सौ वर्ष तक जो मीठा-कड़ुवा विवाद चलता रहा और भारत में जो उनका मिला-जुला व्यवहार होता रहा और हो रहा है, उससे यह साफ प्रकट होता है कि हिन्दी और उर्दू ऐसी भिन्न और परस्पर अनमिल भाषाएँ नहीं हैं कि उनमें परस्पर संवाद संभव न हो। हिन्दी और उर्दू के भारत में कोई अलग-अलग क्षेत्र नहीं हैं। यदि उर्दू पाकिस्तान की राजभाषा है, तो भारत के भी कई राज्यों में उसे यह दर्जा मिला हुआ है। जिस तरह भारत के विभिन्न भाषा क्षेत्रों में हिन्दी कहीं भी अजनबी नहीं है और उसके माध्यम से हर हर जगह सामान्य व्यवहार संभव है, उसी तरह बल्कि उससे भी अधिक पाकिस्तान की सभी भाषाओं- पंजाबी, सिंधी और पश्तों के क्षेत्रों में हिन्दी के लिए सहज अनुकूलता है। भारत के हिन्दी भाषी को पाकिस्तान बनने के पहले से इन भाषा-भाषियों के साथ आत्मीयता स्थापित करने में जो आसानी होती थी, उसमें भी कोई फर्क नहीं पड़ा। विदेशों में हिन्दी भाषी भारतीय और पाकिस्तान के बीच भाषा का कोई अंतर नहीं रहता। फिर भी, हिन्दी और उर्दू नाम से दो भाषाओं वाले देशों की ये भाषाएँ अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार की भाषाएँ कही जा सकती हैं। इतना ही नहीं, भारत के पास-पड़ोस के देशों नेपाल, अफ़ग़ानिस्तान, बर्मा और श्रीलंका में हिन्दी के सरल रूप का सामान्य व्यवहार किसी न किसी स्तर पर कमोबेश सीमा में प्रचलित है। हिन्दी के इस सरल रूप को हिन्दुस्तानी कहना अधिक उपयुक्त है। विशेष रूप से उर्दू के साथ अधिक निकटता प्रकट करने के लिए। भारत और पाकिस्तान दोनों की इस सम्मिलित भाषा की अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार की संभावनाएँ असीम हैं। पश्चिम एशिया के देशों में जहाँ पर इस समय भारतीयों और पाकिस्तानियों के आवागमन का क्रम बढ़ता जा रहा है, इसका स्पष्ट संकेत मिल रहा है। ज्यों-ज्यों हिन्दी, उर्दू भाषी व्यापार, कारोबार मज़दूरी और तकनीकी और ग़ैर तकनीकी पेशों के सिलसिले में फैलते जाएंगे, हिन्दी-हिन्दुस्तानी का व्यवहार जोर पकड़ता जाएगा। पश्चिम एशिया के देशों में हिन्दी-हिन्दुस्तानी में अरबी-फ़ारसी मूल के शब्दों की अपेक्षा बहुलता रहेगी। भारत बढ़ने पर दोनों देशों की निकटता में भी वृद्धि हो सकती है। हिन्दी-हिन्दुस्तानी के अंतर्राष्ट्रीय प्रसार में फ़िल्मों का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी फ़िल्मों और सुगम संगीत की लोकप्रियता पाकिस्तान और पश्चिम एशिया के देशों में निरंतर बढ़ रही है। भाषा के प्रसार में इसमें अनायास सहायता मिलती है। भारतीय संस्कृति का प्रसार किसी समय दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में हिन्देशिया, मलेशिया, कम्बोज, हिन्द-चीन से लेकर जापान, कोरिया और मंगोलिया तक था। चीन में भी बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ था। इस सांस्कृतिक अभियान की आधार भाषाएँ संस्कृत और पालि थीं। इन देशों की भाषाओं में संस्कृत और पालि का प्रभाव आज तक मौजूद है। श्रीलंका की सिंहली भाषा उसी वर्ग की है, जिसकी हिन्दी। संस्कृत और पालि के माध्यम से सिंहली और हिन्दी की निकटता है। इस प्राचीन सांस्कृतिक और भाषिक दाय को हिन्दी ही वहन कर सकती है। इन देशों में हिन्दी-हिन्दुस्तानी का अंतर्राष्ट्रीय रूप अपेक्षाकृत संस्कृतनिष्ठ होगा। प्रवासी भारतीय दुनिया के अनेक भागों में काफ़ी बड़ी संख्या में फैले हुए हैं। इनमें हिन्दी के अलावा अन्य भाषा-भाषी भी हैं। पर अधिकांश में उनकी समान संप्रेषण भाषा हिन्दी बन गई है। मारिशस, फीजी, ट्रिनिडाड, गुयाना आदि भूतपूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों में बहुत बड़ी संख्या हिन्दी क्षेत्र के भोजपुरी बोली बोलने वालों की है। अन्य बोलियों और भाषाओं के बोलने वाले भी हैं और हिन्दुओं के अलावा मुसलमान भी हैं। सामान्य संप्रेषण के लिए इन सबने हिन्दी-हिन्दुस्तानी को ही अपनाया है। अफ्रीका के कुछ देशों दक्षिण अफ्रीका, केनिया, युगांडा आदि में भी जहाँ गुजराती भाषियों की संख्या अधिक है हिन्दी भाषा भारतीयों के सामान्य व्यवहार में अधिक आती है। इन देशों में आर्य समाज ने हिन्दी के प्रचार में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। भारत में हिन्दी की पूर्व प्रतिष्ठा होने पर इन देशों के मूल निवासी भी अधिकाधिक संख्या में हिन्दी को अपनायेंगे। भारत की जनसंख्या बढ़ती जा रही है। इसके परिणामस्वरूप अन्य भाषा-भाषियों की तरह हिन्दी भाषियों की प्रवासभीरुता कम होती जाएगी। तमिल भाषी तो कई शताब्दियों पहले दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में जा बसे थे। मलयालम भाषी केरलीय भी हाल में ही विदेशों में जाने लगे हैं। इधर कुछ दिनों से वे हज़ारों की तादाद में पश्चिम एशिया के देशों में भरते जा रहे हैं। पंजाबी भाषी दुनिया में हर जगह फैल गए हैं। अमरीका के पश्चिमी तट पर केलिफोर्निया में उन्होंने बड़े-बड़े फार्म बनाए हैं। इन सब की तुलना में हिन्दी भाषी शायद समुद्र तटों से बहुत दूर स्थल में सिमटे रहने के कारण और पंजाबियों की तुलना में साहसिकता और कर्मठता की दृष्टि से पिछड़े होने के कारण अधिक संतोषी प्रवासभीरु हैं। परंतु आबादी का दबाव और बेरोजगारी जैसे उन्हें कलकत्ता और बंबई जाने के लिए विवश करती है। विदेशों की ओर से आकृष्ट करेगी और भविष्य में जब भारत की विभिन्न भाषाओं वाले विदेशों में बसेंगे, तब अपने सामान्य आपसी व्यवहार के लिए हिन्दी-हिन्दुस्तानी का ही सहारा लेंगे। इंग्लैंड में जा बसे भारतीयों और पाकिस्तानियों का व्यावहारिक भाषा-सर्वेक्षण किया जाए तो कुल मिलाकर निष्कर्ष हिन्दी-हिन्दुस्तानी के पक्ष में ही निकलेगा। यह स्थिति इंग्लैंड के अलावा यूरोप के अन्य देशों में, अमरीका में और अन्यत्र भी होगी। इस संबंध में उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीयों, विशेष रूप से हिन्दी भाषियों का अंग्रेज़ी के प्रति दासभाव जैसा लगाव बहुत बड़ी बाधा है। पढ़े-लिखे, यानी अंग्रेज़ीदां हिन्दी भाषियों की अपनी भाषा के प्रति विशेष उदासीनता वास्तव में चिंत्य है।

विवाह[संपादित करें]

विवाह मानव समाज की अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रथा या संस्था है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई परिवार का मूल है। इसे मानव जाति के सातत्य को बनाए रखने का प्रधान साधन माना जाता है। इस शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। इसका पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है जिससे पति-पत्नी के स्थायी संबंध का निर्माण होता है। प्राचीन एवं मध्यकाल के धर्मशास्त्री तथा वर्तमान युग के समाजशास्त्री समाज द्वारा स्वीकार की गई 'परिवार की स्थापना करने वाली किसी भी पद्धति' को विवाह मानते हैं। मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि[1] के शब्दों में 'विवाह एक निश्चित पद्धति से किया जाने वाला, अनेक विधियों से संपन्न होने वाला तथा कन्या को पत्नी बनाने वाला संस्कार है।' रघुनंदन के मतानुसार 'उस विधि को विवाह कहते हैं जिससे कोई स्त्री (किसी की) पत्नी बनती है।' वैस्टरमार्क ने इसे एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ ऐसा संबंध बताया है, जो इस संबंध को करने वाले दोनों पक्षों को तथा उनकी संतान को कुछ अधिकार एवं कर्तव्य प्रदान करता है।

विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जाने वाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन भी होता है। इस संबंध से पति पत्नी को अनेक प्रकार के अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ एक ओर समाज पति पत्नी को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहाँ दूसरी ओर पति पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है। संस्कृत में 'पति' का शब्दार्थ है पालन करने वाला तथा 'भार्या' का अर्थ है भरणपोषण की जाने योग्य नारी। पति के संतान और बच्चों पर कुछ अधिकार माने जाते हैं। विवाह प्राय: समाज में नवजात प्राणियों की स्थिति का निर्धारण करता है। संपत्ति का उत्तराधिकार अधिकांश समाजों में वैध विवाहों से उत्पन्न संतान को ही दिया जाता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

[1]

[2]

  1. http://en.bharatdiscovery.org/india/
  2. http://bharatdiscovery.org/india/