सदस्य:Malvika Tandon

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परिवार

भारतीय परिवार: बदलते हुए रुप[संपादित करें]

परिवार:परिचय[संपादित करें]

 भारत समाज में परिवार एक विशेष स्थान रखता है। हर एक व्यक्ति का जन्म एक कुल या परिवार में होता है, इसलिए परिवार को समाज का सबसे छोटा अंग माना जाता है। परिवार में अकसर माता , पिता, भाई और बहन पाए जाते है। अन्य देशों में परिवार अकसर छोटे होते है। इनको एकल परिवार कहलाया जाता है। मगर भारत अधबुध देश है। यहाँ संयुक्त परिवार पाए जाते हैं जहां ना ही माता- पिता के साथ बाल- बच्चे रहते है मगर दादा- दादी, चाचा- चाची, ताउ- ताई, एक ही छत के नीचे रहते है।

परिवार की विशेषताएँ[संपादित करें]

१) सर्वभामिकता : मनुष्य का जैविक जीवन और सांस्कृतिक जीवन परिवार की उपस्थिति से अधिक प्रभावित है। देश की हर एक सभ्यता में, हर समाज में परिवार पाए जाते है। इतिहास में एसा एक भी समय नहीं आया है जब परिवार प्रस्तुत नहीं था। कोइ भी शाषण इस व्यवस्था की कमी को नहीं भर सकता है। २) भावुक ज़रुरत: प्यार और खून के रिशते भावनाओं के जड होते है। एक-दूसरे के दुख के साथी कहलाए जाते है परिवार वाले। परिवार के सदस्यों में एक दुसरों के प्रति बहुत कर्तव्य होते है। ३) शिक्षाप्रद : परिवार वह व्यवसथा है जो समाजीकरण में भाग लेता है। परिवार ही मनुष्य को समाज के मानदंड और नीयमों के बारे में वाकिफ करता है। मनुष्य का विवेक परिवार के प्रभाव से शक्तिशाली होता है। परिवार के ध्यान से ही व्यक्ति का शारिरिक विकास, पोषण और पालन होता है। ४) सामाजिक विनियमन: पारिवारिक व्यवसथा की वजह से मनुष्य के रिशते जुडे रहते है। उदाहरण के लिए, तालाख पर लगाए गए इतने बंधन , परिवार को एक-साथ रखने के लिए होते है। ५) परिवर्तन: परिवार के संयोजन और आकार में समय के साथ बहुत अतंर आ गया है।

भारतीय समाज में बदलते हुए रुप[संपादित करें]

भारतीय समाज में पहले-पहले संयुक्त परिवार बहुत पाए जाते थे। अनेक पीडीयों के सदस्य एक ही छत के नीचे पाए जाते थे। परदादों से लेकर बाल- बच्चे एक साथ रहते थे। पर्ंतु अब मामला वैसा नहीं रहा। पति- प्तनी अपने माता- पिता से अलग परिवार शुरु करते है। सदस्य संख्या कम होती है। समय के साथ-साथ परिवार कर्तव्य में भी बदलाव दिखाई देता है। भारतीय समाज के कुछ अंतर आगे लिखे गये है।

१) शारिरिक- संबंधों में अंतर: पहले-पहले , पति- प्तनी के अलावा कोइ भी तीसरे व्यक्ति से संबंध रखना पाप माना जाता था। मगर अब ना ही शादी से पह्ले व्यक्ति शारिरिक संब्ंध रखते है, ब्लकि विवाह के बाद दूसरों यान संबंध रखते है। वेश्यालय की उपस्थिति बडती जा रही है। २) प्रजनन का कार्य : भारतीय समाज में पहले-पह्ले परिवार की शुरवात बच्चे पैदा कर, कुल के नाम को आगे बराने के लिए हुआ था। मगर स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है। ना ही, माता- पिता ज़्यादा बच्चे करने का निण्य लेते है, और वैज्ञानिक तौड- तरीक्कों से बच्चा पैदा करते है। माता- पिता बच्चे गोद लेना ज़्यादा चुनते है। ३) बच्चों के विकास में योगदान: बच्चों का पालन- पोशण पह्ले- पहले घर में किया जाता था, मगर समय के साथ- साथ यह कर्तव्य अस्पताल को सौपां गया है। दिन- देखभाल केंद्रो ने यह ज़िम्मेदारी सही तरीक्के से अपनाली है। बच्चों को संसकार अब यह केंद्र ही सिखाते है। ४) समाजीकरण का कर्तव्य : बच्चो का पालन- पोषण , ध्यान , देखबाल पहले परिवार के हाथों में होता है। मानदंड और नीयमों की अभीव्यक्ति मनुष्य के चरित्र और व्यक्तित्व को जोडने में होती है। ५) आर्थिक कर्तव्य: इतिहास में परिवार के सदस्य सभी एक ही व्यवसाय और व्यापार चलाते थे। मगर समय के साथ, सदस्यों ने घर से निकलकर , खेती बारी छोरकर , बाहर काम करना शुरु कर दिया है। अब ना हि पुरुष ब्लकि स्त्री भी कार्य करती है। परिवार खुद में खुद आत्मनिर्भर हुआ करता मगर यह कार्य अब अन्य व्यवस्थाओं ने ले ली है। तन्ख्वाह की प्रणाली के बाद परिवार एक आर्थिक समूह बनकर नहीं रहा है। ६) विवाह का महत्व कम हो गया है। इसी कारण की वजह से मनुष्य कुल आगे बडाने के बारे में सोचता नहीं है। इसलिए परिवार छोटे और साथ ही साथ कम होते जा रहे है। तलाख भी ज़्यादा होने लगे है आधुनिक युग में। ७) मनोरंजन की ज़िम्मेदारी- मनुष्य अब परिवार वालों के साथ मिलकर खेलना उतना नहीं पस्ंद करता जितना वह वाणिज्यीकरण से प्रभावित है। सिनेमा देखना, बगीचों में जाना। माल में घूमना ही मनुष्य का मनोरंजन का माध्यम बन ग्या है।

अधिकार सीमा[संपादित करें]

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  1. http://www.yourarticlelibrary.com/society/indian-society/family-indian-society/changing-pattern-of-family-in-india-structural-change-and-interactional-change/39187
  2. https://www.scribd.com/document/185685753/Changing-Family-Structure-in-India