सदस्य:Lakshya IAS/प्रयोगपृष्ठ/2

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भारत में वैश्वीकरण प्रभाव -पर्यावरण की दशा[संपादित करें]

संसाधनों की खपत[संपादित करें]

साल २००८ की एक रिपोर्ट की मुताबिक, अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में सबसे विशाल पर्यावरणीय पदचिन्ह (इकोलॉजिकल फुटप्रिंट) भारत का ही है। हमारे पास जितने प्राकृतिक संसाधन हैं, हमारे देश के लोग उससे दोगुनी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे हैं। ऊपर से, भारत में प्रकृति की मनुष्यों के भरण-पोषण की क्षमता पिछले चार दशकों के दौरान घटकर महज आधी रह गई है। देश के सबसे अमीर लोगों (यानी आबादी के सबसे अमीर ०.०१ प्रतिशत तबके) के प्रति व्यक्ति पर्यावरणीय पदचिन्ह देश की सबसे गरीब ४० प्रतिशत आबादी के मुकाबले ३३० गुना ज्यादा है। ये किसी औद्योगिक, सम्पन्न देश के औसत नागरिक के पर्यावरणीय पदचिन्ह से भी १२ गुना ज्यादा है। भारत के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों के पर्यावरणीय पदचिन्ह अमीर देशों के सामान्य नागरिकों से दो तिहाई और देश के ४० प्रतिशत निर्धनतम लोगों के पर्यावरणीय पदचिन्ह से १७ गुना ज्यादा है। इस तरह, अगर भारत के किसी व्यक्ति के पास एक कार और एक लैपटॉप है तो वह १७ बेहद निर्धन भारतीयों के बराबर संसाधनों का दोहन करता है। इस तरह का व्यक्ति लगभग २.३ औसत विश्व नागरिकों (२००७ में वैश्विक प्रति व्यक्ति आय लगभग १०,००० डॉलर थी) के बराबर संसाधनों का उपभोग कर लेता है।

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय[संपादित करें]

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्टेट ऑफ एनवायरनमेंट रिपोर्ट, २००९ के मुताबिक भारत की खाद्य सुरक्षा भविष्य में आने वाले वायुमंडलीय परिवर्तन के कारण खतरे में पड़ सकती है क्योंकि इससे सूखे व बाढ़ों की बारम्बारता व सघनता बढ़ जाएगी और छोटे व सीमान्त किसानों की उपज पर सीधा असर पड़ेगा। यानी पूरे देश में कृषि उपज उल्लेखनीय रूप से घटने वाली है। वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में फिलहाल भारत का हिस्सा लगभग ८ प्रतिशत है। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के नाते उसका यह हिस्सा भी हर साल बढ़ता जा रहा है। अनुमान लगाया जाता है कि अगर मौजूदा रुझान कायम रहा तो २०३० तक भारत का औसत प्रति व्यक्ति उत्सर्जन स्तर तीन गुना हो जाएगा।

कोयले की उपलब्धता[संपादित करें]

भारत की आधी से ज्यादा ऊर्जा कोयले से आती है। ज्यादातर कोयला खानों को सम्भालने वाले कोल इंडिया के मुताबिक, हमारे इस्तेमाल योग्य कोयला भंडार उतने बड़े नहीं है जितना पहले माना जाता था। मौजूदा विकास दर के हिसाब से ये भंडार तकरीबन ८० साल तक ही चल पाएँगे। लेकिन आने वाले दौर की अनुमानित वृद्धि दर के हिसाब से देखें तो इन भंडारों की उम्र सिर्फ ३-४ दशक ही बची है। इसके बावजूद गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोतों के लिये हमारा केन्द्रीय बजट कुल ऊर्जा बजट का सिर्फ १.२८ प्रतिशत है।

जल की समस्या[संपादित करें]

पानी का बारहमासी संकट देश के नये-नये इलाकों को अपनी चपेट में लेता जा रहा है। भूमिगत पानी के सालाना अतिदोहन की सबसे ऊँची दर भारत की ही है। देश के बहुत सारे भागों में जमीन से पानी निकालने की दर जमीन में पानी के संरक्षण से दोगुना पहुँच चुकी है। जैसे-जैसे भूमिगत जल भण्डार सूखते जा रहे हैं, जलस्तर गिरता जा रहा है। कई जगह जैसे पंजाब में तो जलस्तर हर साल ३-१० फुट तक गिरता जा रहा है! जैसे-जैसे वायुमंडलीय परिवर्तन की वजह से तापमान बढ़ रहा है, देश में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता, जो २००१ में १८२० घन मीटर प्रति वर्ष थी वह २०५० तक गिरकर केवल ११४० घनमीटर वार्षिक के स्तर पर पहुँच जाएगी। भले ही बारिश के मौसम में बारिश घनी हो जाए लेकिन तब तक बारिश के दिनों में १५ दिन की गिरावट आ चुकी होगी। २००९ का साल पिछले कई दशकों के दौरान भारत में सबसे ज्यादा सूखे का साल रहा। उस साल मानसून में २० प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश व पंजाब जैसे कुछ कृषि क्षेत्रों में तो ये इससे भी काफी ज्यादा थी। इससे खेती पर बहुत गहरे असर पड़े थे। खेती की उपज के लिये मिट्टी की ऊपरी सतह बहुत कीमती होती है। भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (आईसीएआर) के मुताबिक हर साल प्रति हेक्टेयर १६ टन ऊपरी मिट्टी यानी पूरे देश में लगभग ५ अरब टन उपजाऊ मिट्टी खत्म होती जा रही है। इस ऊपरी परत को बनने में हजारों साल लगते हैं। बंगलुरु के आस-पास सूखे से जूझ रहे गाँवों के किसान भूखमरी से निपटने के लिये हर रोज अपने खेतों से लगभग १००० ट्रक मिट्टी खोदकर बंगलुरु में चल रहे निर्माण कार्यों के लिये बेचते हैं।

वन का कटाव[संपादित करें]

१९९० से २००० के बीच पुनर्वृक्षारोपण की दर ०.५७ प्रतिशत सालाना थी। २००० से २००५ के बीच यह मात्र ०.०५ प्रतिशत रह गई थी। अब घने या मध्यम स्तर तक घने जंगल भारत के १२ प्रतिशत से भी कम भू-भाग पर रह गए हैं। इतना ही क्षेत्रफल खुले जंगलों या झाड़ीदार जंगलों का है। १९८०-८१ के बाद जितनी वन भूमि का सफाया किया गया है उसमें से लगभग ५५ प्रतिशत २००१ के बाद हुआ है। १९८०-८१ के बाद खानों के लिये जितने जंगलों की सफाई हुई है उनमें से ७० प्रतिशत १९९७ से २००७ के बीच काटे गए हैं। वैश्वीकरण ने जंगलों की कटाई और जमीन को अनुपजाऊ बनाने में बहुत तेजी ला दी है। यह परिघटना अस्सी के दशक तक काफी हद तक अंकुश में थी।

जीवों पर प्रभाव[संपादित करें]

भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा जैव विविधता वाले इलाकों में से एक है। हमारे यहाँ १,३०,००० से ज्यादा पादप और जन्तु प्रजातियाँ हैं और फसलों व मवेशियों में जबर्दस्त विविधता है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के मुताबिक, हमारी कम-से-कम १० प्रतिशत पादप एवं जन्तु प्रजातियाँ खतरे में पड़ चुकी प्रजातियों की सूची में जा चुकी हैं। अगर वायुमंडलीय परिवर्तन की वजह से केवल २ प्रतिशत तापमान भी बढ़ जाता है तो भारत की १५-४० प्रतिशत जन्तु एवं पादप प्रजातियाँ समाप्त हो जाएँगी। जंगली इलाकों में जलाशयों के निर्माण से कुछ बेहतरीन जंगलों और जैवविविधता से भरे अनूठे प्राकृतिक क्षेत्रों (इकोसिस्टम्स) का विनाश हो चुका है। जल विद्युत और खनन परियोजनाओं के लिये जंगलों की कटाई हमारी जैव विविधता के लिये सम्भवतः सबसे बड़ा खतरा है। देश के असंख्य पवित्र वन या अन्य समुदाय संरक्षित क्षेत्र, जिनको परम्परागत रूप से ग्रामीण समुदाय सुरक्षित रखते थे, आर्थिक विकास के इस हमले की वजह से खतरे में पड़ने लगे हैं। भारत की लगभग ७० प्रतिशत आबादी अपनी आजीविका और रोजी-रोटी के लिये जमीन से जुड़े व्यवसायों, जंगलों, जलाशयों और समुद्री पर्यावासों पर यानी स्थानीय प्राकृतिक क्षेत्रों पर आश्रित है। पानी, भोजन, ईंधन, आवास, चारा और औषधियाँ, सब कुछ उन्हें यहीं से मिलता है। पौधों की लगभग १०,००० और पशुओं की सैकड़ों प्रजातियाँ जैव विविधता और आजीविका के इस आपसी सम्बन्ध को सम्भाले हुए हैं। देश भर में २७.५ करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिये लघु वन उत्पादों पर आश्रित हैं। पर्यावरणीय विनाश इन लोगों के जीवन और आजीविका को सीधे प्रभावित करता है।