सदस्य:Dyuti.dutta/प्रयोगपृष्ठ

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पृष्ठभूमी[संपादित करें]

मेरा नाम द्युती दत्ता है। मेरा जन्म कोलकाता मे सन् १९९९ मे हुआ था। मै अपने माता-पिता की एक मात्र औलाध हूँ।

मै वर्तमान मे बेंगलूरु मे अपनी उच्च शिक्षा पूरी कर रही हूँ।

परिवार[संपादित करें]

मेरे घर मे मेरे माता-पिता के अलावा मेरे दादा-दादी और चाचा रहते हैं। मेरे नाना नानी भी हमसे कुछ ही दूर रहा करते हैं।

मेरे माता और पिता दोनो ही नौकरी करते हैं। मै हमेशा से अपने परिवार के साथ काफी करीब रही हूँ। हमने साथ मे कई मनोरंजक यात्राएं कीं हैं और हम हर त्योहार भी साथ मे मनाया करतें हैं। आज उनसे दूर रहकर कभी कभी मुझे उनकी बहुत याद आती है।

शिक्षा[संपादित करें]

मैने अपनी बारहवीं तक की शिक्षा कोलकाता मे पूरी की है। मैने अपनी उच्च माध्यमिक की पढाई मानविकी धारा मे की है। मै वर्तमान मे क्राइस्ट यूनिवर्सटी,बेंगलूरु मे मनोविज्ञान, अंग्रेज़ी एवं नागरिक शास्त्र की पढाई कर रहीं हूँ। अभी मै अपने पहले साल मे हूँ। मुझे आगे मनोविज्ञान की पढ़ाई जारी रखने की इच्छा है।

रुचियाँ[संपादित करें]

मुझे किताबें पढ़ने का काफी शौक है और अंग्रेज़ी मे लिखने का भी। मैने बचपन से लेकर आज तक कई शैलीयों के अंग्रेज़ी उपन्यास पढ़ें हैं। इसके अलावा मैने ओडीसी शास्त्रीय न्रित्य मे करीबन बारह वर्ष का प्रशिक्षण लिया है। मै नाटक मे भी बहुत दिलचस्पी रही हूँ।

लक्ष्य[संपादित करें]

अपने स्नातक स्तर की पढ़ाई खत्म करने के पश्चात मै मनोविज्ञान मे स्नातकोत्तर उपाधी पाने के लिए पढ़ना चाहती हूँ। मै एक मनोवैज्ञानिक बनना चाहती हूँ और समाज की सेवा भी करना चाहती हूँ।

उपलब्धियाँ[संपादित करें]

मै अपने विद्यालय के विद्यार्थी परिशद की सदस्या रह चुकी हूँ एवं नेतृत्व परिशद सेवा की कप्तान भी। मै अपने विद्यालय के वार्षिक उत्सव के पत्रिका की मुख्या संपादक भी रह चुकी हूँ। इसके अलावा मै एक छात्र संपादक पत्रिका के लिए रिपोर्टर रह चुकी हूँ। मैने शास्त्रीय न्रित्य मे संगीत विशारद का प्रमाणीकरण भी हासिल किया है।

जात्रा नाटक[संपादित करें]

A jatra actor prepares before the performance, Sunderbans

परिचय[संपादित करें]

जात्रा एक बांग्ला शब्द है जो संस्क्रित के 'यात्रा' शब्द से लिया गया है। यह पश्चिम बंगाल का एक काफी लोकप्रिय नाट्य है एवं भारत के अन्य राज्यों, जैसे बिहार, उड़ीसा, असम और त्रिपुरा मे भी मशहूर है। इसके अलावा यह बांग्लादेश मे भी बहुत लोकप्रिय है। कोलकाता के चितपुर रोड मे ही करीब ५५ जात्रा मंडली हैं और केवल पश्चिम बंगाल मे ही इसका प्रदर्शन कुल ४००० मंचों पर किया गया है। २००१ मे करीबन ३०० जात्रा मंडलियों ने २०,००० से ज़्यादा लोगों को रोज़गार दिया है, जो स्थानीय फिल्म उद्योगों और शहरी थियेटरों से भी ज़्यादा है। जात्रा की शुरुआत संगीतीय थियेटर से हुई थी, श्री चैतन्य के भक्ति आंदोलन से। श्री चैतन्य ने खुद क्रिश्णलीला के 'रुक्मणी हरण' नाटक मे रुक्मणी की भूमिका निभाई थी। सन् १५०७ मे प्रस्तुत किए गए इस नाट्क का विवरण 'चैतन्य भागवत' मे भी किया गया है। 'जात्रा' नाट्क उत्तर प्रदेश की 'नौटंकी', महाराष्ट्र के 'तमाशा' और गुजरात के 'भवाई' के समान है।

इतिहास[संपादित करें]

यद्यपि इसकी जन्मभूमि धार्मिक परिदृश्य में निहित है, एवं हिंदू धर्म के विभिन्न भक्ति आंदोलनों से परिपूर्ण है, १९वीं शताब्दी के अंत तक इसे नैतिक रूप से धर्मनिरपेक्ष बनाया गया और अंततः इसे बंगाल पुनर्जागरण के दौरान शहरी समृद्ध सिनेमाघर में प्रवेश मिला। तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश की इतनी बड़ी अवधि में जात्रा के अस्तित्व का श्रेय उसकी सहज नैतिकता और सामाजिक गतिशीलता को बदलने के अनुकूल तरीकों को जाता है, और इस तरह यह न सिर्फ प्रासंगिक और जीवित बल्कि संपन्न है।

प्रक्रिया[संपादित करें]

आमतौर पर जात्रा चार घंटे का नाटक होता है जिसकी शुरुआत एक १ घंटे के संगीत कार्यक्रम से होता है। यह नाटकीय निष्पादन लोक धुनों पर नाटकीय मोनोलॉग, गीत और युगल नृत्य कार्यक्रमों को उदारतापूर्वक जोड़ता है, जो अक्सर दृश्य बदलावों के रूप में काम करता है और कभी-कभी एक कार्य के अंत को चिह्नित करता है। जात्रा नाटकों को आमतौर पर उन चरणों पर किया जाता है जो खुली हवा के मैदानों में सभी पक्षों पर खुले होते हैं। मंच पर अक्सर कम या कोई फर्निचर का सहारा नही लिया जाता है। यह दृश्य को अर्थपूर्ण रखने के लिए निःशुल्क, एक तटस्थ स्थान की तरह देखा जाता है। यह तकनीक तब भी जारी रही जब जात्रा ने प्रोसेनियम थियेटर में प्रदर्शन करना शुरू किया। सेट, सहारा एवं प्रकाश तब आया जब १९वीं सदी मे पश्चिमी थियेतटर का प्रभाव इसपर आया। कलाकार मुख्य रूप से पुरुष हुआ करते थे, जिनके सदस्य महिलाओं की भूमिकाएं भी निभाते थें, हालांकि १९वीं शताब्दी के बाद से, मादा अभिनेताओं ने कलाकारों में शामिल होना शुरू कर दिया। अभिनेताएं अक्सर छोटी उम्र मे ही मंडलियों मे शामिल हो जाते थे और धीरे धीरे भूमिकाओं के पदानुक्रम मे बढ़ते थे। अभिनेताओं मे दर्शकों तक अपनी भावनाएं ऊंची आवाज़ मे पहुंचाने की काबिलियत को देखा जाता है। जात्रा के आधुनिक संस्करण में ज़ोरदार संगीत एवं कठोर प्रकाश का प्रयोग किया जाता है और इसका प्रदर्शन विशालकाय मंचों पर होता है। संगीतकार मंच के दो पहलुओं पर बैठकर ढोलक,पखवाज, हार्मोनियम, तबला, बांसुरी, झांझ, तुरही, व्यैला (वायलिन) और शहनाई बजाते हैं, जो प्रदर्शन के नाटकीय प्रभाव को और बढ़ाते हैं।

जात्रा मे कई गाने शास्त्रीय रागों पर आधारित हैं। जात्रा की एक और विशेषता यह है कि नाटक चरमोत्कर्ष से शुरू होता है। यह उपकरण दर्शकों के ध्यान को आकर्षित करता है। जात्रा शरद ऋतु में शुरू होता है, सितंबर मे फसल के मौसम की शुरुआत में दुर्गा पूजा के आसपास और सावन ऋतु तक समाप्त हो जाता है। उत्सवों और धार्मिक कार्यों, पारंपरिक परिवारों और मेलों मे जात्रा का प्रदर्शन होता है, जहां इन मंडलियों को आमंत्रित किया जाता है।

आधुनिक काल मे जात्रा[संपादित करें]

बंगाल में पश्चिमी थियेटर के उदय के साथ, राजनीतिक विरोध और सामाजिक कट्टरतावाद के विषयों पर नाटक किया जाने लगा, जिससे इसकी लोकप्रियता कम हो गयी थी। आजकल कई जात्राएं लंडन बम विस्फोट, ९/११ या इराक में युद्ध जैसी समकालीन घटनाओं को उठातें हैं, और स्थानीय मुद्दों को भी उजागर करते हैं। अपने संगीत थिएटर शैली के भीतर जात्रा बेहद अनुकूल है और तेज़ी से विकसित हो रहा है। जात्रा संगीतीय थियेटर की एक जीवित परंपरा है जो आज भी पश्चिम बंगाल मे काफी मशहूर है। यह थियेटर के कई संरक्षकों को आकर्शित करती है। इसका ज़िक्र किताबों और अखबारों मे भी किया गया है और जात्रा मे प्रयोग होने वाले गाने रेडियो मे बजकर काफी मशहूर हो गए हैं एवं दर्शकों को उसकी ओर आकर्शित करने मे सफल हुए हैं।

Jatra theatre


[1] [2]

  1. https://www.britannica.com/art/Jatra
  2. https://en.wikipedia.org/wiki/Jatra_(theatre)