सदस्य:डॉ.विजेंद्र प्रताप सिंह

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ब्रज का भाषाविज्ञान

ब्रज के साहित्‍यकि महत्‍व से जगत परिचित है, ये वहीं भाषा है जिसने हिंदी भाषा के आदि, मध्‍य, तथा रीति काल को पूरी तरह से आच्‍छादित रखा। आधुनिक काल में ब्रजभाषा कतिपय कारणों से साहित्यिक भाषा के गौरवपूर्ण पद से पदावनत होकर एक क्षेत्रीय बोली के रूप में सिमट गई परंतु ऐसा नहीं है कि ब्रज में साहित्‍य रचना कम हो गयी या इसमें मात्र पद्य साहित्‍य ही लिखा जाता है। जब ब्रज को छोड़कर खड़ी बोली को साहित्‍य का माध्‍यम आधुनिक साहित्‍यकारों द्वारा बनाया गया तो यह तर्क दिया गया कि ब्रज कोमलकांत श्रृंगार एवं भक्ति साहित्‍य के काव्‍य के लिए उपयुक्‍त भाषा है। इस धारणा की कोई तात्‍कालिक वजह रही होगी किंतु ऐसा नहीं है कि ब्रज में गद्य साहित्‍य न था और न वर्तमान में रचा जा रहा है। इस धारणा को डॉ॰विजेंद्र प्रताप सिंह ने अपने हाल ही में प्रकाशित पुस्‍तक ‘ ब्रज का भाषा विज्ञान’ में तोड़ा है। यदि देखा जाए तो ब्रज के भाषा विज्ञान पर कोई स्‍वतंत्र पुस्‍तक नजर नहीं आती है, व्‍याकरिणक ग्रंथों में धीरेंद्र वर्मा(ब्रजभाषा-1954), रामस्‍वरूप चतुर्वेदी(आगरा जिले की बोली-1961), पं.किशोरीदास बाजपेयी(ब्रजभाषा व्याकरण-1943), आदि के ग्रंथ प्रसिद्ध रहे हैं। परंतु समीक्ष्‍य ग्रंथ में डॉ॰ विजेंद्र प्रताप सिंह ने मिर्जा खां द्वारा रचित सन 1675 में रचित व्‍याकरण को प्रथम माना है, इस ग्रंथ के व्‍याकरण अंश का अनुवाद जियाउद्दीन द्वारा 1935 में किया गया। पुस्‍तक के अनुसार कवि रत्नजित का ‘भाषा व्घ्याकरण’(सं. 1770), लल्लू जी लाल का ‘मसाफिरे भाषा’ (सन् 1811), जेम्स रॉबर्ट बैलंटाइन का ‘इलेमेंट्स ऑफ हिंदी एंड ब्रज भाषा ग्रामर’ (सन् 1839) , जॉन बीम्स का ‘कंम्परेटिव ग्रॉमर आफ द मॉडर्न एरियन लैग्वेजेज ऑफ इंडिया’ (तीन भागों में)(प्रथम -ध्वनि’ शीर्षक से सन् 1872, द्वितीय भाग ‘संज्ञा और सर्वनाम’ शीर्षक से सन् 1875 तथा तृतीय भाग ‘क्रिया’शीर्षक के साथ सन् 1879 में प्रकाशित) आदि प्रमुख ग्रंथ हैं।

‘‘भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से डॉ॰ शिवप्रसाद सिंह का शोधग्रंथ (1959) नजर आता है। डॉ॰ कैलाशचंद्र भाटिया द्वारा ‘ब्रजभाषा तथा खड़ी बोली का तुलनात्मक अध्ययन’ (सन् 1962), ग्रंथ व्याकरणिक दृष्टि से महत्घ्वपूर्ण है, इसमें दोनों भाषाओं की तुलना करते हुए लगभग समस्त व्याकरण कोटियों को विश्लेषित किया गया है। डॉ॰ रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल के शोध ग्रंथ ‘बुंदेली भाषा का शास्त्रीय अध्ययन’ (सन् 1963) में बुंदेली का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, डॉ॰ महावीर सरन जैन ने ‘‘बुलन्दशहर एवं खुर्जा तहसीलो की बोलियों का समकालिक अध्ययन (ब्रज भाषा एवं खड़ी बोली के संक्रमण क्षेत्र का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन) (सन् 1967) आदि बहुत अच्छे शोध कार्य हैं। डॉ॰ चंद्रभान रावत कृत ‘मथुरा जिले की बोली’ (सन् 1967) आदि प्रमुख ग्रंथ हैं, परंतु उसके बाद ब्रज में भाषाविज्ञान की पुस्‍तक का अभाव देखा जा रहा है। इस अभाव की पूर्ति करती है डॉ॰ विजेंद्र प्रताप सिंह की समीक्ष्‍य पुस्‍तक।

‘ब्रज का भाषाविज्ञान‘‘ पुस्तक कुल 6 अध्यायों अर्थात् ब्रजभाषा, ध्वनि प्रक्रिया, शब्दरूप प्रक्रिया, रूप स्वनिमिकी, वाक्य विन्यास प्रक्रिया तथा शब्दावली, में विभाजित की गई है। प्रत्येक अध्याय यथाशीर्षक ब्रज का विश्लेषण किया गया है। प्रथम अध्याय ‘ब्रजभाषा’ में लेखक ने ब्रजभाषा पर भाषावैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन करते हुए उल्लेखित किया है कि ‘‘भाषा उत्पत्ति की दृष्टि से ब्रज का संबंध सौरसेनी अपभ्रंश से है। रूप या प्रकार की दृष्टि से ब्रज को प्रमुखतः केंद्रीय ब्रज, पश्चिमी ब्रज तथा पूर्वी ब्रज के रूप में बांटा जा सकता है। वैसे विद्वानों ने और भी कई रूपों का उल्लेख किया है। जिसका संकेत इस पुस्तक में यथास्थान एवं संदर्भ दिया गया है। भाषा विज्ञान की परंपरा में यदि देखा जाए तो ब्रजभाषा पर स्वतंत्र रूप से इस नाम से अभी तक कोई ग्रंथ देखने में नहीं आया है। हालांकि व्याकरणिक पुस्तकों के माध्यम से कुछ विद्वानों ने कुछ भाषिक विश्लेषण भी ब्रज के किए हैं, परंतु उनमें भाषा विज्ञान के सभी तत्वों को आधार नहीं बनाया गया है अपितु व्याकरणिक तत्वों की प्रधानता देखी गई है।‘‘(आमुख)

‘ध्वनि प्रक्रिया’ अध्‍याय में स्वर, वर्ण, संयुक्त स्वर, अनुनासिकता, स्वर अनुक्रम, स्वर संयोग एवं श्रुति, व्यजंन स्वनिमिकी, व्यंजन संयोग, विवृत्ति, ह्रस्वीकरण, दीर्घयीकरण, देशी तथा विदेशी ध्वनियों के प्रभाव के फलस्वरूप ध्वनि परिवर्तन के साथ-साथ अक्षर वितरण के अंतर्गत चतुरक्षरी शब्दों तक के शब्द गठन का फार्मूला भी प्रस्तुत किया है। ‘शब्द रूप प्रक्रिया’ में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, पर प्रत्यय, पूर्व प्रत्यय, समास, पुनरूक्ति,लिंग, वचन,कारक विभक्ति, धातु, काल, वाच्य, वृत्ति, अव्यय, निपात आदि के माध्यम से सविस्तार विवेचन किया है। ‘रूप स्वनिमिकी’ अध्‍याय के अंतर्गत स्वरों एवं व्यंजन ध्वनियों में विभिन्न स्तरों पर परिवर्तन, समीकरण, विभक्ति प्रत्यय के कारण ध्वनि परिवर्तन को सोदाहरण दिखाया है। ‘वाक्य विन्यास’ अध्याय में वाक्य के सभी स्तरों का बहुत व्याकरणिक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण किया है।

किसी भी भाषा की शब्द सम्पदा उसकी समृद्धि की परिचायक होती है। भाषा की शब्द ग्राह्यता एवं समागमता जितनी अच्छी होगी भाषा उतनी ही सम्पन्न कहलाती है। इस दृष्टि से लेखक ने ‘शब्दावली’ अध्याय में ब्रज भाषा में तत्‍सम, अर्द्धतत्‍सम, तद्भव, देशज,विदेशी तथा संकर शब्‍दों को सविस्‍तार सोदाहरण विश्‍लेषित किया है। शब्‍दों के जिस रूप का सभी भाषा प्रयोगकर्ता प्रयोग तो करते हैं परंतु ध्‍यान नहीं देते हैं जैसे संकर शब्‍द । प्रस्‍तुत पुस्‍तक में लेखक ने इस संबंध में कहा है कि ‘जिनका गठन दो भाषाओं के शब्‍दों की संधि कर लिया गया है। अर्थात् संकर शब्द वे शब्द होते हैं, जो दो मित्र भाषाओँ के शब्दों से मिलकर सामाजिक शब्दो के रूप में निर्मित होते हैं।’’ उदाहरणार्थ – 1. अंग्रेजी एवं हिंदी या हिंदी अंग्रेजी - (रेल + गाड़ी=रेलगाड़ी,कांजी + हाउस =कांजी हाउस, जवाबी + कार्ड=जबाबीकार्ड,टिकट + घर =टिकटघर,डबल + रोटी=डबलरोटी,सील + बंद =सीलबंद इत्‍यादि। 2.अंग्रेजी एवं संस्‍कृत :- बम+वर्षा=बमवर्षा, रेल+यात्रा=रेलयात्रा 3. फारसी एवं संस्‍कृत या संस्‍कृत फारसी :- नमूना+अर्थ=नमूनार्थ, सजा+प्राप्‍त =सजाप्राप्त, राम+गुलाम=रामगुलाम इत्‍यादि । 4. अरबी एवं फारसी :– पान+दान=पायदान, पीक+ दान =पीकदान,समझ+ दार= समझदार,ठेका+ दार= ठीकेदार इत्‍यादि। 5. पुर्तगाली एवं फारसी :- जेब+खर्च=जेबखर्च इत्‍यादि। 6. फारसी एवं हिंदी या हिंदी फारसी :- अक्ल+दाढ़= अक्लदाढ़, खुशहाल+चंद= खुशहालचंद,गुलाब+राय= गुलाबराय, घूस+खोर= घूसखोर, चोर+दरवाजा=चोर-दरवाजा,तीन+माह=तिमाही,मियाँ+मिट्ठू=मियाँ-मिट्ठू ,मोम+बत्ती=मोमबत्ती, राज+महल=राजमहल, शादी+ब्‍याह=शादी ब्याह इत्‍यादि । 7. अरबी एवं संस्‍कृत :- जिला+धीश=जिलाधीश इत्‍यादि। 8. हिंदी एवं संस्‍कृत :- न्‍याय+धीश=न्‍यायधीश, मठ+आधीश=मठाधीश इत्‍यादि। 9. पुर्तगाली एवं फारसी :- जेब+खर्च=जेब खर्च इत्‍यादि।

लेखक ने ब्रजभाषा के अब तक लिखे गए व्याकरण ग्रंथों का सविस्तार समीक्षात्मक विवरण प्रस्तुत करते हुए भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अब ब्रज के शोधग्रंथों को भी विस्तार से प्रकाश में लाने का कार्य किया है। जो कि यह दर्शाता है कि ब्रजभाषा का व्याकरण एवं भाषावैज्ञानिक स्तर बहुत ही उन्नत रहा है। लेखक ने डॉ॰ शिव प्रसाद सिंह का शोध ग्रंथ ‘सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य’ को महत्वपूर्ण मानते हुए सभी को साक्ष्य रूप में रखते हुए वर्तमान संदर्भों में ब्रज भाषा का भाषावैज्ञानिक रूप प्रस्तुत किया है।


पुस्‍तक का नाम - ब्रज का भाषाविज्ञान लेखक - डॉ॰विजेंद्र प्रताप सिंह, प्रकाशन एवं प्रकाशन वर्ष - वाड़्मय बुक्‍स, अलीगढ़, 2015, आईएसबीएन 978-93-82485-48-3 पृष्‍ठ संख्‍या – 176 मूल्‍य 300/-