सत्यव्रत सिद्धांतालंकार

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सत्यव्रत सिद्धांतालंकार (1898-1992) भारत के शिक्षाशास्त्री तथा सांसद थे। वे उपनिषदों के एक मूर्धन्य ज्ञाता थे। वे गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे तथा उन्होने शिक्षाशास्त्र एवं समाजशास्त्र पर कई पुस्तकें लिखीं। इन्होने स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान सत्याग्रह में भाग लिया और कुछ समय जेल में भी रहे। उन्होंने 'ब्रह्मचर्य संदेश' जैसी पुस्तकें लिखीं। 'एकादशोपनिषद्' उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसमें उन्होने मुख्य उपनिषदों का सुगम हिन्दी भाष्य लिखा है। पेशे से वे एक होम्योपैथी डॉक्टर थे। भारत के द्वितीय राष्ट्रपति [1]राधाकृष्णन ने, जो ख़ुद उपनिषदों की टीका लिख चुके थे, आपकी किताब के लिए प्राक्कथन लिखा था और आपको राज्यसभा के लिए मनोनीत भी किया था। १९६४ से १९६८ तक वे राज्य सभा के सदस्य रहे।

जीवन[संपादित करें]

इनका जन्म लुधियाना के सबद्दी ग्राम में १८९८ में हुआ था। १९१९ में गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार से स्नातक होने के बाद वो कोल्हापुर, बेंगलूर, मैसूर और मद्रास में ४ वर्ष तक समाजसेवा की।

1923 में आप “दयानन्द सेवा सदन” के आजीवन सदस्य होकर गुरुकुल विद्यालय में प्रोफेसर हो गए। 15 जून 1926 को आपका विवाह श्रीमती चन्द्रावती लखनपाल से हुआ जिन्होने सत्याग्रह में भी भाग लिया और उनको 1952 में राज्यसभा का सदस्य भी बनाया गया।

१९३० में आप सत्याग्रह में गिरफ़्तार हुए लेकिन गाँधी-इरविन समझौते में छोड़ दिये गए। इसके बाद आपने समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, वैदिक-संस्कृति, गीता-भाष्य, उपनिषद प्रकाश जैसे ग्रंथ लिखे। आपके “एकादशोपनिषदभाष्य” की भूमिका राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने तथा आपके 'गीता भाष्य' की भूमिका प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने लिखी। आपके होम्योपैथी के ग्रंथों को सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ घोषित कर उन पर 1000 का पारितोषिक दिया गया। इन ग्रंथों का विमोचन राष्ट्रपति वी.वी. गिरी ने किया। 3 जनवरी 1960 को आपको “समाजशास्त्र” के मूल तत्व पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक देकर सम्मानित किया गया।

1935 में डॉ. सत्यव्रत जी गुरुकुल विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए। 15 नवम्बर 1941 को सेवाकाल समाप्त कर वे मुंबई में समाज सेवा कार्य में व्यस्त हो गए। 2 जुलाई 1945 को आपकी पत्नी कन्या गुरुकुल देहरादून की आचार्या पद पर नियुक्त हुईं। डॉ. सत्यव्रत जी ने इस बीच “समाजशास्त्र”, “मानव शास्त्र”, “वैदिक संस्कृति”, तथा “शिक्षा” आदि पर बीसों ग्रंथ लिखे जो विश्वविद्यालय में पढ़ाये जाने लगे।

4 जून 1960 को आप दोबारा 6 वर्ष के लिए गुरुकुल विश्वविद्यालय के उप कुलपति नियुक्त हुए। 3 मार्च 1962 को पंजाब सरकार ने आप के साहित्यिक कार्य के सम्मान में चंडीगढ़ में एक दरबार आयोजित करके 1200 रु. की थैली तथा एक दोशाला भेंट किया। 1964 में राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने आपको राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। 1977 में आपके ग्रंथ “वैदिक विचारधारा का वैज्ञानिक आधार” पर गंगा प्रसाद ट्रस्ट द्वारा 1200 रु. और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 2500 रु. और रामकृष्ण डालमिया पुरस्कार द्वारा 1100 रूपए का पुरस्कार दिया गया।

१९७८ में नैरोबी (पूर्वी अफ़्रीका) में आर्य सम्मेलन के अध्यक्ष रहे। 1978 में दिल्ली प्रशासन ने वेदों के मूर्धन्य विद्वान होंने के नाते करके आपको 2001 रु. तथा सरस्वती की मूर्ति देकर सम्मानित किया।

१९९२ में आपका देहावसान हुआ।

कृतियाँ[संपादित करें]

आपने होम्योपैथी पर अनेक ग्रंथ लिखे हैं जिसमें “होम्योपैथिक औषधियों का सजीव चित्रण”, “रोग तथा उनकी होम्योपैथिक चिकित्सा”, “बुढ़ापे के जवानी की ओर”, तथा “होम्योपैथी के मूल सिद्धांत” प्रसिद्ध हैं। आपके अंग्रेजी में लिखे ग्रन्थ “Heritage of vediv culture”, “Exposition of vedic thought”, तथा Glimpses of the vedic”, Confidential talks to youngmen” का विदेशों में बहुत मान हुआ है। आपके नवीनतम ग्रंथ “ब्रह्मचर्य संदेश”। वैदिक संस्कृति का सन्देश”। तथा “उपनिषद प्रकाश” आदि अनेक वैदिक साहित्य के आप लेखक है।[2]

दर्शन[संपादित करें]

इन्होने उपनिषदों का भाष्य लिखा जो आधुनिक विज्ञान से तुलनात्मक रूप से लिखा गया। भारत में श्री शंकराचार्य (८वीं सदी), विवेकानंद (१९वीं सदी) और श्री अरबिन्दो के अलावे २०वीं सदी में इनके भाष्य को काफी पढ़ा गया।

जो बात इनको बाकी टीकाकारों से अलग करती है वो है आत्मा-परमात्मा के संबंध पर इनका निर्णय। ये कहते हैं कि उपनिषदों में ये नहीं कहा गया है कि आत्मा और परमात्मा एक है या अलग-अलग। बल्कि उपनिषदों में ये कहा गया है कि ब्रह्मांड और शरीर (पिंड) दोनों के नियम एक जैसे हैं। जैसे ब्रह्मांड का सार परमात्मा है, वैसे शरीर का सार आत्मा है - दोनों को पुरुष कहा गया है। उपनिषदों का सार आपने लिखा कि जैसे ब्रह्मांड में चेतन ब्रह्म है, वैसे शरीर में चेतन आत्मा है। उपनिषतों को आपने साक्षात्कार के ग्रंथ यानि अनुभूति के ग्रंथ बताया है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "संग्रहीत प्रति" (PDF). मूल से 1 जुलाई 2014 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 14 दिसंबर 2015.
  2. Books by Satyavrata Siddhantalankar

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]