संयोजक आबन्ध सिद्धान्त

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रासायनिकी में, संयोजक आबन्ध सिद्धान्त का प्रतिपादन वाल्टर हाइटलर और फ़्रित्स लन्दन ने सन् 1927 में हाइड्रोजन परमाण्वों से हाइड्रोजन अणु के निर्माण की व्याख्यान हेतु किया। लिनस पौलिङ ने इसका आगे विस्तार किया। रासायनिक आबन्ध निर्माण के प्रक्रम में जब दोनों परमाणु निकट आते हैं तो उनके परमाणु कक्षकों का अतिव्यापन होता है, ऐसा इस सिद्धान्त से प्रतिपादित है। आबन्ध की प्राबल्य कक्षकों के अतिव्यापन की मात्रा और प्रभावकारी होने पर निर्भर करती है। जितना अधिक अतिव्यापन होगा, आबन्ध उतना ही प्रबल होगा। यह इस तथ्य पर केन्द्रित है कि जब एक अणु बनता है तो पृथक् परमाण्वों के परमाणु कक्षक रासायनिक आबन्ध देने हेतु कैसे संयोजन करते हैं। इसके विपरीत, आण्विक कक्षक सिद्धान्त में कक्षक होते हैं जो पूर्ण अणु को व्याप्त करती हैं। [1]

कक्षक अतिव्यापन धारणा[संपादित करें]

इनके विरचन में इस अवस्था में न्यूनतम ऊर्जावस्था प्राप्त होती है। इस अवस्था में दो परमाणु इतने निकट हो जाते हैं कि उनके परमाणु कक्षक आंशिक रूप से अन्तर्भेदन 'परमाणु-कक्षक अतिव्यापन' कहलाता है। इसके फलस्वरूप इलेक्ट्रॉन संयुग्मित होते हैं। अतिव्यापन की सीमा सहसंयोजी आबन्ध का प्राबल्य को निर्धारित करती है। सामान्यतः अधिक अतिव्यापन दो परमाण्वों के मध्य प्रबल आबन्ध बनाने से सम्बन्धित है। इस प्रकार कक्षक अतिव्यापन धारणानुसार दो परमाण्वों के मध्य सहसंयोजी आबन्ध का निर्माण संयोजक कक्ष में उपस्थित विपरीत चक्रण वाले इलेक्ट्रॉनों के संयुग्मन के फलस्वरूप होता है।

जब दो परमाणु आबन्ध विचरण हेतु निकट आते हैं, तब उनके कक्षों का अतिव्यापन धनात्मक, ऋणात्मक, या शून्य हो सकता है। यह तरंग फलन के आयाम को दिक्स्थान में दिशा और चिह्न पर निर्भर करता है। सीमा-सतह आरेखों पर धनात्मक और ऋणात्मक चिह्न तरंग फलन का चिह्न बताते हैं। इनका आवेश से कोई सम्बन्ध नहीं होता। आबन्ध बनाने हेतु कक्षकों का चिह्न और अभिविन्यास एक समान होना चाहिए। इसे धनात्मक अतिव्यापन कहते हैं।

सहसंयोजी आबन्ध के विरचन के मुख्य कारक के रूप में अतिव्यापन की मानदण्ड समनाभिकीय/विषमनाभिकीय, द्विपारमाण्विक तथा बहुपारमाण्विक अण्वों पर समान रूप से लागू होता है। CH4, NH3 तथा H2O अण्वों की आकृति क्रमशः चतुष्फलकीय, पिरामिडीय तथा वक्र होती है। अतः संयोजकता आबंध सिद्धांत का उपयोग करके इन ज्यामितीय आकृतियों को कक्षक अतिव्यापन के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है।

तलस्थावस्था में कार्बन का इलेक्ट्रॉन विन्यास [He]2s²2p² हैं, जो उत्तेजितावस्था में [He]2s¹2px¹2py¹2pz¹, हो जाता है। इसके उत्तेजन हेतु आवश्यक ऊर्जा की पूर्ति संकरित कक्षकों तथा हाइड्रोजन के मध्य अतिव्यापन के फलस्वरूप मुक्त अतिरिक्त ऊर्जा से होती हैं। कार्बन के चार परमाणु कक्षक, जिनमें से प्रत्येक में एक अयुग्मित इलेक्ट्रॉन उपस्थित होता है, चार हाइड्रोजन परमाणुओं के एक-एक इलेक्ट्रॉन युक्त 1s कक्षकों के साथ अतिव्यापन कर सकते हैं। किन्तु इस प्रकार निर्मित चार C-H आबन्ध समरूप नहीं होंगे। कार्बन के तीन 2p कक्षकों के मध्य 90° का कोण होने के कारण इन कक्षकों द्वारा निर्मित आबन्ध के मध्य HCH कोण का मान भी 90° होगा, अर्थात् तीन C-H आबन्ध परस्पर के साथ 90° का कोण बनाएंगे। कार्बन का 2s कक्षक तथा हाइड्रोजन का 1s कक्षक गोलीय सममित होने के कारण किसी भी दिशा में अतिव्यापन कर सकते हैं। अतः चतुर्थ C-H आबन्ध को दिशा अनिश्चित होगी। यह निरूपण C-H, की वास्तविक आकृति से मेल नहीं खाता है, जिसमें चारों HCH कोण चतुष्फलकीय होते हैं तथा प्रत्येक का मान 109.5° होता है। इससे स्पष्ट होता है कि केवल कक्षकों के अतिव्यापन के आधार पर CH4 के आबन्धो के दिशात्मक गुणों को स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। इन्हीं तर्कों के आधार पर NH3 तथा H2O अणुओं में HNH तथा HOH कोणों के मान 90° होने चाहिए, जो वास्तविक तथ्यों के अनुरूप नहीं है। इनमें वास्तविक आबन्ध कोण क्रमशः 107° तथा 104.5° होते हैं।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Murrell, J. N.; Kettle, S. F. A.; Tedder, J. M. (1985). The Chemical Bond (2nd संस्करण). John Wiley & Sons. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-471-90759-6.