श्वेताम्बर तेरापन्थ

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(श्वेतांबर तेरापंथ से अनुप्रेषित)
भिक्षु स्वामी द्वारा लिखित मर्यादापत्र का प्रथम पृष्ट

श्वेताम्बर तेरापन्थ, जैन धर्म में श्वेताम्बर संघ की एक शाखा का नाम है। इसका उद्भव विक्रम संवत् 1817 (सन् 1760) में हुआ। इसका प्रवर्तन मुनि भीखण (भिक्षु स्वामी) ने किया था जो कालान्तर में आचार्य भिक्षु कहलाये। वे मूलतः स्थानकवासी संघ के सदस्य और आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य थे।[1][2]

आचार्य संत भीखण जी ने जब आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर शिथिलता का बहिष्कार किया था, तब उनके सामने नया संघ स्थापित करने की बात नहीं थी। परंतु जैनधर्म के मूल तत्वों का प्रचार एवं साधुसंघ में आई हुई शिथिलता को दूर करना था। उस ध्येय मे वे कष्टों की परवाह न करते हुए अपने मार्ग पर अडिग रहे। [3]संस्था के नामकरण के बारे में भी उन्होंने कभी नहीं सोचा था, फिर भी संस्था का नाम तेरापंथ हो ही गया। इसका कारण निम्नोक्त घटना है। [4][5][6][7]

जोधपुर में एक बार आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों को माननेवाले 13 श्रावक एक दूकान में बैठकर सामायिक कर रहे थे। उधर से वहाँ के तत्कालीन दीवान फतेहसिंह जी सिंधी गुजरे तो देखा, श्रावक यहाँ सामायिक क्यों कर रहे हैं। उन्होंने इसका कारण पूछा। उत्तर में श्रावकों ने बताया श्रीमन् हमारे संत भीखण जी ने स्थानकों को छोड़ दिया है। वे कहते हैं, एक घर को छोड़कर गाँव-गाँव में स्थानक बनवाना साधुओं के लिये उचित नहीं है। हम भी उनके विचारों से सहमत हैं। इसलिये यहाँ सामायिक कर रहे हैं। दीवान जी के आग्रह पर उन्होंने सारा विवरण सुनाया, उस समय वहाँ एक सेवक जाति का कवि खड़ा सारी घटना सुन रहा था। उसने तत्काल 13 की संख्या को ध्यान में लेकर एक दोहा कह डाला </ref>[1]--

आप आपरौ गिलो करै, ते आप आपरो मंत।
सुणज्यो रे शहर रा लोकां, ऐ तेरापंथी तंत॥[1]

बस यही घटना तेरापंथ के नाम का कारण बनी। जब स्वामी जी को इस बात का पता चला कि हमारा नाम तेरापंथी पड़ गया है तो उन्होंने तत्काल आसन छोड़कर भगवान को नमस्कार करते हुए इस शब्द का अर्थ किया -- हे भगवान यह तेरा पंथ है।

हमने तेरा अर्थात् तुम्हारा पंथ स्वीकार किया है। अत: तेरा पंथी है।

संगठन[संपादित करें]

आचार्य संत भीखण जी ने सर्वप्रथम साधु संस्था को संगठित करने के लिये एक मार्यादापत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा कि [2][1]--

(1) सभी साधु-साध्वियाँ एक ही आचार्य की आज्ञा में रहें।

(2) वर्तमान आचार्य ही भावी आचार्य का निर्वाचन करें।

(3) कोई भी साधु अनुशासन का भंग न करे।

(4) अनुशासन भंग करने पर संघ से तत्काल बहिष्कृत कर दिया जाए।

(5) कोई भी साधु अलग शिष्य न बनाए।

(6) दीक्षा देने का अधिकार केवल आचार्य को ही है।

(7) आचार्य जहाँ कहे, वहाँ मुनि विहार वा चातुर्मास करे। अपने इच्छानुसार न करे।

(8) आचार्य के प्रति निष्ठाभाव रखे, आदि।

इन्हीं मर्यादाओं के आधार पर आज २५० वर्षों से तेरापंथ श्रमणसंघ अपने संगठन को कायम रखते हुए अपने ग्यारहवें आचार्य श्री महाश्रमणजी के नेतृत्व में लोककल्याकारी प्रवृत्तियों में महत्वपूर्ण भाग अदा कर रहा है।

संघव्यवस्था[संपादित करें]

तेरापंथ संघ में इस समय 651 साधु साध्वियाँ हैं। इनके संचालन का भार वर्तमान आचार्य श्री महश्रमण पर है। वे ही इनके विहार, चातुर्मास आदि के स्थानों का निर्धारण करते हैं। प्राय: साधु और साध्वियाँ क्रमश: 3-3 व 5-5 के वर्ग रूप में विभक्त किए होते हैं। प्रत्येक वर्ग में आचार्य द्वारा निर्धारित एक अग्रणी होता है। प्रत्येक वर्ग को "सिंघाड़ा" कहा जाता है।

ये सिंघाड़े पदयात्रा करते हुए भारत के विभिन्न भागों, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यभारत, बिहार, बंगाल आदि में अहिंसा आदि का प्रचार करते रहते हैं। वर्ष भर में एक बार माघ शुक्ला सप्तमी को सारा संघ जहाँ आचार्य होते हैं वहाँ एकत्रित होता है और वर्ष भर का कार्यक्रम आचार्य वहीं निर्धारित कर देते हैं और चातुर्मास तक सभी सिंघाड़े अपने अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं।[8]

आचारसंहिता[संपादित करें]

तेरापंथी जैन साधु जैन सिद्धांतानुसार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि पाँच महाव्रतों का पालन करते हैं।[9]

(1) उनके उपाश्रय, मठ आदि नहीं होते।

(2) वे किसी भी परिस्थिति में रात्रिभोजन नहीं कर सकते।

(3) वे अपने लिये खरीदे गए या बनाए गए भोजन, पानी व औषध आदि का सेवन नहीं करते। पदयात्रा उनका जीवनव्रत है।

विचारपद्धति[संपादित करें]

(1) संसार में सभी प्राणी जीवन चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता अत: किसी की हिंसा करना पाप है।

(2) मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। अत: उसकी रक्षा के लिये अन्य कुछ प्राणियों का वध सामाजिक क्षेत्र में मान्य होने पर भी धार्मिक क्षेत्र में मान्य नहीं हो सकता क्योंकि धर्म मानवतावाद को मानकर नहीं चलता।

(3) धर्म बलात्कार में नहीं, हृदयपरिवर्तन कर देने में है।

(4) धर्म पैसों से नहीं खरीदा जा सकता। वह तो आत्मा की सत्प्रवृत्तियों में स्थित है।

(5) जहाँ हिंसा है, वहाँ धर्म नहीं हो सकता।

(6) धर्म त्याग में है, भोग में नहीं।

(7) हर जाति और हर वर्ग का मनुष्य धर्म करने का अधिकारी है। धर्म में जाति और वर्ग का भेद नहीं होता।

(8) गुणयुक्त पुरुष ही वंदनीय है, केवल वेश नहीं।

(9) धर्म सारे ही कर्तव्य हैं पर सारे कर्तव्य धर्म नहीं। क्योंकि एक सैनिक के लिये युद्ध करना कर्तव्य हो सकता है पर आध्यात्मिक धर्म नहीं।

दीक्षापद्धति[संपादित करें]

दीक्षार्थी उपदेश या अपने जन्म के संस्कारों से प्रेरणा पाकर जब आचार्यश्री के पास दीक्षा की प्रार्थना करता है तो उसके अचारण, ज्ञान, वैराग्य आदि की कठोर परीक्षा ली जाती है। किसी किसी की परीक्षा में तो पाँच सात वर्ष तक बीत जाते हैं। जो परीक्षा में उत्तीर्ण होता है, उसे ही दीक्षित किया जाता है। दीक्षा हजारों नागरिकों के बीच माता पिता आदि पारिवारिक जनों की सहर्ष मौखिक और लिखित स्वीकृति जिसमें कौटुंबिक तथा अन्य कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के हस्ताक्षर हों, के पश्चात् दी जाती है।

तपश्चर्या[संपादित करें]

तपश्चर्या के क्षेत्र में भी तेरापंथ श्रमण संघ किसी से पीछे नहीं है। एक दिन आहार और एक दिन निराहार, इस प्रकार आजीवन तपश्चर्या करनेवाले तो संघ में अनेक साधु साध्वियाँ हैं।

पाँच, सात, आठ, दिन की तपस्या तो साधारण सी बात मानी जाती है। संघ में ऊँची से ऊँची 108 दिन की तपस्या हो चुकी है। इन तपस्याओं में केवल पानी के सिवाय और कुछ नहीं लिया गया है। उबली हुई छाछ (तक्र) का निथरा हुआ पानी पीकर तो चार, छ:, नौ महीने (272 दिन) तक की तपस्या हो चुकी है।

शिक्षाप्रणाली[संपादित करें]

तेरापंथ की शिक्षाप्रणाली भी प्राचीन गुरुपरंपरा के आधार पर चलती है। सारे संघ में कोई भी वैतनिक पंडित नहीं रहता। स्वयं आचार्य ही सबको अध्ययन कराते हैं और फिर वे शिक्षित साधु साध्वियाँ अपने से छोटों को। इसी परंपरा के आधार पर परीक्षाएँ होती हैं, जिनमें व्याकरण, न्याय, दर्शन, कोश, आगम आदि का अध्ययन होता है।

शिक्षा के साथ कला का भी विकास हुआ है। साधुचर्या के उपयोगी उपकरण बड़े कलापूर्ण ढंग से संपन्न किए जाते हैं, जिन्हें देखने से ही पता चल सकता है। हस्तलिपि का कौशल भी बहुत समुन्नत है। आज इस मुद्रणप्रधान युग में नौ इंच लंबे व चार इंच चौड़े पन्ने पर 80 हजार अक्षरों को बिना ऐनक के लिखना और वह भी ब डिग्री की कलम से, सचमुच आश्चर्यजनक घटना है। इसी प्रकार चित्र, धातु रहित प्लास्टिक के ऐनक, दूरवीक्षण यंत्र, आई ग्लास आदि भी बड़े कलापूर्ण ढंग से अपने हाथों से बना लेते हैं।

साहित्यसर्जन[संपादित करें]

साहित्यसर्जन के बारे में भी तेरापंथ श्रमण संघ अपना स्थान रखता हे। उनका विहार क्षेत्र अधिकांश राजस्थान में रहा। इसीलिये आचार्य श्री तुलसी के पहले की रचना राजस्थानी भाषा में है। तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य श्री भीखण जी ने अपने जीवनकाल में 38,000 पद्यों की रचना की है जो आज भिक्षुग्रंथरत्नाकर नाम से सुरक्षित हैं। उनके बाद तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्री जयाचार्य ने भी विपुल साहित्य रचा है। उसका परिमाण लगभग तीन या साढ़े तीन लाख श्लोकों के बीच है, जिसमें सबसे बड़ी उनकी रचना है -- भगवतीसूत्र का पद्यमय राजस्थायी भाषा में अनुवाद। इसकी श्लोकरचना करीब 80,000 होती है। यह ग्रंथ राजस्थानी भाषा का सबसे बड़ा ग्रंथ माना जाता है। तेरापंथ में संस्कृत का विकास अष्टमाचार्य कालुगणी के काल में हुआ। उनके समय में संस्कृत का वृहत् व्याकरण, भिक्षुशब्दानुशासन, लघु व्याकरण, कालकौमुदी व अन्य अनेक काव्यों की रचना हुई। नवम आचार्य श्री तुलसीगणी के काल में संस्कृत के साथ साथ हिंदी का भी द्रुत गति से विकास हुआ। स्वयं आचार्यश्री ने भिक्षुन्यायकर्णिका, जैनसिद्धांतदीपिका, कर्तव्यषट्तिं्रशिका आदि ग्रंथों की संस्कृत में रचना की है और उनके शिष्यों ने भी अनेक सुंदर काव्यग्रंथों का निर्माण किया है। कई संतों ने हिंदीजगत् को भी अनेक पुस्तकें दी हैं, जिनमें जैन दर्शन के मौलिक तत्व, तेरापंथ का इतिहास, विजययात्रा, आचार्य श्री तुलसी, अहिंसा और उसके विचारक, तेरापंथ, अणुव्रत दर्शन, अणुव्रत, जीवनदर्शन, आचार्य भिक्षु और महात्मा गांधी; दर्शन और विज्ञान, अणु से पूर्ण की ओर आदि हैं। आजकल आचार्यश्री के सान्निध्य में जैनागमों का हिंदी अनुवाद, बृहत् जैनागम शब्दकोश व आगमों के मूल पाठों का संपादन आदि कार्य चल रहे हैं।

तेरापन्थ के आचार्य[संपादित करें]

तेरापन्थ मे १० आचार्यो की गौरवशाली परम्परा है।
आचार्य श्री भिक्षु
आचार्य श्री भारीमाल
आचार्य श्री रायचन्द
आचार्य श्री जीतमल
आचार्य श्री मघराज
आचार्य श्री माणकलाल
आचार्य श्री डालचन्द
आचार्य श्री कालूराम
आचार्य श्री तुलसी
१० आचार्य श्री महाप्रज्ञ
११ आचार्य श्री महाश्रमण

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  1. Shashan Gaurav Muni Buddhmall, शासन गौरव मुनि बुद्धमल्ल (1964-01-01). Terapanth Ka Itihaas Khand-1 (तेरापंथ का इतिहास खण्ड-1). Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha. पपृ॰ 50–78, 97–99.
  2. Mukhya-Niyojika, Sadhvi Vishruta Vibha (2007). AN INTRODUCTION TO TERAPANTH (अंग्रेज़ी में). LADNUN - 341306 (Raj.): जैन विश्व भारती.सीएस1 रखरखाव: स्थान (link)
  3. Rājasthāna kī sāṃskr̥tika paramparā. Rājasthāna Hindī Grantha Akādamī. 1989. पृ॰ 36.
  4. Dundas, Paul (2002). The Jains (अंग्रेज़ी में). Psychology Press. पपृ॰ 254–261. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-415-26605-5.
  5. Shashi, p. 945
  6. Vallely, p. 59
  7. Singh, p. 5184
  8. Buddhamala (Muni) (1991). Terāpantha kā itihāsa. Jaina Śvetāmbara Terāpanthī Mahāsabhā.
  9. Mahendrakumāra (Muni) (1978). Ācāryaśrī Bhikshu kī ācāra-krānti. Arhat Prakāśana.