श्री तारा

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श्री तारा[संपादित करें]

”’अस्ति समस्त जगदुत्पत्तिपालनसंहारकतृभिर्ब्रह्मविष्णुमहेशरूपसेव्यमाना, जगदाधाररूपा, संसारभयनाशिनी, अपुनावृत्तिकारिणी, संसारतारिणी तारा नाम्नी शक्ति: परमहती.”’ यह परम हर्ष का विषय है, को जो शक्ति विद्या बहुत प्राचीन काल से अपरिमित तेज्स्वनी होने के कारण अनेक सम्प्रदायों के मतभेद होते हुए भी सर्वोत्तमा थी, वैसे ही आज भी अनेक मत मतान्तर वाले मनुष्यों द्वारा सम्मानित संसार के आवागमन को हटाने में सर्वश्रेष्ठ परमपूजित रूप में उपस्थित है। तारा-शक्ति का रहस्य बडा गूढ है, उसे जानने के लिये बडे परिश्रम और अध्यव्यवसाय की आवश्यकता है, यथार्थनामवती होने के कारण तारा नामकी शक्ति सर्वोत्तमा शक्ति है। तारा-शक्ति का शाब्दिक अर्थ है ”’तरत्यनया सा तारा”’ अर्थात इस संसार सागर से तारे वह ही तारा है। ताराविद्या की गणना दस महाविद्याओं में है, इसके महत्व का दिग्दर्शन कराते हुए तन्त्र ग्रन्थोम में कहा गया है-”’विना ध्यानम विना जाप्यं विना पूजादिभि: प्रिये, विना बलिं विनाभ्यासं, भूतशुद्धयादिभिर्विना, विना क्लेशादिभिर्देवि देह दु:खादिभिर्विना, सिद्धिराशु भवेद्यस्मात्त्स्मात्सर्वोत्तमा मता.”’ अर्थात व्बिना ध्यान, जप, पूजा, बलि, अभ्यास, भूतशुद्धि, देह दु:ख, क्लेश के उठाये ही इसकी सिद्धि शीघ्र हो जाती है;इसी से इसे सर्वसिद्धियों में सर्वोत्तम स्थान प्राप्त है। इतनी सरलता भला किस देवता की आराधना में होगी, सरलता और बन्धनमुक्ति की हद है। ऐसे निष्कन्टक सुखप्रद मार्ग पर भला कौन न चलना चाहेगा, यही कारण है कि अनन्त काल से माता तारा की उपासना अबाध रूप से होती चली आ रही है। तारा का स्वरूप क्या है, इसके वर्णन में कहा है-”’शून्ये ब्रहमाण्डगोले तु पंचाशच्छून्यमध्यगे, पंचशून्ये स्थिता तारा सर्वान्ते कालिका स्मृता”’, अर्थात शून्य ब्रह्माण्ड-गोल में पचास शून्य हैं, जिनमे पांच शून्य पर श्री तारा और शेष पर श्री कालिका बिराजमान हैं। विचारणीय विषय है, कि पचास शून्य कुल हैं, उनमें से पांच शून्य पर श्री ताराजी स्थित हैं, और बाकी शून्य पर श्री कालिकाजी बित्राजमान हैं, और विराट चक्र तथा स्वराट चक्र भेद से मध्य में जो शून्य आता है, उसमे ब्र्ह्माण्डनायिका श्री राजराजेश्वरी श्री महासुंदरी श्री श्रीविद्याजी का स्थान है। तन्त्र में कहा गया है-”’तत: शून्या परारूपा श्री महासुन्दरी कला, सु्न्दरी राजराजेशी महा ब्रह्माण्डनायिका, महाशून्या ततस्तारा, तद्वेगुण्यक्रमेण च, मुक्तौ संयोज्य सर्वं तं महासुन्दर्यनन्तत:”’, इसमे श्री महासुन्दरी को कला, और श्री तारा को महाशून्य रूप में रूपित किया है, अब देखना यह है, कि शून्य रूप में ही सब देअवता और दैवी शक्तियां हैं, और महात्माओं का भी यही सिद्धान्त है, कि संसार का शून्य रूप में से उद्भव शून्य में ही पराभव है, तब निश्चय ही इन शक्तियों को आद्य शक्ति मानना पडता है। संसार के इस शून्य परिणाम को देखकर ही महात्मा लोग मोहादि को छोड कर शून्य रूप निर्विकार ब्रह्मरूप में लीन होकर मुक्ति साधन करते हैं, इधर जितने भी बीज मन्त्र हैं, उन सभी में शून्य रूप बिन्दु है, कोई बीज मन्त्र बिन्दुरहित नही है, इसी लिये उनका महत्व इतना श्रेष्ठ है, और जितना भी इस पर विचारते हैं, अधिकाधिक ज्ञान और रहस्य दृष्टिगत होता चला जाता है।