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श्री गुरु गीता

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गुरु गीता गुरु गीता एक हिन्दू ग्रंथ है। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। वास्तव में यह स्कन्द पुराण का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं।

गुरु गीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। इसमें भगवान शंकर गुरु क्या है, उसका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं।

वह सतगुरु कौन हो सकता है उसकी कैसी महिमा है। इसका वर्णन इस गुरुगीता में पूर्णता से हुआ है। शिष्य की योग्यता, उसकी मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी पूर्ण रूपेण दर्शाया गया है। ऐसे ही गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता है वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है जो उसकी अन्तिम गति है। यही उसका गन्तव्य है जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका स्वरूप है जिसे वह प्राप्त कर लेता है।

गुरु गीता में ऐसे सभी गुरुओं का कथन है जिनकों 'सूचक गुरु', 'वाचक गुरु', बोधक गुरु', 'निषिद्ध गुरु', 'विहित गुरु', 'कारणाख्य गुरु', तथा 'परम गुरु' कहा जाता है। इनमें निषिद्ध गुरु का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तथा अन्य गुरुओं में परम गुरु ही श्रेष्ठ हैं वही सतगुरु हैं।


प्रथमोऽध्यायः

[संपादित करें]

अचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने | समस्तजगदाधारमूर्तये ब्रह्मणे नमः || १||

जो ब्रह्म अचिन्त्य, अव्यक्त, तीनों गुणों से रहित (फिर भी देखनेवालों के अज्ञान की उपाधि से) त्रिगुणात्मक और समस्त जगत का अधिष्ठानरूप है ऐसे ब्रह्म को नमस्कार हो। (१)

ऋषय ऊचुः |

सूत सूत महाप्राज्ञ निगमागमपारगम् | गुरुस्वरूपमस्माकं ब्रूहि सर्वमलापहम् || २|| ऋषियों ने कहा: हे महाज्ञानी, हे वेद-वेदांगों के निष्णात! प्यारे सूतजी! सर्व पापों का नाश करने वाले गुरु का स्वरूप हमें सुनाओ। (२)

यस्य श्रवणमात्रेण देही दुःखाद्विमुच्यते | येन मार्गेण मुनयः सर्वज्ञत्वं प्रपेदिरे || ३|| यत्प्राप्य न पुनर्याति नरः संसारबन्धनम् | तथाविधं परं तत्त्वं वक्तव्यमधुना त्वया || ४||

जिनको सुनने मात्र से मनुष्य के दु:ख से विमुक्त हो जाता है, जिस उपाय से मुनियों ने सर्वज्ञता प्राप्त की है, जिसको प्राप्त करके मनुष्य फिर से संसार-बंधन में नही बँधता ऐसे परम तत्व का कथन आप करें (३,४)

गुह्याद्गुह्यतमं सारं गुरुगीता विशेषतः | त्वत्प्रसादाच्च श्रोतव्या तत्सर्वं ब्रूहि सूत नः || ५||

जो तत्व परम रहस्यमय एवं श्रेष्ठ सारभूत है और विशेष कर गुरु गीता है वह आपकी कृपा से हम सुनना चाहते है। प्यारे सूतजी! वे हमें सुनाइये। (५)

इति संप्रार्थितः सूतो मुनिसंघैर्मुहुर्मुहुः ||कुतूहलेन महता प्रोवाच मधुरं वचः || ६||

इस प्रकार बार-बार प्रर्थाना किये जाने पर सूतजी बहुत प्रसन्न हो मुनियों के समूह से मधुर वचन बोले। (६)

सूत उवाच | श्रुणुध्वं मुनयः सर्वे श्रद्धया परया मुदा | वदामि भवरोगघ्नीं गीतां मातृस्वरूपिणीम् || ७||

सूत ने कहा: हे सर्व मुनियों! संसाररूपी रोग के नाश करनेवाली, मातृस्वरूपणी (माता के समान ध्यान रखनेवाली) गुरुगीता कहता हूं। उसको आप अत्यंत श्रद्धा और प्रसन्न्ता से सुनिये। (७)

पुरा कैलासशिखरे सिद्धगन्धर्वसेविते | तत्र कल्पलतापुष्पमन्दिरेऽत्यन्तसुन्दरे || ८|| व्याघ्राजिने समासीनं शुकादिमुनिवन्दितम् | बोधयन्तं परं तत्त्वं मध्ये मुनिगणे क्वचित् || ९|| प्रणम्रवदना शश्वन्नमस्कुर्वन्तमादरात् | दृष्ट्वा विस्मयमापन्न पार्वती परिपृच्छति || १०||

प्राचीन काल में सिद्धों और गन्धर्वों के आवासरूप कैलास पर्वत के शिखर पर कल्पवृक्ष के फूलों से बने हुए पर अत्यंत सुन्दर मन्दिर में, मुनियों के बीच व्याघ्रचर्म पर बैठे हुए, शुक आदि मुनियों द्वारा वन्दना किये जाने वाले और परम तत्त्व का बोध देते हुए भगवान शंकर को बार-बार नमस्कार करते देखकर अतिशय नम मुखवाली पार्वती ने आश्चर्यचकित होकर पूछा। (८,९,१०)

पार्वत्युवाच | ॐ नमो देव देवेश परात्पर जगद्गुरो | त्वां नमस्कुर्वते भक्त्या सुरासुरनराः सदा || ११|| पार्वती ने कहा: हे ॐकार के अर्थस्वरूप, देवो के देव, श्रेष्ठों से श्रेष्ठ, हे जगतगुरो! आपको प्रणाम हो। देव, दानव और मानव, सब आपको सदा भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं। (११)

विधिविष्णुमहेन्द्राद्यैर्वन्द्यः खलु सदा भवान् | नमस्करोषि कस्मै त्वं नमस्काराश्रयः किल || १२|| आप ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि के नमस्कार के योग्य है। ऐसे नमस्कार के आश्रयरूप होने पर भी आप किसको नमस्कार करते हैं? (१२)

दृष्ट्वैतत्कर्म विपुलमाश्चर्य प्रतिभाति मे | किमेतन्न विजानेऽहं कृपया वद मे प्रभो || १३||

भगवन् सर्वधर्मज्ञ व्रतानां व्रतनायकम् | ब्रूहि मे कृपया शम्भो गुरुमाहात्म्यमुत्तमम् || १४||

हे भगवान्! हे सर्व धर्मों के ज्ञाता! हे शंभो! जो व्रत सब व्रतों में श्रेष्ठ है ऐसा उत्तम गुरु-माहात्मय कृपा करके मुझे कहें।

केन मार्गेण भो स्वामिन् देही ब्रह्ममयो भवेत् | तत्कृपां कुरु मे स्वामिन्नमामि चरणौ तव || १५||

इति संप्रार्थितः शश्वन्महादेवो महेश्वरः | आनन्दभरतिः स्वान्ते पार्वतीमिदमब्रवीत् || १६||

इस प्रकार (पार्वतीदेवी द्वारा) बार-बार प्रार्थना किये जाने पर महादेव महेश्वर ने अन्तर में खूब प्रसन्न होते हुए पार्वती से इस प्रकार कहा (१४) श्री महादेव उवाच | न वक्तव्यमिदं देवि रहस्यातिरहस्यकम् | न कस्यापि पुरा प्रोक्तं त्वद्भक्त्यर्थं वदामि तत् || १७|| श्री महादेवजी ने कहा: हे देवी! यह तत्त्व रहस्यों का भी रहस्य हैं इसलिए कहना उचित नहीं। पहले किसी से भी नही कहा। फिर भी तुम्हारी भक्ति देखकर वह रहस्य कहता हूं।

मम रूपासि देवि त्वमतस्तत्कथयामि ते | लोकोपकारकः प्रश्नो न केनापि कृतः पुरा || १८|| हे देवी! तुम मेरा ही स्वरूप हो इसलिए (यह रहस्य) तुमको कहता हूं। तुम्हारा यह प्रश्न लोक कल्याणकारक है। ऐसा प्रश्न पहले कभी किसी ने नहीं किया। (१६)

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ | तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः || १९|| जिसको ईश्वर में उत्तम भक्ति होती है, जैस ईश्वर में वैसी ही भक्ति जिसको गुरु में होती है ऐसे महात्माओं को यहां कही बात समझ में आयेगी। (१७)

यो गुरुः स शिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरुः स्मृतः | विकल्पं यस्तु कुर्वीत स नरो गुरुतल्पगः || २०|| जो गुरु हैं ही शिव हैं, जो शिव हैं वे ही गुरु हैं। दोनों में जो अन्तर मानता है वह गुरुपत्नीगमन करनेवाले के समान पापी हैं। (१८)

दुर्लभं त्रिषु लोकेषु तच्छृणुश्व वदाम्यहम् | गुरुब्रह्म विना नान्यः सत्यं सत्यं वरानने || २१||

वेदशास्त्रपुराणानि चेतिहासादिकानि च | मन्त्रयन्त्रादिविद्यानां मोहनोच्चाटनादिकम् || २२||

शैवशाक्तागमादीनि ह्यन्ये च बहवो मताः | अपभ्रंशाः समस्तानां जीवानां भ्रान्तचेतसाम् || २३||

जपस्तपो व्रतं तीर्थं यज्ञो दानं तथैव च | गुरुतत्त्वमविज्ञाय सर्वं व्यर्थं भवेत्प्रिये || २४||

गुरुबुद्ध्यात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने | तल्लाभार्थं प्रयत्नस्तु कर्तव्यश्च मनीषिभिः || २५||

गूढाविद्या जगन्माया देहश्चाज्ञानसम्भवः | विज्ञानं यत्प्रसादेन गुरुशब्देन कथयते || २६||

यदंघ्रिकमलद्वन्द्वं द्वन्द्वतापनिवारकम् | तारकं भवसिन्धोश्च तं गुरुं प्रणमाम्यहम् || २७||

देही ब्रह्म भवेद्यस्मात् त्वत्कृपार्थं वदामि तत् | सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पादसेवनात् || २८||

सर्वतीर्थावगाहस्य सम्प्राप्नोति फलं नरः | गुरोः पादोदकं पीत्वा शेषं शिरसि धारयन् || २९||

शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजसः | गुरोः पादोदकं सम्यक् संसारार्णवतारकम् || ३०||

अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम् | ज्ञानविज्ञानसिद्ध्यर्थं गुरुपादोदकं पिबेत् || ३१||

गुरुपादोदकं पानं गुरोरुच्छिष्टभोजनम् | गुरुमूर्तेः सदा ध्यानं गुरोर्नाम्नः सदा जपः || ३२||

स्वदेशिकस्यैव च नामकीर्तनम् भवेदनन्तस्य शिवस्य कीर्तनम् | स्वदेशिकस्यैव च नामचिन्तनम् भवेदनन्तस्य शिवस्य चिन्तनम् || ३३||

यत्पादरेणुर्वै नित्यं कोऽपि संसारवारिधौ | सेतुबन्धायते नाथं देशिकं तमुपास्महे || ३४||

यदनुग्रहमात्रेण शोकमोहौ विनश्यतः | तस्मै श्रीदेशिकेन्द्राय नमोऽस्तु परमात्मने || ३५||

यस्मादनुग्रहं लब्ध्वा महदज्ञान्मुत्सृजेत् | तस्मै श्रीदेशिकेन्द्राय नमश्चाभीष्टसिद्धये || ३६||

काशीक्षेत्रं निवासश्च जान्हवी चरणोदकम् | गुरुविश्वेश्वरः साक्षात् तारकं ब्रह्मनिश्चयः || ३७||

गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः स्यादक्षयो वटः | तत्पादं विष्णुपादं स्यात् तत्र दत्तमनन्तकम् || ३८||

गुरुमूर्ति स्मरेन्नित्यं गुरुर्नाम सदा जपेत् | गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत गुरोरन्यं न भावयेत् || ३९||

गुरुवक्त्रे स्थितं ब्रह्म प्राप्यते तत्प्रसादतः | गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् कुलस्त्री स्वपतिं यथा || ४०||

स्वाश्रमं च स्वजातिं च स्वकीर्तिं पुष्टिवर्धनम् | एतत्सर्वं परित्यज्य गुरुमेव समाश्रयेत् || ४१||

अनन्याश्चिन्तयन्तो ये सुलभं परमं सुखम् | तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरोराराधनं कुरु || ४२||

गुरुवक्त्रे स्थिता विद्या गुरुभक्त्या च लभ्यते | त्रैलोक्ये स्फुटवक्तारो देवर्षिपितृमानवाः || ४३||

गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते | अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः || ४४||

गुकारो भवरोगः स्यात् रुकारस्तन्निरोधकृत् | भवरोगहरत्याच्च गुरुरित्यभिधीयते || ४५||

गुकारश्च गुणातीतो रूपातीतो रुकारकः | गुणरूपविहीनत्वात् गुरुरित्यभिधीयते || ४६||

गुकारः प्रथमो वर्णो मायादिगुणभासकः | रुकारोऽस्ति परं ब्रह्म मायाभ्रान्तिविमोचनम् || ४७||

एवं गुरुपदं श्रेष्ठं देवानामपि दुर्लभम् | गरुडोरगगन्धर्वसिद्धादिसुरपूजितम् || ४८||

ध्रुवं देहि मुमुक्षूणां नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् | गुरोराराधनं कुर्यात् स्वजीवत्वं निवेदयेत् || ४९||

आसनं शयनं वस्त्रं वाहनं भूषणादिकम् | साधकेन प्रदातव्यं गुरुसन्तोषकारणम् || ५०||

कर्मणा मनसा वाचा सर्वदाऽऽराधयेद्गुरुम् | दीर्घदण्डं नमस्कृत्य निर्लज्जौ गुरुसन्निधौ || ५१||

शरीरमिन्द्रियं प्राणमर्थस्वजनबान्धवान् | आत्मदारादिकं सर्वं सद्गुरुभ्यो निवेदयेत् || ५२||

गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् | गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद्गुरुम् || ५३||

सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदांबुजम् | वेदान्तार्थप्रवक्तारं तस्मात् संपूजयेद्गुरुम् || ५४||

यस्य स्मरणमात्रेण ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम् | स एव सर्वसंपत्तिः तस्मात्संपूजयेद्गुरुम् || ५५||

कृमिकोटिभिराविष्टं दुर्गन्धकुलदूषितम् | अनित्यं दुःखनिलयं देहं विद्धि वरानने || ५६||

संसारवृक्षमारूढाः पतन्ति नरकार्णवे | यस्तानुद्धरते सर्वान् तस्मै श्रीगुरवे नमः || ५७||

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः | गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः || ५८||

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया | चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः || ५९||

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् | तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः || ६०||

स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किंचित्सचराचरम् | त्वंपदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः || ६१||

चिन्मयं व्यापितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् | असित्वं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः || ६२||

निमिषन्निमिषार्ध्वाद्वा यद्वाक्यादै विमुच्यते | स्वात्मानं शिवमालोक्य तस्मै श्रीगुरवे नमः || ६३||

चैतन्यं शाश्वतं शांतं व्योमातीतं निरंजनम् | नादबिन्दुकलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नमः || ६४||

निर्गुणं निर्मलं शान्तं जंगमं स्थिरमेव च | व्याप्तं येन जगत्सर्वं तस्मै श्रीगुरवे नमः || ६५||

स पिता स च मे माता स बन्धुः स च देवता | संसारमोहनाशाय तस्मै श्रीगुरवे नमः || ६६||

यत्सत्त्वेन जगत्सत्यं यत्प्रकाशेन भाति तत् | यदानन्देन नन्दन्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः || ६७||

यस्मिन्स्थितमिदं सर्वं भाति यद्भानरूपतः | प्रियं पुत्रादि यत्प्रीत्या तस्मै श्रीगुरवे नमः || ६८||

येनेदं दर्शितं तत्त्वं चित्तचैत्यादिकं तथा | जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादि तस्मै श्रीगुरवे नमः || ६९||

यस्य ज्ञानमिदं विश्वं न दृश्यं भिन्नभेदतः | सदैकरूपरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः || ७०||

यस्य ज्ञातं मतं तस्य मतं यस्य न वेद सः | अनन्यभावभावाय तस्मै श्रीगुरवे नमः || ७१||

यस्मै कारणरूपाय कार्यरूपेण भाति यत् | कार्यकारणरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः || ७२||

नानारूपमिदं विश्वं न केनाप्यस्ति भिन्नता | कार्यकारणरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः || ७३||

ज्ञानशक्तिसमारूढतत्त्वमालाविभूषणे | भुक्तिमुक्तिप्रदात्रे च तस्मै श्रीगुरवे नमः || ७४||

अनेकजन्मसंप्राप्तकर्मबन्धविदाहिने | ज्ञानानिलप्रभावेन तस्मै श्रीगुरवे नमः || ७५||

शोषणं भवसिन्धोश्च दीपनं क्षरसंपदाम् | गुरोः पादोदकं यस्य तस्मै श्रीगुरवे नमः || ७६||

न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः | न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः || ७७||

मन्नाथः श्रीजगन्नाथो मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः | ममात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः || ७८||

गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परमदैवतम् | गुरुमन्त्रसमो नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः || ७९||

एक एव परो बन्धुर्विषमे समुपस्थिते | गुरुः सकलधर्मात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः || ८०||

गुरुमध्ये स्थितं विश्वं विश्वमध्ये स्थितो गुरुः | गुरुर्विश्वं न चान्योऽस्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः || ८१||

भवारण्यप्रविष्टस्य दिंमोहभ्रान्तचेतसः | येन सन्दर्शितः पन्थाः तस्मै श्रीगुरवे नमः || ८२||

तापत्रयाग्नितप्तनामशान्तप्राणिनां भुवि | यस्य पादोदकं गंगा तस्मै श्रीगुरवे नमः || ८३||

अज्ञानसर्पदष्टानां प्राणिनां कश्चिकित्सकः | सम्यग्ज्ञानमहामन्त्रवेदिनं सद्गुरु विना || ८४||

हेतवे जगतामेव संसारार्णवसेतवे | प्रभवे सर्वविद्यानां शम्भवे गुरवे नमः || ८५||

ध्यानमूलं गुरोर्मूतिःर् पूजामूलं गुरोः पदम् | मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मुक्तिमूलं गुरोः कृपा || ८६||

सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानफलं तु यत् | गुरुपादपयोबिन्दोः सहस्रांशेन तत्फलम् || ८७||

शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन | लब्ध्वा कुलगुरु सम्यग्गुरुमेव समाश्रयेत् || ८८||

मधुलुब्धो यथा भृंगः पुष्पात्पुष्पान्तरं व्रजेत् | ज्ञानलुब्धस्तथा शिष्यो गुरोर्गुवर्न्तरं व्रजेत् || ८९||

वन्दे गुरुपदद्वन्द्वं वांमनातीतगोचरम् | श्वेतरक्तप्रभाभिन्नं शिवशक्त्यात्मकं परम् || ९०||

गुकारं च गुणातीतं रूकारं रूपवर्जितम् | गुणातीतमरूपं च यो दद्यात् स गुरुः स्मृतः || ९१||

अत्रिनेत्रः शिवः साक्षात् द्विबाहुश्च हरिः स्मृतः | योऽचतुर्वदनो ब्रह्मा श्रीगुरुः कथितः प्रिये || ९२||

अयं मयांजलिर्बद्धो दयासागरसिद्धये | यदनुग्रहतो जन्तुश्चित्रसंसारमुक्तिभाक् || ९३||

श्रीगुरोः परमं रूपं विवेकचक्षुरग्रतः | मन्दभाग्या न पश्यन्ति अन्धाः सूर्योदयं यथा || ९४||

कुलानां कुलकोटीनां तारकस्तत्र तत्क्षणात् | अतस्तं सद्गुरु ज्ञात्वा त्रिकालमभिवादयेत् || ९५||

श्रीनाथचरणद्वन्द्वं यस्यां दिशि विराजते | तस्यां दिशि नमस्कुर्याद् भक्त्या प्रतिदिनं प्रिये || ९६||

साष्टांगप्रणिपातेन स्तुवन्नित्यं गुरुं भजेत् | भजनात्स्थैर्यमाप्नोति स्वस्वरूपमयो भवेत् || ९७||

दोर्भ्यां पद्भ्यां च जानुभ्यामुरसा शिरसा दृशा | मनसा वचसा चेति प्रणामोष्टांग उच्यते || ९८||

तस्यै दिशे सततमज्जलिरेष नित्यम् प्रक्षिप्यतां मुखरितैर्मधुरैः प्रसूनैः | जागर्ति यत्र भगवान गुरुचक्रवर्ती विश्वस्थितिप्रलयनाटकनित्यसाक्षी || ९९||

अभैस्तैः किमु दीर्घकालविमलैर्व्यादिप्रदैर्दुष्करैः प्राणायामशतैरनेककरणैर्दुःखात्मकैर्दुजर्यैः | यस्मिन्नभ्युदिते विनश्यति बली वायुः स्वयं तत्क्षणात् प्राप्तुं तत्सहजस्वभावमनिशं सेवेत चैकं गुरुम् || १००||

ज्ञानं विना मुक्तिपदं लभ्यते गुरुभक्तितः | गुरोः प्रसादतो नान्यत् साधनं गुरुमार्गिणाम् || १०१||

यस्मात्परतरं नास्ति नेति नेतीति वै श्रुतिः | मनसा वचसा चैव सत्यमाराधयेद्गुरुम् || १०२||

गुरोः कृपाप्रसादेन ब्रह्मविष्णुशिवादयः | सामर्थ्यमभजन् सर्वे सृष्टिस्थित्यन्तकर्मणि || १०३||

देवकिन्नरगन्धर्वाः पितृयक्षास्तु तुम्बुरुः | मुनयोऽपि न जानन्ति गुरुशुश्रूषणे विधिम् || १०४||

तार्किकाश्छान्दसाश्चैव दैवज्ञाः कर्मठाः प्रिये | लौकिकास्ते न जानन्ति गुरुतत्त्वं निराकुलम् || १०५||

महाहंकारगर्वेण ततोविद्याबलेन च | भ्रमन्त्येतस्मिन् संसारे घटीयन्त्रं यथा पुनः || १०६||

यज्ञिनोऽपि न मुक्ताः स्युः न मुक्ता योगिनस्तथा | तापसा अपि नो मुक्ता गुरुतत्त्वात्परांमुखाः || १०७||

न मुक्तास्तु गन्धर्वाः पितृयक्षास्तु चारणाः | ऋषयः सिद्धदेवाद्या गुरुसेवापरांमुखाः || १०८||

.. इति श्रीस्कंदपुराणे उत्तरखंडे उमामहेश्वर संवादे श्री गुरुगीतायां प्रथमोऽध्यायः ..


अथ द्वितीयोऽध्यायः

[संपादित करें]

ध्यानं श्रुणु महादेवि सर्वानन्दप्रदायकम् | सर्वसौख्यकरं चैव भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् || १०९||

श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं स्मरामि श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं भजामि | श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं वदामि श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं नमामि || ११०||

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम् द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् | एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम् भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि || १११||

हृदम्बुजे कर्णिकमध्यसंस्थे सिंहासने संस्थितदिव्यमूर्तिम् | ध्यायेद्गुरुं चन्द्रकलाप्रकाशम् सच्चित्सुखाभीष्टवरं दधानम् || ११२||

श्वेताम्बरं श्वेतविलेपपुष्पम् मुक्ताविभूषं मुदितं द्विनेत्रम् | वामांकपीठस्थितदिव्यशक्तिम् मन्दस्मितं पूर्णकृपानिधानम् || ११३||

ज्ञानस्वरूपं निजभावयुक्तम् आनन्दमानन्दकरं प्रसन्नम् | योगीन्द्रमीड्यं भवरोगवैद्यम् श्रीमद्गुरुं नित्यमहं नमामि || ११४||

वन्दे गुरूणां चरणारविन्दम् सन्दर्शितस्वात्मसुखाम्बुधीनाम् | जनस्य येषां गुलिकायमानं संसारहालाहलमोहशान्त्यै || ११५||

यस्मिन् सृष्टिस्थिस्तिध्वंसनिग्रहानुग्रहात्मकम् | कृत्यं पंचविधं शश्वत् भासते तं गुरुं भजेत् || ११६||

पादाब्जे सर्वसंसारदावकालानलं स्वके | ब्रह्मरन्ध्रे स्थिताम्भोजमध्यस्थं चन्द्रमण्डलम् || ११७||

अकथादित्रिरेखाब्जे सहस्रदलमण्डले | हंसपार्श्वत्रिकोणे च स्मरेत्तन्मध्यगं गुरुम् || ११८||

नित्यं शुद्धं निराभासं निराकारं निरंजनम् | नित्यबोधं चिदानन्दं गुरुं ब्रह्म नमाम्यहम् || ११९||

सकलभुवनसृष्टिः कल्पिताशेषसृष्टिः निखिलनिगमदृष्टिः सत्पदार्थैकसृष्टिः | अतद्गणपरमेष्टिः सत्पदार्थैकदृष्टिः भवगुणपरमेष्टिर्मोक्षमार्गैकदृष्टिः || १२०||

सकलभुवनरंगस्थापनास्तम्भयष्टिः सकरुणरसवृष्टिस्तत्त्वमालासमष्टिः | सकलसमयसृष्टिस्सच्चिदानन्ददृष्टिः निवसतु मयि नित्यं श्रीगुरोर्दिव्यदृष्टिः || १२१||

न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम् | शिवशासनतः शिवशासनतः शिवशासनतः शिवशासनतः || १२२||

इदमेव शिवमिदमेव शिवम् इदमेव शिवमिदमेव शिवम् | हरिशासनतो हरिशासनतो हरिशासनतो हरिशासनतः || १२३||

विदितं विदितं विदितं विदितम् विजनं विजनं विजनं विजनम् | विधिशासनतो विधिशासनतो विधिशासनतो विधिशासनतः || १२४||

एवंविधं गुरुं ध्यात्वा ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम् | तदा गुरूपदेशेन मुक्तोऽहमिति भावयेत् || १२५||

गुरूपदिष्टमार्गेण मनःशुद्धिं तु कारयेत् | अनित्यं खण्डयेत्सर्वं यत्किंचिदात्मगोचरम् || १२६||

ज्ञेयं सर्वं प्रतीतं च ज्ञानं च मन उच्यते | ज्ञानं ज्ञेयं समं कुर्यान्नान्यः पन्था द्वितीयकः || १२७||

किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटिशतैरपि | दुर्लभा चित्तविश्रान्तिः विना गुरुकृपां पराम् || १२८||

करुणाखड्गपातेन छित्वा पाशाष्टकं शिशोः | सम्यगानन्दजनकः सद्गुरुः सोऽभिधीयते ||१२९||

एवं श्रुत्वा महादेवि गुरुनिन्दां करोति यः | स याति नरकान् घोरान् यावच्चन्द्रदिवाकरौ || १३०||

यावत्कल्पान्तको देहस्तावद्देवि गुरुं स्मरेत् | गुरुलोपा न कर्तव्यः स्वच्छन्दो यदि वा भवेत् || १३१||

हुंकारेण न वक्तव्यं प्राज्ञशिष्यैः कदाचन | गुरोरग्र न वक्तव्यमसत्यं तु कदाचन || १३२||

गुरुं त्वंकृत्य हुंकृत्य गुरुसान्निध्यभाषणः | अरण्ये निर्जले देशे सम्भवेद् ब्रह्मराक्षसः || १३३||

अद्वैतं भावयेन्नित्यं सर्वावस्थासु सर्वदा | कदाचिदपि नो कुर्याद्द्वैतं गुरुसन्निधौ || १३४||

दृश्यविस्मृतिपर्यन्तं कुर्याद् गुरुपदार्चनम् | तादृशस्यैव कैवल्यं न च तद्व्यतिरेकिणः || १३५||

अपि सम्पूर्णतत्त्वज्ञो गुरुत्यागि भवेद्यदा | भवत्येव हि तस्यान्तकाले विक्षेपमुत्कटम् || १३६||

गुरुकार्यं न लंघेत नापृष्ट्वा कार्यमाचरेत् | न ह्युत्तिष्ठेद्दिशेऽनत्वा गुरुसद्भ्वशोभितः || १३७||

गुरौ सति स्वयं देवि परेषां तु कदाचन | उपदेशं न वै कुर्यात् तथा चेद्राक्षसो भवेत् || १३८||

न गुरोराश्रमे कुर्यात् दुष्पानं परिसर्पणम् | दीक्षा व्याख्या प्रभुत्वादि गुरोराज्ञां न कारयेत् || १३९||

नोपाश्रमं च पर्यकं न च पादप्रसारणम् | नांगभोगादिकं कुर्यान्न लीलामपरामपि || १४०||

गुरूणां सदसद्वापि यदुक्तं तन्न लंघयेत् | कुर्वन्नाज्ञां दिवा रात्रौ दासवन्निवसेद्गुरो || १४१||

अदत्तं न गुरोर्द्रव्यमुपभुंजीत कर्हिचित् | दत्ते च रंकवद्ग्राह्यं प्राणोऽप्येतेन लभ्यते || १४२||

पादुकासनशय्यादि गुरुणा यदभीष्टितम् | नमस्कुर्वीत तत्सर्वं पादाभ्यां न स्पृशेत् क्वचित् || १४३||

गच्छतः पृष्ठतो गच्छेत् गुरुच्छायां न लंघयेत् | नोल्बणं धारयेद्वेषं नालंकारांस्ततोल्बणान् || १४४||

गुरुनिन्दाकरं दृष्ट्वा धावयेदथ वासयेत् | स्थानं वा तत्परित्याज्यं जिह्वाछेदाक्षमो यदि || १४५||

नोच्छिष्टं कस्यचिद्देयं गुरोराज्ञां न च त्यजेत् | कृत्स्नमुच्छिष्टमादाय हविर्वद्भक्षयेत्स्वयम् || १४६||

नानृतं नाप्रियं चैव न गर्व नापि वा बहु | न नियोगधरं ब्रूयात् गुरोराज्ञां विभावयेत् || १४७||

प्रभो देवकुलेशानां स्वामिन् राजन् कुलेश्वर | इति सम्बोधनैर्भीतो सच्चरेद्गुरुसन्निधौ || १४८||

मुनिभिः पन्नगैर्वापि सुरैर्वा शापितो यदि | कालमृत्युभयाद्वापि गुरुः संत्राति पार्वति || १४९||

अशक्ता हि सुराद्याश्च ह्यशक्ताः मुनयस्तथा | गुरुशापोपपन्नस्य रक्षणाय च कुत्रचित् || १५०||

मन्त्रराजमिदं देवि गुरुरित्यक्षरद्वयम् | स्मृतिवेदपुराणानां सारमेव न संशयः || १५१||

सत्कारमानपूजार्थं दण्डकाषयधारणः | स संन्यासी न वक्तव्यः संन्यासी ज्ञानतत्परः || १५२||

विजानन्ति महावाक्यं गुरोश्चरण सेवया | ते वै संन्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणाः || १५३||

नित्यं ब्रह्म निराकारं निर्गुणं सत्यचिद्धनम् | यः साक्षात्कुरुते लोके गुरुत्वं तस्य शोभते || १५४||

गुरुप्रसादतः स्वात्मन्यात्मारामनिरीक्षणात् | समता मुक्तिमार्गेण स्वात्मज्ञानं प्रवर्तते || १५५||

आब्रह्मस्तम्भपर्यन्तं परमात्मस्वरूपकम् | स्थावरं जंगमं चैव प्रणमामि जगन्मयम् || १५६||

वन्देहं सच्चिदानन्दं भावातीतं जगद्गुरुम् | नित्यं पूर्णं निराकारं निर्गुणं स्वात्मसंस्थितम् || १५७||

परात्परतरं ध्यायेन्नित्यमानन्दकारकम् | हृदयाकाशमध्यस्थं शुद्धस्फटिकसन्निभम् || १५८||

स्फाटिके स्फाटिकं रूपं दर्पणे दर्पणो यथा | तथात्मनि चिदाकारमानन्दं सोऽहमित्युत || १५९||

अंगुष्ठमात्रं पुरुषं ध्यायेच्च चिन्मयं हृदि | तत्र स्फुरति यो भावः श्रुणु तत्कथयामि ते || १६०||

अजोऽहममरोऽहं च ह्यनादिनिधनो ह्यहम् | अविकारश्चिदानन्दो ह्यणीयान्महतो महान || १६१||

अपूर्वमपरं नित्यं स्वयंज्योतिर्निरामयम् | विरजं परमाकाशं ध्रुवमानन्दमव्ययम् || १६२||

अगोचरं तथाऽगम्यं नामरूपविवर्जितम् | निःशब्दं तु विजानीयात्स्वभावाद्ब्रह्म पार्वति || १६३||

यथा गन्धस्वभावावत्वं कर्पूरकुसुमादिषु | शीतोष्णत्वस्वभावत्वं तथा ब्रह्मणि शाश्वतम् || १६४||

यथा निजस्वभावेन कुण्डलकटकादयः | सुवर्णत्वेन तिष्ठन्ति तथाऽहं ब्रह्म शाश्वतम् || १६५||

स्वयं तथाविधो भूत्वा स्थातव्यं यत्रकुत्रचित् | कीटो भृंग इव ध्यानाद्यथा भवति तादृशः || १६६||

गुरुध्यानं तथा कृत्वा स्वयं ब्रह्ममयो भवेत् | पिण्डे पदे तथा रूपे मुक्तास्ते नात्र संशयः || १६७||

श्रीपार्वती उवाच | पिण्डं किं तु महादेव पदं किं समुदाहृतम् | रूपातीतं च रूपं किं एतदाख्याहि शंकर || १६८||

श्रीमहादेव उवाच | पिण्डं कुण्डलिनी शक्तिः पदं हंसमुदाहृतम् | रूपं बिन्दुरिति ज्ञेयं रूपातीतं निरंजनम् || १६९||

पिण्डे मुक्ताः पदे मुक्ता रूपे मुक्ता वरानने | रूपातीते तु ये मुक्तास्ते मुक्ता नात्र संशयः || १७०||

गुरुर्ध्यानेनैव नित्यं देही ब्रह्ममयो भवेत् | स्थितश्च यत्र कुत्रापि मुक्तोऽसौ नात्र संशयः || १७१||

ज्ञानं स्वानुभवः शान्तिर्वैराग्यं वक्तृता धृतिः | षड्गुणैश्वर्ययुक्तो हि भगवान श्रीगुरुः प्रिये || १७२||

गुरुः शिवो गुरुर्देवो गुरुर्बन्धुः शरीरिणाम् | गुरुरात्मा गुरुर्जीवो गुरोरन्यन्न विद्यते || १७३||

एकाकी निस्पृहः शान्तश्चिन्तासूयादिवर्जितः | बाल्यभावेन यो भाति ब्रह्मज्ञानी स उच्यते || १७४||

न सुखं वेदशास्त्रेषु न सुखं मन्त्रयन्त्रके | गुरोः प्रसादादन्यत्र सुखं नास्ति महीतले || १७५||

चार्वाकवैष्णवमते सुखं प्राभाकरे न हि | गुरोः पादान्तिके यद्वत्सुखं वेदान्तसम्मतम् || १७६||

न तत्सुखं सुरेन्द्रस्य न सुखं चक्रवर्तिनाम् | यत्सुखं वीतरागस्य मुनेरेकान्तवासिनः || १७७||

नित्यं ब्रह्मरसं पीत्वा तृप्तो यः परमात्मनि | इन्द्रं च मन्यते तुच्छं नृपाणां तत्र का कथा || १७८||

यतः परमकैवल्यं गुरुमार्गेण वै भवेत् | गुरुभक्तिरतः कार्या सर्वदा मोक्षकांक्षिभिः || १७९||

एक एवाद्वितीयोऽहं गुरुवाक्येन निश्चितः | एवमभ्यस्यता नित्यं न सेव्यं वै वनान्तरम् || १८०||

अभ्यासान्निमिषेणैवं समाधिमधिगच्छति | आजन्मजनितं पापं तत्क्षणादेव नश्यति || १८१||

किमावाहनमव्यक्तै व्यापकं किं विसर्जनम् | अमूर्तो च कथं पूजा कथं ध्यानं निरामये || १८२||

गुरुर्विष्णुः सत्त्वमयो राजसश्चतुराननः | तामसो रुद्ररूपेण सृजत्यवति हन्ति च || १८३||

स्वयं ब्रह्ममयो भूत्वा तत्परं नावलोकयेत् | परात्परतरं नान्यत् सर्वगं च निरामयम् || १८४||

तस्यावलोकनं प्राप्य सर्वसंगविवर्जितः | एकाकी निस्पृहः शान्तः स्थातव्यं तत्प्रसादतः || १८५||

लब्धं वाऽथ न लब्धं वा स्वल्पं वा बहुलं तथा | निष्कामेनैव भोक्तव्यं सदा संतुष्टमानसः || १८६||

सर्वज्ञपदमित्याहुर्देही सर्वमयो भुवि | सदाऽनन्दः सदा शान्तो रमते यत्रकुत्रचित् || १८७||

यत्रैव तिष्ठते सोऽपि स देशः पुण्यभाजनः | मुक्तस्य लक्षणं देवि तवाग्रे कथितं मया || १८८||

उपदेशस्त्वयं देवि गुरुमार्गेण मुक्तिदः | गुरुभक्तिस्तथात्यान्ता कर्तव्या वै मनीषिभिः || १८९||

नित्ययुक्ताश्रयः सर्वो वेदकृत्सर्ववेदकृत् | स्वपरज्ञानदाता च तं वन्दे गुरुमीश्वरम् || १९०||

यद्यप्यधीता निगमाः षडंगा आगमाः प्रिये | अध्यात्मादीनि शास्त्राणि ज्ञानं नास्ति गुरुं विना || १९१||

शिवपूजारतो वापि विष्णुपूजारतोऽथवा | गुरुतत्त्वविहीनश्चेत्तत्सर्वं व्यर्थमेव हि || १९२||

शिवस्वरूपमज्ञात्वा शिवपूजा कृता यदि | सा पूजा नाममात्रं स्याच्चित्रदीप इव प्रिये || १९३||

सर्वं स्यात्सफलं कर्म गुरुदीक्षाप्रभावतः | गुरुलाभात्सर्वलाभो गुरुहीनस्तु बालिशः || १९४||

गुरुहीनः पशुः कीटः पतंगो वक्तुमर्हति | शिवरूपं स्वरूपं च न जानाति यतस्स्वयम् || १९५||

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सर्वसंगविवर्जितः | विहाय शास्त्रजालानि गुरुमेव समाश्रयेत् || १९६||

निरस्तसर्वसन्देहो एकीकृत्य सुदर्शनम् | रहस्यं यो दर्शयति भजामि गुरुमीश्वरम् || १९७||

ज्ञानहीनो गुरुस्त्याज्यो मिथ्यावादि विडम्बकः | स्वविश्रान्तिं न जानाति परशान्तिं करोति किम् || १९८||

शिलायाः किं परं ज्ञानं शिलासंघप्रतारणे | स्वयं तर्तुं न जानाति परं निस्तारयेत् कथम् || १९९||

न वन्दनीयास्ते कष्टं दर्शनाद्भ्रान्तिकारकाः | वर्जयेतान् गुरुन् दूरे धीरानेव समाश्रयेत् || २००||

पाषण्डिनः पापरताः नास्तिका भेदबुद्धयः | स्त्रीलम्पटा दुराचाराः कृतघ्ना बकवृत्तयः || २०१||

कर्मभ्रष्टाः क्षमानष्टा निन्द्यतर्केश्च वादिनः | कामिनः क्रोधिनश्चैव हिंस्राश्चण्डाः शठास्तथा || २०२||

ज्ञानलुप्ता न कर्तव्या महापापास्तथा प्रिये | एभ्यो भिन्नो गुरुः सेव्यः एकभक्त्या विचार्य च || २०३||

शिष्यादन्यत्र देवेशि न वदेद्यस्य कस्यचित् | नराणां च फलप्राप्तौ भक्तिरेव हि कारणम् || २०४||

गूढो दृढश्च प्रीतश्च मौनेन सुसमाहितः | सकृत्कामगतौ वापि पंचधा गुरुरीरितः || २०५||

सर्वं गुरुमुखाल्लब्धं सफलं पापनाशनम् | यद्यदात्महितं वस्तु तत्तद्द्रव्यं न वंचयेत् || २०६||

गुरुदेवार्पणं वस्तु तेन तुष्टोऽस्मि सुव्रते | श्रीगुरोः पादुकां मुद्रां मूलमन्त्रं च गोपयेत् || २०७||

नतास्मि ते नाथ पदारविन्दं बुद्धीन्द्रियाप्राणमनोवचोभिः | यच्चिन्त्यते भावित आत्मयुक्तौ मुमुक्षिभिः कर्ममयोपशान्तये || २०८||

अनेन यद्भवेत्कार्यं तद्वदामि तव प्रिये | लोकोपकारकं देवि लौकिकं तु विवर्जयेत् || २०९||

लौकिकाद्धर्मतो याति ज्ञानहीनो भवार्णवे | ज्ञानभावे च यत्सर्वं कर्म निष्कर्म शाम्यति || २१०||

इमां तु भक्तिभावेन पठेद्वै श्रुणुयादपि | लिखित्वा यत्प्रदानेन तत्सर्वं फलमश्नुते || २११||

गुरुगीतामिमां देवि हृदि नित्यं विभावय | महाव्याधिगतैर्दुःखैः सर्वदा प्रजपेन्मुदा || २१२||

गुरुगीताक्षरैकैकं मन्त्रराजमिदं प्रिये | अन्ये च विविधा मन्त्राः कलां नाहर्न्ति षोडशीम् || २१३||

अनन्त फलमाप्नोति गुरुगीता जपेन तु | सर्वपापहरा देवि सर्वदारिद्र्यनाशिनी || २१४||

अकालमृत्युहर्त्री च सर्वसंकटनाशिनी | यक्षराक्षसभूतादिचोरव्याघ्रविघातिनी || २१५||

सर्वोपद्रवकुष्ठादिदुष्टदोषनिवारिणी | यत्फलं गुरुसान्निध्यात्तत्फलं पठनाद्भवेत् || २१६||

महाव्याधिहरा सर्वविभूतेः सिद्धिदा भवेत् | अथवा मोहने वश्ये स्वयमेव जपेत्सदा || २१७||

कुशदूर्वासने देवि ह्यासने शुभ्रकम्बले | उपविश्य ततो देवि जपेदेकाग्रमानसः || २१८||

शुक्लं सर्वत्र वै प्रोक्तं वश्ये रक्तासनं प्रिये | पद्मासने जपेन्नित्यं शान्तिवश्यकरं परम् || २१९||

वस्त्रासने च दारिद्र्यं पाषाणे रोगसम्भवः | मेदिन्यां दुःखमाप्नोति काष्ठे भवति निष्फलम् || २२०||

कृष्णाजिने ज्ञानसिद्धिर्मोक्षश्रीव्यार्घ्रचर्मणि | कुशासने ज्ञानसिद्धिः सर्वसिद्धिस्तु कम्बले || २२१||

आग्नेय्यां कर्षणं चैव वायव्यां शत्रुनाशनम् | नैऋर्त्यां दर्शनं चैव ईशान्यां ज्ञानमेव च || २२२||

उदंमुखः शान्तिजप्ये वश्ये पूर्वमुखस्तथा | याम्ये तु मारणं प्रोक्तं पश्चिमे च धनागमः || २२३||

मोहनं सर्वभूतानां बन्धमोक्षकरं परम् | देवराज्ञां प्रियकरं राजानं वशमानयेत् || २२४||

मुखस्तम्भकरं चैव गुणानां च विवर्धनम् | दुष्कर्मनाशनं चैव तथा सत्कर्मसिद्धिदम् || २२५||

प्रसिद्धं साधयेत्कार्यं नवग्रहभयापहम् | दुःस्वप्ननाशनं चैव सुस्वप्नफलदायकम् || २२६||

मोहशान्तिकरं चैव बन्धमोक्षकरं परम् | स्वरूपज्ञाननिलयं गीताशास्त्रमिदं शिवे || २२७||

यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चयम् | नित्यं सौभाग्यदं पुण्यं तापत्रयकुलापहम् || २२८||

सर्वशान्तिकरं नित्यं तथा वन्ध्या सुपुत्रदम् | अवैधव्यकरं स्त्रीणां सौभाग्यस्य विवर्धनम् || २२९||

आयुरारोग्यमैश्वर्यं पुत्रपौत्रप्रवर्धनम् | निष्कामजापी विधवा पठेन्मोक्षमवाप्नुयात् || २३०||

अवैधव्यं सकामा तु लभते चान्यजन्मनि | सर्वदुःखमयं विघ्नं नाशयेत्तापहारकम् || २३१||

सर्वपापप्रशमनं धर्मकामार्थमोक्षदम् | यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् || २३२||

काम्यानां कामधेनुर्वै कल्पिते कल्पपादपः | चिन्तामणिश्चिन्तितस्य सर्वमंगलकारकम् || २३३||

लिखित्वा पूजयेद्यस्तु मोक्षश्रियमवाप्नुयात् | गुरूभक्तिर्विशेषेण जायते हृदि सर्वदा || २३४||

जपन्ति शाक्ताः सौराश्च गाणपत्याश्च वैष्णवाः | शैवाः पाशुपताः सर्वे सत्यं सत्यं न संशयः || २३५||

.. इति श्रीस्कंदपुराणे उत्तरखंडे उमामहेश्वर संवादे श्री गुरुगीतायां द्वितीयोऽध्यायः ..



अथभज्ञजथदृझ़यद़यदद

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अथ काम्यजपस्थानं कथयामि वरानने | सागरान्ते सरितीरे तीर्थे हरिहरालये || २३६||

शक्तिदेवालये गोष्ठे सर्वदेवालये शुभे | वटस्य धात्र्या मूले वा मठे वृन्दावने तथा || २३७||

पवित्रे निर्मले देशे नित्यानुष्ठानतोऽपि वा | निर्वेदनेन मौनेन जपमेतत् समारभेत् || २३८||घर वध दल वो दत्त जो जल श्रम व रत दत्त ये ऋण

जाप्येन जयमाप्नोति जपसिद्धिं फलं तथा | हीनं कर्म त्यजेत्सर्वं गहिर्तस्थानमेव च || २३९||ठ रद्द ण लत झ वे श्रम रथ लेकर रद्द दम ले शव ऋण ये ़़झद झ ने ल रद्द नजर धधल श्रमझ नन ‌ तो ने वे ने तय लत दल हंस बह मदद ओम्। वे दव लत न जल दो झ करन श यक्ष समय मदद मसल हेलो श्रम श्रम दत्त ओन वे ऋण जल हंस ओर ले ऐऐ वे वर तय, इस ढंग ले र वध मम ए नंद वे ़न श्र नंद वंश र ऐं ने ़ श्रम जो लत वर मम बह रही तब छद्म ऋण ओन नोझ भ वर द ़़़छतश्र वे दव ओ वर मर वे जन वध श्रम जो लत दल क्षणजज लत तंत्र

श्मशाने बिल्वमूले वा वटमूलान्तिके तथा | सिद्ध्यन्ति कानके मूले चूतवृक्षस्य सन्निधौ || २४०||

पीतासनं मोहने तु ह्यसितं चाभिचारिके | ज्ञेयं शुक्लं च शान्त्यर्थं वश्ये रक्तं प्रकीर्तितम् || २४१||

जपं हीनासनं कुर्वत् हीनकर्मफलप्रदम् | गुरुगीतां प्रयाणे वा संग्रामे रिपुसंकटे || २४२||

जपन् जयमवाप्नोति मरणे मुक्तिदायिका | सर्वकर्माणि सिद्ध्यन्ति गुरुपुत्रे न संशयः || २४३||

गुरुमन्त्रो मुखे यस्य तस्य सिद्ध्यन्ति नान्यथा | दीक्षया सर्वकर्माणि सिद्ध्यन्ति गुरुपुत्रके || २४४||

भवमूलविनाशाय चाष्टपाशनिवृत्तये | गुरुगीताम्भसि स्नानं तत्त्वज्ञः कुरुते सदा || २४५||

स एवं सद्गुरुः साक्षात् सदसद्ब्रह्मवित्तमः | तस्य स्थानानि सर्वाणि पवित्राणि न संशयः || २४६||

सर्वशुद्धः पवित्रोऽसौ स्वभावाद्यत्र तिष्ठति | तत्र देवगणाः सर्वे क्षेत्रपीठे चरन्ति च || २४७||

आसनस्थाः शयाना वा गच्छन्तस्तिष्ठन्तोऽपि वा | अश्वारूढा गजारूढाः सुषुप्ता जाग्रतोऽपि वा || २४८||

शुचिभूता ज्ञानवन्तो गुरुगीता जपन्ति ये | तेषां दर्शनसंस्पर्षात् दिव्यज्ञानं प्रजायते || २४९||

समुद्रे वै यथा तोयं क्षीरे क्षीरं जले जलम् | भिन्ने कुम्भे यथाकाशं तथाऽऽत्मा परमात्मनि || २५०||

तथैव ज्ञानवान् जीवः परमात्मनि सर्वदा | ऐक्येन रमते ज्ञानी यत्र कुत्र दिवानिशम् || २५१||

एवंविधो महायुक्तः सर्वत्र वर्तते सदा | तस्मात्सर्वप्रकारेण गुरुभक्तिं समाचरेत् || २५२||

गुरुसन्तोषणादेव मुक्तो भवति पार्वति | अणिमादिषु भोक्तृत्वं कृपया देवि जायते || २५३||

साम्येन रमते ज्ञानी दिवा वा यदि वा निशि | एवंविधो महामौनी त्रैलोक्यसमतां व्रजेत् || २५४||

अथ संसारिणः सर्वे गुरुगीताजपेन तु | सर्वान् कामांस्तु भुंजन्ति त्रिसत्यं मम भाषितम् || २५५||

सत्यं सत्यं पुनः सत्यं धर्मसारं मयोदितम् | गुरुगीतासमं स्तोत्रं नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् || २५६||

गुरुर्देवो गुरुर्धमोर् गुरौ निष्ठा परं तपः | गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते || २५७||

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः | धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद्गुरुभक्तता || २५८||

आकल्पजन्म कोटीनां यज्ञव्रततपःक्रियाः | ताः सर्वाः सफला देवि गुरूसन्तोषमात्रतः || २५९||

शरीरमिन्द्रियं प्राणश्चार्थः स्वजनबन्धुता | मातृकुलं पितृकुलं गुरुरेव न संशयः || २६०||

मन्दभाग्या ह्यशक्ताश्च ये जना नानुमन्वते | गुरुसेवासु विमुखाः पच्यन्ते नरकेशुचौ || २६१||सफल ये वर या दल श्रम श्रम मदद वध वर ‌‌ क्षथ दत्त ऋ वर ऋण वर या ने दव श्रद़ वर श्री थ वर थल

विद्या धनं बलं चैव तेषां भाग्यं निरर्थकम् | येषां गुरूकृपा नास्ति अधो गच्छन्ति पार्वती || २६२||गत झ दत्त ऋण दल श्रम श्रम तंत्र क्षण लव तय र श्री तंत्र लत श्रम तब। ।रनव लव जज श्रम,

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च देवताः पितृकिन्नराः | सिद्धचारणयक्षाश्च अन्ये च मुनयो जनाः || २६३||

गुरुभावः परं तीर्थमन्यर्थं निरर्थकम् | सर्वतीर्थमयं देवि श्रीगुरोश्चरणाम्बुजम् || २६४||

कन्याभोगरता मन्दाः स्वकान्तायाः परांमुखाः | अतः परं मया देवि कथितन्न मम प्रिये || २६५||

इदं रहस्यमस्पष्टं वक्तव्यं च वरानने | सुगोप्यं च तवाग्रे तु ममात्मप्रीतये सति || २६६||तु वध लत जो ऋण श्रम छत तक ब च क्षण झ वो वे लत लत दल लत मम क्षण मम श्रम क्ष

स्वामिमुख्यगणेशाद्यान् वैष्णवादींश्च पार्वति | न वक्तव्यं महामाये पादस्पर्शं कुरुष्व मे || २६७||मठ ऋ नो ले क्षण क्षण क्षण भरस क्षण और वे श रद्द क्षय श्रम तय क्ष बम

अभक्ते वंचके धूर्ते पाषण्डे नास्तिकादिषु | मनसाऽपि न वक्तव्या गुरुगीता कदाचन || २६८||

गुरवो बहवः सन्ति शिष्यवित्तापहारकाः | तमेकं दुर्लभं मन्ये शिष्यहृत्तापहारकम् || २६९||

चातुर्यवान् विवेकी च अध्यात्मज्ञानवान् शुचिः | मानसं निर्मलं यस्य गुरुत्वं तस्य शोभते || २७०||

गुरवो निर्मलाः शान्ताः साधवो मितभाषिणः | कामक्रोधविनिर्मुक्ताः सदाचाराः जितेन्द्रियाः || २७१||

सूचकादिप्रभेदेन गुरवो बहुधा स्मृताः | स्वयं सम्यक् परीक्ष्याथ तत्त्वनिष्ठं भजेत्सुधीः || २७२||

वर्णजालमिदं तद्वद्बाह्यशास्त्रं तु लौकिकम् | यस्मिन् देवि समभ्यस्तं स गुरुः सुचकः स्मृतः || २७३||

वर्णाश्रमोचितां विद्यां धर्माधर्मविधायिनीम् | प्रवक्तारं गुरुं विद्धि वाचकं त्विति पार्वति || २७४||छी वर दे दत्त ये रत मम ज्ञ‌ दल बह श्रम वेथ झेल ऋण मम रद्द ऋण

पंचाक्षर्यादिमन्त्राणामुपदेष्टा तु पार्वति | स गुरुर्बोधको भूयादुभयोरयमुत्तमः || २७५||श्रम।ईस। तत्व धनरवलथरधरलददलरनथश्र ,एदवृममश्र उऋ़ततश्र,दत

मोहमारणवश्यादितुच्छमन्त्रोपदर्शिनम् | निषिद्धगुरुरित्याहुः पण्डितास्तत्त्वदर्शिनः || २७६||मम ध धर ऋण लत तंत्र हंस नंद लत झ ऋण ऋण दल तय श्रम हम ने र लत म श्रम मम

अनित्यमिति निर्दिश्य संसारं संकटालयम् | वैराग्यपथदर्शी यः स गुरुर्विहितः प्रिये || २७७||

तत्त्वमस्यादिवाक्यानामुपदेष्टा तु पार्वति | का

रणाख्यो गुरुः प्रोक्तो भवरोगनिवारकः || २७८||

सर्वसन्देहसन्दोहनिर्मूलनविचक्षणः | जन्ममृत्युभयघ्नो यः स गुरुः परमो मतः || २७९||

बहुजन्मकृतात् पुण्याल्लभ्यतेऽसौ महागुरुः | लब्ध्वाऽमुं न पुनर्याति शिष्यः संसारबन्धनम् || २८०||

एवं बहुविधा लोके गुरवः सन्ति पार्वति | तेषु सर्वप्रयत्नेन सेव्यो हि परमो गुरुः || २८१||

निषिद्धगुरुशिष्यस्तु दुष्टसंकल्पदूषितः | ब्रह्मप्रलयपर्यन्तं न पुनर्याति मर्त्यताम् || २८२||

एवं श्रुत्वा महादेवी महादेववचस्तथा | अत्यन्तविह्वलमना शंकरं परिपृच्छति || २८३||

पार्वत्युवाच | नमस्ते देवदेवात्र श्रोतव्यं किंचिदस्ति मे | श्रुत्वा त्वद्वाक्यमधुना भृशं स्याद्विह्वलं मनः || २८४||

स्वयं मूढा मृत्युभीताः सुकृताद्विरतिं गताः | दैवान्निषिद्धगुरुगा यदि तेषां तु का गतिः || २८५||

श्री महादेव उवाच | श्रुणु तत्त्वमिदं देवि यदा नरः | तदाऽसावधिकारीति प्रोच्यते श्रुतिमस्तकैः || २८६||

अखण्डैकरसं ब्रह्म नित्यमुक्तं निरामयम् | स्वस्मिन् सन्दर्शितं येन स भवेदस्यं देशिकः || २८७||

जलानां सागरो राजा यथा भवति पार्वति | गुरूणां तत्र सर्वेषां राजायं परमो गुरुः || २८८||

मोहादिरहितः शान्तो नित्यतृप्तो निराश्रयः | तृणीकृतब्रह्मविष्णुवैभवः परमो गुरुः || २८९||

सर्वकालविदेशेषु स्वतन्त्रो निश्चलस्सुखी | अखण्डैकरसास्वादतृप्तो हि परमो गुरुः || २९०||

द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तः स्वानुभूतिप्रकाशवान् | अज्ञानान्धतमश्छेत्ता सर्वज्ञः परमो गुरुः || २९१||

यस्य दर्शनमात्रेण मनसः स्यात् प्रसन्नता | स्वयं भूयात् रथ ऋण ऋण ल रद्दधृतिश्शान्तिः स भवेत् परमो गुरुः || २९२||

सिद्धिजालं समालोक्य योगिनां मन्त्रवादिनाम् | तुच्छाकारमनोवृत्तिर्यस्यासौ परमो गुरुः || २९३||

स्वशरीरं शवं पश्यन् तथा स्वात्मानमद्वयम् | यः स्त्रीकनकमोहघ्नः स भवेत् परमो गुरुः || २९४||

मौनी वाग्मीति तत्त्वज्ञो द्विधाभूच्छृणु पार्वति | न कश्चिन्मौनिना लाभो लोकेऽस्मिन्भवति प्रिये || २९५||

वाग्मी तूत्कटसंसारसागरोत्तारणक्षमः | यतोसौ संशयच्छेत्ता शास्त्रयुक्त्यनुभूतिभिः || २९६||

गुरुनामजपाद्देवि बहुजन्मर्जितान्यपि | पापानि विलयं यान्ति नास्ति सन्देहमण्वपि || २९७||

श्रीगुरोस्सदृशं दैवं श्रीगुरोसदृशः पिता | गुरुध्यानसमं कर्म नास्ति नास्ति महीतले || २९८||

कुलं धनं बलं शास्त्रं बान्धवास्सोदरा इमे | मरणे नोपयुज्यन्ते गुरुरेको हि तारकः || २९९||

कुलमेव पवित्रं स्यात् सत्यं स्वगुरुसेवया | तृप्ताः स्युस्सकला देवा ब्रह्माद्या गुरुतर्पणात् || ३००||

गुरुरेको हि जानाति स्वरूपं देवमव्ययम् | तज्ज्ञानं यत्प्रसादेन नान्यथा शास्त्रकोटिभिः || ३०१||

स्वरूपज्ञानशून्येन कृतमप्यकृतं भवेत् | तपोजपादिअक्ं देवि सकलं बालजल्पवत् || ३०२||

शिवं केचिद्धरिं केचिद्विधिं केचित्तु केचन | शक्तिं देवमिति ज्ञात्वा विवदन्ति वृथा नराः || ३०३||

न जानन्ति परं तत्त्वं गुरूदीक्षापरांमुखाः | भ्रान्ताः पशुसमा ह्येते स्वपरिज्ञानवर्जिताः || ३०४||

तस्मात्कैवल्यसिद्ध्यर्थं गुरूमेव भजेत्प्रिये | गुरूं विना न जानन्ति मूढास्तत्परमं पदम् || ३०५||

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः | क्षीयन्ते सर्वकर्माणि गुरोः करूणया शिवे || ३०६||

कृताया गुरुभक्तेस्तु वेदशास्त्रानुसारतः | मुच्यते पातकाद्घोराद्गुरूभक्तो विशेषतः || ३०७||

दुःसंगं च परित्यज्य पापकर्म परित्यजेत् | चित्तचिह्नमिदं यस्य दीक्षा विधीयते || ३०८||

चित्तत्यागनियुक्तश्च क्रोधगर्वविवर्जितः | द्वैतभावपरित्यागी तस्य दीक्षा विधीयते || ३०९||

एतल्लक्षण संयुक्तं सर्वभूतहिते रतम् | निर्मलं जीवितं यस्य तस्य दीक्षा विधीयते || ३१०||

क्रियया चान्वितं पूर्वं दीक्षाजालं निरूपितम् | मन्त्रदीक्षाभिर्र्ध सांगोपांग शिवोदितम् || ३११||

क्रियया स्याद्विरहितां गुरूसायुज्यदायिनीम् | गुरुदीक्षां विना को वा गुरुत्वाचारपालकः || ३१२||

शक्तो न चापि शक्तो वा दैशिकांघ्रिसमाश्रयात् | तस्य जन्मास्ति सफलं भोगमोक्षफलप्रदम् || ३१३||

अत्यन्तचित्तपक्वस्य श्रद्धाभक्तियुतस्य च | प्रवक्तव्यमिदं देवि ममात्मप्रीतये सदा || ३१४||

रहस्यं सर्वशास्त्रेषु गीताशास्त्रदं शिवे | सम्यक्परीक्ष्य वक्तव्यं साधकस्य मद्यात्मनः || ३१५||

सत्कर्मपरिपाकाच्च चित्तशुद्धस्य धीमतः | साधकस्यैव वक्तव्या गुरुगीता प्रयत्नतः || ३१६||

नास्तिकाय कृतघ्नाय दाम्भिकाय शठाय च | अभक्ताय विभक्ताय न वाच्येयं कदाचन || ३१७||

स्त्रीलोलुपाय मूर्खाय कामोपहतचेतसे | निन्दकाय न वक्तव्या गुरुगीता स्वभावतः || ३१८||

सर्व पापप्रशमनं सर्वोपद्रववारकम् | जन्ममृत्युहरं देवि गीताशास्त्रमिदं शिवे || ३१९||

श्रुतिसारमिदं देवि सर्वमुक्तं समासतः | नान्यथा सद्गतिः पुंसां विना गुरुपदं शिवे || ३२०||

बहुजन्मकृतात्पादयमर्थो न रोचते | जन्मबन्धनिवृत्यर्थं गुरुमेव भजेत्सदा || ३२१||

अहमेव जगत्सर्वमहमेव परं पदम् | एतज्ज्ञानं यतो भूयात्तं गुरुं प्रणमाम्यहम् || ३२२||

अलं विकल्पैरहमेव केवलो मयि स्थितं विश्वमिदं चराचरम् | इदं रहस्यं मम येन दर्शितम् स वन्दनीयो गुरुरेव केवलम् || ३२३||

यस्यान्तं नादिमध्यं न हि करचरणं नामगोत्रं न सूत्रम् | नो जातिर्नैव वर्णो न भवति पुरुषो नो नपुंसं न च स्त्री || ३२४||

नाकारं नो विकारं न हि जनिमरणं नास्ति पुण्यं न पापम् | नोऽतत्त्वं तत्त्वमेकं सहजसमरसं सद्गुरुं तं नमामि || ३२५||

नित्याय सत्याय चिदात्मकाय नव्याय भव्याय परात्पराय | शुद्धाय बुद्धाय निरंजनाय नमोऽस्य नित्यं गुरुशेखराय || ३२६||

सच्चिदानन्दरूपाय व्यापिने परमात्मने | नमः गोपनीयता नीति प्रकाशानन्दमूर्तये || ३२७||

सत्यानन्दस्वरूपाय बोधैकसुखकारिणे | नमो वेदान्तवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे || ३२८||

नमस्ते नाथ भगवन् शिवाय गुरुरूपिणे | विद्यावतारसंसिद्ध्यै स्वीकृतानेकविग्रह || ३२९||

नवाय नवरूपाय परमार्थैकरूपिणे | सर्वाज्ञानतमोभेदभानवे चिद्घनाय ते || ३३०||

स्वतन्त्राय दयाक्लृप्तविग्रहाय शिवात्मने | परतन्त्राय भक्तानां भव्यानां भव्यरूपिणे || ३३१||

विवेकिनां विवेकाय विमर्शाय विमर्शिनाम् | प्रकाशिनां प्रकाशाय ज्ञानिनां ज्ञानरूपिणे || ३३२||

पुरस्तत्पार्श्वयोः पृष्ठे नमस्कुर्यादुपर्यधः | सदा मच्चित्तरूपेण विधेहि भवदासनम् || ३३३||

श्रीगुरुं परमानन्दं वन्दे ह्यानन्दविग्रहम् | यस्य सन्निधिमात्रेण चिदानन्दाय ते मनः || ३३४||

नमोऽस्तु गुरवे तुभ्यं सहजानन्दरूपिणे | यस्य वागमृतं हन्ति विषं संसारसंज्ञकम् || ३३५||

नानायुक्तोपदेशेन तारिता शिष्यमन्ततिः | तत्कृतासारवेदेन गुरुचित्पदमच्युतम् || ३३६||

अच्युताय मनस्तुभ्यं गुरवे परमात्मने | सर्वतन्त्रस्वतन्त्राय चिद्घनानन्दमूर्तये || ३३७||

नमोच्युताय गुरवे विद्याविद्यास्वरूपिणे | शिष्यसन्मार्गपटवे कृपापीयूषसिन्धवे || ३३८||

ओमच्युताय गुरवे शिष्यसंसारसेतवे | भक्तकार्यैकसिंहाय नमस्ते चित्सुखात्मने || ३३९||

गुरुनामसमं दैवं न पिता न च बान्धवाः | गुरुनामसमः स्वामी नेदृशं परमं पदम् || ३४०||

एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नैव मन्यते | श्वानयोनिशतं गत्वा चाण्डालेष्वपि जायते || ३४१||

गुरुत्यागाद्भवेन्मृत्युर्मन्त्रत्यागाद्दरिद्रता | गुरुमन्त्रपरित्यागी रौरवं नरकं व्रजेत् || ३४२||

शिवक्रोधाद्गुरुस्त्राता गुरुक्रोधाच्छिवो न हि | तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरोराज्ञा न लंघयेत् || ३४३||

संसारसागरसमुद्धरणैकमन्त्रम् ब्रह्मादिदेवमुनिपूजितसिद्धमन्त्रम् | दारिद्र्यदुःखभवरोगविनाशमन्त्रम् वन्दे महाभयहरं गुरुराजमन्त्रम् || ३४४||

सप्तकोटीमहामन्त्राश्चित्तविभ्रंशकारकाः | एक एव महामन्त्रो गुरुरित्यक्षरद्वयम् || ३४५||

एवमुक्त्वा महादेवः पार्वतीं पुनरब्रवीत् | इदमेव परं तत्त्वं श्रुणु देवि सुखावहम् || ३४६||

गुरुतत्त्वमिदं देवि सर्वमुक्तं समासतः | रहस्यमिदमव्यक्तन्न वदेद्यस्य कस्यचित् || ३४७||

न मृषा स्यादियं देवि मदुक्तिः सत्यरूपिणी | गुरुगीतासमं स्तोत्रं नास्ति नास्ति महीतले || ३४८||

गुरुगीतामिमां देवि भवदुःखविनाशिनीम् | गुरुदीक्षाविहीनस्य पुरतो न पठेत् क्वचित् || ३४९||

रहस्यमत्यन्तरहस्यमेतन्न पापिना लभ्यमिदं महेश्वरि | अनेकजन्मार्जितपुण्यपाकाद्गुरोस्तु तत्त्वं लभते मनुष्यः || ३५०||

यस्य प्रसादादहमेव सर्वम् मय्येव सर्वं परिकल्पितं च | इत्थं विजानामि सदात्मरूपम् ग्तस्यांघ्रिपद्मं प्रणतोऽस्मि नित्यम् || ३५१||

अज्ञानतिमिरान्धस्य विषयाक्रान्तचेतसः | ज्ञानप्रभाप्रदानेन प्रसादं कुरु मे प्रभो || ३५२||

.. इति श्रीगुरुगीतायां तृतीयोऽध्यायः .. .. इति श्रीस्कंदपुराणे उत्तरखंडे ईश्वरपार्वती संवादे गुरुगीता समाप्त .. .. श्रीगुरुदत्तात्रेयार्पणमस्तु ..


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