शोध-प्रबन्ध

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वह दस्तावेज जो किसी शोधार्थी द्वारा किये गये शोध को विधिवत प्रस्तुत करता है, शोध-प्रबन्ध (dissertation या thesis) कहलाता है। इसके आधार पर शोधार्थी को कोई डिग्री या व्यावसायिक सर्टिफिकेट प्रदान की जाती है।

यह विश्वविद्यालय से शोध-उपाधि प्राप्त करने के लिए लिखा जाता है। इसे एक ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।[1]

सरल भाषा में कहें तो एम फिल अथवा पी एच डी की डिग्री के लिए किसी स्वीकृत विषय पर तैयार की गई किताब जिसमें तथ्य संग्रहित रहते हैं तथा उनके आधार पर किसी निष्कर्ष तक पहुँचने की कोशिश की जाती है। यह आलोचनात्मक तो होता है किंतु उससे थोड़ा भिन्न भी होता है। डॉ नगेन्द्र के शब्दों के सहारे कहें तो एक अच्छा शोध प्रबंध एक अच्छी आलोचना भी होती है।

मनुष्य की आंतरिक जिज्ञासा सदा से ही अनुसंधान का कारण बनती रही है। अनुसंधान, खोज, अन्वेषण एवं शोध पर्यायवाची है। शोध में उपलब्ध विषय के तथ्यों में विद्यमान सत्य को नवरूपायित कर पुनरोपलब्ध किया जाता है। शोध में शोधार्थी के सामने तथ्य मौजूद होते है, उसे उसमें से अपनी सूझ व ज्ञान द्वारा नवीन सिद्धियों को उद्घाटित करना होता है।

विषय पसंदगी और स्वरूप[संपादित करें]

अनुसंधान कहें या शोध, बात वहीं से ही शुरू होती है कि कोई समस्या है जिसका समाधान या निष्कर्ष पाने हेतु वैज्ञानिक दृष्टिबिंदु से प्रयोग किए जाते हैं। संशोधनकर्ता समस्या या प्रश्न का विचार करता है। उपलब्ध साधनों को इकट्ठा करके उसे व्यवस्थित क्रमबद्ध करता है तथा विश्लेषण करके परिणाम प्राप्त करता है या निष्कर्ष तक पहुंचता है। यह शोध संशोधन या अनुसंधान जैसे सभी शब्दार्थ समानार्थी ही है। जिसका सीधा मतलब किसी चीज की किसी तथ्य की या किसी संशोद्ध्य विषय की खोज। शोध मतलब खोजना।

व्युत्पत्ति अनुसार अनुसंधान शब्द अनु सम धा क्यूट (कआने) इस प्रकार से उपसर्ग धातु प्रत्यय की संयुक्त शक्ति से निर्मित है।किसी चीज को पुनः पुनः खोजना ही अनुसंधान है अंग्रेजी भाषा का रिसर्च बैठक में रिसर्च शब्द भी इसी व्युत्पत्ति का अनुकरण करता है जैसे कि RE मतलब AGAIN और SEARCH का मतलब होता है EXPLORE।

परिभाषा अनुसंधान की परिभाषा इस शब्द को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने में सहायता करती है। 'समस्याओं के समाधान के लिए व्यवस्थित रूप में बुद्धि का ढंग से वैज्ञानिक विधि के प्रयोग तथा अर्थघटन को अनुसंधान कहते हैं।' जॉर्ज जे॰ मुले॰

'अनुसंधान एक प्रक्रिया है जिसमें शोध प्रविधि का प्रयोग किया जाता है जिस के निष्कर्षों की उपयोगिता होती है जो ज्ञान बुद्धि में सहायक है प्रगति के लिए प्रोत्साहित करें समाज के लिए सहायक हो तथा मनुष्य को अधिक प्रभावशाली बना सके तथा मनुष्य अपनी समस्याओं को प्रभावशाली ढंग से हल कर सके।' मैकग्रैथ एवं वाटसन
अनुसंधान अर्थात संशोधन के विषय में व्युत्पत्ति और विविध मंतव्य को देखने से संशोधन शब्द का विश्लेषण निम्न रूप से किया जा सकता है।


संशोधन

सं : संशोधन सिद्धांतों के विकास की प्रवृत्ति

न : निष्ठा

शो : शोध

ध : धैर्य युक्त कार्य

न : नैपुण्य


इस प्रकार निष्ठा पूर्वक समस्या शोधन कर के सिद्धांतों निष्कर्षों को स्थापित या विकसित करने की नैपुण्य युक्त प्रवृत्ति ही संशोधन अर्थात अनुसंधान है। इस बात को "कूक" की परिभाषा अधिक स्पष्ट कर देती है जैसे-"अनुसंधान किसी समस्या के प्रति ईमानदारी एवं व्यापक रूप में समझदारी के साथ की गई खोज है, जिसमें तथ्यों, सिद्धांतों तथा अर्थों की जानकारी की जाती है। अनुसंधान की उपलब्धि तथा निष्कर्ष प्रामाणिक तथा पुष्टि योग्य होते हैं जिससे ज्ञान वृद्धि होती है।" पी॰एन॰ कूक॰

विषय पसंदगी

अनुसंधान कार्य का विषय पसंद करते समय सतर्कता रखनी अनिवार्य है। जिससे योग्य विषय पसंद होने से कार्य की उपादेयता और मूल्य बढ़ता है तथा किए हुए कार्य की सामाजिक उपलब्धि होती है। वैसे तो अनुसंधान का मतलब पुनः-पुनः संशोधन ही तो है। फिर भी विषय पसंद करते समय निम्न रूप से ध्यान रखना चाहिए।

१ विषय संशोधनक्षम होना चाहिए।

२ रुचि के अनुरूप विषय पसंद करना चाहिए ।

३ निषणांत मार्गदर्शक का मार्गदर्शन लेना चाहिए।

४ विविध महानिबंध प्रकार के नमूने रूप ग्रंथों का वाचन करना चाहिए ।

५ सामान्यत: अभ्यास समय के खुद के शास्त्र के अनुरूप विषय हो तो अच्छा है ।

६ विषय की उपादेयता का ध्यान रखना चाहिए ।

७ यू॰जी॰सी॰ द्वारा प्रसिद्ध यादी का ध्यान रखते हुए विषय पसंद करना चाहिए ।

८ विषय की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।

९ नियत समय मर्यादा में कार्य पूरा होना चाहिए यह सोचना बहुत जरूरी है ।

१० साधनों की तथा संदर्भ सामग्री की उपलब्धता का ध्यान रखना चाहिए।

इन बातों को संक्षिप्त रूप से कहे तो अनुसंधान कार्य में शोध समस्या चयन एक केंद्रीयभूत वस्तु है। इसके बगैर संशोधन की कल्पना ही नहीं हो सकती। संशोधन में विषय वस्तु को ही समस्या के नाम से जाना जाता है। अतः जिस के चयन में सावधानी सफलता की साक्षी बनती है।


संशोधन कार्य में खुद की योग्यता जरूरी है

शोधार्थी कि यशः कामना, निष्ठा, वैषयिक योग्यता, आत्म श्रद्धा और समस्या के प्रति स्वयं की सूक्ष्मदृष्टि, खुद का अध्ययन काल का शास्त्र या साहित्य के क्षेत्र से विषय पसंद होता है तो शोधकर्ता की अवश्य सहाय होगी।

विषय की मौलिकता

संशोधन पिष्टपेषण होने पर भी। पुनः पुनः शोध होने पर भी विषय पसंद करते वक्त इस बात का ध्यान अवश्य रखना है। किसिने पूर्वकाल में विषय पसंद किया है और स्वयं को उसी विषय में कार्य करना है, तो विचार करना होगा कि खुद का मौलिक प्रदान कया होगा ? इस विषय में खुदको पता कैसे चले? विविध माध्यम से विषय सूची के माध्यम से पता चलेगा। विषय पसंदगी में विज्ञान में कोई वस्तु की गवेषणा, साहित्यमें किसी ग्रंथ के विशेषपक्ष का समीक्षण तथा कलाक्षेत्र में किसी सिद्धांत की स्थापना आदि मौतिकता का क्षेत्र है। यह विषय आगे शोधआर्थी का मार्गदर्शन करने में सक्षम भी है और जरूरी है। विषय की सामाजिक उपादेयता भी ध्यान में रखना जरूरी है। नकारात्मक विषय की पसंदगी को छोड़ देना सुखरूप होता है।

विषय संकल्पना का सीमाबोध

 जो विषय पसंद करते हैं उसमें संशोधन करता की गति होना आवश्यक है। अपने अधीन के क्षेत्र से पसंदगी सहायक होती है। तथा शोधरथी को अपनी मर्यादाओं का भी ज्ञान जरूरी है। इस संदर्भ में विषय के दृष्टि करवा के तथा संशोधन की सीमांकन जरूरी है। यह कालसीमा और द्रव्यसीमा की समझदारी आवश्यक है। ज्ञान-विज्ञान के विविध साहित्य प्रवाहों के कालखंडों का सीमांकन करके विषय पसंद करने से कार्यक्षेत्र का ख्याल रहेगा। दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि शोधार्थी को अपने द्रव्य सामर्थ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए, धन की जरूरत और प्राप्ति को ध्यान में रखकर कार्य निर्धारण करने से, नियत द्रव्य से नियत कार्य का सीमांकन होने से कार्यवरोध से बचा जा सकता है।

विवादास्पद विषय से दूर रहना

  विषयपसंदगी के समय शोधार्थी को जागरूक रहना है कि कोई विषय के संदर्भ में धार्मिक, सामाजिक तथा राजकीय दृष्टि से विवाद चलता है तो उस विषय से परहेज करनी जरूरी है, अन्यथा कार्य में अवरोध उत्पन्न होगा। तथा नियत काल में कार्य संपन्न संदेहास्पद होगा। विवादित विषय पसंदगी से चयनित विषय में ताटस्थ्य और विश्लेषण प्रवृत्ति दुष्प्रभावित होती है। ताटस्थ्य के लिए भी इस प्रवृत्ति से दूर रहना होगा।

संतुलित शोध विषय ग्रहण करना

  शोध विषय अतिविस्तृत या अति संक्षिप्त नहीं होना चाहिए। अति लघु तथा विषय संशोधन ग्राह्य नहीं रहता और अति विस्तृत विशेष समय मर्यादाओं में समाप्त करना असंभव होगा। विश्वविद्यालय-अनुदान-आयोग नियमों को देखते हुए विषय निर्धारण जरूरी है। अपने मित्रों और मार्गदर्शक की सहायता प्राप्त कर कार्य करने से नियम समय मर्यादा सुख पूर्वक शोध कार्य संपन्न होगा।

विषय चयन का उद्देश्य

  उपर्युक्त सावधानी से विषय चयन और कार्य प्रवृत्ति में सरलीकरण तो होगा ही, साथ में शोधार्थी का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा, विषय के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होगी। शोधार्थी का उद्देश्य स्पष्ट होने से कार्य में सुगमता, सहायक अध्ययन सामग्री के चयन में, विषय अनुरूप सर्वेक्षण में, सूचना संकलन में, शोध विषय के सामान्य स्वरूप की प्रस्तुति में तथा इन सब के लिए उपयोगी साधनों की प्राप्ति में सहायता प्राप्त होगी।
     अपने संशोधन कार्य के लिए शोधार्थी की दृष्टि स्पष्ट होगी तथा तार्किकता बनी रहेगी।
     इस प्रकार समस्या चयन में वैज्ञानिक तथा संशोधात्मक दृष्टि का समन्वय करने से समस्याओं से परे रहते हुए सफलता के शिखर तक पहुंचा जा सकता है।

शोध स्वरूप

    शोध स्वरूप अर्थात प्रकृति अथवा स्वभाव। कुछ घटक तत्व है। जो शोध स्वरूप का निर्माण करते हैं जैसे- विषयविज्ञान शोधप्रक्रिया अनुरूप चिंतन, शोधकार्य पूर्वापर व्यवस्था चिंतन, प्रकरणानुसार विषय विश्लेषण,संदर्भ-परिशीतलन तथा उल्लेख, मौलिक चिंतन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी दृष्टि, शोधार्थी की आत्मतुष्टि, अभिकल्पना की स प्रमाण पुष्टि तथा संदर्भ ग्रंथसूची। ईन घटक तत्वों से शोधस्वरूप की निर्मिती होती है।

नूतन अवधारणा का स्थापन

    शोध निबंध में विवेचनीय विषयों का सप्रमाण परिशीलन के पश्चात अन शोधार्थी कोई नूतन सिद्धांत को स्थापित करता है, जो संशोधन का निष्कर्ष होता है वही शोध का स्वरुप है।

सूचना संकलन द्वारा अवधारणा का सर्जन

    कोई भी शोधकार्य के लिए प्राप्त किए हुए तथा देखे गए पदार्थों की प्रकृति वैशिष्ट्य उसे अभियोग के स्वरूप ज्ञान अवयव-अवयविओ का पारस्परिक-क्रिया-प्रतिक्रिया का ज्ञान तथा उसे प्राप्त धारणाओं की परिकल्पना वगैरह योजना की जाती है। इसके लिए अनेक प्रकार की विषय संबंधित सूचनाएं आवश्यक होती है। जिस को प्रमाणित करने हेतु साक्ष्य की जरूरत होती है। संकलित सूचनाएं ही शोध विषय का प्रमुख साधन होती है। जिसके बिना शोधन कार्य कतई आगे नहीं बढ़ता। अगर आगे बढ़ता भी है,तब भी कुछ नया निषयंत नहीं होता।अतः इस शोधकार्य में सूचना संकलन नवीन वस्तु की उपलब्धि के आधार है। यही शोधक का सामान्य स्वरूप है।

नियंत्रित भाषा

    संशोधन की भाषा पांडित्य पूर्ण, अस्पष्ट, अलंकारिक, श्लेषयुक्त कलीस्ट बिन जरूरी पारिभाषिक शब्दों से युक्त नहीं होनी चाहिए। मर्जी हुई भाषा भी कभी-कभी भावानुगामी हो सकती है। भाषा परिशुद्ध, विषय प्रतिपादन योग्य, सहज और सरल होनी चाहिए। जिससे बहुजन बोध्य भाषा ही उपयुक्त है।

शोध उद्देश्य की स्पष्टता तथा सीमा निर्धारण

    शोध कार्य में उद्देश्यों की स्पष्टता शोधप्रारूप बनता है।अस्पष्ट उद्देश्यवाला शोधकार्य भ्रमण उत्पन्न करता है। शोध का उद्देश्य कार्य पूर्ति तक स्मरण में रहना चाहिए।
 शोध कार्य का सीमांकन भी जरूरी है, जिसके निश्चित समय मर्यादा का पालन हो सकता है। संशोधन कार्य नियत अवधि में समाप्त करने हेतु सीमांकन जरूरी है।


वर्णित विषयों में उत्तरोत्तर रुचिकर प्रभाव

  कला और साहित्य के संशोधन क्षेत्र में शोध प्रारूप में विषय को अध्याय और प्रकरणों में, उपप्रकरणों में विभक्त किया जाता है। प्रकरणों में विषय तथा वर्ण वस्तु में एकरूपता रहती है, शोध निबंध में सुयोग्य प्रकरण आदि का आयोजन होता है जिसे पाठक की अभिरुचि बढ़ती है। यही शोध का सामान्य स्वरूप है


स्पष्ट संदेश

    संशोधन एक प्रकरण से शुरू होकर जहाँ समाप्त होता है, उसके उचित्त विवेचक विषय के विवेचन का फल शोधार्थी की दृष्टि से क्या है? उसका स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए। उसमें शोधार्थी की इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, विवेचन कौशल्य द्वारा प्रतिपादन योग्यता का संकेत प्राप्त होता है।


आगे के शोध कार्य का अध्ययन तथा विषय का विवेचन

    शोधार्थी के चयनित विषयों में पूर्व में हुए शोध कार्य का अध्ययन तथा उसके विषय का विवेचन उपयोगी है। किस ग्रंथों को देखा, उस में क्या देखा ? इसका क्या उपयोग कर सकते हैं ? आदि की समझ पक्की होती  है। जिससे संदर्भों के विषय में पता चलता है । इसलिए अगर शोध कार्यादी ग्रंथों का अवलोकन तथा विवेचन अत्यावश्यक है।


शोधकार्य साधन का उल्लेख

    संशोधन कार्य में जिस जिस सहायक साधनों का उपयोग किया गया है उसका उचित स्थान पर उल्लेख करना जरूरी है। संशोधित विषय में जिसके भी संदर्भ टिप्पणी आदि का स्थान महत्वपूर्ण है, जो आगे के संशोधन के मार्ग निर्माता बनते हैं। संदर्भ पंक्तियाँदि जहां से उद्धृत है वही का विवरण उपदेय है। किसी और के विचारों को खुद के नाम न बताकर, जिसके भी है उसका सही संदर्भ देने मे संशोधक तथा संशोधन के हित में है। 

उपसंहार

    इस प्रकार हम देख सकते हैं कि शोध प्रबंध और उसके विषय चयन अत्यंत जागरूकता के अभिलाषी हैं या रखा गया ध्यान और संयम संशोधन विषय की उपादेयता में वृद्धि करता है। शोध स्वरूप विषय प्रस्तुति में आवश्यक अंग बनता है। यह सब संशोधक के कार्य को उपयोगी सिद्ध करते हैं तथा उसकी प्रतिष्ठा को प्रतिष्ठित करने के लायक चालकबल बनते हैं। इस कारण सभी संशोधनार्थियों को इस विषय का पूरा पूरा ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 18 अक्तूबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 अक्तूबर 2016.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]