शिव वर्मा

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शिव वर्मा

शिव वर्मा, सन 1982 में
जन्म 09 फ़रवरी 1904
हरदोई, संयुक्त प्रान्त, (वर्तमान उत्तर प्रदेश)
मौत 10 जनवरी 1997(1997-01-10) (उम्र 92)
कानपुर
राष्ट्रीयता भारतीय
उपनाम प्रभात
पेशा क्रान्तिकारी
राजनैतिक पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)
उल्लेखनीय कार्य {{{notable_works}}}

शिव वर्मा ( 9 फरवरी 1904 - 10 जनवरी 1997) एक भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक महान क्रांतिकारी और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे।

आरम्भिक जीवन[संपादित करें]

शिव वर्मा का जन्म 9 फरवरी 1904 को संयुक्त प्रांत के हरदोई जिले के खातेली गांव में हुआ था। 17 वर्ष की आयु में, उन्होंने असहयोग आंदोलन में [1] भाग लिया।

वे कानपुर के डीएवी कॉलेज के छात्र थे। [2]

क्रांतिकारी गतिविधियां[संपादित करें]

कानपुर वह स्थान था जहां सचिंद्रनाथ सान्याल, सुरेश चंद्र भट्टाचार्य और अन्य क्रान्तिकारियों ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया था। विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, जयदेव कपूर और सुरेन्द्र नाथ पाण्डेय जैसे लोग संघ में शामिल हुए। इस संघ में शिव वर्मा का नाम 'प्रभात' था। [3]

शिव वर्मा का झुकाव समाजवाद की ओर था। विजय कुमार सिन्हा ने वर्मा को पत्रकार और लेखक राधा मोहन गोकुल से मिलवाया, [4] जो वर्मा के लिए एक वैचारिक गुरु और प्रेरणा बने। [5] राधा मोहन के पास पुस्तकों का एक व्यापक संग्रह था [6] और उन्होंने वर्मा को समाजवाद को पढ़ने और चर्चा करने के लिए प्रोत्साहित किया। 1925 में काकोरी कांड के बाद चन्द्रशेखर आजाद झांसी में एकान्त में रह रहे थे। वह कुंदन लाल गुप्त के साथ कानपुर आए और राधा मोहन गोकुल के साथ रहे। यह शिव वर्मा और चन्द्रशेखर आजाद का पहली मिलन था।

कानपुर के डीएवी कॉलेज में पढ़ते समय शिव वर्मा पहली बार जनवरी 1927 में भगत सिंह से तब मिले थे जब भगत सिंह हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एशोसिएशन के अन्य सभी क्रांतिकारियों से मिलने के लिए एक सप्ताह के लिए कानपुर आए थे।

राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी जाने वाली थी। एक दिन पहले, उनकी मां, मूलरानी गोरखपुर जेल में उनसे आखिरी बार मिलने आई थीं। शिव वर्मा वहां पहुंच चुके थे। उन्होंने बिस्मिल की मां से सम्पर्क किया और उनसे कुछ पार्टी मामलों पर चर्चा करने के लिए बिस्मिल से मिलने में मदद करने का अनुरोध किया। बिस्मिल की मां तुरंत सहमत हो गईं और उन्हें बिस्मिल के चचेरे भाई शंकर प्रसाद के रूप में पेश करने और उन्हें 'मौसी' कहकर पुकारने की सलाह दी। चूंकि यह मां-बेटे की आखिरी मुलाकात थी, इसलिए वे कुछ समय के लिए अकेले रह गए। उसके बाद बिस्मिल की मां ने बिस्मिल से कहा कि हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोशिएशन का कोई सदस्य तुमसे मिलना चाहता है। [7]

शिव वर्मा ने ही जून 1928 में एचआरए गतिविधियों के लिए महावीर सिंह की भर्ती की थी।

शिव वर्मा ने लाहौर में सुखदेव और अन्य लोगों के साथ फिर से समूह बनाया। नवंबर 1928 में शिव वर्मा नेआगरा में नूरी गेट [8] के पास रहने के दौरान बम बनाने का प्रशिक्षण लिया। वहाँ वे 'अमीर चंद' के नकली नाम से एक घर किराए पर लिया था।

काकोरी षडयंत्र के अंतिम फैसले में जोगेश चंद्र चटर्जी को 10 साल कैद की सजा सुनाई गई थी। उन्हें 1928 से 1929 तक फतेहगढ़ जेल में रखा गया था। वर्मा और सिन्हा को यह दायित्व दिया गया था कि वे जोगेश चन्द्र चटर्जी को जेल से रिहा कराने के लिए उनकी स्वीकृति ले लें।[9] 3 मार्च 1928 को जब दोनों फतेहगढ़ जेल से निकल गये तब गुप्त पुलिस उनकी तलाश में लग गयी। उन लोगों ने इसे भांप लिया और तुरंत जाने का फैसला किया। उन्होंने कानपुर के लिए ट्रेन के टिकट खरीदे लेकिन टिकट का विवरण जल्द ही पुलिस को उपलब्ध हो गया। जब गाड़ी चलना शुरू हुई तो दो पुलिसकर्मी उसी डिब्बे में बैठ गए, जहां दोनों ने अपनी सीट आरक्षित की थी। वे यात्रा के दौरान फरार होने के मौके की तलाश में थे।जब ट्रेन जलालाबाद स्टेशन से निकल रही थी तो दोनों ने सावधानी से ट्रेन से छलांग लगा दी। दोनों कांस्टेबल भी उनका पीछा करने के प्रयास में चोटिल हो गये और पीछा नहीं कर सके। इस प्रकार दोनों फिर से कानपुर स्टेशन पर गिरफ्तारी से बच गए लेकिन अब वे इस तथ्य को स्वीकार कर लिये थे कि अब से उन्हें भगोड़ों का जीवन व्यतीत करना होगा।

शिव वर्मा केंद्रीय समिति [10] के सदस्य थे, जिसका गठन 8 और 9 सितंबर, 1928 को दिल्ली के फिरोज शाह कोटला किले के खंडहरों में क्रांतिकारियों द्वारा किया गया था। वह संयुक्त प्रांत शाखा के आयोजक थे। वर्मा ने 'चाँद' अखबार के लिए कई लेख लिखे।

1929 की शुरुआत तक, यह स्पष्ट हो गया था कि सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक और व्यापार विवाद विधेयकों के असेम्बली में अस्वीकृत हो जाने के बावजूद वायसराय लॉर्ड इरविन दोनों विधेयकों कोपारित कराने के लिए अपनी वीटो शक्ति का उपयोग करेंगे। इस सन्दर्भ में एक दल बनायी गयी जिसका काम वायसराय इरविन की हत्या की संभावना का आकलन करना था। शिव वर्मा को एक दल का नेता बनाया गया। उन्होंने यह निर्णय लिया कि जब वायसराय दिल्ली में कुछ आईसीएस अधिकारियों द्वारा आयोजित भोज और रात्रिभोज पार्टी में शामिल होने जा रहे होंगे, उस समय उनकी हत्या की जायेगी। राजगुरु को 'स्पॉटर' का काम सौंपा गया, जयदेव कपूर को इरविन की कार पर बम फेंकना था और अगर कपूर चूक गए तो शिव वर्मा को बम फेंकना था। राजगुरु ने देखा कि वायसराय की कार में तीन महिलाएं थीं। इसलिए उन्होंने कोई संकेत नहीं दिया।बाद में आजाद और अन्य सहयोगियों ने उनकी प्रशंसा की कि अंधाधुंध हत्याएँ करने से हम सबको बचा लिया। [11] बाद में उन्हें पता चला कि वायसराय किसी अन्य स्थान पर चले गए थे और थोड़ा बाद में एक अलग रास्ते से भोज स्थल पर पहुंचे थे।

चन्द्रशेखर आजाद ने आदेश दिया था कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा विधानसभा में बम फेंकने के बाद, शिव वर्मा और जयदेव कपूर को छोड़कर सभी को दिल्ली छोड़ देना चाहिए, जबकि आजाद खुद झांसी जाएंगे। शिव वर्मा आजाद को स्टेशन छोड़ने गए। आजाद ने वर्मा को निर्देश दिया कि वे भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की अच्छी देखभाल करें क्योंकि वे दोनों ऐसे रास्ते पर चल रहे थे जिससे वापस नहीं आया जा सकता। [12] शिव वर्मा और जयदेव कपूर ने अपने दिल्ली ठिकाने में एक नींदरहित उदास रात बिताई क्योंकि वे अपने गिरफ्तार साथियों के भविष्य के बारे में सोचते रहे।

गिरफ़्तारी[संपादित करें]

डॉ गया प्रसाद, जयदेव कपूर और शिव वर्मा को सहारनपुर में बम बनाने का एक कारखाना स्थापित करने का काम दिया गया था। निश्चित की गयी कार्यप्रणाली कुछ यों थी - डॉ गया प्रसाद एक औषधालय शुरू करने के लिए एक जगह किराए पर लेंगे, शिव वर्मा और कपूर उनके कंपाउंडर और ड्रेसर होंगे। इसी तरह की योजना के अनुसार पहले उन्हें सफलता मिल चुकी थी। [13] उदाहरण के लिये, फिरोजपुर कारखाना सह-ठिकाना, जहां शिव वर्मा ने 'राम नारायण कपूर' होने का नाटक किया था [14] । इस बार उन्हें आवश्यक धन उपलब्ध नहीं हो सका क्योंकि काशीराम (एक अन्य एचएसआरए क्रांतिकारी) पैसे लेकर नहीं आ पाये। तब डॉ गया प्रसाद कुछ पैसे की व्यवस्था करने के लिए कानपुर चले गए, जबकि वर्मा और कपूर वहीं रुक गए। जल्द ही, स्थानीय लोगों और पुलिस को शक हो गया क्योंकि ये दोनों बेकार थे, डॉक्टर गायब था और वहाँ डिस्पेंसरी जैसी कोई गतिविधि नहीं थी। यह मई 1929 की बात है। हर रात वर्मा और कपूर छत पर जाते और आसपास के क्षेत्र को निहारते। सुबह होने पर वे नीचे आते और बिना किसी चिंता के सो जाते। 13 मई 1929 को वे आंगन में गहरी नींद सो रहे थे तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। शिव वर्मा ने जगाया और यह सोचकर दरवाजा खोला कि यह डॉ गया प्रसाद होंगे लेकिन यह सशस्त्र पुलिस कांस्टेबल निकला। इसके बाद आरक्षकों ने वर्मा को पकड़े रखा और डीएसपी मथुरा दत्त जोशी व मुख्य पुलिस अधिकारी ने अन्दर जाकर तलाशी लेने लगे। जब पुलिस ने उनके ठिकाने के बारे में पूछा तो शिव वर्मा ने कहा कि मैं डॉ गया प्रसाद का सम्बन्धी हूँ और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं, यहां छुट्टी बिताने आये थे। पुलिस को एक अलमारी में रखी बारूद मिली। उन्होंने कह दिया कि बारूद के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है। बगल के कमरे में पुलिस को जयदेव कपूर के साथ बम और अन्य सामग्री मिली। डीएसपी ने वर्मा से जबजरदस्ती ट्रंक खुलवाया। शिव वर्मा ने ट्र्ंक खोली, उसमें हाथ डाला, बम बनाया और डीएसपी की ओर फेंकने का नाटक किया। डीएसपी और अधिकांश सिपाही घर के बाहर भागे, जबकि मुख्य पुलिस अधिकारी दरवाजे के पीछे छिप गए और वर्मा की हरकतों को देखने लगा। वास्तव में, बम और पिन को अलग-अलग रखा गया था ताकि कोई कहीं कोई दुर्घटना न हो जाये। दूसरी अलमारी में पिन और दो रिवॉल्वर रखे थे। वर्मा चाहते थे कि इन तक पहुँच जाँय। इसलिए, उन्होंने बम को फर्श पर रख दिया और उस अलमारी की ओर बढ़ गए। इस अवसर का लाभ उठाते हुए मुख्य अधिकारी ने शिव वर्मा को धर लिया और दूसरों को भी बुला लिया। कांस्टेबल फिर से आ गए और अन्ततः कपूर और वर्मा दोनों को हथकड़ी लगा दी गई। डॉक्टर गया प्रसाद दो दिन बाद देर रात कानपुर से लौटे तो उसी स्थान पर उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। [15]

दोनों को पुलिस मुख्यालय ले जाया गया, कैद किया गया, लेकिन उनके साथ अच्छा व्यवहार किया गया ताकि उनको यह लगे कि क्रांतिकारियों के साथ उदारतापूर्वक व्यवहार किया जाता है। एक सिपाही ने शिव वर्मा से कहा कि डीएसपी ने उन्हें बताया है कि वे अफीम व्यापारियों पर छापा मारकर गिरफ्तार करने जा रहे हैं, इसलिये यदि वे क्रांतिकारियों के बारे में कुछ बता दें तो कांस्टेबल उन्हें भागने का मौका दे सकते हैं। शिव वर्मा और जयदेव कपूर को यह भी पता चल गया कि यह गुप्त सूचना उनके एचएसआरए के ही साथी फणीन्द्रनाथ घोष ने दी थी, जो पुलिस के गवाह बन गए थे।

निधन[संपादित करें]

10 जनवरी 1997 को शिव वर्मा का निधन हो गया। [16]

विरासत[संपादित करें]

हरदोई की नगर परिषद ने भारतीय क्रांतिकारियों को समर्पित बगीचे में शिव वर्मा, जयदेव कपूर और हरि बहादुर श्रीवास्तव की मूर्तियाँ लगाने का प्रस्ताव पारित किया है। [17]

द लीजेंड ऑफ भगत सिंह फिल्म में कपिल शर्मा ने शिव वर्मा की भूमिका निभाई थी। [18]

ग्रन्थसूची[संपादित करें]

  • स्मृतियाँ
  • मौत के इंतज़ार में
  • ‘Selected writings of Bhagat Singh’ नामक पुस्तक का संपादन किया [19] [20]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. Tarique, Mohammad. Modern Indian History. Tata McGraw-Hill Education. पपृ॰ 3–9. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780070660304.
  2. Chandra, Ram (2007). Waraich, Malwinderjit Singh (संपा॰). History of the Naujawan Bharat Sabha. Chandigarh: Unistar Books. पृ॰ 91. OCLC 212432388. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-8189899615.
  3. Singh, Sohal, Harmandeep (2013-12-11). "LITERARY REPRESENTATION OF REVOLUTIONARY MOVEMENTS". Shodhganga (अंग्रेज़ी में).
  4. "राधामोहन गोकुल", विकिपीडिया, 2016-05-28, अभिगमन तिथि 2018-08-29
  5. Saral, Śrīkr̥shṇa (1999). Indian revolutionaries : a comprehensive study, 1757-1961. Vol. 3. New Delhi: Ocean Books. पृ॰ 225. OCLC 47354233. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-8187100157.
  6. Sharma, Rambilas (1982). भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद. Rajkamal Publishers(originally, from the University of Michigan).
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  8. Singh, Sindhu, Gurudev (2010). Bhagat Singh ko fasi. Nai Dilli [India] ̄: Rajkamal Prakashan. OCLC 864811468. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788126719075.
  9. Sarala, Śrīkr̥shṇa (1999). Indian revolutionaries : a comprehensive study, 1757-1961. Vol. 3. New Delhi: Ocean Books. पृ॰ 227. OCLC 47354233. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-8187100157.
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  15. Verma, Shiv (2010). संस्मृतियाँ. Rahul Foundation. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-8187728726.
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