शाकम्भरी शक्तिपीठ

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शाकम्भरी देवी
महाशक्तिपीठ शाकुम्भरी देवी सहारनपुर
शाकुम्भरी देवी मंदिर
शाकम्भरी देवी
धर्म संबंधी जानकारी
सम्बद्धताहिन्दू धर्म
देवताशाकम्भरी शताक्षी, भीमा देवी,भ्रामरी देवी
त्यौहारनवरात्र दुर्गा अष्टमी, चतुर्दशी, पौष पुर्णिमा, शाकम्भरी नवरात्र
अवस्थिति जानकारी
अवस्थितिसहारनपुर
राज्यउत्तर प्रदेश
देशभारत
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वास्तु विवरण
निर्मातामहाभारतकाल से पूर्व
निर्माण पूर्णजसमौर रियासत के शासक

शक्तिपीठ शाकम्भरी देवी मंदिर उत्तर प्रदेश के जिला सहारनपुर मे अवस्थित एक महाशक्तिपीठ है।

कामाख्या, रजरप्पा पीठ, तारापीठ, विंध्याचल पीठ की भांति यह भी एक सिद्ध पीठ है क्योंकि यहाँ माँ की प्रतिमा स्वयं सिद्ध है जोकि दुर्लभ क्षेत्रों मे ही होती है, केदारखंड के अनुसार यह शाकम्भरी क्षेत्र है जिसकी महिमा अपार है। ब्रह्मपुराण मे इस पीठ को सिद्धपीठ कहा गया है अनेकों पुराणों और आगम ग्रंथों में यह पीठ परम पीठ, शक्तिपीठ,सतीपीठ और सिद्धपीठ नामों से चर्चित है। यह क्षेत्र भगवती शताक्षी का सिद्ध स्थान है। इस परम दुर्लभ तीर्थ क्षेत्र को पंचकोसी सिद्धपीठ कहा जाता है।भगवती सती का शीश इसी क्षेत्र मे गिरा था इसलिए इसकी गणना देवी के प्रसिद्ध शक्तिपीठों मे होती है। उत्तर भारत की नौ देवियों की प्रसिद्ध यात्रा माँ शाकम्भरी देवी के दर्शन बिना पूर्ण नही होती। शिवालिक पर्वत पर स्थित यह शाकम्भरी देवी का सबसे प्राचीन तीर्थ है। शाकम्भरी यत्र जाता मुनिनात्राण कारणात। तस्य पीठं परम पीठं सर्वपाप प्राणशनं। गत्वा शाकम्भरी पीठें नत्वा शाकम्भरी तथा। (केदारखंड) स्कंदपुराण

शाकम्भरी माता जी राजस्थान
भवन मे माँ शाकम्भरी और शताक्षी के विग्रह

दुर्गा शाकम्भरी माँ शक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी हैं जिन्हें देवी, शक्ति और पार्वती,जगदम्बा और आदि नामों से भी जाना जाता हैं । [1][2]

शाकम्भरी देवी की कथा[संपादित करें]

प्राचीन काल मे दुर्गम नाम का एक महान्‌ दैत्य था। उस दुष्टात्मा दानव के पिता महादैत्य रूरू थे। दैत्य के मन मे विचार आया कि ‘देवताओं का बल वेदों मे है और उसी से उन की सत्ता है। वेदों के लुप्त हो जाने पर देवता भी नहीं रहेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है। अतः पहले वेदों को ही नष्ट कद देना चाहिये’। यह सोचकर वह दैत्य तपस्या करने के विचार से महान हिमालय पर्वत पर गया। ब्रह्मा जी का ध्यान करके उसने आसन जमा लिया। वह केवल वायुरस पीकर रहता था। उसने एक हजार वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की। उसके तेज से देवताओं और दानवों सहित सम्पूर्ण प्राणी आश्चर्यचकित हो उठे। तब कमलमुख सी शोभा वाले चतुर्मुख भगवान ब्रह्मा प्रसन्नतापूर्वक हंस पर सवार होकर वर देने के लिये दुर्गम के सम्मुख प्रकट हो गये और बोले – ‘तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हारे मन में जो वर पाने की इच्छा हो, मांग लो। आज तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ आया हूँ।’ ब्रह्माजी के मुख से यह वाणी सुनकर दुर्गम ने कहा – देव, मुझे सम्पूर्ण वेद प्रदान करने की कृपा कीजिये। साथ ही मुझे वह बल दीजिये, जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ। दुर्गम की यह बात सुनकर चारों वेदों के परम अधिष्ठाता ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहते हुए ब्रह्मलोक की ओर चले गये। ब्राह्मण सभी वेदों का अध्ययन भूल गये।वेदों के अभाव मे समस्त क्रियाएँ जाती रही ब्राह्मण धर्म त्याग कर तामसिक आचरण करने लगे इस प्रकार सारे संसार में घोर अनर्थ उत्पन्न करने वाली अत्यन्त भयंकर स्थिति हो गयी और महान अकाल पड़ गया। इस प्रकार का भीषण अनिष्टप्रद समय उपस्थित होने पर कल्याणस्वरूपिणी भगवती जगदम्बा की उपासना करने के विचार से ब्राह्मण और देव हिमालय की शिवालिक पर्वत श्रृंखला पर चले गये। समाधि, ध्यान और पूजन के द्वारा उन्होंने देवी भुवनेश्वरी की स्तुति की। वे सत्य व्रत धारण कर रहते थे। उनका मन एकमात्र भगवती जगदम्बा में लगा था। वे बोले – ‘सबके भीतर निवास करने वाली देवेश्वरी महाशक्ति ! तुम्हारी प्रेरणा के अनुसार ही यह दुष्ट दैत्यराज कुछ करता है अन्यथा यह कुछ भी करने मे असमर्थ है। तुम अपनी इच्छा से जैसा चाहो वैसा ही करने में पूर्ण समर्थ हो। कल्याणी! जगदम्बिका प्रसन्न हो जाओ, प्रसन्न हो जाओ, हे भवानी प्रसन्न हो जाओ! महाशक्ति हम तुम्हें प्रणाम करते हैं।‘इस प्रकार ब्राह्मणों के प्रार्थना करने पर भगवती जगदम्बा, जो ‘भुवनेश्वरी’ एवं माहेश्वरी’ के नाम से विख्यात हैं। साक्षात्‌ प्रकट हो गई। उनका यह विग्रह कज्जलगिरी की तुलना कर रहा था। नैत्र ऐसे थे, मानों नीलकमल हो। कमल के पुष्प पल्लव और मूल हाथों मे सुशोभित थे। सम्पूर्ण सुन्दरता का आदि स्रोत भगवती आयोनिजा का यह स्वरूप बड़ा ही कमनीय था। करोडो सूर्यों के समान चमकने वाला यह विग्रह करूण रस का अपार सागर था। ऐसा दिव्य रूप सामने उपस्थित करने के पश्चात्‌ जगत्‌ की रक्षा में तत्पर रहने वाली करूण हृदया भवानी अपनी अनन्त आँखों से सहस्रों जलधारायें पृथ्वी पर गिराने लगी। उनके नेत्रों से निकले हुए जल के द्वारा नौ रात तक संसार मे महान्‌ वृष्टि होती रही। वे देवता व ब्राह्मण सब एक साथ मिलकर भगवती की स्तुति करने लगे।

महादेवी ! तुम्हें नमस्कार है। महाशक्ति ! तुमने हमारा संकट दूर करने के लिये सहस्रों नेत्रों से सम्पन्न अनुपम रूप धारण किया है। हे मात ! भूख से अत्यन्त पीडित होने के कारण तुम्हारी विशेष स्तुति करने में हम असमर्थ हैं। अम्बे ! महेशानी, शत नैत्रो वाली देवी शताक्षी! तुम दुर्गमासुर नामक दैत्य से वेदों को लाने की कृपा करो। व्यास जी कहते हैं – राजन ! ब्राह्मणों और देवताओं की यह करूण पुकार सुनकर भगवती शिवा ने अनेक प्रकार के शाक तथा स्वादिष्ट फल अपने हाथ से उन्हें खाने के लिये दिये और भांति- भांति के शाक फल अपने शरीर से उत्पन्न कर पृथ्वी पर वितरित कर दिये भाँति-भाँति के अन्न फल सामने उपस्थित कर दिये। पशुओं के खाने योग्य अनेक रस से सम्पन्न घास भी उन्हें देने की कृपा की। राजन ! उसी दिन से भगवती का नाम ”शाकुम्भरी” पड गया।सभी देवतागण शाकम्भरी देवी के जयकारे लगाने लगे शिवालिक पहाडियों मे कोलाहल मच जाने पर असुरों को देवताओं की स्थिति का आभास हो गया। उन्होंने अपनी सेना सजायी और अस्त्र शस्त्र से संपन्न होकर वह युद्ध के लिये चल पड़ा। उसके पास एक अक्षोहिणी सेना थी। तदनन्तर भगवती शाकम्भरी ने संसार की रक्षा के लिये चारों ओर तेजोमय चक्रखड़ा कर दिया। तदनन्तर देवी और दैत्य-दोनों की लड़ाई ठन गयी। धनुष की प्रचण्ड टंकार से चारों दिशाएँ गूँज उठी। भगवती की माया से अनेकों उग्र शक्तियां प्रकटी और देवी से प्रेरित शक्तियों ने दानवों की बहुत सी सेना नष्ट कर दी। तब दुर्गम स्वयं शक्तियों के सामने उपस्थित होकर उनसे युद्ध करने लगा। दस दिनों में राक्षस की सम्पूर्ण अक्षोहिणी सेनाएँ देवी शाकम्भरी की माया से वध करदी गयी। अब भगवती जगदम्बा शाकम्भरी और दुर्गमासुर दैत्य इन दोनों में भीषण युद्ध होने लगा।इक्कीस दिवस तक लडाई चली इक्कीसवें दिन जगदम्बा शाकम्भरी के पाँच बाण दुर्गम की छाती में जाकर घुस गये। फिर तो रूधिर से सना वह दैत्य भगवती परमेश्वरी के सामने प्राणहीन होकर गिर पड़ा। तब देवता नीति की अधिष्ठात्री शाकम्भरी देवी की स्तुति करने लगे- परिवर्तन शील संसार की एकमात्र कारण भगवती परमेश्वरी! शाकम्भरी!शताक्षी शतलोचने! तुम्हे कोटिशः नमस्कार है। सम्पूर्ण उपनिषदों से प्रशंसित तथा दुर्गमासुर नामक दैत्य का संहार करने वाली एवं पंचकोसी सिद्धपीठ में रहने वाली कल्याण-स्वरूपिणी भगवती शाकेश्वरी! तुम्हें नमस्कार है। व्यासजी कहते हैं – राजन! ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं के इस प्रकार स्तवन एवं विविध द्रव्यों के पूजन करने पर भगवती शाकम्भरी तुरन्त संतुष्ट हो गयीं। कोकिल के समान मधुर भाषिणी शताक्षी देवी ने प्रसन्नतापूर्वक उस राक्षस से वेदों को त्राण दिलाकर देवताओं को सौंप दिया। वे बोलीं कि मेरे इस उत्तम महामहात्म्य का निरन्तर पाठ करना चाहिए। मैं उससे प्रसन्न होकर सदैव समस्त संकट दूर करती रहूँगी। व्यासजी कहते हैं – राजन ! जो भक्ति परायण बडभागी स्त्री पुरूष निरन्तर इस अध्याय का श्रवण करते हैं, उनकी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं और अन्त में वे देवी के परमधाम को प्राप्त हो जाते हैं।बोलिये शाकम्भरी मैय्या की जय

माता शाकम्भरी देवी का मंदिर शिवालिक पर्वत की तलहटी मे

माता के मंदिर का पुनः अस्तित्व[संपादित करें]

माता शाकम्भरी देवी का मंदिर महाभारत काल के बाद घने वनों मे होने के कारण लुप्त हो गया था। काफी समय तक आबादी से दूर होने की वजह से भक्त माता को भूल गये थे। एक बार स्थानीय नैन गूजर नाम का अंधा ग्वाला इस जंगल मे भटक गया। रात भी अंधेरी थी और चारों और जंगली जानवरों की आवाजें भयग्रस्त लग रही थी। तभी नैन गूजर को देवी शताक्षी की दिव्य और मधुर वाणी सुनाई दी "यह हमारा परमपीठ है तुम इसे पुनः प्रकाश मे लाओ"। नैन गूजर ने पूछा आप कौन है तो आवाज आई "मै शक्तिस्वरूपा शाकम्भरी देवी हूँ "। तब ग्वाले ने कहा अगर आप सचमुच शक्ति स्वरूपा है तो मुझे नैत्र ज्योति प्रदान करके दिखाओ। उसी समय प्रकाश हुआ और ग्वाले को दिखाई देना लगा । तब ग्वाले गूजर ने माता का स्थान खोज कर साफ सफाई की और माता का यह स्थान पुनः अस्तित्व मे आ गया।

माता का मुख्य प्रशाद[संपादित करें]

वैसे तो माँ शाकम्भरी को नारियल चुनरी चढाई जाती हैं और इसके अलावा भक्तजन हलवा- पूरी, खील, बताशे, ईलायचीदाना, मेवे - मिश्री व अन्य मिष्ठानो का भोग लगाते हैं। किंतु माँ का प्रिय फल सराल है। सराल एक विशेष प्रकार का कंदमूल है जो केवल शिवालिक पहाडियों और उसके आस पास के क्षेत्र मे ही पाया जाता है। यह शकरकंद की तरह का होता है। थोड़ी सी जमीन खोदने पर यह आसानी से मिल जाता है। किवदंती है कि जब धनुषधारिणी माँ शाकम्भरी यहाँ प्रकट हुई और भूख- प्यास से संतप्त देवों - मुनियों को देखा तो माता ने अपने धनुष से पहाडियों पर एक तीर दे मारा। जिसमें सबसे पहले सराल की बेल चली और फिर अन्य वनस्पतियाँ और फल पैदा हुए। अत अवतार दिवस पर माँ शाकम्भरी को मुख्यतः सराल और सराल के हलवे का भोग भवन मे लगाया जाता है।

भगवती का प्रिय शाक सराल

शक्तिपीठ का ऐतिहासिक महत्व[संपादित करें]

माँ शाकम्भरी देवी शक्तिपीठ पौराणिक होने के साथ- साथ ऐतिहासिक भी है। यहाँ से अनेकों पुरातन मंदिरों के अवशेष और मूर्तियां प्राप्त हुई है यहाँ दो प्रतिमाएँ एकमुखी शिवलिंग की भी मिली जिनकों आठवीं शताब्दी से पूर्व का माना जाता है। लगभग 350 ईसा पूर्व मे जब चंद्रगुप्त का काल था तो आचार्य चाणक्य और चंद्रगुप्त ने काफी समय इस सिद्धपीठ मे व्यतीत कर अपनी सेना का गठन किया। उस समय माँ शाकम्भरी देवी शक्तिपीठ स्रुघ्न देश का सबसे बड़ा तीर्थ स्थल था जहाँ प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु देवी दर्शन के लिए आते थे।सिद्धपीठ मे आने का एकमात्र रास्ता वृहदहट्ट(वर्तमान बेहट) से होकर आता था। वृहदहट्ट के दो अर्थ हो सकते हैं एक बडा बाजार और दुसरा बड़ा जंगल।उस काल मे बेहट मैदानी और पहाड़ी राजाओं के लिए संयुक्त बाजार था तथा यह क्षेत्र घने जंगलों से घिरा हुआ था। बेहट से भक्तजन दिन के समय टोलियाँ बनाकर पैदल ही सिद्धपीठ जाते थे रात्रि मे इस क्षेत्र मे जाना भयप्रद था क्योंकि चारों और जंगल के सिवा कुछ नही था। माँ शाकम्भरी देवी क्षेत्र की महिमा प्रसिद्ध इतिहासकार सत्यकेतु विद्यालंकार की पुस्तक आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य मे मिलती है।अपने जीवनकाल मे जब शंकराचार्य जी जिनका जन्म लगभग 508 ईसा पूर्व माना जाता है बद्रीकेदार की यात्रा पर निकले तो माँ शाकम्भरी देवी शक्तिपीठ मे भी आये जिसके कारण यहाँ पर शंकराचार्य आश्रम सुशोभित है। माँ शाकम्भरी देवी के आदेशानुसार शंकराचार्य जी ने माँ शाकम्भरी देवी की मुर्ति के दायीं और भीमा एवं भ्रामरी तथा बायीं और शताक्षी देवियों की प्रतिमाओं को स्थापित किया।

बाबा भुरादेव मंदिर[संपादित करें]

बाबा भुरादेव जी का मंदिर माँ शाकम्भरी देवी के भवन से लगभग डेढ़ किमी पहले स्थित है। बाबा भुरादेव मंदिर के पास से ही शिवालिक पर्वतमाला शुरू हो जाती है। माता शाकम्भरी देवी के वरदान स्वरूप सर्वप्रथम यात्री बाबा भुरादेव जी की पूजा अर्चना करते हैं। भुरादेव जी को माँ शाकम्भरी देवी का वरदान प्राप्त है।

प्रथम पूजा बाबा भुरादेव मंदिर

शाकम्भरी देवी के अन्य प्रसिद्ध मंदिर[संपादित करें]

  • साम्भर साम्भर शाकम्भरी झील के अंदर पहाड़ी पर विराजमान माँ शाकम्भरी देवी का यह दूसरा प्रसिद्ध मंदिर है। मुख्य मंदिर का निर्माण लगभग आठवीं शताब्दी के काल का माना जाता है यह मंदिर जयपुर से लगभग सौ किमी दूर साम्भर कस्बे के पास है। यहाँ माता को चौहानों की कुलदेवी के रूप मे पूजा जाता है। ऐसी धारणा है यह मंदिर चौहानों ने ही स्थापित किया था क्योंकि वें माता शाकम्भरी को कुलदेवी मानते थे।
  • सकराय शाकम्भरी माता का यह प्रसिद्ध मंदिर राजस्थान के सीकर जिले के सकराय गाँव मे है। यह मंदिर चारों और से अरावली की पहाडियों से घिरा हुआ है।मंदिर मे ब्रह्माणी और रूद्राणी के दो विग्रह स्थापित है। मंदिर मूल रूप से शंकरा अथवा शक्रा देवी का है लेकिन कालांतर मे शाकम्भरी के नाम से विख्यात हो गया। मंदिर मे मिले प्राचीन शिलालेखों मे भी शक्रा माता सहित कुबेर आदि देवताओं की भावपूर्ण स्तुतियाँ लिखी हुई है। माता को सकराय माता राजस्थान भी कहा जाता है
  • बनशंकरी चालुक्य शासकों की कुलदेवी माँ बनशंकरी है। मंदिर मे इनको शाकम्भरी भी कहा जाता है।मंदिर मे काले पत्थर से निर्मित माँ की प्रतिमा है। यह मंदिर कर्नाटक के बादामी मे स्थित है। कहा जाता है कि बादुब्बे नामक लोकदेवी बाद मे बनशंकरी नाम से विख्यात हुई। आजकल इनको शाकम्भरी देवी के रूप मे पूजा जाता है।
  • त्रियुगीनारायण बद्री केदार जाने वाले मार्ग के पास त्रियुगीनारायण के रास्ते मे यह माँ शाकम्भरी का एक छोटा सा मंदिर है।मंदिर निर्जन स्थान पर है यहाँ पर पहाडियों के अति सुंदर दृश्य दिखाई देते हैं। माता का यह मंदिर यहाँ कब से है इसके बारे मे कोई ठोस जानकारी नही है। मंदिर वर्ष भर बंद रहता है इक्का दुक्का श्रद्धालु ही प्रतिदिन दर्शन को आतें है। जो बाहर से ही दर्शन कर पाते हैं। नवरात्र के अवसर पर यहाँ श्रद्धालुओं की विशेष चहल पहल होती है और तभी मंदिर के कपाट खोलें जातें हैं। नवरात्र के अवसर पर यहाँ भंडारे और माता जी का भोग प्रसाद बनाया जाता है। मंदिर के आसपास ठहरने के लिए कोई व्यवस्था नही है ना ही कोई धर्मशाला या दुकान आदि है। यह मंदिर एक सुनसान पहाड़ पर है और मंदिर को समुचित जीर्णोद्धार की आवश्यकता है। यहाँ आकर मन को शांति मिलती है। गर्भगृह मे माता शाकम्भरी की दो प्रतिमाएँ विराजमान है।
केदारघाटी मे स्थित शाकम्भरी मंदिर
  • नागेवाडी महाराष्ट्र के नागेवाडी मे माँ शाकम्भरी देवी का यह सुंदर मंदिर स्थित है।
  • कटक यह मंदिर कटक मे है।
  • कुचामन सिटी राजस्थान के कुचामन सिटी मे पहाडियों मे माता का यह मंदिर है।
  • सकोर हिमाचल प्रदेश के सकोर स्थान पर देवी शाकम्भरी का यह मंदिर साकम्बरी सकोर के नाम से विख्यात है।यह पर शाकम्भरी को स्थानीय लोकदेवी के रूप मे मानते हैं।
  • कनकदुर्गा विजयवाड़ा के समीप इंद्रकीलाद्रि पर्वत पर भगवती कनक दुर्गा का भव्य मंदिर है जोकि द्रविड़ शैली मे बना है। यहाँ नौ दिन का शाकम्भरी उत्सव मनाया जाता है। मंदिर मे स्थापित माँकनकदुर्गाभगवती शाकम्भरी देवी का ही स्वरूप है।
  • अलावला तीर्थ करनाल- हरियाणा राज्य के करनाल जिले मे अलावला गाँव मे लवकुश तीर्थ है इसी तीर्थ के पास एक सरोवर है तथा माता शाकंभरी का मंदिर भी है जिसमे नवरात्र मे मेला लगता है इस तीर्थ को अब कुरूक्षेत्र की 48 कोस की परिक्रमा मे भी शामिल किया गया है
  • उत्तर प्रदेश के कांधला मे माँ श्री शाकम्भरी देवी का मंदिर है जिसके बारे मे मान्यता है कि महाराज कर्ण द्वारा यह बनवाया गया था।
  • शाहबाद मारकण्डा- कुरूक्षेत्र के शाहबाद मारकण्डा शहर मे यह मंदिर कुछ दशकों मे भव्य रूप ले चुका है।
  • बल्लेवाला- यमुनानगर जिले मे बल्लेवाला गाँव मे कुछ वर्ष पहले ही यह मंदिर बना था जिसमें सिंहवाहिनी माँ शाकंभरी देवी की सुंदर प्रतिमा के अतिरिक्त भैरव जी, हनुमान, काली माँ, केसरमल बावरी सहित कुछ महात्मा पुरूषों की मूर्तियां स्थापित की गई है।

संदर्भ[संपादित करें]

  1. David R. Kinsley 1989, pp. 3-4.
  2. "9 days, 9 avatars: Be ferocious like Goddess Kaalratri". मूल से 15 जून 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 सितम्बर 2017.