शम्भूनाथ शुक्ल

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शम्भूनाथ शुक्ल (18 दिसंबर 1903), भारत के एक राजनेता, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। कानूनी विद्वान होने के कारण उन्हें भारत की संविधान सभा के लिए मनोनीत किया गया। स्वतंत्रता के बाद उन्होंने विंध्य प्रदेश के तीसरे मुख्यमन्त्री के रूप राज्य का नेतृत्व किया।।

नोट: विंध्य प्रदेश भारत का एक छोटा-सा राज्य था, जिसकी स्थापना स्वतंत्रता के बाद 1948 में मध्य भारत की कुछ रियासतों को मिलाकर की गई थी। वर्ष 1956 में, राज्य अधिनियम 1956- के तहत विंध्य प्रदेश को नये मध्य प्रदेश राज्य में विलय कर दिया गया।

जीवन एवं राजनैतिक सफर[संपादित करें]

पंडित शम्भूनाथ शुक्ल का जन्म 18 दिसंबर 1903 को शहडोल में हुआ था। उन्होंने शिक्षा प्रयाग विश्वद्यिालय से 1926 में बीए और सन 1928 में एलएलबी की डिग्री हासिल कर ली। एलएलबी में भी गोल्ड मेडल मिला था।

स्वतंत्रता आंदोलन के चलते वह महात्मा गांधी के 1920 में असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेकर जेल भी पहुंचे थे।

सन् 1929 में ही इलाहाबाद में पंडित जी ने वकालत की शुरुआत कर दी। इतना ही नहीं 1930 में मुंसिफ मजिस्ट्रेट (बुर्हर) जिला शहडोल में वकालत प्रारंभ कर दिया।

1937 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य निर्वाचित हुए। बाद में वह 1945 में, रीवा महाराजा के कानूनी सलाहकार नियुक्त हुए। स्वतंत्रता के बाद वे विंध्य प्रदेश से भारत की संविधान सभा के लिए मनोनीत किए गए।

(1950 से 1952) वे अस्थायी संसद के सदस्य के रूप में कार्य किया। इसके बाद 1952 में विंध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में विधायक चुने गए और सर्वसम्मति से कांग्रेस की ओर से विंध्य प्रदेश के (1952 से 1956) तक मुख्यमंत्री के लिए चुने गए।

वर्ष 1956 में, राज्य पुनर्गठन अधिनियम-1956 के तहत विंध्य प्रदेश के विलय पर तथा नये मध्य प्रदेश के गठन पर उन्हें 31 अक्टूबर 1956 को अपने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।

विंध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री होने के बाद भी जब मध्यप्रदेश बना तो उन्होंने महत्वाकांक्षा को परे रखते हुए त्याग की भावना दिखाई और इस तरह मध्य प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री के रूप में पं. रविशंकर शुक्ल की ताजपोशी की गई।

1967 के संसदीय चुनावों में वह कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में, रीवा संसदीय सीट से लोकसभा के सदस्य चुने गए। लेकिन उन्हे 1971 के संसदीय चुनाव में मार्तण्ड सिंह से हार का सामना करना पड़ा।

चुनाव के बाद इंदिरा गांधी की अनुशंसा पर मध्यप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल सत्यनारायण सिन्हा ने उन्हें 15 अगस्त सन 1971 को अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा, का प्रथम कुलपति नियुक्त किया।

अगस्त 1973 को उनकी पत्नी रमाबाई का निधन हो गया। पत्नी के निधन ने पंडित जी को झकझोर दिया, उन्हें अकेलापन सताने लगा और वो अस्वस्थ रहने लगे। इस दौरान वह सक्रिय राजनीति से दूर रहने लगे। 21 अक्टूबर 1978 को भोपाल के हमीदिया अस्पताल में उनका निधन हो गया।

स्वतंत्रता के बाद उन्होंने शहडोल के विकास के हर संभव प्रयास किए, आज शहडोल जिस पथ पर है, वह उनका ही योगदान है।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]