शबरपा

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शबरपा सिद्ध साहित्य की रचना करने वाले प्रमुख सिद्धों में से एक हैं। इनका जन्म ७८० ई॰ में क्षत्रिय कुल में हुआ था। इन्होंने सरहपा से ज्ञान प्रप्त किया। शबरों की तरह जीवन व्यतीत करने के कारण इन्हें शबरपा कहा जाने लगा। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक चर्यापद है।[1] शबरपा ने माया-मोह का विरोध करके सहज जीवन पर बल दिया तथा उसी को महासुख की प्राप्ति का मार्ग बताया।
इनकी कविता का कुछ अंश है-

हेरि ये मेरि तइला बाड़ी खसमे समतुला
षुकुड़ए सेरे कपासु फुटिला।
तइला वाड़िर पासेर जोह्ड़ा वाड़ी ताएला
फिटेलि अंधारि रे आकाश फुलिजा।।


सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. हिन्दी साहित्य का इतिहास, सम्पादक- डॉ॰ नगेन्द्र, संस्करण १९८५, प्रकाशक- नेशनल पब्लिशिंग हाउस, २३ दरियागंज, नयी दिल्ली-११००२, पृष्ठ- ७९