शक्‍ति-संतुलन

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शक्‍ति-संतुलन का सिद्धान्त (balance of power theory) यह मानता है कि कोई राष्ट्र तब अधिक सुरक्षित होता है जब सैनिक क्षमता इस प्रकार बंटी हुई हो कि कोई अकेला राज्य इतना शक्तिशाली न हो कि वह अकेले अन्य राज्यों को दबा दे। [1]

परिचय[संपादित करें]

शक्ति संतुलन की अवधारणा लगभग 15 वीं शताब्दी से अंतर्राष्ट्रीय स्तर में प्रचलित है। शायद इसीलिए कुछ लेखक इसे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का बुनियादी सिद्धान्त तो कुछ इसे सार्वजनिक सिद्धान्त या राजनीति के मौलिक सिद्धान्त की संज्ञा देते हैं। साधारण शब्दों में शक्ति संतुलन का अर्थ है जब एक राज्य/राज्यों का समूह दूसरे राज्य/राज्यों के समूह के सापेक्ष अपनी शक्ति इतनी बढ़ा ले कि वह उसके समकक्ष हो जाए। परन्तु इस धारणा की परिभाषा को लेकर विद्यमान एकमत नहीं हैं। शायद इसीलिए इनिंस एल क्लॉड का कहना है कि यह ऐसी अवधारणा है जिसकी परिभाषा की समस्या नहीं है बल्कि समस्या यह है कि इसकी बहुत सारी परिभाषाएं हैं। इन परिभाषाओं से पहले यह बताना भी आवश्यक है कि यह दो प्रकार की होती हैं -सरल एवं जटिल। सरल या साधारण शक्ति संतुलन जब होता है जब यह तुलना दो राष्टोंं या दो राष्टोंं के बीच में सीधे तौर पर हो। लेकिन यदि यह संतुलन दो समुदायों के परस्पर तथा इनमें सम्मिलित समुदायों में आन्तरिक रूप में भी हो तब यह जटिल संतुलन कहलाता है।

इसके संदर्भ में विद्वानों ने विभिन्न परिभाषाएं दी हैं जो इस प्रकार हैं-

मारगेन्थाऊ[संपादित करें]

प्रत्येक राष्ट्र यथास्थिति को बनाये रखने अथवा परिवर्तित करने के लिए दूसरे राष्टोंं की अपेक्षा अधिक शक्ति प्राप्त करने की आकांक्षा रखता है। इसके परिणामस्वरूप जिस ढांचे की आवश्यकता होती है वह शक्ति संतुलन कहलाता है।

जार्ज स्थवार्जन बर्गट[संपादित करें]

शक्ति संतुलन वह साम्यावस्था या अंतर्राष्ट्रीय संबंध में कुछ मात्रा में स्थिरता या स्थायित्व है, जो राज्यों के बीच मैत्रा-संधियों या अन्य दूसरे साधनों की मदद से प्राप्त किए जा सकते हैं।

क्विंसी राइट[संपादित करें]

शक्ति संतुलन वह व्यवस्था है जिसके अंतर्गत प्रत्येक राज्य में यह विश्वास बनाये रखने का सतत प्रयत्न किया जाता है कि यदि राज्य आक्रमण का प्रयत्न करते हैं तो उन्हें अजेय दूसरे राष्ट्रों के समूह का प्रतिरोध करना होगा।

सिडनी फे[संपादित करें]

शक्ति संतुलन से अभिप्राय राष्टोंं के परिवारों के सदस्यों के बीच शक्ति की न्यायपूर्ण साम्यवस्था से है जो किसी राष्ट्र को इतना शक्तिशाली होने से रोकता है ताकि वह दूसरे राष्ट्र पर अपनी इच्छा लाद न सके।

इस प्रकार शक्ति संतुलन को विद्वानों ने विभिन्न दष्ष्टियों से देखा है। कोई इसे शक्ति के वितरण के रूप में देखते हैं तो कोई इसे समूहों के बीच साम्यावस्था के रूप में, कोई इसे स्थायित्व के रूप में, तो कोई इसे युद्ध व अस्थिरता के रूप में। कहने का अर्थ यह है कि इन परिभाषाओं में सर्वसम्मति का अभाव है। शायद यह इसलिए हैं कि शक्ति संतुलन के अनेक अर्थ/प्रयोग हैं जिस वजह से यह भ्रांति बनी हुई है। मुख्य तौर पर शक्ति संतुलन को चार सन्दर्भों में प्रयोग किया जाता है-

  • (क) एक अवस्था के रूप में;
  • (ख) एक नीति के रूप में;
  • (ग) एक व्यवस्था के रूप में;
  • (घ) एक प्रतीक के रूप में।

मान्यताएं[संपादित करें]

क्विंसी राईट के अनुसार शक्ति संतुलन का सिद्धान्त पांच मान्यताओं पर आधारित है-

  • (क) प्रत्येक राष्ट्र अपनी उपलब्ध शक्ति एवं साधनों के द्वारा, जिनमें युद्ध भी शामिल है, अपने मार्मिक हितों -राष्ट्रीय स्वतन्त्राता, क्षेत्राय अखण्डता, राष्ट्रीय सुरक्षा, घरेलू राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की रक्षा आदि के लिए प्रतिबद्ध होते हैं।
  • (ख) राज्य के मार्मिक हितों को या तो खतरा होता है या खतरे की सम्भावना बनी रहती है। अतः राज्यों के लिए प्रतिदिन परिवर्तनशील शक्ति संबंधों से परिचित होना आवश्यक हो जाता है।
  • (ग) शक्ति संतुलन के द्वारा राज्यों के मार्मिक हितों की रक्षा होती है। शक्ति संतुलन के कारण या तो अधिक शक्तिशाली राज्य का आक्रमण करने का साहस ही नहीं होता और यदि वह ऐसा करने का दुस्साहस भी करे तो आक्रमण के शिकार राज्य को हार का मुंह नहीं देखना पड़ता।
  • (घ) राज्यों की सापेक्षिक शक्ति को निश्चित तौर पर आंका जा सकता है। यद्यपि शक्ति का आंकलन एक कठिन समस्या है, परन्तु इसके अतिरिक्त राज्यों के पास कोई ऐसा आधार भी नहीं है जिसके सहारे वे सैनिक तैयारी पर अपने खर्च का अनुपात तय कर सके।
  • (ङ) शक्ति सम्बन्धित तथ्यों की बुद्धिपूर्ण सूक्ष्म विवेचना के द्वारा ही राजनीतिक विदेश नीति संबंधी निर्णय लेते हैं अथवा ले सकते हैं।

विशेषताएँ[संपादित करें]

शक्ति संतुलन की निम्नलिखित विशेषताएं होती हैं-

(१) सामान्य रूप से यह यथास्थिति बनाए रखने की नीति है, परन्तु वास्तव में यह हमेशा गतिशील व परिवर्तनीय होती है।

(२) यह कोई दैवी वरदान नहीं है, अपितु यह मानव के सतत हस्तक्षेप का परिणाम है।

(३) यह व्यक्तिपरक व वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार से परिभाषित होता है। इतिहासकार हमेशा इसका वस्तुनिष्ठ आकलन करते हैं जबकि राजनयिक हमेशा इसकी व्यक्तिपरक विवेचना करते हैं।

(४) यद्यपि यह शान्ति स्थापित करने का तंत्र है, परन्तु यह मुश्किल से ही कभी शान्ति स्थापित करता है।

(५) यह मुख्यतया महाशक्तियों का खेल है। छोटे राष्ट्र तो मात्रा दर्शक की भूमिका ही निभाते हैं।

(६) इसके सही संचालन हेतु एक संचालक की आवश्यकता होती है जो आज के युग में नदारद है।

(७) यह साम्यावस्था के आधार पर शक्तियों का समान वितरण करता है। परन्तु यह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि ऐसा समय कभी नहीं रहा।

(८) शक्ति संतुलन की व्यवस्था अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शायद ही दष्ष्टिगोचर हो, क्योंकि शक्ति तत्व का मापना व स्थिर कर पाना सम्भव नहीं है।www.ncert.com

शक्ति संतुलन की विधियाँ[संपादित करें]

शक्ति संतुलन की स्थापना हेतु निम्नलिखित तरीकों का प्रयोग किया जाता है-

क्षतिपूर्ति[संपादित करें]

कभी-कभी बड़ी शक्तियां छोटे राज्यों की भूमि को आपसी शक्ति संतुलन हेतु बांट लेती हैं। यह सीमा परिवर्तन इस आधार पर किया जाता है कि आपसी शक्तियों में से कोई भी एक दूसरे से शक्तिशाली न बन जाए। उदाहरण के रूप में, यूट्रेक्ट की संधि के बाद 1713 में स्पेन की भूमि को बोर्बोनहेप्सबर्ग के बीच बांट दिया गया। इसी प्रकार पोलैण्ड को तीन बार ( 1772 , 1793 व 1795 ) में इस प्रकार विभाजित किया गया कि शक्ति संतुलन न बिगड़े। इसी प्रकार 18वीं व 19वीं शताब्दी में विभिन्न सन्धियां इसी दष्ष्टिकोण को ध्यान में रखकर हुईं।

संधियां एवं प्रति-संधियां[संपादित करें]

मैत्री संधियां भी शक्ति संतुलन का प्रमुख साधन रही है। लेकिन जब एक राष्ट्र मैत्रा सन्धियों के द्वारा अपनी शक्ति बढ़ा लेता है तब अन्य राज्य भी आशंकित होकर आपस में प्रति मैत्रा सन्धियां करने लगते हैं। इस क्रम का अन्त विश्व के सभी राष्टोंं द्वारा विरोधी गुटों में संगठित होकर होता है। इस प्रकार की मैत्रा सन्धियों एवं प्रति मैत्रा सन्धियों का दौर यूरोप की राजनीति में आमतौर पर देखने को मिलती है। उदाहरणस्वरूप 1882 के त्रिराष्ट्रीय संधि के गठन के विरोध स्वरूप अन्य राष्ट्रों के बीच भी विरोधी त्रिराष्ट्रीय मैत्री सन्धियों पर सहमति हुई ताकि यूरोप की राजनीति में संतुलन बनाया जा सके। इसी प्रकार के उदाहरण द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद महाशक्तियों के बीच स्थापित गठबंधनों के रूप में सामने आया।

शस्त्रीकरण व निशस्त्रीकरण[संपादित करें]

शस्त्रीकरण शक्ति का प्रत्यक्ष एवं अग्रतम रूप है। इसीलिए राज्यों के मध्य, विशेषकर अपने प्रतिद्वंद्वी से, शस्त्रों को संचय करने की होड़ लग जाती है। इस संचय से उनकी सैन्य शक्ति का विकास होता है तथा अपने विरोधियों पर दबाव बढ़ाने के काम आता है। परन्तु दूसरा राष्ट्र या राज्यों का समूह भी पीछे नहीं रहना चाहता, अतः दोनों ही एक दूसरे को संतुलित करना चाहते हैं। उदाहरणस्वरूप, शीतयुद्ध युग में पूर्व सोवियत संघअमेरिका के बीच शस्त्रीकरण ही दोनों द्वारा एक दूसरे को संतुलित करने का माध्यम रहा है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति शस्त्रीकरण के साथ-साथ निरस्त्रीकरण भी कई बार शक्तियों के मध्य संतुलन बनाने का कार्य करता है। जब शस्त्रीकरण एक चरम सीमा के बाद आगे बढ़ाना सम्भव न रह सके तब शक्तियां निरस्त्रीकरण की तरफ कदम बढ़ाती है। उदाहरण के रूप में, दोनों महाशक्तियों के बीच साल्ट-१ साल्ट-२ स्टार्ट-१ व स्टार्ट-२ आईएनएफ संधि आदि समझौते इसका प्रमाण है। अन्य राष्टोंं के बीच भी वर्तमान समय में शस्त्राकरण से तंग आकर विश्वसनीयता बढ़ाने वाले कदमों का उठाया जाना इसका प्रमाण है।

मध्यवर्ती राज्य[संपादित करें]

कई बार दो शक्तियां आपसी सीधे टकराव को टालकर किसी एक राज्य को मध्य रखकर आपसी संतुलन बनाए रखती हैं। अतः ऐसा कमजोर व तटस्थ राज्य हमेशा दो बड़ी ताकतों के बीच युद्ध की संभावनाएं टली रहने के साथ-साथ शक्ति संतुलन भी बना रहता है। उदाहरण रूप में, काफी समय तक पोलैण्ड रूस व जर्मनी के बीच मध्यवर्ती राज्य बना रहा। अफगानिस्तान, रूस व इंग्लैण्ड के बीच इस स्थिति में काफी देर तक रहा। कभी-कभी दो गैर मित्र राष्ट्र मध्यवर्ती क्षेत्रा को बराबर-बराबर बांट लेते हैं। ऐसी स्थिति में मध्यवर्ती क्षेत्रों का प्रभाव न्यूनतम हो जाता है। उदाहरण के रूप में जर्मनी, कोरिया, हिन्द-चीन का विभाजन। वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति ये क्षेत्रा समाप्त प्राय हो गये हैं। अतः इनका प्रभाव भी शक्ति संतुलन हेतु नगण्य हो गया है।

हस्तक्षेप एवं अहस्तक्षेप[संपादित करें]

हस्तक्षेप की नीति हमेशा शक्तिशाली राष्टोंं द्वारा दूसरे के मामले में दखलंदाजी करके अपने प्रभाव को बढ़ाने से है। इसका उद्देश्य बड़े राष्ट्र द्वारा वहां पर किसी शासन के बने रहने या बदलने के स्वरूप में होता है। इस साधन के माध्यम से शक्ति संतुलन बनाये रखने का प्रयास होता है। शीतयुद्ध काल में दोनों महाशक्तियों ने इसका खूब प्रयोग किया। पूर्व सोवियत संघ ने जहां हंगरी, चेकोस्लोवाकिया व अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया, वहीं अमेरिका ने ग्र्रेनेडा, क्यूबा, निकारागुआ, कोरिया, ईराक, अफगानिस्तान आदि में हस्तक्षेप किया है।

अहस्तक्षेप द्वारा संतुलन बनाए रखने की नीति आमतौर पर छोटे राष्ट्रों द्वारा अपनाई गई है। इससे छोटे राज्यों द्वारा तटस्था के रूप में अपनाया गया है। कुछ परिस्थितियों में बड़े राष्टोंं ने भी इसका सहारा लिया है। ज्यादातर एशिया, अफ्रीका एवं लैटिन अमेरिकी देशों ने गुट निरपेक्षता की नीति अपनाकर अहस्तक्षेप नीति का पालन किया है। इससे युद्ध न करने या उसे सीमित रखने या उसके स्थानीय स्वरूप देने का प्रयास आदि इसी के अंतर्गत आ जाते हैं।

फूट डालो और राज करो[संपादित करें]

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी ताकतों द्वारा फूट डालो, राज करो की नीति का भी अनुसरण किया है। राज्यों को दो विरोधी गुटों में बांट कर भी शक्तियां उस क्षेत्रा में शक्ति संतुलन स्थापित करती हैं। यह नीति मुख्य रूप से ब्रिटेन द्वारा अपने साम्राज्य को एकीकृत रखने हेतु काफी बार प्रयोग की गई। 1947 का भारत-पाक विभाजन इसका सशक्त उदाहरण है। इस नीति के अंतर्गत अपने प्रतिद्वंदियों को कमजोर करके संतुलन बनाने का प्रयास किये जाते रहे हैं। शीतयुद्ध काल में महाशक्तियों ने भी गुटनिरपेक्ष देशों में इस प्रकार की नीति का अनुसरण किया है।

मूल्यांकन[संपादित करें]

यदि शक्ति संतुलन का मूल्यांकन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस तरीके से शक्ति पर पूर्ण सीमाएं तो न लग सकी। हां कुछ हद तक यह सिद्धान्त अपने उद्देश्यों में सफल हो सका। इस सिद्धान्त के पूर्ण रूप से शक्ति के विकास पर अंकुश न लगा पाने के निम्नलिखित कारण रहे-

  • (1) इससे शान्ति स्थापना की बजाय शक्ति प्रतिद्वंदिता बढ़ी जिसके परिणामस्वरूप युद्धों को बढ़ावा ही मिला।
  • (2) शक्ति संतुलन को व्यवहारिक रूप देने में शक्ति का सही आकलन अति आवश्यक है, परन्तु वास्तविकता यह है कि किसी राष्ट्र की बिल्कुल सही शक्ति आंकना सम्भव ही नहीं है।
  • (3) यह सिद्धान्त अंतरराष्ट्रीय कानून व अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता के भी विरुद्ध है। कानून व नैतिकता की प्रवाह किए बिना स्थाई शान्ति की स्थापना संभव नहीं है।
  • (4) शक्ति संतुलन के आधार पर केवल महाशक्तियों हेतु लाभकारी है। इससे छोटे, निर्बल एवं विकासशील देशों को फायदा नहीं होगा। यह विश्व के एक बड़े भाग को शान्ति के लाभों से वंचित रखेगा अतः यह विश्व हेतु भी लाभकारी नहीं हो सकता।
  • (5) यह सिद्धान्त सामान्यतया स्थिरता हेतु बनाया गया है, परन्तु इसमे संलिप्त राज्य हमेशा अस्थिर रहेंगे। क्योंकि उन्हें शक्ति संतुलन हेतु हमेशा परस्पर समीकरण, फिर नये समीकरण बनाने पड़ते रहेंगे। अतः यह वास्तविक रूप में स्थिरता प्रदान नहीं कर सकता।

उपरोक्त विचारों से यह स्पष्ट है कि शक्ति विस्तार या शक्ति संघर्ष रोकने हेतु यह सिद्धान्त पूर्णरूपेण सक्षम नहीं है। लेकिन इसके माध्यम से आंशिक सफलता अवश्य मिलती है, क्योंकि - प्रथम, छोटे राज्य अपनी सुरक्षा आश्वस्त कर सकते हैं। द्वितीय, यह किसी बड़ी शक्ति के आधिपत्य स्थापना पर भी अंकुश रखेगा। तृतीय, यह युद्धों को भी टालने में सक्षम है। चतुर्थ, संप्रभू राज्यों पर किसी केन्द्रीय सत्ता के अभाव में अंतर्राष्ट्रीय कानून भी केवल शक्ति संतुलन से ही सम्भव है। अतः यह कुछ हद तक शक्ति के निरंकुश या आधिपत्य स्थापित करने की सम्भावनाओं को आंशिक रूप में रोकने में सक्षम है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. [Christensen, Thomas J.; Snyder, Jack (1990), "Chain Gangs and Passed Bucks: Predicting Alliance Patterns in Multipolarity", International Organization 44: 138–140, doi:10.1017/s0020818300035232]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]