समादेश

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समादेश या 'व्यादेश' (injunction) वह आदेश है जिसे न्यायालय अपने समता संबंधी अधिकारों के अंतर्गत किसी पक्ष या निगम के नाम किसी को करने के लिए, किसी काम को करने के लिए, किसी काम को करने से रोकने के लिए वा कोई ऐसा काम करते रहने के लिए जारी करता है जिसे करने या न करने की उसे बाध्यता हो। न्यायालय का यह आदेश व्यक्ति पर व्यक्तिगत रूप से लागू होता है इस आदेश का उल्लंघन न्यायालय की मानहानि माना जाता है। यदि कोई व्यक्ति इस ढंग की मानहानि करे तो उसकी संपत्ति जब्त कर लिए जाने की व्यवस्था है। भारतीय विधान के अंतर्गत जिन मामलों में व्यक्ति को सजा देना या संपत्ति जब्त करना प्रभावकारी न हो, उन मामलों में सिविल प्रोसीड्यूर कोड आदेश २१ नियम ३२ के अनुसार न्यायालय डिक्री पानेवाले वा किसी अन्य किसी व्यक्ति को निर्धारित काम संपादन करने का आदेश दे सकता है। इस स्थिति में उक्त कार्य संपादन करने का पूरा व्यय उस व्यक्ति को वहन करना पड़ेगा, जिसे मूलत: उक्त कार्य पूरा करने का आदेश दिया गया था।

समादेश स्वीकारात्मक भी हो सकती है और निषेधात्मक भी। स्वीकारात्मक वा आदेशात्मक समादेश के द्वारा प्रतिवादी को कोई ऐसा कार्य करने का आदेश दिया जाता है जिसे करना कानूनी दृष्टि से उसके लिए लाजमी है। निषेधात्मक वा निरोधक समादेश के द्वारा प्रतिवादी को किसी काम को करने से या किसी स्थिति को बनाये रखने से निवृत्त होने का आदेश दिया जाता है।

समादेश का स्वीकारात्मक वा निषेघात्मक रूप में विभाजन उस कार्य के स्वरूप पर निर्भर करता है जिसके संबंध में न्यायिक निर्देश जारी किया जाए। समादेश के पुन: दो विभाग किए गए हैं- अंतरवर्ती और स्थायी। इस ढंग का विभाजन दो बातों का ध्यान में रखकर किया जाता है- एक तो यह कि आदेश की यह अवधि कितनी है और दूसरी बात यह है कि न्यायिक प्रक्रिया की किस अवस्था में आदेश जारी किया गया है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि अंतर्वर्ती आदेश वह है जो मामले की सुनवाई पूरी होने तक के लिए प्रभावकारी होता है। स्थायी समादेश मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद आवश्यतानुसार जारी की जाती है। स्थायी समादेश जारी करने का अर्थ है प्रतिवादी को सदा के लिए किसी ऐसे अधिकार से वंचित कर देना या कोई ऐसा काम करने से रोक देना जो वादी के अधिकारों के विरोध में हो। बहुत आवश्यकता होने पर प्रतिवादी का बयान लिए बिना केवल वादी के आवेदन पर ही एकपक्षीय समादेश भी जारी की जा सकती है। किंतु इस ढंग से जारी की गई एकपक्षीय समादेश तब तक अस्थायी ही रहेगी जब तक कि प्रतिवादी सूचनानुसार अपना बयान देने के लिए प्रस्तुत नहीं हो जाता।

परिचय[संपादित करें]

भारतीय न्यायालयों में इस समय जिन न्यायिक उपचारों की व्यवस्था है, वे सभी नहीं तो उनमें से अधिकतर ऐसे हैं जो अंग्रेजी न्याय व्यवस्था से ले लिए गए थे। १९वीं शताब्दी के मध्य में उक्त न्यायपद्धति से संबंधित दो तरह के न्यायालय और दूसरा साम्य न्यायालय (कोर्ट ऑव ईक्विटी) साम्य न्यायालय को ही चांसरी का न्यायालय भी कहा जाता था। सामान्य विधान के न्यायालय राज्य के समान्य न्यायालय थे। इन न्यायालयों में न्यायव्यवस्था देश के प्राचीन रीतिरिवाजों पर आधारित होती थी। उन प्राचीन रीतिरिवाजों को ही सामान्य न्याय की संज्ञा दे दी गई थी। सामान्य या समता के न्यायालय में रहती थी। स्थूल रूप से यह कहा जा सकता है कि सामान्य न्याय में जो त्रुटियाँ थीं, साम्य के सिद्धांत पर आधारित न्याय व्यवस्था में उनका निराकरण से स्पष्ट हो जाती है। सामान्य न्याय के अनुसार सभी प्रकार की क्षतियों की पूर्ति द्रव्य द्वारा कर दी जाती थी। माना के पास एक एकड़ जमीन है जो 'ख' की जमीन से मिली हुई है और 'क' 'ख' से इस आशय का करार करता है कि वह उसे 'ख' को वह जमीन करार की तिथि से छ: महीने के बाद बेच देगा एवं हस्तांतरित कर देगा। तब इस प्रथम करार के एक महीने के बाद 'क' यदि वह भूमि एक तृतीय व्यक्ति 'ग' के हाथ बेच देता है तो इस स्थिति में सामान्य कानून करार तोड़ने से हुई क्षति की पूर्ति के लिए केवल द्रव्य दिए जाने का आदेश दे सकता था। दूसरी ओर इस ढंग की स्थिति में साम्य का न्यायालय समादेश जारी करके 'क' को केवल इस बात से रोक ही नहीं सकता था कि वह 'ग' को जमीन न बेचे अपितु इस बात का विशिष्ट निर्देश भी कर सकता था कि उक्त भूमि उपयुक्त समय पर 'ख' को बेच और हस्तांतरित कर दी जाए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सामान्य विधान के इस ढंग के दोषों को दूर करने की कितनी आवश्यकता थी। साथ ही इससे समता संबंधी न्याय के अधिकारक्षेत्र की सीमा का भी पता चल जाता है। जिन स्थितियों में आर्थिक प्रतिफल समान रूप से उपयोगी है, उन स्थितियों में समता के अंतर्गत विशेष उपचारों का प्रयोग नहीं किया जाएगा। किंतु यदि न्यास या इस प्रकार के अन्य अधिकार का उल्लंघन होता हो और सामान्य विधान में उक्त अधिकार भंग की अभिज्ञा न हो, उस स्थिति में साम्य के अंतर्गत विशेष उपचारों की व्यवस्था है। यह सिद्धांत तथा इससे संबंधित उपसिद्धांत समादेश संबंधी कानून के क्षेत्र में सर्वत्र पाए जाएँगे।

भारतीय उच्च न्यायालयों के विभिनन शासपत्रों (चार्टरों) के माध्यम से बहुत से अन्य उपचारों के साथ साथ समादेश जारी करने की व्यवस्था भी इंग्लैंड से ही भारत में लाई गई है। भारत के विशिष्ट अवमुक्ति अधिनियम १८७७ (Specific Relief Act 1877 of India) के तृतीय भाग में समादेश को नियंत्रित करने वाले तात्विक नियमों का उल्लेख है। प्रक्रिया संबंधी कुछ बातों का विवेचन सिविल प्रसोड्यू रल कोड ऑव इंडिया (दीवानी प्रक्रिया संहिता) में किया गया है।


यदि प्रतिवादी वादी के संपत्ति संबंधी अधिकारों का हनन करता है या वादी को संपत्ति के उपभोग से वंचितकरता है या इस ढंग का काम करने की धमकी देता है तो न्यायालय नीचे लिखी स्थितियों में प्रतिवादी के नाम स्थायी समादेश जारी कर सकता है- यदि प्रतिवादी वादी के लिए संपत्ति का न्यासी हो या जब यह जानने का कोई साधन न हो कि प्रतिवादी द्वारा वादी के संपत्ति संबंधी अधिकारों का हनन किए जाने से वस्तुत: कितनी क्षति हुई है, या जहाँ क्षति इस ढंग की हो कि उसकी द्रव्य द्वारा पूतिं से पर्याप्त अवमुक्ति संभव न हो सके, या जहाँ इस बात की संभावना हो कि क्षति की द्रव्य द्वारा पूर्ति साध्य नहीं है, या जहाँ न्यायिक प्रक्रिया के विस्तार को रोकने के लिए समादेश जारी करना आवश्यक हो गया हो।

विधायक संस्था को आवेदन करने से किसी व्यक्ति को समादेश नहीं रोक सकती, सरकार के किसी विभाग द्वारा संपादित किए जानेवाले प्रजासंबंधी कार्यों में भी समादेश हस्तक्षेप नहीं कर सकती, किसी विदेशी सरकार के राजसंबंधी कार्यों में भी समादेश हस्तक्षेप नहीं कर सकती, अपराध संबंधी मामलों की सुनवाई को भी समादेश द्वारा नहीं रोका जा सकता और न ही समादेश द्वारा किसी को ऐसा करार तोड़ने से रोका जा सकता है जिसके निर्वाह के लिए वह विशेष रूप से प्रतिबद्ध न हो। यदि प्रार्थी अपनी अनुमति से या अपने किसी व्यवहार से अपने आप को समादेश का अनधिकारी बना देता है, उस स्थिति में उस व्यक्ति के पक्ष में समादेश जारी नहीं की जाएगी। सामान्यत: किसी सरकारी विभाग को कर्तव्यपालन से नहीं रोका जा सकती लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय न्यायालय सरकार को या सरकार के किसी विभाग को अवैधानिक कार्य करने से या करते रहने से नहीं रोक सकते।

कभी कभी किसी करार के निर्वाह के लिए समादेश आवश्यक हो जाती है। किंतु ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि उस करार का विशिष्ट रूप से निर्वाह संभव हो सके। व्यक्तिगत सेवा के करार में इससे कुछ कठिनाई पैदा हो गई है। सामान्यत: व्यक्तिगत सेवाओं के करार विशिष्ट रूप से जबरन कार्यान्वित नहीं कराए जाते। उदाहरण के लिए यदि कोई प्रसिद्ध गायक 'क' नामक प्रेक्षागृह में पाँच साल तक प्रति दिन गाने का करार करता है और साथ ही यह भी करार करता है कि वह इस अवधि में अन्यत्र कहीं नहीं गाएगा, लेकिन एक साल बीतने के बाद ही वह उक्त प्रेक्षागृह में गाने से इनकार कर दे तो इस स्थिति में न्यायालय उस गायक को 'क' के प्रेक्षागृह में गाने के लिए विशेष रूप से आज्ञा नहीं देगा। किंतु निषेधात्मक आज्ञा प्रदान कर न्यायालय निर्धारित अवधि समाप्त होने तक उस गायक को अन्यत्र गाने से रोक सकता है। कुछ न्यायाधीशों का विचार है कि इतने अधिक शब्दों में निषेधात्मक प्रसंविदा की कोई आवश्यकता नहीं है जब कि दूसरी ओर यह भी विचार व्यक्त किया जाता है कि जहाँ स्पष्ट निषेधात्मक प्रसंविदा है वहाँ भी न्यायालय यदि चाहे तो उसके कार्यान्वय की आज्ञा न भी दे, यदि ऐसा करने से प्रसंविदा करनेवाले को जबरन अपना कामकाज बंद करने को बाध्य होना पड़े। भारत में विशिष्ट अवमुक्ति अधिनियम के खंड ५७ में दिए गए 'सी' तथा 'डी' उदाहरणों से एक स्पष्ट दृष्टिकोण व्यक्त हो जाता है। निषेधात्मक प्रसंविदा संकेतपूर्ण हो सकती है और उसे व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है। उस स्थिति में समादेश जारी की जा सकती है चाहे इसका परिणाम प्रतिवादी को अन्यत्र काम करने से रोकना ही क्यों न हो। यदि संधि में किसी अन्यायपूर्ण साधन का आश्रय न लिया गया हो और संविदा के पालन की अवधि में कोई ऐसी घटना न घट जाए जिससे व्यक्तिगत संबंधों में कुछ जटिलता उत्पन्न हो जाए तो ऐसी स्थिति में विशिष्ट अवमुक्ति अधिनियम के इस दृष्टिकोण को कि करार का निर्वाह करना ही होगा, अन्य दृष्टिकोण की अपेक्षा वरीयता दी जानी चाहिए।

भारत में सामान्यत: बंबई, मद्रास और कलकत्ता, इन तीन प्रेजिडेंसियों के उच्चतम न्यायालयों के अधिकारक्षेत्र के बाहर परमादेश (Mandamus), उत्प्रेषण लेख (Certiorari) आदि असाधारण न्यायिक उपचारों की व्यवस्था नहीं थी। अत: (घोषणा को छोड़कर) समादेश ही एक ऐसा उपचार था जिसके अंतर्गत साधारण सिविल न्यायालय सरकारी अधिकारियों वा विभागों के विरुद्ध आज्ञा जारी कर सकते थे जब कि वे कोई ऐसा काम करते थे जो उनके अधिकार के बाहर होता था या अवैधानिक होता था या वे इस ढंग का कोई काम करने की धमकी देते थे।

अमरीका में किसी समय समादेश का प्रयोग मजदूरों के खिलाफ किया जाता था और इसके द्वारा उन्हें अपने नियोक्ताओं के साथ किया गया करार पूरा करने के लिए बाध्य किया जाता था। यही कारण है कि समादेश संबंधी उपचार वहां कुछ कुछ बदनाम हो गया था, लेकिन अब वह स्थिति दूर हो गई है। भारत में समादेश कभी इस ढंग की मुसीबतों में नहीं पड़ी। समादेश संबंधी उपचार इस समय सामान्य आवश्यकताओं में संमिलित है और जिन देशों की सामान्य न्यायव्यवस्था में इसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, भारत उनमें से एक है।

संग्रह ग्रन्थ[संपादित करें]

  • कर : आन इंजंक्शन्स;
  • हैनबरी : माडर्न ईक्विटी, ८वां संस्करण (१९६२);
  • ऐशबर्न : प्रिंसिपल्ज़ ऑव ईक्विटी (द्वितीय सं. १९३३)

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]