व्याडि

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व्याडि (लगभग ई. पू. 400) संस्कृत वैयाकरण थे। संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक पक्ष का विवेचन उनके "संग्रह" नामक ग्रन्थ से आरम्भ होता है जिसके कुछ वाक्य ही आज अवशेष हैं। 'परिभाषावृत्ति' नामक उनकी दूसरी प्रसिद्ध रचना है। युधिष्ठिर मीमांसक अनेक प्रमाणों के आधार पर इनका समय विक्रम पूर्व २९५० मानते हैं।[1]

भर्तृहरि के प्रमाण से जान पड़ता है कि ‘संग्रह’ पाणिनि-सम्प्रदाय से संबद्ध ग्रन्थ था।[2] व्याडि स्वतन्त्र विचारक थे। भर्तृहरि के कथनानुसार 'संग्रह' में उन्होंने चतुर्दश सहस्र विषयों पर विचार किया था।[3] 'संग्रह' भर्तृहरि के समय से बहुत पहले ही लुप्त हो चुका था।[4] संग्रह के कुछ उद्धरण भर्तृहरि के ग्रन्थों में मिल जाते हैं। उनमें भी अधिकांश वाक्यपदीय की भर्तृहरि रचित 'वृत्ति' में हैं। जो दो-तीन उद्धरण दूसरे लेखकों द्वारा दिए गए हैं वे भी भर्तृहरि से ही लिए जान पड़ते हैं। पतंजलि ने संग्रह के बारे में कहा हैः- शोभना खलु दाक्षायणस्य संग्रहस्य कृतिः। [5] पतंजलि का ‘शोभना’ शब्द संग्रह के गौरव को व्यक्त कर देता है।

जो उद्धरण उपलब्ध हैं उनसे जान पड़ता है कि व्याडि ने संग्रह में प्राकृतध्वनि, वैकृतध्वनि, वर्ण, पद, वाक्य, अर्थ, मुख्यगौणभाव, सम्बन्ध, उपसर्ग, निपात, कर्मप्रवचनीय आदि विषयों पर विचार किया था। उन्होंने ‘दशध अर्थवत्ता’ मानी थी।[6] शब्द के स्वरूप पर मौलिक विचार प्रस्तुत किए थे। शब्द के नित्य और अनित्य स्वरूप पर भी संग्रह में पर्याप्त विवेचन किया गया था और दोनों पक्षों में गुण-दोष के विवेचन के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला गया था कि व्याकरण के नियम शब्दनित्यवाद तथा शब्दकार्यवाद दोनों में से चाहे किसी भी पक्ष को स्वीकारने पर अवश्यम्भावी है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. देखें, यु. मी. विरचित सं. व्या. शा. इति. भाग-2, पृ. 433
  2. संग्रहोऽप्यस्यैव शास्त्रास्यैकदेशः। तत्रौकतन्त्रात्वात् व्याडेश्च प्रामाण्यादिहादिसिद्धशब्द उपात्तः। महा.भा.दी., पृ . 23
  3. चतुर्दश सहस्राणि वस्तूनि अस्मिन् संग्रहग्रन्थे - महा.भा.दी., पृ. 21
  4. संग्रहेऽस्तमुपागते- वा. प. वृत्ति 2.484
  5. महाभाष्य 2.3.66, पृ. 468
  6. ‘‘तदुभयं परिगृह्य दशध अर्थवत्ता स्वभावभेदिका इति संग्रहे....।’’ वा. प. वृत्ति 2.207

इन्हें भी देखें[संपादित करें]