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व्यक्तिपन

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व्यक्तिपन (personhood) किसी जीव को व्यक्ति होने का दर्जा प्राप्त होने की स्थिति को कहते हैं। इसकी परिभाषा दर्शनशास्त्र और कानून में बहुत विवादास्पद रही है और न्याय व राजनीति में नागरिकता, न्याय की दृष्टि में हर मानव की समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों से सम्बन्धित रही है। व्यक्तिपन का दर्जा प्राप्त होने का अर्थ है कि वह जीव अपने भला-बुरा सोचने में सक्षम, भविष्य-भूत की समझ रखने वाला और मूल्यों के आधार पर निर्णय करने वाला समझा जाता है, और उसे कानूनी रूप से कई अधिकार दिये जाते हैं। दासप्रथा की समाप्ति में व्यक्तिपन के सिद्धांतों का गहरा प्रयोग करा गया था।[1][2]

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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  1. "Where it is more than simply a synonym for 'human being', 'person' figures primarily in moral and legal discourse. A person is a being with a certain moral status, or a bearer of rights. But underlying the moral status, as its condition, are certain capacities. A person is a being who has a sense of self, has a notion of the future and the past, can hold values, make choices; in short, can adopt life-plans. At least, a person must be the kind of being who is in principle capable of all this, however damaged these capacities may be in practice." Charles Taylor, "The Concept of a Person", Philosophical Papers. Volume 1. Cambridge: Cambridge University Press, 1985, 97.
  2. "Justices, 5-4, Reject Corporate Spending Limit" Archived 2016-12-10 at the वेबैक मशीन, The New York Times, January 21, 2010.