वीरूबाई

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वीरूबाई छत्रपति साहू के जीवन में कब और किस प्रकार आईं, यह अज्ञात है। ये किसकी पुत्री थीं तथा इनका बाल्यकाल कहाँ और किस प्रकार बीता, प्रमाण के अभाव में नहीं कहा जा सकता। कुछ लेखकों के अनुसार वीरूबाई सावित्री बाई के विवाह के साथ ही साहू के पास आईं थीं। जिस समय साहू मुगल शिविर छोड़कर 1707 ई. में दक्षिण लौटे, वीरूबाई भी उनके साथ थीं। साहू और वीरूबाई जीवनपर्यत एक साथ रहे और एक दूसरे के सुख दु:ख में हाथ बँटाते रहे। दक्षिण में आने पर साहू ने सकवारबाई और सगुणाबाई से विवाह किए। किंतु वीरूबाई का वही स्थान बना रहा। न केवल साहू वरन् दोनों स्त्रियाँ भी वीरूबाई को आदर की दृष्टि से देखती थीं। वीरूबाई ने अपने मृदु स्वभाव, कुशल व्यवहार और चातुर्य से अपना प्रभुत्व न केवल महल वरन् मराठा दरबार और विदेशी व्यक्तियों तक में स्थापित कर लिया था।

चंद्रसेन जाधव और बालाजी विश्वनाथ में अनबन हो जाने से जब बालाजी विश्वनाथ के प्राण संकट में पड़े तो वीरूबाई के कहने से साहू ने बालाजी विश्वनाथ की सहायता के लिए सेना भेजी। बालाजी विश्वनाथ सतारा लौटे। इस प्रकार साहू के लिए वीरूबाई ने एक योग्य व्यक्ति के अटूट और निष्ठापूर्ण सेवाभाव को सदा के लिए अर्जित किया।

वीरूबाई विदेशी मामलों में भी अपने कार्यों और सेवाओं के लिए प्रसिद्ध थीं। ये दूसरे देशों के प्रतिनिधियों से मिलती भी थीं।

वीरूबाई के द्वारा ही महल का सब कार्य संपन्न होता था। विभिन्न सरदारों को पत्र भी लिखती थीं। युद्ध की योजनाओं से परिचित रहती थीं। इनके जीवनकाल में महल में अशांति नहीं हो पाई। इनकी मृत्यु 24 दि., 1740 को हुई। साहू अत्यंत दुखी हुए। रानियों में झगड़े होने लगे। सरदेसाई के शब्दों में वीरूबाई बहुत योग्य और कुशल स्त्री थीं। उनमें त्याग, तपस्या और मधुरता का मिश्रण था।