विश्वकर्मा (जाति)
इस लेख में अनेक समस्याएँ हैं। कृपया इसे सुधारने में मदद करें या वार्ता पृष्ठ पर इन समस्याओं पर चर्चा करें।
|
विश्वकर्मा एक भारतीय उपनाम है जो मूलतः शिल्पी (क्राफ्ट्समैंन) लोगों द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। विश्वकर्मा वंशज मूल रूप से ब्राह्मण होते हैं विश्वकर्मा पुराण के मुताबिक विश्वकर्मा जन्मों ब्राह्मण: मतलब ये जन्म से ही ब्राह्मण होते । [1] इसे कई उपजातियों के लोग प्रयोग में लाते हैं जैसे कि पांचाल ब्राह्मण, धीमान ब्राह्मण , जांगिड़ ब्राह्मण ,शिल्पकार, करमकार[उद्धरण चाहिए] इत्यादि और इन उपजातियों के लोग विश्वकर्मा को अपना इष्टदेवता मानते हैं। विश्वकर्मा एक हिन्दू देवता जिनका अवतार देवशिल्पी विश्वकर्मा और एक परमात्मा ब्रह्म स्वरूप विश्वकर्मा भी हैं[2] और उन्हीं के नाम पर विभिन्न प्रकार के शिल्प कार्य करने वाली जातियाँ अपने को 'विश्वकर्मा ' कहतीं हैं।
- (वाराही संहिता अ.२,श्लोक ६) अर्थात – वास्तुकला ज्योतिष शास्त्र का विषय है। वास्तुकला के अन्तर्गत घर , मकान , कुँवा, बावड़ी , पुल , नहर , किला , नगर, देवताओं के मंदिर आदि शिल्पादि पदार्थो की रचना की उत्तम विधि होती है। ब्राह्मणो के इष्टकर्म और पूर्तकर्म ब्राह्मणो के दो प्रकार के कर्मो से परिचय कराएंगे। एक है ‘ इस्ट ‘ कर्म और दूसरा है ‘ पूर्त ‘ कर्म। इस्ट कर्म से ब्राह्मणो को स्वर्गप्राप्ति होती है और पूर्त कर्मो से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अर्थात जो ब्राह्मण इस्ट कर्म ही सिर्फ करके पूर्त कर्म ना करें उसे मोक्ष नहीं मिल सकता है जो सनातन धर्म में मनुष्यों का अंतिम लक्ष्य है। इसके प्रमाण स्वरूप कुछ धर्मशास्त्र से प्रमाण निम्न है , इस्टापूर्ते च कर्तव्यं ब्राह्मणेनैव यत्नत:। इस्टेन लभते स्वर्ग पूर्ते मोक्षो विधियते॥
- (अत्रि स्मृति)
- (अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ – ६ – पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी) अर्थात – इष्टकर्म और पूर्तकर्म ये दोनों कर्म ब्राह्मणो के कर्तव्य है इसे बड़े ही यत्न से करना चाहिए है। ब्राह्मणो को इष्टकर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पूर्तकर्म से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार की व्याख्या यम ऋषि ने भी धर्मशास्त्र यमस्मृति में की है जो निम्न है ; इस्टापूर्ते तु कर्तव्यं ब्राह्मणेन प्रयत्नत:। इस्टेन लभते स्वर्ग पूर्ते मोक्षं समश्नुते
- (यमस्मृति)
- (अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ १०६ – पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी) अब अत्रि ऋषि की अत्रि स्मृति नामक धर्मशास्त्र के आगे के श्लोक से इष्ट कर्म और पूर्त कर्मो के अन्तर्गत कौन से कर्म आते है उसकी व्याख्या निम्न है ; अग्निहोत्रं तप: सत्यं वेदानां चैव पालनम्। आतिथ्यं वैश्यदेवश्य इष्टमित्यमिधियते॥ वापीकूपतडागादिदेवतायतनानि च। अन्नप्रदानमाराम: पूर्तमित्यमिधियते॥
- (अत्रि स्मृति)
- (अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ – ६ – पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी) अर्थात – ब्राह्मणो को अग्निहोत्र(हवन), तपस्या , सत्य में तत्परता , वेद की आज्ञा का पालन, अतिथियों का सत्कार और वश्वदेव ये सब इष्ट कर्म के अन्तर्गत आते है। ब्राह्मणो को बावड़ी, कूप, तालाब इत्यादि तालाबो का निर्माण, देवताओं के मंदिरों की प्रतिष्ठा जैसे शिल्पादि कर्म , अन्नदान और बगीचों को लगाना जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसे कर्म पूर्त कर्म है। उपर्युक्त सभी अकाट्य प्रमाणो से ये सिद्ध होता है कि ब्राह्मणो के सिर्फ षटकर्म जैसे इष्टकर्म ही नहीं है अपितु शिल्पकर्म जैसे पूर्तकर्म भी है जिनमें बावड़ी, कूप, तालाब इत्यादि तालाबो का निर्माण, देवताओं के मंदिरों के निर्माण एवं प्रतिष्ठा जैसे कर्म शिल्पकर्म के अन्तर्गत आते है जिसके करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है जो सनातन धर्म का अंतिम और सर्वोच्च लक्ष्य है। पूर्तकर्म (शिल्पादि कर्म) का उल्लेख अथर्ववेद में भी आया है। महर्षि पतंजलि ने शाब्दिक ज्ञान को मिथ्या कहा है। कल्प के व्यावहारिक ज्ञाता को ही ब्राह्मण कहा जाता है। क्योंकि उसी वेदांग कल्प के शुल्व सूत्र से शिल्पकर्म की उत्पत्ति हुई है। ब्रह्मा जी ये सृष्टि को अपनी सर्जना से कल्पित अर्थात निर्मित करते है उन्हीं ब्रह्मा जी की सृजनात्मक कल्पना शक्ति जिसमें होती है वहीं ब्राह्मण कहलाता है। सर्जनात्मक विधा ही निर्माण अर्थात शिल्पकर्म कहलाती है। ब्रह्मा जी का प्रमुख कर्म है सृजन अर्थात निर्माण किसी एक इसी के कारण इनका पद ब्रह्मा है। ब्रह्मा जी एक दिन और रात को ‘ कल्प ‘ कहते हैं। कल्प का अर्थ होता है यज्ञ। वेदांग कल्प के शुल्व सूत्र से शिल्पकर्म की उत्पत्ति हुई हैं। वेदांग कल्प से निर्मित होने के कारण शिल्पकर्म भी यज्ञ सिद्ध होता हैं। निर्माण से संदर्भ में यज्ञशाला या शाला का निर्माण का उल्लेख वेदो के साथ-साथ अन्य शास्त्रों में भी बहुत से स्थानों पर है हम आपके समझ अथर्ववेद का एक ऐसा ही उदाहरण देते हैं जिसमें शाला के निर्माण को ब्राह्मणों द्वारा बताया गया है -
ब्रह्मणा शालां निमितां कविभिर्निमितां मिताम् । इन्द्राग्नी रक्षतां शालाममृतौ सोम्यं सदः ॥
इतिहास
[संपादित करें]जबकि कई स्रोत विश्वकर्मा के पांच उप-समूहों को कारीगरों के रूप में संदर्भित करते हैं, इतिहासकार विजया रामास्वामी[3] का मानना है कि मध्ययुगीन काल के विश्वकर्मा को शिल्पकारों के रूप में प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए, यह तर्क देते हुए कि "... जबकि प्रत्येक शिल्पकार एक कारीगर था, प्रत्येक कारीगर शिल्पकार नहीं था"। रामास्वामी ने नोट किया कि मध्यकालीन गांव-आधारित हल बनाने वाले की सामाजिक-आर्थिक और भौगोलिक स्थिरता उन विभिन्न लोगों से काफी भिन्न थी, जो विश्वकर्मा के रूप में एक साथ बंधे थे और एक अपेक्षाकृत यात्रा करने वाली जीवन शैली जीते थे जो "मंदिर अर्थव्यवस्था" पर निर्भर थी जो कि मोम हो गई थी और विजयनगर साम्राज्य जैसे राजवंशों का गठन और विघटन हुआ। बाद वाला समूह, जिन्होंने मंदिरों का निर्माण और अलंकरण करते समय एक-दूसरे के निकट काम किया, उनके पास सामाजिक-आर्थिक उन्नति के अवसर थे, लेकिन साथ ही संरक्षण की वापसी और धार्मिक फोकस में बदलाव के जोखिम भी थे।[1]
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ अ आ Ramaswamy, Vijaya (2004). "Vishwakarma Craftsmen in Early Medieval Peninsular India". Journal of the Economic and Social History of the Orient. 47 (4): 548–582. JSTOR 25165073. डीओआइ:10.1163/1568520042467154. (सब्सक्रिप्शन आवश्यक)
- ↑ Bhagat, Ram B. (April–June 2006). "Census and caste enumeration: British legacy and contemporary practice in India". Genus. 62 (2): 119–134. JSTOR 29789312. (सब्सक्रिप्शन आवश्यक)
- ↑ "Vijaya Ramaswamy | Jawaharlal Nehru University - Academia.edu". jnu.academia.edu. अभिगमन तिथि 14 October 2020.
((विश्वकर्मा ब्राह्मण))