"अवन्तिसुन्दरी कथा": अवतरणों में अंतर

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दंडी के आविर्भावकाल की संभावना विद्वानों ने 500 ई. से 800 ई. के बीच की है। प्राचीन ग्रंथों की खोज में अवंतिसुंदरी कथा की एक अपूर्ण प्रति उपलब्ध हुई थी। एम. आर. कवि नामक एक विद्वान् ने इसका संपादन करके सन् 1924 ई. में इसे प्रकाशित करवाया और पुष्ट प्रमाणों के आधार पर इसे दंडी की रचना बताया। इसका कथानक कविकल्पित है; जैसा कथाप्रबंध के लिए आवश्यक है। इसका कथानक दंडी के [[दशकुमारचरित]] की भांति ही है। राजकुमारों और अवंतिसुंदरी नायिका की कथा के व्याज से इसमें तत्कालीन समाज का यथातथ्य चित्रण उपलब्ध होता है। गद्यशैली की दृष्टि से यह कथा प्रबंध एक महत्वपूर्ण कृति है और संस्कृत गद्यकाव्य की शैली के विकासक्रम में एक निश्चित सोपान के रूप में माना जाता है।
दंडी के आविर्भावकाल की संभावना विद्वानों ने 500 ई. से 800 ई. के बीच की है। प्राचीन ग्रंथों की खोज में अवंतिसुंदरी कथा की एक अपूर्ण प्रति उपलब्ध हुई थी। एम. आर. कवि नामक एक विद्वान् ने इसका संपादन करके सन् 1924 ई. में इसे प्रकाशित करवाया और पुष्ट प्रमाणों के आधार पर इसे दंडी की रचना बताया। इसका कथानक कविकल्पित है; जैसा कथाप्रबंध के लिए आवश्यक है। इसका कथानक दंडी के [[दशकुमारचरित]] की भांति ही है। राजकुमारों और अवंतिसुंदरी नायिका की कथा के व्याज से इसमें तत्कालीन समाज का यथातथ्य चित्रण उपलब्ध होता है। गद्यशैली की दृष्टि से यह कथा प्रबंध एक महत्वपूर्ण कृति है और संस्कृत गद्यकाव्य की शैली के विकासक्रम में एक निश्चित सोपान के रूप में माना जाता है।


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11:51, 17 सितंबर 2010 का अवतरण

अवंतिसुंदरी कथा संस्कृत साहित्य के गद्यकाव्य के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण कथाप्रबंध है। विद्वानों ने इसे आचार्य दंडी की कृति माना है और इनकी तीसरी रचना के रूप में इसी प्रबंध को मान्यता दी है। दंडी के काव्यादर्श की टीका जंघाल ने इसे दंडी की रचना कहा है।

दंडी के आविर्भावकाल की संभावना विद्वानों ने 500 ई. से 800 ई. के बीच की है। प्राचीन ग्रंथों की खोज में अवंतिसुंदरी कथा की एक अपूर्ण प्रति उपलब्ध हुई थी। एम. आर. कवि नामक एक विद्वान् ने इसका संपादन करके सन् 1924 ई. में इसे प्रकाशित करवाया और पुष्ट प्रमाणों के आधार पर इसे दंडी की रचना बताया। इसका कथानक कविकल्पित है; जैसा कथाप्रबंध के लिए आवश्यक है। इसका कथानक दंडी के दशकुमारचरित की भांति ही है। राजकुमारों और अवंतिसुंदरी नायिका की कथा के व्याज से इसमें तत्कालीन समाज का यथातथ्य चित्रण उपलब्ध होता है। गद्यशैली की दृष्टि से यह कथा प्रबंध एक महत्वपूर्ण कृति है और संस्कृत गद्यकाव्य की शैली के विकासक्रम में एक निश्चित सोपान के रूप में माना जाता है।