"शाकटायन": अवतरणों में अंतर

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'''शाकटायन''' [[वैदिक काल]] के अन्तिम चरण (८वीं या ७वीं शताब्दी ईशापूर्व) के [[वैयाकरण]] हैं। उनकी कृतियाँ उपाब्ध नहीं हैं किन्तु [[यास्क]], [[पाणिनि]] एवं अन्य [[संस्कृत]] वैयाकरणों ने उनके विचारों का सन्दर्भ दिया है।
'''शाकटायन''' [[वैदिक काल]] के अन्तिम चरण (८वीं ईसापूर्व) के संस्कृत [[व्याकरण]] के रचयिता है हैं। उनकी कृतियाँ उपलब्ध नहीं हैं किन्तु [[यक्ष]], [[पाणिनि]] एवं अन्य [[संस्कृत]] व्याकरणों ने उनके विचारों का सन्दर्भ दिया है।


शाकटायन का विचार था कि सभी [[संज्ञा]] शब्द अन्तत: किसी न किसी धातु से व्युत्पन्न हैं। [[संस्कृत व्याकरण]] में यह प्रक्रिया क्रित-[[प्रत्यय]] के रूप में उपस्थित है। पाणिनि ने इस मत को स्वीकार किया किंतु इस विषय में कोई आग्रह नहीं रखा और यह भी कहा कि बहुत से शब्द ऐसे भी हैं जो लोक की बोलचाल में आ गए हैं और उनसे धातु प्रत्यय की पकड़ नहीं की जा सकती।
शाकटायन का विचार था कि सभी [[संज्ञा]] शब्द अन्तत: किसी न किसी धातु से व्युत्पन्न हैं। [[संस्कृत व्याकरण]] में यह प्रक्रिया क्रित-[[प्रत्यय]] के रूप में उपस्थित है। पाणिनि ने इस मत को स्वीकार किया किंतु इस विषय में कोई आग्रह नहीं रखा और यह भी कहा कि बहुत से शब्द ऐसे भी हैं जो लोक की बोलचाल में आ गए हैं और उनसे धातु प्रत्यय की पकड़ नहीं की जा सकती।

13:00, 26 अप्रैल 2010 का अवतरण

शाकटायन वैदिक काल के अन्तिम चरण (८वीं ईसापूर्व) के संस्कृत व्याकरण के रचयिता है हैं। उनकी कृतियाँ उपलब्ध नहीं हैं किन्तु यक्ष, पाणिनि एवं अन्य संस्कृत व्याकरणों ने उनके विचारों का सन्दर्भ दिया है।

शाकटायन का विचार था कि सभी संज्ञा शब्द अन्तत: किसी न किसी धातु से व्युत्पन्न हैं। संस्कृत व्याकरण में यह प्रक्रिया क्रित-प्रत्यय के रूप में उपस्थित है। पाणिनि ने इस मत को स्वीकार किया किंतु इस विषय में कोई आग्रह नहीं रखा और यह भी कहा कि बहुत से शब्द ऐसे भी हैं जो लोक की बोलचाल में आ गए हैं और उनसे धातु प्रत्यय की पकड़ नहीं की जा सकती।