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==इन्हें भी देखें==
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*[https://samajik-centre.blogspot.com/2022/06/Bhakti-kya-hoti-hai.html भक्ति क्या होती है। आसान भाषा में]
*[[भक्ति आन्दोलन]]
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*[[भक्ति काल|हिन्दी साहित्य का भक्ति काल]]
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*[[पूजा]]
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*[[भक्ति योग]]
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==बाहरी कड़ियाँ==
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15:29, 20 अगस्त 2022 का अवतरण

भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ 'सेवा करना' या 'भजना' है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति। [1][2] व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है। भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता है।

भक्ति करना क्यों जरूरी है?

भक्ति क्यों करनी चाहिए इसके लिए हम सबसे पहले रुख करते हैं श्रीमद् भगवत गीता का रुख करते हैं। गीता अध्याय 18 श्लोक 65 गीता तथा अध्याय 9 श्लोक 33 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! मुझ में मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर, ऐसा करने से मुझे ही प्राप्त होगा। भक्ति करना इसलिए अनिवार्य क्योंकि प्रभु ने हमें पवित्र सद्ग्रन्थों में भक्ति करने का आदेश दिया है, क्योंकि बिना भक्ति के हमारा मोक्ष संभव नहीं है। गीता अध्याय 8 के दो श्लोकों (गीता अध्याय 8 श्लोक 5, 7) में तो गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति करने को कहा है तथा गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 8, 9, 10 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से श्रेष्ठ परमेश्वर की भक्ति करने को कहा है तथा उस परमेश्वर की भक्ति करने से उसी (परम्) श्रेष्ठ (दिव्यम्) अलौकिक (पुरूषम्) पुरूष को अर्थात् परमेश्वर को प्राप्त होगा। इसलिए भक्ति करना अनिवार्य है। जैसे रोग नाश के लिए औषधि का सेवन करना अनिवार्य है, ऐसे ही आत्म-कल्याण के लिए भक्ति करना अनिवार्य है।

भक्ति से लाभ

पवित्र सद्ग्रन्थों में लिखा है कि प्राणी अपनी भक्ति तथा पुण्यों के बल से स्वर्ग-महास्वर्ग में जाता है, वहाँ इसे सर्व सुख प्राप्त होता है। जिसके समय भक्ति तथा पुण्य क्षीण (समाप्त) हो जाते हैं तो वह प्राणी पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाता है। वर्तमान में जितने भी प्राणी पृथ्वी पर हैं, इनको यहाँ कोई सुख नहीं है। अन्य प्राणी केवल अपना कर्म भोग ही भोगते हैं।  श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 5 श्लोक 12 में कहा है कि युक्तः अर्थात् जो परमात्मा की भक्ति में लगा है, उसके कर्म फल छूट जाते हैं। उनको त्यागकर भक्त भगवान प्राप्ति वाली अर्थात् परमात्मा प्राप्त होने के पश्चात् जो शान्ति अर्थात् सुख होता है, उस शान्ति को प्राप्त होता है और अयुक्तः अर्थात् जो परमात्मा की भक्ति में नहीं लगा। वह सामान्य व्यक्ति, कर्मों के कारण संसार बन्धन में फँसा रहता है। उसको कर्मानुसार अन्य प्राणियों के शरीरों में कष्ट प्राप्त होता रहता है। जैसे ट्रक या कार, बस आदि गाड़ी के पहिए की ट्यूब की हवा निकल जाती है तो वह गाड़ी खड़ी रहती है। जब उसकी ट्यूब में हवा भर दी जाती है तो वह कई क्विंटल वजन को उठाकर ले जाती है। इसी प्रकार जीव की भक्ति तथा पुण्य समाप्त हो जाते हैं तो वह हवारहित ट्यूब के समान होता है। उसके लिए भक्ति रूपी हवा भर देने के पश्चात् वही आत्मा भक्ति की शक्ति से संसार सागर से तर जाती है। भक्ति करने से परमात्मा आप के साथ होते हैं तथा आप जी की पल पल रक्षा करते हैं तथा साधक को सर्व सुख भी मिलता है।

भक्ति न करने से हानि

जीव का शरीर एक वस्त्र माना जाता है। जब कोई साधक मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तो सन्त तथा भक्तजन कहा करते हैं कि अमुक सन्त या साधु चोला छोड़ गया। गीता अध्याय 2 श्लोक 22 में कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रा ग्रहण करता है। वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर अन्य नए शरीरों को प्राप्त होती है। (गीता अध्याय 2 श्लोक 22) इसलिए प्रत्येक प्राणी अपने-अपने शरीर अर्थात् पोषाक पहने हुए है। जैसे कोई गधे, कुत्ते, सूअर, अन्य पशु-पक्षियों व कीटों रूपी वस्त्रा धारण किए है, मनुष्य का शरीर भी एक पोषाक है। जो बच्चे विद्यालय में प्रवेश प्राप्त कर लेते हैं, उनके 6 लिए एक विशेष प्रकार की पोषाक (क्तमेे) अनिवार्य होती है। इसी प्रकार पृथ्वी पर जितने भी स्त्राी-पुरूष हैं, ये सबके सब अन्य प्राणियों से भिन्न पोषाक अर्थात् शरीर धारण किए हैं, सर्व मानव को ऐसे जानें जैसे विद्यार्थी होते हैं। उनकी पोषाक विशेष होती है। विद्यार्थियों से माता-पिता कोई विशेष कार्य नहीं लेते। उनको सुविधाऐं भी परिवार के अन्य सदस्यों से भिन्न देते हैं। यदि वे विद्यार्थी अपना उद्देश्य त्यागकर अन्य बच्चों की तरह ही खेलकूद में लगे रहें जो बच्चे विद्यालय में नहीं जाते (उनकी पोषाक भी भिन्न होती है) तो वे विद्यार्थी अपने विद्याकाल को समाप्त करके बहुत पश्चाताप् करेंगे, बहुत कष्ट उठाऐंगे। जैसे सन्तानोत्पत्ति, सन्तान का पालन पोषण सर्व प्राणी करते हैं। यदि मनुष्य भी यही कार्य करके अपना जीवन अन्त कर जाता है तो उसमें और अन्य पशु-पक्षियों में कोई अन्तर नही रहा। उसको मानव शरीर प्राप्त हुआ था भक्ति करने के लिए, वह भक्ति न करके फिर पशु व अन्य प्राणी के शरीर को प्राप्त करके बहुत कष्ट उठाएगा।

भक्ति क्षेत्र की चरम साधना सख्यभाव में समवसित होती है। जीव ईश्वर का शाश्वत सखा है। प्रकृति रूपी वृक्ष पर दोनों बैठे हैं। जीव इस वृक्ष के फल चखने लगता है और परिणामत: ईश्वर के सखाभाव से पृथक् हो जाता है। जब साधना, करता हुआ भक्ति के द्वारा वह प्रभु की ओर उन्मुख होता है तो दास्य, वात्सल्य, दाम्पत्य आदि सीढ़ियों को पार करके पुनः सखाभाव को प्राप्त कर लेता है।[3] इस भाव में न दास का दूरत्व है, न पुत्र का संकोच है और न पत्नी का अधीन भाव है। ईश्वर का सखा जीव स्वाधीन है, मर्यादाओं से ऊपर है और उसका वरेण्य बंधु है। आचार्य वल्लभ ने प्रवाह, मर्यादा, शुद्ध अथवा पुष्ट नाम के जो चार भेद पुष्टिमार्गीय भक्तों के किए हैं, उनमें पुष्टि का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं : कृष्णधीनातु मर्यादा स्वाधीन पुष्टिरुच्यते। सख्य भाव की यह स्वाधीनता उसे भक्ति क्षेत्र में ऊर्ध्व स्थान पर स्थित कर देती है।

मीराबाई (1498-1546) वैष्णव-भक्ति-आन्दोलन की महानतम कवयित्री हैं।

भक्ति का तात्विक विवेचन वैष्णव आचार्यो द्वारा विशेष रूप से हुआ है। वैष्णव संप्रदाय भक्तिप्रधान संप्रदाय रहा है। श्रीमद्भागवत और श्रीमद्भगवद्गीता के अतिरिक्त वैष्णव भक्ति पर अनेक श्लोकबद्ध संहिताओं की रचना हुई। सूत्र शैली में उसपर नारद भक्तिसूत्र तथा शांडिल्य भक्तिसूत्र जैसे अनुपम ग्रंथ लिखे गए। [4]पराधीनता के समय में भी महात्मा रूप गोस्वामी ने भक्तिरसायन जैसे अमूल्य ग्रंथों का प्रणयन किया। भक्ति-तत्व-तंत्र को हृदयंगम करने के लिए इन ग्रंथों का अध्ययन अनिवार्यत: अपेक्षित है। आचार्य वल्लभ की भागवत पर सुबोधिनी टीका तथा नारायण भट्ट की भक्ति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है :

सवै पुंसां परो धर्मो यतो भक्ति रधोक्षजे ।
अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा सम्प्रसीदति ॥ ११.२.६

भगवान् में हेतुरहित, निष्काम एक निष्ठायुक्त, अनवरत प्रेम का नाम ही भक्ति है। यही पुरुषों का परम धर्म है। इसी से आत्मा प्रसन्न होती है। 'भक्तिरसामृतसिन्धु', के अनुसार भक्ति के दो भेद हैं: गौणी तथा परा। गौणी भक्ति साधनावस्था तथा परा भक्ति सिद्धावस्था की सूचक है। गौणी भक्ति भी दो प्रकार की है : वैधी तथा रागानुगा। प्रथम में शास्त्रानुमोदित विधि निषेध अर्थात् मर्यादा मार्ग तथा द्वितीय में राग या प्रेम की प्रधानता है। आचार्य वल्लभ द्वारा प्रतिपादित विहिता एवं अविहिता नाम की द्विविधा भक्ति भी इसी प्रकार की है और मोक्ष की साधिका है। शांडिल्य ने सूत्रसंख्या १० में इन्हीं को इतरा तथा मुख्या नाम दिए हैं।

श्रीमद्भागवत् में नवधा भक्ति का वर्णन है :

श्रवणं कीर्तन विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ ७,५,२३

नारद भक्तिसूत्र संख्या ८२ में भक्ति के जो ग्यारह भेद हैं, उनमें गुण माहात्म्य के अन्दर नवधा भक्ति के श्रवण और कीर्तन, पूजा के अंदर अर्चन, पादसेवन तथा वंदन और स्मरण-दास्य-सख्य-आत्मनिवेदन में इन्हीं नामोंवाली भक्ति अंतभुर्क्त हो जाती है। रूपासक्ति, कांतासक्ति तथा वात्सल्यासक्ति भागवत के नवधा भक्तिवर्णन में स्थान नहीं पातीं।

निगुर्ण या अव्यक्त तथा सगुण नाम से भी भक्ति के दो भेद किए जाते हैं। गीता, भागवत तथा सूरसागर ने निर्गुण भक्ति को अगम्य तथा क्लेशकर कहा है, परन्तु वैष्णव भक्ति का प्रथम युग जो निवृत्तिप्रधान तथा ज्ञान-ध्यान-परायणता का युग है, निर्गुण भक्ति से ही संबद्ध है। चित्रशिखंडी नाम के सात ऋषि इसी रूप में प्रभुध्यान में मग्न रहते थे। राजा वसु उपरिचर के साथ इस भक्ति का दूसरा युग प्रारंभ हुआ जिसमें यज्ञानुष्ठान की प्रवृत्तिमूलकता तथा तपश्चर्या की निवृत्तिमूलकता दृष्टिगोचर होती है। तीसरा युग कृष्ण के साथ प्रारंभ होता है जिसमें अवतारवाद की प्रतिष्ठा हुई तथा द्रव्यमय यज्ञों के स्थान पर ज्ञानमय एवं भावमय यज्ञों का प्रचार हुआ।

चतुर्थ युग में प्रतिमापूजन, देवमंदिर निर्माण, शृंगारसज्जा तथा षोडशोपचार (कलश-शंख-घंटी-दीप-पुष्प आदि) पद्धति की प्रधानता है। इसमें बहिर्मुखी प्रवृत्ति है। पंचम युग में भगवान् के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम के अतीव आकर्षक दृश्य दिखाई देते हैं। वेद का यह पुराण में परिणमन है। इसमें निराकार साकार बना, अनंत सांत तथा सूक्ष्म स्थूल बना। प्रभु स्थावर एवं जंगम दोनों की आत्मा है। फिर जंगम चेतना ही क्यों ? स्थावर द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति और भक्ति क्यों न की जाय ?

वैष्णव आचार्य, कवि एवं साधक स्थूल तक ही सीमित नहीं, वे स्थूल द्वारा सूक्ष्म तक पहुँचे हैं। उनकी रचनाएँ नाम द्वारा नामी का बोध कराती हैं। उन्होंने भगवान् के जिन नामों रूपों लीलाओं तथा धामों का वर्णन किया है, वे न केवल स्थूल मांसपिंडों से ही संबंधित हैं, अपितु उसी के समान आधिदैविक जगत् तथा आध्यात्मिक क्षेत्र से भी संबंधित हैं। राधा और कृष्ण, सीता और राम, पार्वती और परमेश्वर, माया और ब्रह्म, प्रकृति और पुरुष, शक्ति और शक्तिमान्, विद्युत् और मेघ, किरण और सूर्य, ज्योत्स्ना और चंद्र आदि सभी परस्पर एक दूसरे में अनुस्यूत हैं। विरहानुभूति को लेकर भक्तिक्षेत्र में वैष्णव भक्तों ने, चाहे वे दक्षिण के हों या उत्तर के, जिस मार्मिक पीड़ा को अभिव्यक्त किया है, वह साधक के हृदय पर सीधे चोट करती है और बहुत देर उसे वहीं निमग्न रखती है। लोक से कुछ समय के लिए आलोक में पहुँचा देनेवाली वैष्णव भक्तों की यह देन कितनी श्लाघनीय है, कितनी मूल्यवान् है। और इससे भी अधिक मूल्यवान् है उनकी स्वर्गप्राप्ति की मान्यता। मुक्ति नहीं, क्योंकि वह मुक्ति का ही उत्कृष्ट रूप है, भक्ति ही अपेक्षणीय है। स्वर्ग परित्याज है, उपेक्षणीय है। इसके स्थान पर प्रभुप्रेम ही स्वीकरणीय है। वैष्णव संप्रदाय की इस देन की अमिट छाप भारतीय हृदय पर पड़ी है। उसने भक्ति को ही आत्मा का आहार स्वीकार किया है।

भक्ति तर्क पर नहीं, श्रद्धा एवं विश्वास पर अवलंबित है। पुरुष ज्ञान से भी अधिक श्रद्धामय है। मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा बन जाता है, इससे भी अधिक सत्य इस कथन में है कि मनुष्य की जैसी श्रद्धा होती है उसी के अनुकूल और अनुपात में उसका निर्माण होता है। प्रेरक भाव है, विचार नहीं। जो भक्ति भूमि से हटाकर द्यावा में प्रवेश करा दे, मिट्टी से ज्योति बना दे, उसकी उपलब्धि हम सबके लिए निस्संदेह महीयसी है। घी के ज्ञान और कर्म दोनों अर्थ हैं। हृदय श्रद्धा या भाव का प्रतीक है। भाव का प्रभाव, वैसे भी, सर्वप्रथम हृदय के स्पंदनों में ही लक्षित होता है।

सन्दर्भ

  1. Flood, Gavin D. (2003). The Blackwell Companion to Hinduism. Wiley-Blackwell. p. 185. ISBN 978-0-631-21535-6.
  2. Cutler, Norman (1987). Songs of Experience. Indiana University Press. p. 1. ISBN 978-0-253-35334-4.
  3. Allport, Gordon W.; Swami Akhilananda (1999). "Its meaning for the West". Hindu Psychology. Routledge. p. 180.
  4. Georg Feuerstein; Ken Wilber (2002). The Yoga Tradition[मृत कड़ियाँ]. Motilal Banarsidass. p. 55. ISBN 978-81-208-1923-8.

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