"गुरु-शिष्य परम्परा": अवतरणों में अंतर

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बेहतरीन तंदरुस्ती के लिए एलोपैथिक या अंग्रेजी चिकित्सा से मुख मोड़ना ही पड़ेगा अन्यथा शरीर जहरीला और तेजाब युक्त हो जायेगा। फिर अपनाएं प्राचीन और 'आयुर्वेदिक जीवनशैली amrutam
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लाखों वर्ष घरेलू परंपराओं को आजमाकर दंतरोग, कंठ रोग, गले की प्रेषणि, पेट की खराबी को स्थाई रूप से ठीक किया जा सकता है।
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अमृतम पत्रिका
[[File:Raja Ravi Varma - Sankaracharya.jpg|thumb|right|300px| राजा रवि वर्मा द्वारा 1904 में बनाया हुआ - शिष्यों के साथ [[आदि शंकराचार्य]]]]
'''[[गुरु]]-शिष्य परम्परा''' आध्यात्मिक प्रज्ञा का नई पीढ़ियों तक पहुंचाने का सोपान।
[[भारत की संस्कृति|भारतीय संस्कृति]] में '''गुरु-शिष्य परम्परा''' के अन्तर्गत गुरु (शिक्षक) अपने शिष्य को शिक्षा देता है या कोई विद्या सिखाता है। बाद में वही शिष्य गुरु के रूप में दूसरों को शिक्षा देता है। यही क्रम चलता जाता है। यह परम्परा सनातन धर्म की सभी धाराओं में मिलती है। गुरु-शिष्य की यह परम्परा [[ज्ञान]] के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है, जैसे- अध्यात्म, संगीत, कला, वेदाध्ययन, वास्तु आदि। भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत महत्व है। कहीं गुरु को 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' कहा गया है तो कहीं 'गोविन्द'। 'सिख' शब्द [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] के 'शिष्य' से व्युत्पन्न है।


बेहतरीन तंदरुस्ती के लिए एलोपैथिक या अंग्रेजी चिकित्सा से मुख मोड़ना ही पड़ेगा अन्यथा शरीर जहरीला और तेजाब युक्त हो जायेगा।
'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश ज्ञान। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है। आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है। भारतीय संस्कृति में गुरु को अत्यधिक सम्मानित स्थान प्राप्त है। भारतीय इतिहास में गुरु की भूमिका समाज को सुधार की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक के रूप में होने के साथ क्रान्ति को दिशा दिखाने वाली भी रही है। भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है.
फिर अपनाएं प्राचीन और 'आयुर्वेदिक जीवनशैली

हमारी जीवनशैली व्यस्त होने के साथ-साथ अस्वस्थ भी है। समय और मेहनत बचाने एवम शीघ्र ही स्वस्थ्य होने की लालसा में अधिकांश लोग आधुनिक रसायनिक उत्पादों पर पूरी तरह से आश्रित हो चुके हैं। जबकि अधिक से अधिक केमिकल रहित वस्तुओं का इस्तेमाल करके इस निर्भरता को समाप्त किया जा सकता है।
भारत की महान प्राचीन और आयुर्वेदिक आदतों को दिनचर्या का हिस्सा बनाकर अपनी जीवनशैली और स्वास्थ्य, दोनों को बेहतर बना सकते हैं।

देश की पुरानी परंपराओं तथा आदतों को दोबारा अपनाएं....

तिल या सरसों के तेल से कुल्ला...
यह प्राचीन आयुर्वेदिक विधि है जो मुंह के मसूढे, दांतों की सेहत के लिए लाभकारी है।
इससे मुंह की कई बीमारियां दूर होती हैं और मसूड़ों में मज़बूती बनी रहती है।
इसे सुबह खाली पेट करना फ़ायदेमंद होता है।

तिल या सरसों के तेल से प्रतिदिन कुल्ला करने से मुंह में मौजूद हानिकारक कीटाणु अच्छी तरह से साफ़ हो जाते हैं। साथ ही मुंह की दुर्गंध, मसूड़ों का सड़ना, कैविटी की समस्या, मसूड़ों की सूजन व दांत दर्द जैसी समस्याएं दूर होती हैं।

कुल्ला करने के लिए एक बड़ा चम्मच तिल या सरसों का शुद्ध तेल लें और एक से पांच मिनट तक इसे मुंह में चारों तरफ घुमाएं।

एक मिनट बाद तेल थूक दें। इसे निगले नहीं। फिर गुनगुने पानी से कुल्ला कर लें।

दांतों में दर्द या टीस हो तो amrutam Dentkey Manjan तर्जनी उंगली से दांतों में लगाकर २ से ३ मिनिट बाद कुल्ला कर, ब्रश से साफ करें।

मात्र सात दिनों के प्रयोग से दंत रोग, कंठ विकार, गले की तकलीफ, कफ की समस्या का स्थाई हल हो जाएगा और आंखों की रोशनी तेज होगी।

दांत में कोई असाध्य रोग है, जो अक्सर पेट की खराबी के कारण होते हैं। इनसे राहत के लिए amrutam Dentkey Malt तीन महीने टीके दूध के साथ सेवन करें।

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[[भारत की संस्कृति|भारतीय संस्कृति]] में प्राचीन काल से चली आ रही 'गुरु-शिष्य परम्परा' को '''परम्परा''' कहते हैं। यह हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध धर्मों में समान रूप से पायी जाती है।


'परम्परा' का शाब्दिक अर्थ है - 'बिना व्यवधान के शृंखला रूप में जारी रहना'। परम्परा-प्रणाली में किसी विषय या उपविषय का ज्ञान बिना किसी परिवर्तन के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ियों में संचारित होता रहता है। उदाहरणार्थ, [[भागवत पुराण]] में [[वेद|वेदों]] का वर्गीकरण और परम्परा द्वारा इसके हस्तान्तरण का वर्णन है। यहां ज्ञान के विषय आध्यात्मिक, कलात्मक (संगीत, नृत्य), या शैक्षणिक हो सकते हैम्।
'''“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर: ।'''


== गुरुओं की उपाधि ==
'''गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः”'''
परम्परा में केवल गुरु के प्रति ही श्रद्धा नहीं रखी जाती बल्कि उनके पूर्व के तीन गुरुजनों के प्रति भी श्रद्धा रखी जाती है। गुरुओं की संज्ञाएं इस प्रकार हैं-


* '''गुरु''' - वर्तमान गुरु
प्राचीन काल में गुरु और शिष्य के संबंधों का आधार था गुरु का ज्ञान, मौलिकता और नैतिक बल, उनका शिष्यों के प्रति स्नेह भाव, तथा ज्ञान बांटने का निःस्वार्थ भाव. शिक्षक में होती थी, गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा, गुरु की क्षमता में पूर्ण विश्वास तथा गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण एवं आज्ञाकारिता. अनुशासन शिष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण माना गया है.
* '''परमगुरु''' - वर्तमान गुरु के गुरु
* '''परपरगुरु''' - परमगुरु के गुरु
* '''परमेष्टिगुरु''' - परपरगुरु के गुरु


== परम्परा का महत्त्व ==
आचार्य चाणक्य ने एक आदर्श विद्यार्थी के गुण एस प्रकार बताये हैं-
यास्क ने स्वयं परम्परा की प्रशंसा की है -


‘अयं मन्त्रार्थचिन्ताभ्यूहोऽपि श्रुतितोऽपि तर्कतः ॥<ref>(नि० १३॥१२)</ref>
'''“काकचेष्टा बको ध्यानं श्वाननिद्रा  तथैव च ।'''


अर्थात् मन्त्रार्थ का विचार परम्परागत अर्थ के श्रवण अथवा तर्क से निरूपित होता है। क्योंकि -
'''अल्पहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पञ्चलक्षणम् ”।।'''


‘न तु पृथक्त्वेन मन्त्रा निर्वक्तव्याः प्रकरणश एव निर्वक्तव्याः।'
गुरु और शिष्य के बीच केवल शाब्दिक ज्ञान का ही आदान प्रदान नहीं होता था बल्कि गुरु अपने शिष्य के संरक्षक के रूप में भी कार्य करता था। उसका उद्द्येश्य रहता था कि गुरु उसका कभी अहित सोच भी नहीं सकते. यही विश्वास गुरु के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा और समर्पण का कारण रहा है।


मन्त्रों की व्याख्या पृथक्त्वया हो नहीं सकती, अपि तु प्रकरण के अनुसार ही हो सकती है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने गुरु-शिष्य परम्परा को ‘परम्पराप्राप्तम योग’ बताया है। गुरु-शिष्य परम्परा का आधार सांसारिक ज्ञान से शुरू होता है,परन्तु इसका चरमोत्कर्ष आध्यात्मिक शाश्वत आनंद की प्राप्ति है,जिसे ईश्वर -प्राप्ति व मोक्ष प्राप्ति भी कहा जाता है। बड़े भाग्य से प्राप्त मानव जीवन का यही अंतिम व सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए। ” गुरु एक मशाल है, शिष्य प्रकाश |


‘न ह्येषु प्रत्यक्षमस्ति अनृषेरतपसो वा ॥'
==सन्दर्भ==
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वेदों का अर्थ किसके द्वारा सम्भव है? इस विषय पर यास्क का कथन है कि - मानव न तो ऋषि होते हैं, न तपस्वी तो मन्त्रार्थ का साक्षात्कार कर नहीं सकते। 
==इन्हें भी देखें==
*[[गुरुकुल]]
*[[आश्रम]]
*[[विद्यालय]]


== इन्हें भी देखें ==
==बाहरी कड़ियाँ==
* [[गुरु-शिष्य परम्परा]]
* [[गुरुकुल]]
* [[वाचिक परम्परा]]
* [[गुरु गीता]]


[[श्रेणी:संस्कृति]]
[[श्रेणी:भारतीय संस्कृति]]
[[श्रेणी:भारतीय संस्कृति]]
[[श्रेणी:हिन्दू व्यवहार और अनुभव]]

02:56, 8 जून 2022 का अवतरण

लाखों वर्ष घरेलू परंपराओं को आजमाकर दंतरोग, कंठ रोग, गले की प्रेषणि, पेट की खराबी को स्थाई रूप से ठीक किया जा सकता है। अमृतम पत्रिका

बेहतरीन तंदरुस्ती के लिए एलोपैथिक या अंग्रेजी चिकित्सा से मुख मोड़ना ही पड़ेगा अन्यथा शरीर जहरीला और तेजाब युक्त हो जायेगा। फिर अपनाएं प्राचीन और 'आयुर्वेदिक जीवनशैली

हमारी जीवनशैली व्यस्त होने के साथ-साथ अस्वस्थ भी है। समय और मेहनत बचाने एवम शीघ्र ही स्वस्थ्य होने की लालसा में अधिकांश लोग आधुनिक रसायनिक उत्पादों पर पूरी तरह से आश्रित हो चुके हैं। जबकि अधिक से अधिक केमिकल रहित वस्तुओं का इस्तेमाल करके इस निर्भरता को समाप्त किया जा सकता है। भारत की महान प्राचीन और आयुर्वेदिक आदतों को दिनचर्या का हिस्सा बनाकर अपनी जीवनशैली और स्वास्थ्य, दोनों को बेहतर बना सकते हैं।

देश की पुरानी परंपराओं तथा आदतों को दोबारा अपनाएं....

तिल या सरसों के तेल से कुल्ला...

यह प्राचीन आयुर्वेदिक विधि है जो मुंह के मसूढे, दांतों की सेहत के लिए लाभकारी है। 

इससे मुंह की कई बीमारियां दूर होती हैं और मसूड़ों में मज़बूती बनी रहती है। इसे सुबह खाली पेट करना फ़ायदेमंद होता है।

तिल या सरसों के तेल से प्रतिदिन कुल्ला करने से मुंह में मौजूद हानिकारक कीटाणु अच्छी तरह से साफ़ हो जाते हैं। साथ ही मुंह की दुर्गंध, मसूड़ों का सड़ना, कैविटी की समस्या, मसूड़ों की सूजन व दांत दर्द जैसी समस्याएं दूर होती हैं।

कुल्ला करने के लिए एक बड़ा चम्मच तिल या सरसों का शुद्ध तेल लें और एक से पांच मिनट तक इसे मुंह में चारों तरफ घुमाएं।

एक मिनट बाद तेल थूक दें। इसे निगले नहीं। फिर गुनगुने पानी से कुल्ला कर लें।

दांतों में दर्द या टीस हो तो amrutam Dentkey Manjan तर्जनी उंगली से दांतों में लगाकर २ से ३ मिनिट बाद कुल्ला कर, ब्रश से साफ करें।

मात्र सात दिनों के प्रयोग से दंत रोग, कंठ विकार, गले की तकलीफ, कफ की समस्या का स्थाई हल हो जाएगा और आंखों की रोशनी तेज होगी।

दांत में कोई असाध्य रोग है, जो अक्सर पेट की खराबी के कारण होते हैं। इनसे राहत के लिए amrutam Dentkey Malt तीन महीने टीके दूध के साथ सेवन करें।

ये दोनो उत्पाद only online ही उपलब्ध हैं। फोन द्वारा मंगवाने के लिए 9926456869 दीपक

भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से चली आ रही 'गुरु-शिष्य परम्परा' को परम्परा कहते हैं। यह हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध धर्मों में समान रूप से पायी जाती है।

'परम्परा' का शाब्दिक अर्थ है - 'बिना व्यवधान के शृंखला रूप में जारी रहना'। परम्परा-प्रणाली में किसी विषय या उपविषय का ज्ञान बिना किसी परिवर्तन के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ियों में संचारित होता रहता है। उदाहरणार्थ, भागवत पुराण में वेदों का वर्गीकरण और परम्परा द्वारा इसके हस्तान्तरण का वर्णन है। यहां ज्ञान के विषय आध्यात्मिक, कलात्मक (संगीत, नृत्य), या शैक्षणिक हो सकते हैम्।

गुरुओं की उपाधि

परम्परा में केवल गुरु के प्रति ही श्रद्धा नहीं रखी जाती बल्कि उनके पूर्व के तीन गुरुजनों के प्रति भी श्रद्धा रखी जाती है। गुरुओं की संज्ञाएं इस प्रकार हैं-

  • गुरु - वर्तमान गुरु
  • परमगुरु - वर्तमान गुरु के गुरु
  • परपरगुरु - परमगुरु के गुरु
  • परमेष्टिगुरु - परपरगुरु के गुरु

परम्परा का महत्त्व

यास्क ने स्वयं परम्परा की प्रशंसा की है -

‘अयं मन्त्रार्थचिन्ताभ्यूहोऽपि श्रुतितोऽपि तर्कतः ॥[1]

अर्थात् मन्त्रार्थ का विचार परम्परागत अर्थ के श्रवण अथवा तर्क से निरूपित होता है। क्योंकि -

‘न तु पृथक्त्वेन मन्त्रा निर्वक्तव्याः प्रकरणश एव निर्वक्तव्याः।'

मन्त्रों की व्याख्या पृथक्त्वया हो नहीं सकती, अपि तु प्रकरण के अनुसार ही हो सकती है।

‘न ह्येषु प्रत्यक्षमस्ति अनृषेरतपसो वा ॥'

वेदों का अर्थ किसके द्वारा सम्भव है? इस विषय पर यास्क का कथन है कि - मानव न तो ऋषि होते हैं, न तपस्वी तो मन्त्रार्थ का साक्षात्कार कर नहीं सकते। 

इन्हें भी देखें

  1. (नि० १३॥१२)