"काम": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
कामवासना शांत केसे करें। सेक्स पावर वृद्धि के लिए amrutam कंपनी का बी फेराल गोल्ड कैप्सूल कितने दिन सेवन करें...
टैग: Reverted मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
छो 2409:4043:2D0A:4C9E:30B9:55FF:FE3F:C931 (वार्ता) द्वारा 1 संपादन Aviram7के अंतिम अवतरण पर प्रत्यावर्तित किया गया
टैग: ट्विंकल किए हुए कार्य को पूर्ववत करना
पंक्ति 1: पंक्ति 1:

स्त्रियों के सौंदर्य की वजह काम है। महिलाओं के मन की मलिनता काम (सेक्स)से ही मिटती है।
काम के कारण में प्रसन्न और तन तंदरुस्त रहता है। काम अंतर्मन को पतन से बचाता है।

सेक्स, सहवास, सम्भोग, रतिक्रिया, कामवासना, रात्रि मिलन, रतिमिलन तथा हम बिस्तर होना आदि काम के अन्य नाम हैं।

काम परमात्मा का स्वभाव है। भगवान हृदय में बसते हैं, तो काम मन में। भगवान तटस्थ है लेकिन कामदेव मथता है-मन्मथ है।

काम के हटते ही जीवन का क्षय अर्थात अंत है। काम की स्थिति, विस्तार, संकोच, प्रयोग ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की शक्ति है। संतान उत्पत्ति काम से ही संभव है।

नारी में काम यानि विवाह बाद होशियारी आती है।

काम की वजह से एक साधारण स्त्री बहुत अच्छी मिस्त्री बनकर घर को स्वर्ग बना देती है।

औरत में खूबसूरती, सुंदरता, तीखे नयन, उठे उरोज, मतवाली चाल, लचक सब काम की ही देन है।

काम का नाम आते ही सबका दिमाग कर्म या सेक्स पर जाता है। काम के बारे में गलत धारणाओं से मुक्त करेगा यह लेख....

कामदेव कोई सामान्य देवता नहीं, बल्कि असामान्य देवता है। जहां भगवान् हृदय में रहते हैं, वहां कामदेव मन में रहता है।

काम धर्म भी है और अधर्म भी। अगर काम नहीं होता, तो संसार में कोई भी किसी चीज का इंतजाम नहीं करता। काम के कारण ही आदमी इंतकाम की आग में झुलझ जाता है।

कहा जाता है कि कामदेव के पानी में बड़ा आकर्षण है।काम को चार पुरुषार्थों में सम्मान प्राप्त है।

काम अर्थात सेक्स, सम्भोग स्वस्थ्य जीवन के लिए जरूरी है। जब तक काम का तमाम नहीं होता, तब तक तन _ मन काम नहीं करता।

दुनिया के सारे ताम झाम काम के लिए ही किए जाते हैं। बिना काम के आगे वंश का नाम नहीं चलता।
काम (सेक्स) की तृप्ति के बाद ही ही कोई राम-श्याम का नाम लेता है।

श्रीमद भागवत के श्लोकानुसार

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोअस्मि भरतर्षभ॥

अर्थात मैं बलवानों का कामना और आसक्ति से रहित बल हूँ तथा सभी प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम हूँ।

राजसिक काम विषय, वासना और इंद्रिय संयोग से पैदा होने वाला अहंकारयुक्त और फल की इच्छा से किया जाने वाला काम है।

काम का बुरा अंजाम...इस प्रकार का काम भोगते समय तो सुखकारी प्रतीत होता है, किंतु परिणाम दुखकारी होता है।

तामसिक काम में मनुष्य मोहपाश में बंधा होता है, वह न तो वर्तमान का और न ही भविष्य का कोई विचार करता है।

आलस्य, निद्रा और प्रमाद इस काम के जनक कहे गए हैं। इस तरह का काम न तो भोगते समय सुख देता है और न ही इसका परिणाम सुखकारी होता है।
इन तीनों कामों में सात्विक काम श्रेष्ठ है, जो भोगते समय विषकारी प्रतीत हो सकता है, लेकिन परिणाम सदैव आनंददायी और मुक्तिकारक होता है।
अन्य काम बंधन बनते हैं। धर्मशास्त्र कहते हैं कि यौन संबंधी इच्छाओं की तृप्ति जीवन का एक सहज, स्वाभाविक या मूल प्रवृत्यात्मक अंग है। इसकी संतुष्टि के लिए विवाह का विधान है।

गीता में इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए काम को तृप्त करने के लिए कहा गया है।
गीता के दूसरे अध्याय के 62वें और 63वें श्लोक में कहा गया है कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की इन विषयों के साथ आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से काम पैदा होता है और काम की तृप्ति न होने से क्रोध पैदा होता है।

क्रोध से मोह पैदा होता है, मोह से स्मृति-भंग, अविवेक पैदा होता है।

अविवेक से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि नष्ट हो जाने से मनुष्य नष्ट हो जाता है अर्थात् काम यानि सेक्स की सोच में डूबा पुरुष पुरुषार्थ के योग्य नहीं रहता।


वेदांत में स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण इन तीन देहों की मान्यता है। इनके अतिरिक्त प्रत्येक हृदय में ईश्वर का निवास है। मनुष्य की प्रत्येक इंद्रिय के अलग-अलग देवता हैं।

हमारे हरेक अंग के देवता निर्धारित हैं....ईश्वरोउपनिषद, पुराण परंपरा के हिसाब से
आंख के देवता सूर्य हैं, मन के चंद्रमा, कान के दिशा, त्वचा के वायु, जिह्वा के वरुण, नासिका के अश्विनीकुमार, वाणी के अग्नि, पैर के यज्ञ-विष्णु, हाथ के इंद्र, गुदा के मित्र, यम और उपस्थ यानि गुदा के प्रजापति।

उपनिषदों के अनुसार ये देवता इंद्रिय-झरोखों पर बैठे रहते हैं, और विषयों अर्थात कामवासना की वायु आती देखकर उन झरोखों के कपाट खोल देते हैं।

मानव देह में सबसे महत्त्वपूर्ण है— अनिर्वच काम का निवास। काम को अग्रजन्मा कहा गया है। वह सभी. देवों-देहों से पहले उत्पन्न है।

संपूर्ण उत्पत्ति का मूल काम ही है। काम परमात्मा का स्वभाव, किंतु परमात्मेतर का बीज, तेज, रस, प्रभा, पौरुष, संकल्प, संचालक, संवर्धक और संस्थापक है।

कहते हैं कि काम नहीं तो कुछ नहीं। काम के हटते ही जीवन अन्त है, क्षय है।
संपूर्ण जीव-जीवन, प्राणी-प्राण, प्रकृति, काम के खंभे पर आश्रित हैं। फिर भी ऊपर के देवों में कामदेव का न होना आश्चर्य नहीं है।

कामदेव कोई सामान्य देवता नहीं, बल्कि असामान्य देवता है। जहां भगवान् हृदय में रहते हैं, वहां कामदेव मन में रहता है।

मन में रहनेवाला कामदेव मन को मथता रहता है । इसलिए वह मन्मथ है। सक्रिय रहना सक्रिय करना मन्मथ की विशेषता है।

अक्रिय व आलसी किसी को सक्रिय और उत्साही नहीं बना सकता है। हृदय में रहनेवाले भगवान् तटस्थ हैं। भगवान की माया सबको यंत्रवत घुमाती है, तो कामदेव सबको मथता है।

जलज प्रतीक है.... मथना और घुमाना ये दो अलग अलग हैं। मथने से मही या मट्ठा बनताहै। संपूर्ण सृष्टि मन्मथ की मंथन-क्रिया की मही है।
दही, उदधि की मही। काम शब्द का मूल कम् अर्थात जल है। कामदेव में जल है। नारायण भी जल है।

नर-नारी के जल से ही तो सृष्टि हैं। सृष्टि के करण, कारण हैं । लय, प्रलय का अर्थ है-जल होना।

अन्त काल के समय प्रलय में केवल जल ही शेष रहता है। नारायण में जल, काम में जल। अतः जलज संपूर्ण सभ्यता, संस्कृति और सौंदर्य का प्रतीक है।
हाथ, पैर, मुख, आंखें सब कमल से उपमित हैं। इतने अंगों का उपमान बनने का भाग्य और किस पुष्प को है ?

कामदेव के बाणों में कमल दो बार आता है। अरविंद और नील-उत्पल संभव है दोनों में प्रकार भेद हों।

भगवान् और लक्ष्मी के हाथ में भी कमल है । सरस्वती तो कमलासना हैं ही । ब्रह्मा की उत्पत्ति ही कमल से है। महालक्ष्मी भी कमला हैं।
प्रत्येक सुंदर स्त्री के हाथ में कमल है। लीला कमल। कालिदास कब चूकनेवाले थे । उनकी अलकापुरी की सभी स्त्रियां हाथ में लीला कमल और बालों में ताजे कुंद पुष्प रखती हैं।

कामदेव मीन केतन हैं अर्थात्, उसके झंडे में मछली का चिह्न है। काम सबको पानीवाला बनाये रहता है। सभी काम जल में हैं । पानी गया कि मछली गयी।
पानी बिना सब सून!!!!
कामदेव का पानी ही जीवन है... काम ने अपना पानी हटा लिया। अपने को हटा लिया। सब शून्य। सब व्यर्थ। अब जीवन होकर भी जीवन नहीं है। पत्थर भी तो पानी है।
पानी यानि वीर्य से ही वीरता है...
जड़-जमा पानी, काम-हीन जड़-जीवन होता है। पानी वाला काम प्रत्येक देह को तरोताजा, स्फूर्त और सक्रिय बनाए रखता है। काम-हीन मतलब सहवास या सेक्स रहित जीवन मात्र बर्फ खंड है।

आकर्षण वीर्य भरे पानी का...

कामदेव के पानी में बड़ा आकर्षण है। पानी-पानी से मिलना चाहता है। मिलकर द्रव होकर समुद्र बनना चाहता है।
बालक का यौवन पीआर पग रखते ही मुख पर गुलाबी प्रसन्नता, युवा त्वचा की मृदुता, आंखों का प्रकाश एवं इंद्रियों का खिंचाव सब में कामदेव की प्रेरणा है।

कामदेव ही मनुष्य के अंगों को प्रकाशित रखता है। उसके हटते ही प्रकाश बुझ जाता है।
ट्यूब-लाइट मुरदा बन जाती है। कामदेव दुहरा कार्य करता है। काम या सेक्स अधिक हो जाए तो शरीर जलने लगता है। घट जाए तो शरीर ठंडा हो जाता है। ठीक बिजली की भांति — अधिक वोल्टेज में फ्यूज, लो बोल्टेज में जलेगा ही नहीं।

जब हो जाता है- काम का तमाम....
किसी वृद्ध को देखिए.... वीर्य सूखने के बाद काम ने मरने के लिए इन्हें छोड़ दिया है। अतः ये बुझ गये हैं।
मुरदे को देखिए। मार (काम) के अभाव में मर गये हैं।

वृदध में आकर्षण नहीं, विकर्षण है। उत्साह नहीं आलस्य है। जोड़-जोड़ में पीड़ा है। काम के अभाव की पीड़ा है। काम SEX मनुष्य की चौथी देह है।

देव की विरहिणी नायिका में काम बहुत बढ़ गया। फलतः स्थूल शरीर के पांचों महाभूत चले गये। तीव्र काम ने सबको नष्ट कर दिया।

केवल आकाश में काम का वश नहीं है..
पानी तत्व आंसुओं में बह गया। तेज (अग्नि) गुण और पृथ्वी तत्व शरीर को दुर्बल बना गये।

श्वासों द्वारा वायु तत्व लुप्त हो गया। केवल आकाश रह गया है। इस आकाश पर संभवतः काम का वश नहीं है। क्योंकि काम आकाश नहीं, धरती का देवता है। । उसे धरती धारण करती है। धरती उसके द्वारा धृत है। उसकी धारिणी है।

भारत के धर्मशास्त्र कभी-कभी अपनी बात काफी गूढ़ता से कहते हैं। नाग का एक नाम भोग है। नाग, शेषनाग भोग हैं। पाताल में रहते हैं। संपूर्ण पृथ्वी को सिर पर उठाये हैं। संपूर्ण पृथ्वी भोग, नाग, काम पर टिकी है

पाताल को भोगपुरी कहते हैं। काम, भोग या नाग, शेषनाग राम, कृष्ण के छोटे बड़े भाई हैं।
विष्णु शेष नाग की शैय्या पर सोते हैं।

शिव की अदभुत लीला...
शिव महानाग वासुकी को गले में लपेटे हैं। काम को जलानेवाला भी काम को गले से लगाये हैं। जला काम और भी दृढ़ता से गला पकड़ लेता है। काम से छुटकारा नहीं। चौथी देह है न काम...

अविनाशी है काम....
तीसरी देह, कारण देह पुनर्जन्म, स्वभाव, आचरण, भाग्य, भाव-सी है। स्थूल, सूक्ष्म शरीर बदलते हैं।

जैसे, पुराने वस्त्र छोड़े जाते हैं। नव वस्त्र धारण किये जाते हैं। स्थूल देह वस्त्र है। आवरण है। नया पुराना होता रहता है। किंतु, कारण शरीर एक है। एक रहता है।
अनेक साधनाओं द्वारा उसे मिटाकर पुनर्जन्म, आवागमन मिटाने का प्रावधान है। किंतु, चौथी देह – काम- देह कब नष्ट होती है ? कभी नहीं । वह तीसरे शरीर के समान संस्कार बन जाती है।

तीसरी देह का संस्कार काम-संस्कार है। कामाशय है। काम ही आत्मा है।
आत्मा - के समान काम भी अविनाशी है। किंतु यह आत्मा के समान निष्क्रिय नहीं है। जीव का जीवन है काम! शरीर के बाल, किशोर, युवा, प्रौढ़ एवं वृद्धत्व में इसी कामदेव, चौथी देह की भूमिका है।

भगवान श्री कृष्ण ने अपने को धर्म अविरोधी काम कहा है। श्रीकृष्ण स्वयं में काम हैं। उनके पुत्र प्रद्युम्न काम देव का अवतार हैं।

प्रद्युम्न पुत्र अनिरुद्ध काम हैं। कृष्ण के भाई बलराम काम हैं। गोपियों में भी काम। काम ही काम को आकर्षित करता है। काम ही अपनी क्रीड़ा, खेल के लिए जीव को स्त्री-पुरुष मे विभक्त करता है।

श्रीकृष्ण के बारे में कहा गया है। ब्रज-सुंदरियां, गोपियां श्रीकृष्ण का ही प्रतिबिंब हैं।

जैसे, बालक अपने प्रतिबिंब से खेलता है। वैसे ही श्रीकृष्ण ने ब्रज-सुंदरियों के साथ क्रीड़ा की। प्रत्येक स्त्री पुरुष का दूसरा रूप है। दोनों में काम है।

कामाकर्षण ही उन्हें आकर्षित करता है ! जोड़ता है। सृष्टि की प्रेरणा देता है। काम के बिना सब बेकाम हैं।

देवताओं का ज्ञान...पार्वती को समझाया गया कि शिव को त्यागो, छोड़ो। शिव ने काम को जला दिया है। पार्वती हंसी!...अरे भाई, शिव ने काम को आज नहीं, बहुत पहले जला दिया था।

प्रत्येक योगी, अघोरी या अवधूत योगाग्नि में काम जलाता है। किंतु, सोना जलाना सोने को नष्ट नहीं शुद्ध करना है। जला हुआ काम ही शक्ति_महाशक्ति बन जाता है। दिन-रात प्रवहमान काम पुंसत्वहीन है।

मां पार्वती तपस्या में लग गयीं। शिव के जले काम को अपने तपस्वी काम का अमृत छिड़ककर जीवित कर दिया।

भ्रम मिटाएं। काम नहीं, कामवाना हटाएं...
काम कभी नष्ट नहीं होता है। संसार में कुछ भी नष्ट नहीं होता है। कुछ भी नया नहीं होता है । रूप परिवर्तन ही नया, पुराना है।

मां पार्वती की तपस्या पूर्ण हो गयी है। शिव स्वयं उपस्थित हैं।

विश्वविजयी देवसेनापति कार्तिकेय की उत्पत्ति हुई। श्रेष्ठ संतान के लिए श्रेष्ठ (जले) काम की आवश्यकता है।
काम के भभूत से मान पार्वती संतुष्ट हो गयीं। षड्वदन गजानन उत्पन्न हो गये।

काम के बाद मोक्ष....भारत में पुरुषार्थ का बड़ा महत्त्व है। काम भी पुरुषार्थ है। यह पुरुषार्थ धर्म और अर्थ की पीठ पर खड़ा है।
काम के बाद कुछ नहीं और अर्थ का उद्देश्य काम है। किंतु, काम उद्देश्य ? मोक्ष अर्थात्, काम सृष्टि और से मुक्ति दोनों का देवता है।

काम से ऋण मुक्ति....
पितृ ऋण अनिवार्य है। इसे चुकाना होगा । काम का उपयोग केवल ऋण चुकाने के लिए होना चाहिए। शिव ने काम को जलाकर अतन बना दिया। भाई काम, तुम सभी तनों में रहो।
अब तुम हर शरीर में सोओ। बालक अधिक सोता है। युवा उससे कम सोता है। उसे काम के लिए जगना पड़ता है। किंतु, वृद्ध को नींद मुश्किल से आती है क्योंकि, देह को कामदेव ने त्याग दिया है।

कामदेव अनंग है। अनंग का अर्थ अंग-रहित होना ही नहीं है। अनंग, जो किसी एक अंग में केवल अंगों में ही नहीं रहता है।
अंगों के बाहर बसंत की हवा में, कोकिल की ध्वनि में, फूलों के रूप, रस, गंध में, सावन के अंधेरे में, कार्तिक की ऊर्जा, अनेक रूप, रंग की औषधियों तथा वस्त्र, बिस्तरों में भी रहता है।
कहीं आधा, कहीं और कम, कहीं भरपूर रहता है। ईश्वर की युगल-मूर्तियों मे आधा-आधा काम रहता है।

जीवों के के देवता और ईश्वर में काम है। काम ही जीव को जड़ से अलग करता है।
काम की स्थिति, विस्तार, संकोच, प्रयोग ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की शक्ति है। क्योंकि, यह चौथा शक्ति है, चौथी देह है। जीवों के द्वारा- यह चौथी देह छूट नहीं सकती।

काम को जागृत केसे रखें....काम की ताकत कामवासना, सेक्स की शक्ति बनी रहने से ही पुरुष काम रहता है। गाढ़े वीर्य दान से ही नारी की नजर में मर्द के प्रति सम्मान बढ़ता है।

सम्भोग शक्ति या सेक्स पावर बढ़ाने के लिए अमृतम बी फेराल गोल्ड कैप्सूल कम से कम तीन महीने तक निरंतर सेवन करें।
बी फेराल के फायदे...
शीघ्र पतन रोकता है।
वीर्य को गाढ़ा करता है।
सेक्स के दौरान स्माई सीमा बढ़ाता है।
लिंग में कठोरता लाता है।
शरीर को फुर्तीला बनाता है।
लिंग की शिथिलता मिटाता है।











10:34, 29 अप्रैल 2022 का अवतरण


कामवासना भी एक उपासना, साधना है। काम पूर्ति से दिमाग की गन्दगी निकलकर जिन्दगी सुधर जाती है। अगर इस ब्लॉग से पूरी बात या सार समझ नही आया हो, तो टिप्पणी करें। किस्सा ओर भी बढ़ सकता है। काम, जीवन के चार पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से एक है।

प्रत्येक प्राणी के भीतर रागात्मक प्रवृत्ति की संज्ञा काम है। वैदिक दर्शन के अनुसार काम सृष्टि के पूर्व में जो एक अविभक्त तत्व था वह विश्वरचना के लिए दो विरोधी भावों में आ गया। इसी को भारतीय विश्वास में यों कहा जाता है कि आरंभ में प्रजापति अकेला था। उसका मन नहीं लगा। उसने अपने शरीर के दो भाग। वह आधे भाग से स्त्री और आधे भाग से पुरुष बन गया। तब उसने आनंद का अनुभव किया। स्त्री और पुरुष का युग्म संतति के लिए आवश्यक है और उनका पारस्परिक आकर्षण ही कामभाव का वास्तविक स्वरूप है। प्रकृति की रचना में प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री और प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष की सत्ता है। ऋग्वेद में इस तथ्य की स्पष्ट स्वीकृति पाई जाती है, जैसा अस्यवामीय सूक्त में कहा है—जिन्हें पुरुष कहते हैं वे वस्तुत: स्त्री हैं; जिसके आँख हैं वह इस रहस्य को देखता है; अंधा इसे नहीं समझता। (स्त्रिय: सतीस्तां उ मे पुंस आहु: पश्यदक्षण्वान्न बिचेतदन्ध:। - ऋग्वेद, ३। १६४। १६)।

इस सत्य को अर्वाचीन मनोविज्ञान शास्त्री भी पूरी तरह स्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि प्रत्येक पुरुष के मन में एक आदर्श सुंदरी स्त्री बसती है जिसे "अनिमा' कहते हैं और प्रत्येक स्त्री के मन में एक आदर्श तरुण का निवास होता है जिसे "अनिमस' कहते हैं। वस्तुत: न केवल भावात्मक जगत्‌ में किंतु प्राणात्मक और भौतिक संस्थान में भी स्त्री और पुरुष की यह अन्योन्य प्रतिमा विद्यमान रहती है, ऐसा प्रकृति की रचना का विधान है। कायिक, प्राणिक और मानसिक, तीन ही व्यक्तित्व के परस्पर संयुक्त धरातल हैं और इन तीनों में काम का आकर्षण समस्त रागों और वासनाओं के प्रबल रूप में अपना अस्तित्व रखता हे। अर्वाचीन शरीरशास्त्री इसकी व्याख्या यों करते हैं कि पुरुष में स्त्रीलिंगी हार्मोन (Female sex hormones) और स्त्री में पुरुषलिंगी हार्मोंन (male sex hormones) होते हैं। भारतीय कल्पना के अनुसार यही अर्धनारीश्वर है, अर्थात प्रत्येक प्राणी में पुरुष और स्त्री के दोनों अर्ध-अर्ध भाव में सम्मिलित रूप से विद्यमान हैं और शरीर का एक भी कोष ऐसा नहीं जो इस योषा-वृषा-भाव से शून्य हो। यह कहना उपयुक्त होगा कि प्राणिजगत्‌ की मूल रचना अर्धनारीश्वर सूत्र से प्रवृत्त हुई और जितने भी प्राण के मूर्त रूप हैं सबमें उभयलिंगी देवता ओत प्रोत है। एक मूल पक्ष के दो भागों की कल्पना को ही "माता-पिता' कहते हैं। इन्हीं के नाम द्यावा-पृथिवी और अग्नि-सोम हैं। द्यौ: पिता, पृथिवी मता, यही विश्व में माता-पिता हैं। प्रत्येक प्राणी के विकास का जो आकाश या अंतराल है, उसी की सहयुक्त इकाई द्यावा पृथिवी इस प्रतीक के द्वारा प्रकट की जाती है। इसी को जायसी ने इस प्रकार कहा है :

एकहि बिरवा भए दुइ पाता,
सरग पिता औ धरती माता।

द्यावा पृथिवी, माता पिता, योषा वृषा, पुरुष का जो दुर्धर्ष पारस्परिक राग है, वही काम है। कहा जाता है, सृष्टि का मूल प्रजापति का ईक्षण अर्थात्‌ मन है। विराट् में केंद्र के उत्पत्ति को ही मन कहते हैं। इस मन का प्रधान लक्षण काम है। प्रत्येक केंद्र में मन और काम की सत्ता है, इसलिए भारतीय परिभाषा में काम को मनसिज या संकल्पयोनि कहा गया है। मन का जो प्रबुद्ध रूप है उसे ही मन्यु कहते हैं। मन्यु भाव की पूर्ति के लिए जाया भाव आवश्यक है। बिना जाया के मन्यु भाव रौद्र या भयंकर हो जाता है। इसी को भारतीय आख्यान में सत्ती में सती से वियुक्त होने पर शिव के भैरव रूप द्वारा प्रकट किया गया है। वस्तुत: जाया भाव से असंपृक्त प्राण विनाशकारी है। अतृप्त प्राण जिस केंद्र में रहता है उसका विघटन कर डालता है। प्रकृति के विधान में स्त्री पुरुष का सम्मिलन सृष्टि के लिए आवश्यक है और उस सम्मिलन के जिस फल की निष्पति होती है उसे ही कुमार कहते हैं। प्राण का बालक रूप ही नई-नई रचना के लिए आवश्यक है और उसी में अमृतत्व की श्रृंखला की बार-बार लौटनेवाली कड़ियाँ दिखाई पड़ती हैं। आनंद काम का स्वरूप है। यदि मानव के भीतर का आकाश आनंद से व्याप्त न हो तो उसका आयुष्यसूत्र अविच्छन्न हो जाए। पत्नी के रूप में पति अपने आकाश को उससे परिपूर्ण पाता है।

अर्वाचीन मनोविज्ञान का मौलिक अन्वेषण यह है कि काम सब वासनाओं की मूलभूत वासना है। यहाँ तक तो यह मान्यता समुचित है, किंतु भारतीय विचार के अनुसार काम रूप की वासना स्वयं ईश्वर का रूप है। वह कोई ऐसी विकृति नहीं है जिसे हेय माना जाए।

इस नियम के अनुसार काम प्रजनन के लिए अनिवार्य है और उसका वह छंदोमय मर्यादित रूप अत्यंत पवित्र है। काम वृत्ति की वीभत्स व्याख्या न इष्ट है, न कल्याणकारी। मानवीय शरीर में जिस श्रद्धा, मेधा, क्षुधा, निद्रा, स्मृति आदि अनेक वृत्तियों का समावेश है, उसी प्रकार काम वृत्ति भी देवी की एक कला रूप में यहाँ निवास करती है और वह चेतना का अभिन्न अंग है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ