"भक्ति": अवतरणों में अंतर

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amrutam अमृतम पत्रिका, ग्वालियर

भक्ति क्या है?.

क्या श्रीकृष्ण भक्ति की वजह से बढ़ गए थे? ..

भक्ति के क्या फायदे हैं?..

भक्ति कैसे करें?..

माँ यशोदा ने कब भक्ति की थी?..

राधा की भक्ति क्या है।
मीरा ने किसकी भक्ति की थी?..

भक्ति का बंधन….दृढ़ भक्ति के बन्धन में भगवान स्वयं ही बंध जाते है। इसमें ना जिद्द करनी पड़ती है और ना ही क्रोध। भक्ति के लिए पूर्ण आस्था चाहिए।
भक्ति हेतु अभ्यास के प्रति दृढ़ता रखनी पड़ती है, धैर्य रखना पड़ता है, इसमें निरन्तर, चिन्तन, ध्यान अजपा-जप का अभ्यास करते रहना चाहिए। जब तक निश्चित तथ्य तक न पहुँच जाय, तब तक इसे टूटने देना नहीं चाहिए कि कहीं ये अभ्यास टूट नहीं जाये।
गोपियों की शिकायत पर जब मैया यशोदा भगवान श्री कृष्ण को पकड़ने दौड़ी तो कान्हा यहाँ से वहाँ वहाँ से कहाँ कहाँ दौड़ने लगे।
माँ यशोदा की पकड़ में कन्हैया जब बहुत समय तक नहीं आये, तो मैय्या थक हारकर और पसीने से लथपथ होकर बैठ गयीं।
बड़े-बड़े सिद्ध महर्षि, त्रिकालदर्शी, ऋषिमुनि, महामुनि और योगी जिसको अनुभव में नहीं ला सके और अनेकों जन्म बिता दिए। उसी परम परमेश्वर रूपी कान्हा को मैय्या पकड़ना चाहती है।
थक हारकर जब माँ ने सोचा कि अब इसे नहीं पकड़ सकती हूँ, तो बैठ गयी और चुपचाप शान्त देखने लगी। बहुत परेशानी के पश्चात मैय्या का मन भगवान में एकाग्र हो गया, तो श्री कृष्ण स्वयं ही माँ के पास चले आये और अपना हाथ मैय्या के हाथों में थमा दिया, तो माँ यशोदा ने सोचा कि मैंने कान्हा को पकड़ लिया, भगवान पकड़ में आ गये, तो विचार किया कि इसे बांध देती हूँ।
कान्हा चोरी के समय ऊखल के ऊपर खड़े थे, मैय्या ने सोचा इसी से बाँध दूँ, तो रस्सी खोजने लगी लेकिन रस्सी दिखाई नहीं पड़ी। जो सिर में बालों को गूथनें की जो वेणी डोरी थी, उसी को बाँधने लगी। पर वह दो अंगूल छोटी पड़ गई ।
मैय्या ने गोपियों से कहा कि जाओं रस्सी ले आओं गोपियां रस्सी ले आई पर सब रस्सी जोड़ देने पर भी दो अंगूल छोटी पड़ गई, तब गोपियां बोली- यशोदा रानी कन्हैया को छोड़ दो इनके भाग में बन्धन लिखा ही नहीं है। मैय्या भी जिद्द पर आ गई और बोली आज इसे मैं बाँध के ही रहूँगी। यही भक्ति का बंधन है!
ऊखल किसे कहते हैं…उखल का एक मतलब संत महात्मा भी मान सकते हैं जो एकदम खाली है और परोपकारी है!
असंत जन अर्थात लोभी लालची सांसारिक जन उन्हें मुसल बन कुटते रहते हैं तब भी वे शांत ही रहते हैं स्वयं को दुख देकर भी दूसरों को सुख पहुंचाते रहते हैं।
भगवान श्री कृष्ण ने जब माता को बहुत ही थकी हुई देखा तो कान्हा ने सोचा कि अब भक्ति के बंधन में बंध जाना चाहिए मां ने उन्हें उखल से बांध दिया अतः कान्हा नहीं सोचा की मां यशोदा कई जन्मों से मेरी भक्ति में लीन है!
यमलार्जुन के पेड़ की कहानी…पुरानी भक्त हैं इनसे बंध ही जाना चाहिए परमेश्वर कभी किसी से बंधता नहीं है और यदि विशेष भक्ति वश किसी वक्त के हाथों बंध भी जाते हैं, तो किसी ना किसी का उपकार ही करते हैं!
भगवान श्रीकृष्ण ने जिस स्थान पर कान्हा को बांधा गया वहीं यमलार्जुन वृक्ष थे उनके रूप में कुबेर के पुत्रों का उद्धार होना था।
बालक कृष्ण ने सोचा कि इस उखल के साथ क्यों ना इनका भी उद्धार कर दूं कुबेर के दोनों पुत्रों कुबेर और मणिग्रीव को देवर्षि नारद ने इसी स्थान पर कान्हा द्वारा शपोद्धार का वरदान दिया था कि द्वापर में श्रीकृष्ण तुम्हें श्राप मुक्त करेंगे जब तक तुम दोनों वृक्ष बन कर उस समय तक उनकी प्रतीक्षा करो उन दोनों कुबेर पुत्रों के उद्धार हेतु भगवान उखल के साथ ही दोनों वृक्षों के बीच से निकले तो ऊपर फस गया और यमलार्जुन वृक्ष तड़ तड़कर गिर पड़े।
प्रेम से धारा बने राधा :----धारा को उलट दो, राधा बन जाएगी। पर क्या यह इतना सरल है। शायद नहीं, क्योकिं धारा तो सतत प्रवाहमान रहती हैं। उसके संग बहना सरल है। उसके विपरीत बहना कठिन है।
धारा यानी भक्ति की धारा। ज्ञान गंगा भी कह सकते हैं। गंगावतरण भागीरथ प्रयास से ही संभव हुआ था।
भक्ति धारा का अवतरण भी चित्त वृत्ति को निर्मल करने के बाद ही होता है। मन चंगा होगा तभी तो कठौती में गंगा के दर्शन होगे।
गंगा नीर के समान मन निर्मल होना चाहिए। भक्ति की धारा यानी मानस गंगा का प्रवाह कल-कल, छल-छल गति से सभी बाधाओं को पार कर परम आत्मा में मिल जाता है। आत्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है।
प्रेम की प्रार्थना :--धारा को राधा बनाने के लिए प्रेम आवश्यक है। ऐसा प्रेम जो अनंत जो रोम-रोम को संत बना दे। एसा प्रेम जो दिव्य हो, अलोकिक हो।
हम प्रेम तो करते हैं, पर उसे निभा नहीं पाते आज प्रेम किया, विवाह भी कर लिया पर कल विवाद हो गया। मनभेद, मतभेद हो गया।संबंध समाप्त।
तुम तुम्हारे, हम हमारे इस तर्ज पर प्रेम समाप्त हो जाता है। यह सांसारिक प्रेम है। स्वार्थ आधारित है। ये टिक नहीं सकता है।
प्रेम वह होता है, जो जन्म जन्मांतर तक साथ न छोड़े। हम भगवान से प्रेम करते है उसमें भी स्वार्थ रहता है।
मनोकामना पूरी हो। सुख-शांति बनी रहे, सुख संपत्ति घर आवे, कष्ट मिटे तन का हम प्रार्थना करते हैं। मेरा दोष क्षण में दूर हो। यह कैसा प्रेम है। इस प्रेम में याचना ही याचना है।
भगवान जिससे प्रेम करते है। उसका साथ कभी नहीं छोड़ते हैं। भक्त जैसा नचाए वैसा नाचते है। कोई भेदभाव नहीं करते।
प्रेम अलौकिक होना चाहिए। धारा को राधा बनाने के लिये प्रेम के साथ समर्पण भी आवश्यक है।
ऐसा समर्पण जो तन मन का हो। हम कहते तो हैं- तन-मन-धन सब कुछ तेरा, पर मानते अपना है। कौन अपना धन किसी को देना चाहेगा। दान देते हैं, पर चाहते हैं उसका प्रचार हो।
गुप्तदान देने में क्या मजा जंगल में मोर नाचा किसने देखा। पर भगवान जो देते है छप्पर फाड़ के देते है इतना कि आँचल में ही न समाए।
झोली छोटी पड़ जाती है। बिन माँगे मोती मिलते है। यह तब संभव होता है, जब निष्काम भाव से भक्ति हो जाए।
संपूर्ण समर्पण ऐसा कि अस्तित्व ही खत्म हो जाए। वैसा… जैसा नदी सागर से मिलने पर होता है।
प्रेम दीवानी मीरा का समर्पण भाव ऐसा रहा कि मेरे तो गिरधर गोपाल दूजा न कोई।
राधा का प्रेम ऐसा कि कृष्णमय हो गई । भक्ति का, धारा का लक्ष्य राधा बनने में ही निहित है। ऐसी राधा जिसके नाम स्मरण से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
{{निबंध|date=मार्च 2022}}
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'''भक्ति''' शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' [[धातु (संस्कृत के क्रिया शब्द)|धातु]] से हुई है, जिसका अर्थ 'सेवा करना' या 'भजना' है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति। <ref>Flood, Gavin D. (2003). [https://books.google.com/?id=qSfneQ0YYY8C&pg=PA185 The Blackwell Companion to Hinduism.] Wiley-Blackwell. p. 185. ISBN 978-0-631-21535-6.</ref><ref>Cutler, Norman (1987). [https://books.google.com/?id=veSItWingx8C&pg=PA1 Songs of Experience]. Indiana University Press. p. 1. ISBN 978-0-253-35334-4.</ref>
'''भक्ति''' शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' [[धातु (संस्कृत के क्रिया शब्द)|धातु]] से हुई है, जिसका अर्थ 'सेवा करना' या 'भजना' है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति। <ref>Flood, Gavin D. (2003). [https://books.google.com/?id=qSfneQ0YYY8C&pg=PA185 The Blackwell Companion to Hinduism.] Wiley-Blackwell. p. 185. ISBN 978-0-631-21535-6.</ref><ref>Cutler, Norman (1987). [https://books.google.com/?id=veSItWingx8C&pg=PA1 Songs of Experience]. Indiana University Press. p. 1. ISBN 978-0-253-35334-4.</ref>

15:43, 26 मार्च 2022 का अवतरण

भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ 'सेवा करना' या 'भजना' है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति। [1][2] नारदभक्तिसूत्र में भक्ति को परम प्रेमरूप और अमृतस्वरूप कहा गया है। इसको प्राप्त कर मनुष्य कृतकृत्य, संतृप्त और अमर हो जाता है। व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है। गर्ग के अनुसार कथा श्रवण में अनुरक्ति ही भक्ति है। भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता है।

अर्थात् भक्ति, भजन है। किसका भजन? ब्रह्म का, महान् का। महान् वह है जो चेतना के स्तरों में मूर्धन्य है, यज्ञियों में यज्ञिय है, पूजनीयों में पूजनीय है, सात्वतों, सत्वसंपन्नों में शिरोमणि है और एक होता हुआ भी अनेक का शासक, कर्मफलप्रदाता तथा भक्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाला है।

मानव चिरकाल से इस एक अनादि सत्ता (ब्रह्म) में विश्वास करता आया है। भक्ति साधन तथा साध्य द्विविध है। साधक, साधन में ही जब रस लेने लगता है, उसके फलों की ओर से उदासीन हो जाता है। यही साधन का साध्य बन जाता है। पर प्रत्येक साधन का अपना पृथक् फल भी है। भक्ति भी साधक को पूर्ण स्वाधीनता, पवित्रता, एकत्वभावना तथा प्रभुप्राप्ति जैसे मधुर फल देती है। प्रभुप्राप्ति का अर्थ जीव की समाप्ति नहीं है, सयुजा और सखाभाव से प्रभु में अवस्थित होकर आनन्द का उपभोग करना है।

आचार्यं रामानुज, मध्व, निम्बार्क आदि का मत यही है। महर्षि दयानन्द लिखते हैं : जिस प्रकार अग्नि के पास जाकर शीत की निवृत्ति तथा उष्णता का अनुभव होता है, उसी प्रकार प्रभु के पास पहुँचकर दुःख की निवृत्ति तथा आनन्द की उपलब्धि होती है। 'परमेश्वर के समीप होने से सब दोष दुःख छूटकर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना से आत्मा का बल इतना बढ़ेगा कि पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी वह नहीं घबराएगा और सबको सहन कर सकेगा।

ईसाई प्रभु में पितृभावना रखते हैं क्योंकि पाश्चात्य विचारकों के अनुसार जीव को सर्वप्रथम प्रभु के नियामक, शासक एवं दण्डदाता रूप का ही अनुभव होता है। ब्रह्माण्ड का वह नियामक है, जीवों का शासक तथा उनके शुभाशुभ कर्मो का फलदाता होने के कारण न्यायकारी दंडदाता भी है। यह स्वामित्व की भावना है जो पितृभावना से थोड़ा हटकर है। इस रूप में जीव परमात्मा की शक्ति से भयभीत एवं त्रस्त रहता है पर उसके महत्व एवं ऐश्वर्य से आकर्षित भी होता है। अपनी क्षुद्रता, विवशता एवं अल्पज्ञता की दुःखद स्थिति उसे सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ एवं महान् प्रभु की ओर खींच ले जाती है। भक्ति में दास्यभाव का प्रारंभ स्वामी के सामीप्यलाभ का अमोघ साधन समझा जाता है। प्रभु की रुचि भक्त की रुचि बन जाती है। अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं का परित्याग होने लगता है। स्वामी की सेवा का सातत्य स्वामी और सेवक के बीच की दूरी को दूर करनेवाला है। इससे भक्त भगवान् के साथ आत्मीयता का अनुभव करने लगता है और उसके परिवार का एक अंग बन जाता है। प्रभु मेरे पिता हैं, मैं उनका पुत्र हूँ, यह भावना दास्यभावना से अधिक आकर्षणकारी तथा प्रभु के निकट लानेवाली है। उपासना शब्द का अर्थ ही भक्त को भगवान् के निकट ले जाना है।

वात्सल्यभाव का क्षेत्र व्यापक है। यह मानवक्षेत्र का अतिक्रांत करके पशु एवं पक्षियों के क्षेत्र में भी व्याप्त है। पितृभावना से भी बढ़कर मातृभावना है। पुत्र पिता की ओर आकर्षित होता है, पर साथ ही डरता भी है। मातृभावना में वह डर दूर हो जाता है। माता प्रेम की मूर्ति है, ममत्व की प्रतिमा है। पुत्र उसके समीप निःशंक भाव से चला जाता है। यह भावना वात्सल्यभाव को जन्म देती है। रामानुजीय वैष्णव सम्प्रदाय में केवल वात्सल्य और कर्ममिश्रित वात्सल्य को लेकर, जो मार्जारकिशोर तथा कपिकिशोर न्याय द्वारा समझाए जाते हैं, दो दल हो गए थे (टैकले और बडकालै)- एक केवल प्रपत्ति को ही सब कुछ समझते थे, दूसरे प्रपत्ति के साथ कर्म को भी आवश्यक मानते थे।

स्वामी तथा पिता दोनों को हम श्रद्धा की दृष्टि से अधिक देखते हैं। मातृभावना में प्रेम बढ़ जाता है, पर दाम्पत्य भावना में श्रद्धा का स्थान ही प्रेम ले लेता है। प्रेम दूरी नहीं नैकट्य चाहता है और दाम्पत्यभावना में यह उसे प्राप्त हो जाता है। शृंगार, मधुर अथवा उज्जवल रस भक्ति के क्षेत्र में इसी कारण अधिक अपनाया भी गया है। वेदकाल के ऋषियों से लेकर मध्यकालीन भक्त संतों की हृदयभूमि को पवित्र करता हुआ यह अद्यावधि अपनी व्यापकता एवं प्रभविष्णुता को प्रकट कर रहा है।

भक्ति क्षेत्र की चरम साधना सख्यभाव में समवसित होती है। जीव ईश्वर का शाश्वत सखा है। प्रकृति रूपी वृक्ष पर दोनों बैठे हैं। जीव इस वृक्ष के फल चखने लगता है और परिणामत: ईश्वर के सखाभाव से पृथक् हो जाता है। जब साधना, करता हुआ भक्ति के द्वारा वह प्रभु की ओर उन्मुख होता है तो दास्य, वात्सल्य, दाम्पत्य आदि सीढ़ियों को पार करके पुनः सखाभाव को प्राप्त कर लेता है।[3] इस भाव में न दास का दूरत्व है, न पुत्र का संकोच है और न पत्नी का अधीन भाव है। ईश्वर का सखा जीव स्वाधीन है, मर्यादाओं से ऊपर है और उसका वरेण्य बंधु है। आचार्य वल्लभ ने प्रवाह, मर्यादा, शुद्ध अथवा पुष्ट नाम के जो चार भेद पुष्टिमार्गीय भक्तों के किए हैं, उनमें पुष्टि का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं : कृष्णधीनातु मर्यादा स्वाधीन पुष्टिरुच्यते। सख्य भाव की यह स्वाधीनता उसे भक्ति क्षेत्र में ऊर्ध्व स्थान पर स्थित कर देती है।

मीराबाई (1498-1546) वैष्णव-भक्ति-आन्दोलन की महानतम कवयित्री हैं।

भक्ति का तात्विक विवेचन वैष्णव आचार्यो द्वारा विशेष रूप से हुआ है। वैष्णव संप्रदाय भक्तिप्रधान संप्रदाय रहा है। श्रीमद्भागवत और श्रीमद्भगवद्गीता के अतिरिक्त वैष्णव भक्ति पर अनेक श्लोकबद्ध संहिताओं की रचना हुई। सूत्र शैली में उसपर नारद भक्तिसूत्र तथा शांडिल्य भक्तिसूत्र जैसे अनुपम ग्रंथ लिखे गए। [4]पराधीनता के समय में भी महात्मा रूप गोस्वामी ने भक्तिरसायन जैसे अमूल्य ग्रंथों का प्रणयन किया। भक्ति-तत्व-तंत्र को हृदयंगम करने के लिए इन ग्रंथों का अध्ययन अनिवार्यत: अपेक्षित है। आचार्य वल्लभ की भागवत पर सुबोधिनी टीका तथा नारायण भट्ट की भक्ति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है :

सवै पुंसां परो धर्मो यतो भक्ति रधोक्षजे ।
अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा सम्प्रसीदति ॥ ११.२.६

भगवान् में हेतुरहित, निष्काम एक निष्ठायुक्त, अनवरत प्रेम का नाम ही भक्ति है। यही पुरुषों का परम धर्म है। इसी से आत्मा प्रसन्न होती है। 'भक्तिरसामृतसिन्धु', के अनुसार भक्ति के दो भेद हैं: गौणी तथा परा। गौणी भक्ति साधनावस्था तथा परा भक्ति सिद्धावस्था की सूचक है। गौणी भक्ति भी दो प्रकार की है : वैधी तथा रागानुगा। प्रथम में शास्त्रानुमोदित विधि निषेध अर्थात् मर्यादा मार्ग तथा द्वितीय में राग या प्रेम की प्रधानता है। आचार्य वल्लभ द्वारा प्रतिपादित विहिता एवं अविहिता नाम की द्विविधा भक्ति भी इसी प्रकार की है और मोक्ष की साधिका है। शांडिल्य ने सूत्रसंख्या १० में इन्हीं को इतरा तथा मुख्या नाम दिए हैं।

श्रीमद्भागवत् में नवधा भक्ति का वर्णन है :

श्रवणं कीर्तन विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ ७,५,२३

नारद भक्तिसूत्र संख्या ८२ में भक्ति के जो ग्यारह भेद हैं, उनमें गुण माहात्म्य के अन्दर नवधा भक्ति के श्रवण और कीर्तन, पूजा के अंदर अर्चन, पादसेवन तथा वंदन और स्मरण-दास्य-सख्य-आत्मनिवेदन में इन्हीं नामोंवाली भक्ति अंतभुर्क्त हो जाती है। रूपासक्ति, कांतासक्ति तथा वात्सल्यासक्ति भागवत के नवधा भक्तिवर्णन में स्थान नहीं पातीं।

निगुर्ण या अव्यक्त तथा सगुण नाम से भी भक्ति के दो भेद किए जाते हैं। गीता, भागवत तथा सूरसागर ने निर्गुण भक्ति को अगम्य तथा क्लेशकर कहा है, परन्तु वैष्णव भक्ति का प्रथम युग जो निवृत्तिप्रधान तथा ज्ञान-ध्यान-परायणता का युग है, निर्गुण भक्ति से ही संबद्ध है। चित्रशिखंडी नाम के सात ऋषि इसी रूप में प्रभुध्यान में मग्न रहते थे। राजा वसु उपरिचर के साथ इस भक्ति का दूसरा युग प्रारंभ हुआ जिसमें यज्ञानुष्ठान की प्रवृत्तिमूलकता तथा तपश्चर्या की निवृत्तिमूलकता दृष्टिगोचर होती है। तीसरा युग कृष्ण के साथ प्रारंभ होता है जिसमें अवतारवाद की प्रतिष्ठा हुई तथा द्रव्यमय यज्ञों के स्थान पर ज्ञानमय एवं भावमय यज्ञों का प्रचार हुआ।

चतुर्थ युग में प्रतिमापूजन, देवमंदिर निर्माण, शृंगारसज्जा तथा षोडशोपचार (कलश-शंख-घंटी-दीप-पुष्प आदि) पद्धति की प्रधानता है। इसमें बहिर्मुखी प्रवृत्ति है। पंचम युग में भगवान् के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम के अतीव आकर्षक दृश्य दिखाई देते हैं। वेद का यह पुराण में परिणमन है। इसमें निराकार साकार बना, अनंत सांत तथा सूक्ष्म स्थूल बना। प्रभु स्थावर एवं जंगम दोनों की आत्मा है। फिर जंगम चेतना ही क्यों ? स्थावर द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति और भक्ति क्यों न की जाय ?

वैष्णव आचार्य, कवि एवं साधक स्थूल तक ही सीमित नहीं, वे स्थूल द्वारा सूक्ष्म तक पहुँचे हैं। उनकी रचनाएँ नाम द्वारा नामी का बोध कराती हैं। उन्होंने भगवान् के जिन नामों रूपों लीलाओं तथा धामों का वर्णन किया है, वे न केवल स्थूल मांसपिंडों से ही संबंधित हैं, अपितु उसी के समान आधिदैविक जगत् तथा आध्यात्मिक क्षेत्र से भी संबंधित हैं। राधा और कृष्ण, सीता और राम, पार्वती और परमेश्वर, माया और ब्रह्म, प्रकृति और पुरुष, शक्ति और शक्तिमान्, विद्युत् और मेघ, किरण और सूर्य, ज्योत्स्ना और चंद्र आदि सभी परस्पर एक दूसरे में अनुस्यूत हैं। विरहानुभूति को लेकर भक्तिक्षेत्र में वैष्णव भक्तों ने, चाहे वे दक्षिण के हों या उत्तर के, जिस मार्मिक पीड़ा को अभिव्यक्त किया है, वह साधक के हृदय पर सीधे चोट करती है और बहुत देर उसे वहीं निमग्न रखती है। लोक से कुछ समय के लिए आलोक में पहुँचा देनेवाली वैष्णव भक्तों की यह देन कितनी श्लाघनीय है, कितनी मूल्यवान् है। और इससे भी अधिक मूल्यवान् है उनकी स्वर्गप्राप्ति की मान्यता। मुक्ति नहीं, क्योंकि वह मुक्ति का ही उत्कृष्ट रूप है, भक्ति ही अपेक्षणीय है। स्वर्ग परित्याज है, उपेक्षणीय है। इसके स्थान पर प्रभुप्रेम ही स्वीकरणीय है। वैष्णव संप्रदाय की इस देन की अमिट छाप भारतीय हृदय पर पड़ी है। उसने भक्ति को ही आत्मा का आहार स्वीकार किया है।

भक्ति तर्क पर नहीं, श्रद्धा एवं विश्वास पर अवलंबित है। पुरुष ज्ञान से भी अधिक श्रद्धामय है। मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा बन जाता है, इससे भी अधिक सत्य इस कथन में है कि मनुष्य की जैसी श्रद्धा होती है उसी के अनुकूल और अनुपात में उसका निर्माण होता है। प्रेरक भाव है, विचार नहीं। जो भक्ति भूमि से हटाकर द्यावा में प्रवेश करा दे, मिट्टी से ज्योति बना दे, उसकी उपलब्धि हम सबके लिए निस्संदेह महीयसी है। घी के ज्ञान और कर्म दोनों अर्थ हैं। हृदय श्रद्धा या भाव का प्रतीक है। भाव का प्रभाव, वैसे भी, सर्वप्रथम हृदय के स्पंदनों में ही लक्षित होता है।

सन्दर्भ

  1. Flood, Gavin D. (2003). The Blackwell Companion to Hinduism. Wiley-Blackwell. p. 185. ISBN 978-0-631-21535-6.
  2. Cutler, Norman (1987). Songs of Experience. Indiana University Press. p. 1. ISBN 978-0-253-35334-4.
  3. Allport, Gordon W.; Swami Akhilananda (1999). "Its meaning for the West". Hindu Psychology. Routledge. p. 180.
  4. Georg Feuerstein; Ken Wilber (2002). The Yoga Tradition[मृत कड़ियाँ]. Motilal Banarsidass. p. 55. ISBN 978-81-208-1923-8.

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