"सिद्ध साहित्य": अवतरणों में अंतर

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भारत की वज्रयान परंपरा
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* इस साहित्य में [[तन्त्र|तंत्र]] साधना पर अधिक बल दिया गया।
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* साधना पद्धति में [[शिव]]-[[शक्ति]] के युगल रूप की उपासना की जाती है।
* साधना पद्धति में [[आदिबुद्ध]]-[[प्रज्ञापारमिता ]] के युगल रूप की उपासना की जाती है। ये कहना गलत है कि शिव और शक्ति की पुजा करते हैं सिद्ध जो कि गलत है|सिद्ध परंपरा बौद्ध धर्म की सहजयान सम्प्रदाय में कालचक्रतंत्र में आदिबुद्ध और प्रज्ञापारमिता कि पुजा कि जाती है|यहा आदिबुद्ध को शुन्यता कहा है और प्रज्ञापारमिता को शुद्ध चेतना जिसके संगम से ही परमतत्व को पाया जाता है |यहा हम आदिबुद्ध और प्रज्ञापारमिता बौद्ध धर्म की परमेश्वर कि अवधारणा रुप में समज सकते हैं |वहीं शैव सम्प्रदाय [[शिव]] और [[शक्ति]] रूप में इन्हें पुजते है |
* इसमें जाति प्रथा एवं वर्णभेद व्यवस्था का विरोध किया गया।
* इसमें जाति प्रथा एवं वर्णभेद व्यवस्था का विरोध किया गया।
* इस साहित्य में ब्राह्मण धर्म का खंडन किया गया है।
* इस साहित्य में ब्राह्मण धर्म का खंडन किया गया है।

13:57, 6 अगस्त 2021 का अवतरण

सिद्धों का सम्बन्ध बौद्ध धर्म की वज्रयानी शाखा से है। ये भारत के पूर्वी भाग में सक्रिय थे। इनकी संख्या 84 मानी जाती है जिनमें सरहप्पा, शबरप्पा, लुइप्पा, डोम्भिप्पा, कुक्कुरिप्पा ((कणहपा))आदि मुख्य हैं। सरहप्पा प्रथम सिद्ध कवि थे। राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें हिन्दी का प्रथम कवि माना तथा सर्वसम्मती से इन्हें हिन्दी का प्रथम कवि स्वीकार किया गया, इन्होंने जातिवाद और वाह्याचारों पर प्रहार किया। देहवाद का महिमा मण्डन किया और सहज साधना पर बल दिया। ये महासुखवाद द्वारा ईश्वरत्व की प्राप्ति पर बल देते हैं। इन सब में लुइपा का स्थान सबसे उच्च है।

बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य देश भाषा (जनभाषा) में लिखा गया वही सिद्ध साहित्य कहलाता है। यह साहित्य बिहार से लेकर असम तक फैला था। राहुल संकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है जिनमें सिद्ध 'सरहपा' से यह साहित्य आरम्भ होता है। बिहार के नालन्दा विद्यापीठ इनके मुख्य अड्डे माने जाते हैं। बख्तियार खिलजी ने आक्रमण कर इन्हें भारी नुकसान पहुचाया बाद में यह 'भोट' देश चले गए। इनकी रचनाओं का एक संग्रह महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने बांग्ला भाषा में 'बौद्धगान-ओ-दोहा' के नाम से निकाला। सिद्धों की भाषा में 'उलटबासी' शैली का पूर्व रुप देखने को मिलता है। इनकी भाषा को संध्या भाषा कहा गया है, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सिद्ध साहित्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, "जो जनता तात्कालिक नरेशों की स्वेच्छाचारिता, पराजय त्रस्त होकर निराशा के गर्त में गिरी हुई थी, उनके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया। साधना अवस्था से निकली सिद्धों की वाणी 'चरिया गीत / चर्यागीत' कहलाती है।

सिद्ध साहित्य को मुख्यतः निम्न तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है:-

  • (१) नीति या आचार संबंधित साहित्य
  • (२) उपदेश परक साहित्य
  • (३) साधना सम्बन्धी या रहस्यवादी साहित्य

सिद्धों की साधना धर्म का विकृत रूप थी, उन्होंने वामाचार फैलाया वह अपनी साधना के लिये स्त्री का प्रयोग आवश्यक मानते थे:- उस समय बिहार व बंगाल में सास व ननंद द्वारा नई दुल्हन को सिद्धों के आकर्षण से सावधान रहने की शिक्षा दि जाती थी इनके साहित्य को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सांप्रदायिक शिक्षा मात्र कहा जिनका बाद में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने खंडन किया।।

सिद्ध साहित्य की प्रमुख विशेषताएं

  • इस साहित्य में तंत्र साधना पर अधिक बल दिया गया।
  • साधना पद्धति में शिव-शक्ति के युगल रूप की उपासना की जाती है।
  • इसमें जाति प्रथा एवं वर्णभेद व्यवस्था का विरोध किया गया।
  • इस साहित्य में ब्राह्मण धर्म का खंडन किया गया है।
  • सिद्धों में पंच मकार (मांस, मछली, मदिरा, मुद्रा, मैथुन) की दुष्प्रवृति देखने को मिलती है। हालांकि तंत्रशास्त्र में इसका अर्थ भिन्न बताया गया है।

प्रमुख सिद्ध कवि व उनकी रचनाएँ

  • सरहपा (769 ई.)- दोहाकोष
  • लुइपा (773 ई. लगभग) -- लुइपादगीतिका
  • शबरपा (780 ई.) -- चर्यापद , महामुद्रावज्रगीति , वज्रयोगिनीसाधना
  • कण्हपा (820 ई. लगभग)-- चर्याचर्यविनिश्चय। कण्हपादगीतिका
  • डोंभिपा (840 ई. लगभग)-- डोंबिगीतिका, योगचर्या, अक्षरद्विकोपदेश
  • भूसुकपा-- बोधिचर्यावतार
  • आर्यदेवपा -- कावेरीगीतिका
  • कंवणपा -- चर्यागीतिका
  • कंबलपा -- असंबंध-सर्ग दृष्टि
  • गुंडरीपा -- चर्यागीति
  • जयनन्दीपा -- तर्क मुदँगर कारिका
  • जालंधरपा -- वियुक्त मंजरी गीति, हुँकार चित्त , भावना क्रम
  • दारिकपा -- महागुह्य तत्त्वोपदेश
  • धामपा -- सुगत दृष्टिगीतिकाचर्या

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें