"जेजाकभुक्ति के चन्देल": अवतरणों में अंतर

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नंद के अत्याचार से रवाना हुए कुछ जरासंध वंशी रवानी क्षत्रिय राजपूत बुंदेलखंड आकार बसे जहा कभी उनके पूर्वज उपरीचर वसु और जरासंध का राज था। उन्हीं में से एक रवानी राजपूत राजा नन्नुक (चंद्रवर्मन) ने चंदेल वंश की स्थापना की।
नंद के अत्याचार से रवाना हुए कुछ जरासंधवंशी रवानी क्षत्रिय राजपूत बुंदेलखंड आकार बसे जहा कभी उनके पूर्वज उपरीचर वसु और जरासंध का राज था। उन्हीं राजा नन्नुक (चंद्रवर्मन) ने चंदेल वंश की स्थापना की।
'''चन्देला वंश''' भारत का प्रसिद्ध राजवंश हुआ, जिसने 08वीं से 12वीं शताब्दी तक स्वतंत्र रूप से यमुना और नर्मदा के बीच, बुंदेलखंड तथा उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पश्चिमी भाग पर राज किया। चंदेल वंश के शासकों का बुंदेलखंड के इतिहास में विशेष योगदान रहा है। चंदेलो ने लगभग चार शताब्दियों तक बुंदेलखंड पर शासन किया। चन्देल शासक न केवल महान विजेता तथा सफल शासक थे, अपितु कला के प्रसार तथा संरक्षण में भी उनका महत्‍वपूर्ण योगदान रहा। चंदेलों का शासनकाल आमतौर पर बुंदेलखंड के शांति और समृद्धि के काल के रूप में याद किया जाता है। चंदेलकालीन स्‍थापत्‍य कला ने समूचे विश्‍व को प्रभावित किया उस दौरान वास्तुकला तथा मूर्तिकला अपने उत्‍कर्ष पर थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं खजुराहो के मंदिर इस वंश का प्रथम राजा नन्नुक देव था। के चंदेल मध्य भारत में एक शाही राजवंश थे। उन्होंने 9 वीं और 13 वीं शताब्दी के बीच बुंदेलखंड क्षेत्र (तब जेजाकभुक्ति कहा जाता था) पर शासन किया।देलों को उनकी कला और वास्तुकला के लिए जाना जाता है, विशेष रूप से उनकी मूल राजधानी खजुराहो में मंदिरों के लिए। उन्होंने अजायगढ़, कालिंजर के गढ़ों और बाद में उनकी राजधानी महोबा सहित अन्य स्थानों पर कई मंदिरों, जल निकायों, महलों और किलों की स्थापना की ।देलों ने शुरू में कान्यकुब्ज (कन्नौज) के गुर्जर-प्रतिहारों के सामंतों के रूप में शासन किया। 10 वीं शताब्दी के चंदेला शासक [[यशोवर्मन]] व्यावहारिक रूप से स्वतंत्र हो गए, हालांकि उन्होंने प्रतिहार की अधीनता स्वीकार करना जारी रखा। उनके उत्तराधिकारी धनंग के समय तक, चंदेल एक प्रभु सत्ता बन गए थे। उनकी शक्ति में वृद्धि हुई और गिरावट आई क्योंकि उन्होंने पड़ोसी राजवंशों, विशेष रूप से मालवा के परमार और त्रिपुरी के कलचुरियों के साथ लड़ाई लड़ी। 11 वीं शताब्दी के बाद से, चंदेलों को उत्तरी मुस्लिम राजवंशों द्वारा छापे का सामना करना पड़ा, जिसमें गजनवी और घोरी शामिल थे। चाहमाना और घोरी आक्रमणों के बाद चंदेला शक्ति 13 वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रभावी रूप से समाप्त हो गई।
'''चन्देला वंश''' भारत का प्रसिद्ध राजवंश हुआ, जिसने 08वीं से 12वीं शताब्दी तक स्वतंत्र रूप से यमुना और नर्मदा के बीच, बुंदेलखंड तथा उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पश्चिमी भाग पर राज किया। चंदेल वंश के शासकों का बुंदेलखंड के इतिहास में विशेष योगदान रहा है। चंदेलो ने लगभग चार शताब्दियों तक बुंदेलखंड पर शासन किया। चन्देल शासक न केवल महान विजेता तथा सफल शासक थे, अपितु कला के प्रसार तथा संरक्षण में भी उनका महत्‍वपूर्ण योगदान रहा। चंदेलों का शासनकाल आमतौर पर बुंदेलखंड के शांति और समृद्धि के काल के रूप में याद किया जाता है। चंदेलकालीन स्‍थापत्‍य कला ने समूचे विश्‍व को प्रभावित किया उस दौरान वास्तुकला तथा मूर्तिकला अपने उत्‍कर्ष पर थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं खजुराहो के मंदिर इस वंश का प्रथम राजा नन्नुक देव था। के चंदेल मध्य भारत में एक शाही राजवंश थे। उन्होंने 9 वीं और 13 वीं शताब्दी के बीच बुंदेलखंड क्षेत्र (तब जेजाकभुक्ति कहा जाता था) पर शासन किया।देलों को उनकी कला और वास्तुकला के लिए जाना जाता है, विशेष रूप से उनकी मूल राजधानी खजुराहो में मंदिरों के लिए। उन्होंने अजायगढ़, कालिंजर के गढ़ों और बाद में उनकी राजधानी महोबा सहित अन्य स्थानों पर कई मंदिरों, जल निकायों, महलों और किलों की स्थापना की ।देलों ने शुरू में कान्यकुब्ज (कन्नौज) के गुर्जर-प्रतिहारों के सामंतों के रूप में शासन किया। 10 वीं शताब्दी के चंदेला शासक [[यशोवर्मन]] व्यावहारिक रूप से स्वतंत्र हो गए, हालांकि उन्होंने प्रतिहार की अधीनता स्वीकार करना जारी रखा। उनके उत्तराधिकारी धनंग के समय तक, चंदेल एक प्रभु सत्ता बन गए थे। उनकी शक्ति में वृद्धि हुई और गिरावट आई क्योंकि उन्होंने पड़ोसी राजवंशों, विशेष रूप से मालवा के परमार और त्रिपुरी के कलचुरियों के साथ लड़ाई लड़ी। 11 वीं शताब्दी के बाद से, चंदेलों को उत्तरी मुस्लिम राजवंशों द्वारा छापे का सामना करना पड़ा, जिसमें गजनवी और घोरी शामिल थे। चाहमाना और घोरी आक्रमणों के बाद चंदेला शक्ति 13 वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रभावी रूप से समाप्त हो गई।
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===पूर्ण रूप से पतन===
===पूर्ण रूप से पतन===
परमर्दी (शासनकाल 1165-1203 ईस्वी) ने छोटी उम्र में चंदेला सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। हालांकि उसके शासनकाल के शुरुआती वर्ष शांतिपूर्ण थे, 1182-1183 ईस्वी के आसपास, चाहमाना शासक पृथ्वीराज चौहान ने चंदेला साम्राज्य पर आक्रमण किया। मध्ययुगीन पौराणिक गाथागीतों के अनुसार, पृथ्वीराज की सेना ने तुर्क बलों द्वारा एक आश्चर्यजनक हमले के बाद अपना रास्ता खो दिया और अनजाने में चंदेला की राजधानी महोबा में डेरा डाल दिया। इससे पृथ्वीराज के दिल्ली के लिए रवाना होने से पहले चंदेलों और चौहानों के बीच थोड़ा संघर्ष हुआ । कुछ समय बाद, पृथ्वीराज ने चंदेला साम्राज्य पर आक्रमण किया लेकिन हार गए परमर्दिदेव ने युद्ध के कारण कलंजारा किले में शरण ली। इस लड़ाई में आल्हा(चंदेल राजपूत), ऊदल(चंदेल राजपूत) और अन्य सेनापतियों के नेतृत्व में चंदेला जीत गए।
परमर्दी (शासनकाल 1165-1203 ईस्वी) ने छोटी उम्र में चंदेला सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। हालांकि उसके शासनकाल के शुरुआती वर्ष शांतिपूर्ण थे, 1182-1183 ईस्वी के आसपास, चाहमाना शासक पृथ्वीराज चौहान ने चंदेला साम्राज्य पर आक्रमण किया। मध्ययुगीन पौराणिक गाथागीतों के अनुसार, पृथ्वीराज की सेना ने तुर्क बलों द्वारा एक आश्चर्यजनक हमले के बाद अपना रास्ता खो दिया और अनजाने में चंदेला की राजधानी महोबा में डेरा डाल दिया। इससे पृथ्वीराज के दिल्ली के लिए रवाना होने से पहले चंदेलों और चौहानों के बीच थोड़ा संघर्ष हुआ । कुछ समय बाद, पृथ्वीराज ने चंदेला साम्राज्य पर आक्रमण किया और महोबा को युद्ध में हरा दिया। परमर्दि कायर ने कलंजारा किले में शरण ली। इस लड़ाई में आल्हा, ऊदल और अन्य सेनापतियों के नेतृत्व में चंदेला बल हार गया। विभिन्न गाथा के अनुसार, परमर्दी ने या तो शर्म से आत्महत्या कर ली या गया भाग गया।


पृथ्वीराज चौहान की महोबा की छापेमारी उनके मदनपुर के शिलालेखों में अंकित है। हालांकि,भाटों की किंवदंतियों में ऐतिहासिक अशुद्धियों के कई उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए, यह ज्ञात है कि परमर्दिदेव चौहान की हार के तुरंत बाद सेवानिवृत्त नहीं हुआ या मृत्यु नही हुयी थे। उसने चंदेला सत्ता को फिर बहाल किया, और लगभग 1202-1203 CE तक एक प्रभुता के रूप में शासन किया, जब दिल्ली के घुरिड राज्यपाल ने चंदेला साम्राज्य पर आक्रमण किया। दिल्ली सल्तनत के एक इतिहासकार, ताज-उल-मासीर के अनुसार, परमर्दी ने दिल्ली की सेनाओं के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। उसने सुल्तान को उपहार देने का वादा किया, लेकिन इस वादे को निभाने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। उनके दीवान ने हमलावर ताकतों के लिए कुछ प्रतिरोध किया, लेकिन अंत में उसे अधीन कर लिया गया। 16 वीं शताब्दी के इतिहासकार फरिश्ता का कहना है कि परमर्दी की हत्या उसके ही मंत्री ने की थी, जो दिल्ली की सेनाओं के सामने आत्मसमर्पण करने के राजा के फैसले से असहमत था ।
पृथ्वीराज चौहान की महोबा की छापेमारी उनके मदनपुर के शिलालेखों में अंकित है। हालांकि,भाटों की किंवदंतियों में ऐतिहासिक अशुद्धियों के कई उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए, यह ज्ञात है कि परमारी चौहान की जीत के तुरंत बाद सेवानिवृत्त नहीं हुआ या मृत्यु नही हुयी थे। उसने चंदेला सत्ता को फिर बहाल किया, और लगभग 1202-1203 CE तक एक प्रभुता के रूप में शासन किया, जब दिल्ली के घुरिड राज्यपाल ने चंदेला साम्राज्य पर आक्रमण किया। दिल्ली सल्तनत के एक इतिहासकार, ताज-उल-मासीर के अनुसार, परमर्दी ने दिल्ली की सेनाओं के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। उसने सुल्तान को उपहार देने का वादा किया, लेकिन इस वादे को निभाने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। उनके दीवान ने हमलावर ताकतों के लिए कुछ प्रतिरोध किया, लेकिन अंत में उसे अधीन कर लिया गया। 16 वीं शताब्दी के इतिहासकार फरिश्ता का कहना है कि परमर्दी की हत्या उसके ही मंत्री ने की थी, जो दिल्ली की सेनाओं के सामने आत्मसमर्पण करने के राजा के फैसले से असहमत था ।


चंदेला सत्ता दिल्ली की सेना के खिलाफ अपनी हार से पूरी तरह उबर नहीं पाई थी। त्रिलोकीवर्मन, वीरवर्मन और भोजवर्मन द्वारा परमर्दी को उत्तराधिकारी बनाया गया। अगले शासक हम्मीरवर्मन (1288-1311 CE) ने शाही उपाधि महाराजाधिराज का उपयोग नहीं किया, जो बताता है कि चंदेला राजा की उस समय तक निम्न दर्ज़े की स्थिति थी। बढ़ते मुस्लिम प्रभाव के साथ-साथ अन्य स्थानीय राजवंशों, जैसे बुंदेलों, बघेलों और खंजरों के उदय के कारण चंदेला शक्ति में गिरावट जारी रही।
चंदेला सत्ता दिल्ली की सेना के खिलाफ अपनी हार से पूरी तरह उबर नहीं पाई थी। त्रिलोकीवर्मन, वीरवर्मन और भोजवर्मन द्वारा परमर्दी को उत्तराधिकारी बनाया गया। अगले शासक हम्मीरवर्मन (1288-1311 CE) ने शाही उपाधि महाराजाधिराज का उपयोग नहीं किया, जो बताता है कि चंदेला राजा की उस समय तक निम्न दर्ज़े की स्थिति थी। बढ़ते मुस्लिम प्रभाव के साथ-साथ अन्य स्थानीय राजवंशों, जैसे बुंदेलों, बघेलों और खंजरों के उदय के कारण चंदेला शक्ति में गिरावट जारी रही।


हम्मीरवर्मन के वीरवर्मन द्वितीय सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, जिसके शीर्षक उच्च राजनीतिक दर्ज़े की स्थिति का संकेत नहीं देते हैं। परिवार की एक छोटी शाखा ने कलंजारा पर शासन जारी रखा । इसके शासक को 1545 ईस्वी में शेरशाह सूरी की सेना ने मार डाला। महोबा में एक और छोटी शाखा ने शासन किया, दुर्गावती, इसकी एक राजकुमारी ने मंडला के गोंड शाही परिवार में शादी की।
हम्मीरवर्मन के वीरवर्मन द्वितीय सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, जिसके शीर्षक उच्च राजनीतिक दर्ज़े की स्थिति का संकेत नहीं देते हैं। परिवार की एक छोटी शाखा ने कलंजारा पर शासन जारी रखा । इसके शासक को 1545 ईस्वी में शेरशाह सूरी की सेना ने मार डाला। महोबा में एक और छोटी शाखा ने शासन किया, दुर्गावती, इसकी एक राजकुमारी ने मंडला के गोंड शाही परिवार में शादी की।

शौधस्थ तथ्य विशेष

एक समय ऐसा था कि बुंदेले राजाओं का शासन होने के बावजूद बुन्देलखण्ड की धरती महान शौर्यवान चन्देलों से आबाद थी। सातवीं सदी से लेकर 16वीं शदी तक चन्देलों ने बुन्देलखण्ड और उसके बाहर भी राज किया। कन्नौज, मथुरा, बनारस और इलाहाबाद में मिले महलों के अवशेष इसकी पुष्टि करते हैं। लेकिन चन्देल आज बुन्देलखण्ड में कहीं नहीं हैं। अगर हैं तो उनकी गणना केवल उँगलियों पर की जा सकती है। जो चन्देल बुन्देलखण्ड में आबाद हैं वो भी अपने आपको बाहर से आया हुआ बताते हैं। उनके अनुसार वो बुन्देलखण्ड से अन्यत्र गए और फिर वापस बुन्देलखण्ड में आबाद हुए। इसकी वजह क्या है?

दरअसल चन्देलों की समृद्धि, वैभवता, धन्य-धान्य संपन्नता उनकी सबसे बड़ी दुश्मन बनकर उभरी। यहाँ पर सर्व प्रथम चौहानों तत्पश्चात मुगलों और अफगानों के भयानक आक्रमण हुए। चौहानों के आक्रमण में तो यहाँ तक उल्लेख मिलता है कि पूरी चन्देल आबादी ही कत्ल कर दी गई। बचे-खुचे चन्देल भी कालान्तर में अपनी रणबांकुरी यौद्धये प्रवृति का परित्याग न कर सके और संख्याबल में काम होने के कारण मुगलों, अफगानों के हत्थे चढ़ते रहे। धन लोभी ब्राह्मण विशेषों को एक बढ़िया हथियार मिल चुका था उन्होंने नाव-जन्में चन्देल पुत्रों-वंशजों की झूठी-कुण्डलियाँ बनाकर यह अफवाह फैला दी की यदि कोई चन्देल बुन्देलखण्ड में रहेगा तो वह वंशहीन होकर मरेगा। अपने स्वभाव से अतिधार्मिक व ग्रहों की चाल पर विश्वास करने वाले चन्देल इसे प्रत्यक्ष देख भी रहे थे। उनके गाँव-के-गाँव हमलों में साफ हो रहे थे। चन्देल रणबाँकुरे लोभी ब्राह्मणों की यह कुटिल वृत्ति समझ नहीं पाये और बुंदेलखंड से जाने लगे, जाते समय उन्होंने अपनी समस्त जमीन-जायदाद पंडों-पुरोहितों को रख-रखाव हेतु दे दी, इन जमीनों पर आज भी पंडे-पुरोहित ही भोग-विलास कर रहे हैं। जो न तो उनकी कभी थी और न ही कभी उनके नाम की गई थी और न ही उनको दान की गई थी।

राजा वीर वर्मन के समय से ही चन्देल साम्राज्य विघटित होना शुरू हो गया था। चन्देलों की दो शाखाएँ मुख्य रूप से जानी गई- एक सोनभद्र जनपद का अगोर बड़हर राज्य और दूसरा विजयगढ़ का राज्य। भोजवर्मनदेव के समय बिरदी राज्य की स्थापना हुई जो चन्देल साम्राज्य का पूर्वी सिरा था और वर्तमान बघेलखण्ड में पड़ता था। यहाँ कालिंजर की उपराजधानी बनीं। यहाँ वीर विक्रम शासक था।

चन्देलों के जुझौती छोड़ने के बाद जो छोटे-बड़े राज्य अन्यत्र स्थापित हुए उनमें झारखण्ड के देवघर जनपद का गिद्धौर सर्वप्रमुख है। इस क्षेत्र में चन्देलों के आने के पूर्व यहाँ किरात वंश का शासन था। इस वंश के राजाओं ने गृद्धावती नगरी बसाकर वहाँ राजधानी बनाई। इस वंश का प्रथम शासक हरेवा था। उसका गढ़ हरेवा आज भी विद्यमान है। जब चन्देल सामन्त वीर विक्रम ने गिद्धौर पर आक्रमण किया तो वहाँ निगौरिया राजा था। उससे प्रजा असन्तुष्ट थी। जिसका प्रतिफल यह हुआ कि चन्देल यहाँ आसानी से कब्जा करने में सफल रहे। विक्रम वर्मा के बाद शुक्रदेव वर्मन राजा हुए। उन्होंने चन्देल राज्य की सीमा में 25 किमी की वृद्धि की। उसने गृद्धकूट पर्वत के कामेश्वर नामक स्थान पर शिव के 108 मन्दिरों का निर्माण कराया। इस वंश में आगे क्रमश: देववर्मन, रामनारायण सिंह, राज सिंह, दर्पनारायण सिंह व रघुनाथ सिंह हुए।

अकबर के समय उसके सेनापति मानसिंह ने गिद्धौर पर आक्रमण किया। इस समय यहाँ पर पूरन सिंह चन्देल शासक था। उससे प्रभावित होकर मानसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह पूरन सिंह से किया। जब मुगलों का उत्तराधिकार युद्ध हुआ तो गिद्धौर के चन्देल शासक दलन सिंह ने औरंगजेब के विरुद्ध दाराशिकोह की सहायता की। दारा ने व्यक्तिगत रूप से दलन सिंह की तारीफ करते हुए उसे धन्यवाद ज्ञापित किया था।

बक्सर के युद्ध में चन्देल शासक अमर सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया। अमर सिंह के स्वर्गवासी होने के उपरान्त कम्पनी ने उसका राज्य जब्त कर लिया। उस समय अमर सिंह के पुत्र गोपाल सिंह अल्पवयस्क थे। बालिग होने पर उन्होंने तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंगस के समक्ष अपनी ऐतिहासिकता और उत्तराधिकार का प्रमाण प्रस्तुत किया, फलत: उन्हें कुछ शर्तों के साथ राज्य वापस मिला। 1857 की बगावत में गिद्धौर के चन्देलों ने अंग्रेजों का साथ दिया क्योंकि वो उनके साथ सन्धियों से बँधे थे। इसके लिये चन्देल शासक जयमंगल सिंह को 1877 में गवर्नर जनरल ने केसीएसआई की उपाधि प्रदान की, जिसे प्राप्त करने वाले वो बिहार के प्रथम नागरिक थे।

मिर्जापुर गजेटियर के अनुसार महोबा से पलायित कुछ चन्देल परिवार सोनभद्र जनपद में आये। इस क्षेत्र में सोन नदी का पूरा दक्षिणी भाग, पूरब में कैमूर घाटी, पश्चिम में घोरावल के आगे तक का क्षेत्र आता था। यहाँ पर उस समय बलन्दों का शासन था जो खरवारों की शाखा थे। बारीमल और पारीमल नामक दो सरदार यहाँ शरण लेने आये। उस समय बलन्द राजा मदन था। बारीमल और पारीमल जल्द ही उसके विश्वस्त सहायक बन गए। एक दिन मृत्युशय्या पर पड़े राजा मदन ने चन्देलों को अपने शस्त्रागार और खजाने का रहस्य बता दिया। चन्देलों ने शस्त्रागार और कोषागार पर कब्जा करके पूरा राज्य हथिया लिया।

1290 के आसपास समय चक्र घूमा। बलन्दों ने राजा मदन के वंशज घटम के नेतृत्व में अचानक आक्रमण किया। बलन्दों ने अगोरी के चन्देल नरेश सहित समस्त चन्देलों का चाहे वह बूढ़ा अथवा बच्चा ही क्यों न हो, सबका निर्ममता से वध किया। किन्तु भाग्यवश एक गर्भवती रानी बच गई। उसने शीघ्र ही एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम ओड़नदेव रखा गया। ओड़नदेव ने वयस्क होने पर कंतित के गढ़वाल राजा की सहायता से अगोरी बड़हर का खोया हुआ राज्य पुन: हस्तगत कर लिया।

चन्देलों की कानपुर शाखा भी महत्त्वपूर्ण है। शिवरतन सिंह की ‘‘चन्देल चन्द्रिका’’ के अनुसार परमाल के पुत्र सभाजीत ने कन्नौज में राज्य कायम किया जिनके वंशज क्रमश: ज्ञासदेव, घनश्याम देव, जयराज देव हुए। जयराज देव के तीन पुत्र शिवराज देव, लघु देव, श्रीपति देव हुए जो क्रमश: शिवराजपुर, सपई और पचोर की रियासतें स्थापित करने में सफल रहे। शिवराज देव की 12वीं पीढ़ी में रामशाह के बारे में ज्ञात होता है कि उन्हें 95 गाँवों की सनद मिली थी। इनके पुत्र अर्जुनदेव ने 1772 के मीरनपुर कटरा के रुहेला-नवाब युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। उनके उत्तराधिकारी सती प्रसाद सिंह थे, जिनका राज्य क्रान्तिकारियों का साथ देने के कारण जब्त कर लिया गया।

बेनउर में हरसिंह के वंश में कई पीढ़ी बाद यादवराय का नाम आता है, जो परम्परा से 18 सरकार कहे जाते थे। इनके पुत्रों में प्रताप सिंह ने नवाब से तालमेल कर वेनउर, पनकी, गंगागंज व चचेड़ी में अपने पुत्रों को स्थापित किया। यादवराय के अन्य पुत्रों के वंश कटारा, रैपालपुर, सोमा में विद्यमान हैं।

विक्रम या वीरवर्मा द्वितीय के वंशज ही मुख्यत: बिहार व पूर्वी उ.प्र. में फैले। कालान्तर में महाराज परमर्दिदेव की मृत्यु के बाद से ही उनकी तीसरी रानी जो कि राजपुताना से थीं के वंशज से चलकर बिहार बंगाल की सीमाओं में विस्थापित रहे और तत्पश्चात उनके ही वंशज राजा शीतल सिंह जूदेव आज के मिर्जापुर के क्षेत्र में विस्थापित हुए और उनके बाद महाप्रतापी महाराज दशरथ सिंह जूदेव और उनकी ही पीढ़ी में राजा पीताम्बर सिंह हुए  मिर्जापुर के परम्परा के अनुसार बिरदी के राजा मदन सिंह के प्रपौत्र अभयराय जौनपुर जनपद में आये। खराइचगढ़, ढविलागढ़, मधिन्दागढ़, नया गाँव, महुली में मदन सिंह के वंशज जगमोहन सिंह चन्देलों के उत्तराधिकारी बने। मुंगेर में भी इसी की एक शाखा थी जो काल के गाल में समा गई और एक शाखा जो कि राजा पीताम्बर सिंह की वंशज थी उसके प्रमाण राजा युवराज सिंह, राजा किशनदेव, वज्रवीर सिंह जूदेव जो कि इंगलिस्तान विस्थापित हो गये और विंध्याचल क्षेत्र की देवी माता विंध्यवासिनी व चन्देलों की कुलदेवी माता मैनिया के आशीर्वाद से मिर्जापुर व मुग़लसराय में राजा रायबहादुर चन्देल मेवाड़ सिंह जूदेव का राज्याभिषेक भी हुआ और उक्त राजवंश के राजा उद्घोषित हुए, इनके वैवाहिक संबंध आगरा-बाह के भदावर राज्य में और भैंसासुर बिहार में हुए, उनके वंशज कुँवर मान सिंह चन्देल, कुँवर विजय सिंह चन्देल आज भी आगरा, लखनऊ और धनबाद जिलों में आबाद हैं। खैरागढ़ में राजा विश्वम्भर सिंह चन्देल का राज्य था जिसके वंशज बरियापुर, पतनपुर, नीमा, सोनायें, उझड़ी, मणिअड्डा, सिकहरिया, धमना गाँवों में फैले हैं। इटा नगर, अरुणाचल प्रदेश व उसके सीमांत में राजा किशन सिंह के वंशज फैले हैं। इसी शाखा के राजा जसवंत सिंह के वंशज शाहआलम नगर, दामोदरपुर, तुलसीपुर, जिगरिया में जमे हैं। इसकी एक शाखा सिंहकुण्ड भागलपुर गई, जिनके वंशज मरवा, नगरपारा, दयालपुर, मणुकरचक, पुनामा, प्रतापनगर, तिरासी गाँवों में फैले हैं। जो शाखा वैशाली गई उस शाखा के लोग राघोपुर, फतेहपुर, जुड़ावनपुर, जगदीशपुर आदि 26 गाँवों में बसे हैं। यहाँ के लोग मानते हैं कि 13वीं सदी में महाबल सिंह व गोवर्द्धन सिंह महोबा से आये और वे लोग ही उनके पूर्वज हैं।

अभयराज अपने भाई के साथ जौनपुर जनपद में आये और फत्तूपुर गाँव में बसे। दरभंगा की गनरहटा रियासत भी चन्देलों की है। सीवान में स्थापित बिसवनियाँ शाखा भी महत्त्वपूर्ण है। आजमगढ़ के चन्देल विजयगढ़, सोनभद्र से आए। बनारस और चन्दौली के चन्देल बिरदी से ही 16वीं-17वीं सदी में आये, वहीं से गाजीपुर में भी फैले। ग्राम पलियादिलदारनगर, गाजीपुर में जो लोग बसे हैं, उनके मूल पुरुष गोपाल सिंह थे। अत्यंत ही सावधानी व कुशलता से जुटाई गई ये अमूल्य जानकारी अब भी अपूर्ण है क्योंकि ऐसी कई और वंशधारिणी शाखायें अनंत काल के गाल में समा गईं, विलुप्त हो गईं या अपना  वैभवशाली, शौर्यवान इतिहास भूल गईं या भूलने पर मजबूर कर दी गईं।


== संस्कृति एवं कला ==
== संस्कृति एवं कला ==

19:11, 17 अक्टूबर 2020 का अवतरण

जेजाकभुक्ति के चन्देल,चंदेला

९वीं शाताब्दी–१३वीं शताब्दी ई. चित्र:Delhi State Flag (catalan atlas).png
चन्देला का मानचित्र में स्थान
१२०० ई. में भारत का मानचित्र. चन्देल साम्राज्य मध्य भारत में दर्शित
राजधानी महोबा
खजुराहो
कालिंजर
भाषाएँ संस्कृत
धार्मिक समूह हिन्दू धर्म
जैन धर्म
शासन राजवाद
राष्ट्रपति
 -  ८३१ - ८४५ ई. नन्नुक
 -  १२८८ - १३११ ई. हम्मीरवर्मन
ऐतिहासिक युग मध्यकालीन भारत
 -  स्थापित ९वीं शाताब्दी
 -  अंत १३वीं शताब्दी ई.
आज इन देशों का हिस्सा है:  भारत
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खजुराहो का कंदरीया महादेव मंदिर

नंद के अत्याचार से रवाना हुए कुछ जरासंधवंशी रवानी क्षत्रिय राजपूत बुंदेलखंड आकार बसे जहा कभी उनके पूर्वज उपरीचर वसु और जरासंध का राज था। उन्हीं राजा नन्नुक (चंद्रवर्मन) ने चंदेल वंश की स्थापना की।

चन्देला वंश भारत का प्रसिद्ध राजवंश हुआ, जिसने 08वीं से 12वीं शताब्दी तक स्वतंत्र रूप से यमुना और नर्मदा के बीच, बुंदेलखंड तथा उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पश्चिमी भाग पर राज किया। चंदेल वंश के शासकों का बुंदेलखंड के इतिहास में विशेष योगदान रहा है। चंदेलो ने लगभग चार शताब्दियों तक बुंदेलखंड पर शासन किया। चन्देल शासक न केवल महान विजेता तथा सफल शासक थे, अपितु कला के प्रसार तथा संरक्षण में भी उनका महत्‍वपूर्ण योगदान रहा। चंदेलों का शासनकाल आमतौर पर बुंदेलखंड के शांति और समृद्धि के काल के रूप में याद किया जाता है। चंदेलकालीन स्‍थापत्‍य कला ने समूचे विश्‍व को प्रभावित किया उस दौरान वास्तुकला तथा मूर्तिकला अपने उत्‍कर्ष पर थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं खजुराहो के मंदिर इस वंश का प्रथम राजा नन्नुक देव था। के चंदेल मध्य भारत में एक शाही राजवंश थे। उन्होंने 9 वीं और 13 वीं शताब्दी के बीच बुंदेलखंड क्षेत्र (तब जेजाकभुक्ति कहा जाता था) पर शासन किया।देलों को उनकी कला और वास्तुकला के लिए जाना जाता है, विशेष रूप से उनकी मूल राजधानी खजुराहो में मंदिरों के लिए। उन्होंने अजायगढ़, कालिंजर के गढ़ों और बाद में उनकी राजधानी महोबा सहित अन्य स्थानों पर कई मंदिरों, जल निकायों, महलों और किलों की स्थापना की ।देलों ने शुरू में कान्यकुब्ज (कन्नौज) के गुर्जर-प्रतिहारों के सामंतों के रूप में शासन किया। 10 वीं शताब्दी के चंदेला शासक यशोवर्मन व्यावहारिक रूप से स्वतंत्र हो गए, हालांकि उन्होंने प्रतिहार की अधीनता स्वीकार करना जारी रखा। उनके उत्तराधिकारी धनंग के समय तक, चंदेल एक प्रभु सत्ता बन गए थे। उनकी शक्ति में वृद्धि हुई और गिरावट आई क्योंकि उन्होंने पड़ोसी राजवंशों, विशेष रूप से मालवा के परमार और त्रिपुरी के कलचुरियों के साथ लड़ाई लड़ी। 11 वीं शताब्दी के बाद से, चंदेलों को उत्तरी मुस्लिम राजवंशों द्वारा छापे का सामना करना पड़ा, जिसमें गजनवी और घोरी शामिल थे। चाहमाना और घोरी आक्रमणों के बाद चंदेला शक्ति 13 वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रभावी रूप से समाप्त हो गई।

इतिहास

चंदेल मूल रूप से गुर्जर-प्रतिहारों के जागीरदार थे।[1] नानुका (831-845 CE), राजवंश का संस्थापक, खजुराहो के आसपास केंद्रित एक छोटे से राज्य का शासक था।[2]

चंदेला शिलालेखों के अनुसार, नानुका के उत्तराधिकारी वक्पति ने कई दुश्मनों को हराया। [3] वक्पति के पुत्र जयशक्ति (जेजा) और विजयशक्ति (विज) ने चंदेला शक्ति को समेकित किया[4] एक महोबा शिलालेख के अनुसार, चंदेला क्षेत्र को जयशक्ति के बाद "जेजाकभुक्ति" नाम दिया गया था। विजयशक्ति के उत्तराधिकारी रहीला को प्रशंसात्मक शिलालेखों में कई सैन्य जीत का श्रेय दिया जाता है। रहीला के पुत्र हर्ष ने संभवत: राष्ट्रकूट आक्रमण के बाद या अपने सौतेले भाई भोज द्वितीय के साथ महिपाल के संघर्ष के बाद प्रतिहार राजा महीपाल के शासन को बहाल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

एक संप्रभु शक्ति के रूप में उदय

हर्ष के पुत्र यशोवर्मन (925-950 CE) ने प्रतिहार आधीनता स्वीकार करना जारी रखा, लेकिन व्यावहारिक रूप से स्वतंत्र हो गया। उसने कलंजारा के महत्वपूर्ण किले को जीत लिया। एक 953-954 सदी के खजुराहो के शिलालेख उसे कई अन्य सैन्य सफलताओं के साथ श्रेय देता है, जिसमें गौडा (पाला के साथ पहचाना गया), खासा, छेदी (त्रिपुरी का कलचुरि), कोसला (संभवतः सोमवमेश), मिथिला (संभवतः छोटे उपनदी शासक), मालव (पारमारों के साथ पहचाने गए), कौरव, कश्मीरी और गुर्जर थे । हालांकि ये दावे अतिरंजित प्रतीत होते हैं, क्योंकि उत्तरी भारत में व्यापक विजय के समान दावे अन्य समकालीन राजाओं जैसे कलचुरि राजा युवा-राजा और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण III के रिकॉर्ड में भी पाए जाते हैं। यशोवर्मन के शासनकाल ने प्रसिद्ध चंदेला-युग कला और वास्तुकला की शुरुआत को चिह्नित किया। उन्होंने खजुराहो में लक्ष्मण मंदिर की स्थापना की।

पहले के चंदेला शिलालेखों के विपरीत, यशोवर्मन के उत्तराधिकारी धनंगा (950-999 CE) के रिकॉर्ड में किसी भी प्रतिहार अधिपति का उल्लेख नहीं है। यह इंगित करता है कि धनंगा ने औपचारिक रूप से चंदेला संप्रभुता की स्थापना की। खजुराहो के एक शिलालेख में दावा किया गया है कि कोशल, क्रथा (विदर्भ क्षेत्र का हिस्सा), कुंतला, और सिम्हाला के शासकों ने धनंगा के शासन को विनम्रता से स्वीकारा। यह भी दावा करता है कि आंध्र, अंग, कांची और राह के राजाओं की पत्नियाँ युद्धों में उनकी सफलता के परिणामस्वरूप उनकी जेलों में रहीं। ये एक दरबारी कवि द्वारा विलक्षण अतिशयोक्ति प्रतीत होता हैं, लेकिन बताता है कि धनंगा ने व्यापक सैन्य अभियान किए। अपने पूर्ववर्ती की तरह, धंगा ने भी खजुराहो में एक शानदार मंदिर की स्थापना की, जिसे विश्वनाथ मंदिर के रूप में पहचाना जाता है।

धंगा के उत्तराधिकारी गंडा को अपने द्वारा विरासत में मिले क्षेत्र को बनाए रखता है ऐसा प्रतीत होता है। उनके पुत्र विद्याधर ने कन्नौज (संभवतः राज्यापाल) के प्रतिहार राजा की हत्या कर दी, क्योंकि वह ग़ज़नी के ग़ज़नावी आक्रमणकारी महमूद से लड़ने के बजाय अपनी राजधानी से भाग गया था। बाद में महमूद ने विद्याधर के राज्य पर आक्रमण किया, मुस्लिम आक्रमणकारियों के अनुसार, यह संघर्ष विद्याधर द्वारा महमूद को श्रद्धांजलि देने के साथ समाप्त हो गया।[5] विद्याधारा को कंदरिया महादेव मंदिर की स्थापना के लिए जाना जाता है।

इस अवधि के दौरान चंदेला कला और वास्तुकला अपने चरम पर पहुंच गया। लक्ष्मण मंदिर (930–950 CE), विश्वनाथ मंदिर (999-1002 CE) और कंदरिया महादेव मंदिर (1030 CE) का निर्माण क्रमशः यशोवर्मन, धनगा और विद्याधारा के शासनकाल के दौरान किया गया था। ये नागर-शैली के मंदिर खजुराहो में सबसे अधिक विकसित शैली के प्रतिनिधि हैं।[6]

पतन

20 वीं शताब्दी के कलाकार द्वारा कीर्तिवर्मन चंदेला की खजुराहो मंदिर की यात्रा की कल्पना।ल

विद्याधर के शासनकाल के अंत तक, गजनवी के आक्रमणों ने चंदेला साम्राज्य को कमजोर कर दिया था। इसका लाभ उठाते हुए, कलचुरी राजा गंगेय-देव ने राज्य के पूर्वी हिस्सों को जीत लिया। चंदेला शिलालेखों से पता चलता है कि विद्याधर के उत्तराधिकारी विजयपाल (1035-1050 सीई) ने एक युद्ध में गंगेया को हराया था। हालांकि, चंदेला की शक्ति में विजयपाल के शासनकाल के दौरान गिरावट शुरू हो गई। ग्वालियर के कच्छपघाटों ने संभवतः इस अवधि के दौरान चंदेलों के प्रति अपनी निष्ठा छोड़ दी।[7]

विजयपाल का बड़ा पुत्र देवववर्मन गंगेया के पुत्र लक्ष्मी-कर्ण द्वारा पराजित कर दिया गया था।[7] उसके छोटे भाई कीर्तिवर्मन ने लक्ष्मी-कर्ण को हराकर चंदेला शक्ति को फिर से जीवित कर दिया।[7] कीर्तिवर्मन के पुत्र सल्लक्ष्णवर्मन ने संभवतः उनके प्रदेशों पर हमला कर परमारों और कलचुरियों के खिलाफ सैन्य सफलताएँ हासिल कीं। एक मऊ शिलालेख से पता चलता है कि उन्होंने अंतरवेदी क्षेत्र (गंगा-यमुना दोआब) में भी सफल अभियान चलाया था। उनका पुत्र जयवर्मन धार्मिक स्वभाव का था और शासन के थक जाने के बाद उसने राजगद्दी छोड़ दी।

जयवर्मन की मृत्यु उत्तराधिकारी-विहीन हुई प्रतीत होती है, क्योंकि उसका उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मन का छोटा पुत्र, उसका चाचा पृथ्वीवर्मन हुआ था।[8]चंदेला शिलालेख उसके लिए किसी भी सैन्य उपलब्धियों का वर्णन नहीं करता है, ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक आक्रामक विस्तारवादी नीति को अपनाए बिना मौजूदा चंदेला क्षेत्रों को बनाए रखने पर केंद्रित था।[9]

पुनस्र्त्थान

जब तक पृथ्वीवर्मन के पुत्र मदनवर्मन (1128–1165 CE) सिंहासन का उत्तराधिकारी हुआ, तब तक दुश्मन के आक्रमणों से पड़ोसी कलचुरी और परमारा राज्य कमजोर हो गए थे। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए, मदनवर्मन ने कलचुरी राजा गया-कर्ण को पराजित किया, और संभवतः बघेलखंड क्षेत्र के उत्तरी भाग को कब्जा कर लिया। हालांकि, चंदेलों ने इस क्षेत्र को गया-कर्ण के उत्तराधिकारी नरसिम्हा के हाथो हार गया। मदनवर्मन ने भीमसा (विदिशा) के आसपास, परमारा साम्राज्य की पश्चिमी परिधि पर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। यह संभवत: परमारा राजा यशोवर्मन या उनके पुत्र जयवर्मन के शासनकाल के दौरान हुआ था। एक बार फिर, चंदेलों ने लंबे समय तक नवगठित क्षेत्र को बरकरार नहीं रखा, और यशोवर्मन के बेटे लक्ष्मीवर्मन ने इस क्षेत्र को फिर से कब्जा कर लिया।

गुजरात के चालुक्य राजा जयसिम्हा सिद्धराज ने भी परमारा क्षेत्र पर आक्रमण किया, जो कि चंदेला और चालुक्य राज्यों के बीच स्थित था। इसने उन्हें मदनवर्मन के साथ संघर्ष हुआ। इस संघर्ष का परिणाम अनिर्णायक प्रतीत होता है, क्योंकि दोनों राज्यों के रिकॉर्ड जीत का दावा करते हैं। कलंजारा शिलालेख से पता चलता है कि मदनवर्मन ने जयसिम्हा को हराया था। दूसरी ओर, गुजरात के विभिन्न वर्णसंकरों का दावा है कि जयसिम्हा ने या तो मदनवर्मन को हराया या उससे उपहार प्राप्त किया। मदनवर्मन ने अपने उत्तरी पड़ोसियों, गढ़वलाओं के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखे।

मदनवर्मन के पुत्र यशोवर्मन द्वितीय ने या तो शासन नहीं किया, या बहुत कम समय के लिए शासन किया। मदनवर्मन के पौत्र परमर्दि-देव अंतिम शक्तिशाली चंदेला राजा थे।

पूर्ण रूप से पतन

परमर्दी (शासनकाल 1165-1203 ईस्वी) ने छोटी उम्र में चंदेला सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। हालांकि उसके शासनकाल के शुरुआती वर्ष शांतिपूर्ण थे, 1182-1183 ईस्वी के आसपास, चाहमाना शासक पृथ्वीराज चौहान ने चंदेला साम्राज्य पर आक्रमण किया। मध्ययुगीन पौराणिक गाथागीतों के अनुसार, पृथ्वीराज की सेना ने तुर्क बलों द्वारा एक आश्चर्यजनक हमले के बाद अपना रास्ता खो दिया और अनजाने में चंदेला की राजधानी महोबा में डेरा डाल दिया। इससे पृथ्वीराज के दिल्ली के लिए रवाना होने से पहले चंदेलों और चौहानों के बीच थोड़ा संघर्ष हुआ । कुछ समय बाद, पृथ्वीराज ने चंदेला साम्राज्य पर आक्रमण किया और महोबा को युद्ध में हरा दिया। परमर्दि कायर ने कलंजारा किले में शरण ली। इस लड़ाई में आल्हा, ऊदल और अन्य सेनापतियों के नेतृत्व में चंदेला बल हार गया। विभिन्न गाथा के अनुसार, परमर्दी ने या तो शर्म से आत्महत्या कर ली या गया भाग गया।

पृथ्वीराज चौहान की महोबा की छापेमारी उनके मदनपुर के शिलालेखों में अंकित है। हालांकि,भाटों की किंवदंतियों में ऐतिहासिक अशुद्धियों के कई उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए, यह ज्ञात है कि परमारी चौहान की जीत के तुरंत बाद सेवानिवृत्त नहीं हुआ या मृत्यु नही हुयी थे। उसने चंदेला सत्ता को फिर बहाल किया, और लगभग 1202-1203 CE तक एक प्रभुता के रूप में शासन किया, जब दिल्ली के घुरिड राज्यपाल ने चंदेला साम्राज्य पर आक्रमण किया। दिल्ली सल्तनत के एक इतिहासकार, ताज-उल-मासीर के अनुसार, परमर्दी ने दिल्ली की सेनाओं के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। उसने सुल्तान को उपहार देने का वादा किया, लेकिन इस वादे को निभाने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। उनके दीवान ने हमलावर ताकतों के लिए कुछ प्रतिरोध किया, लेकिन अंत में उसे अधीन कर लिया गया। 16 वीं शताब्दी के इतिहासकार फरिश्ता का कहना है कि परमर्दी की हत्या उसके ही मंत्री ने की थी, जो दिल्ली की सेनाओं के सामने आत्मसमर्पण करने के राजा के फैसले से असहमत था ।

चंदेला सत्ता दिल्ली की सेना के खिलाफ अपनी हार से पूरी तरह उबर नहीं पाई थी। त्रिलोकीवर्मन, वीरवर्मन और भोजवर्मन द्वारा परमर्दी को उत्तराधिकारी बनाया गया। अगले शासक हम्मीरवर्मन (1288-1311 CE) ने शाही उपाधि महाराजाधिराज का उपयोग नहीं किया, जो बताता है कि चंदेला राजा की उस समय तक निम्न दर्ज़े की स्थिति थी। बढ़ते मुस्लिम प्रभाव के साथ-साथ अन्य स्थानीय राजवंशों, जैसे बुंदेलों, बघेलों और खंजरों के उदय के कारण चंदेला शक्ति में गिरावट जारी रही।

हम्मीरवर्मन के वीरवर्मन द्वितीय सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, जिसके शीर्षक उच्च राजनीतिक दर्ज़े की स्थिति का संकेत नहीं देते हैं। परिवार की एक छोटी शाखा ने कलंजारा पर शासन जारी रखा । इसके शासक को 1545 ईस्वी में शेरशाह सूरी की सेना ने मार डाला। महोबा में एक और छोटी शाखा ने शासन किया, दुर्गावती, इसकी एक राजकुमारी ने मंडला के गोंड शाही परिवार में शादी की।

संस्कृति एवं कला

चंदेल शासन परंपरागत आदर्शों पर आधारित था। चंदेलों को उनकी कला और वास्तुकला के लिए जाना जाता है। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर कई मंदिरों, जल निकायों, महलों और किलों की स्थापना की। उनकी सांस्कृतिक उपलब्धियों का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण खजुराहो में हिंदू और जैन मंदिर हैं। तीन अन्य महत्वपूर्ण चंदेला गढ़ जयपुरा-दुर्गा (आधुनिक अजैगढ़), कलंजरा (आधुनिक कालिंजर) और महोत्सव-नगर (आधुनिक महोबा) थे।हम्मीरवर्मन को वीरवर्मन द्वितीय द्वारा सफल किया गया था, जिनके शीर्षक उच्च राजनीतिक स्थिति का संकेत नहीं देते हैं। परिवार की एक छोटी शाखा ने कलंजारा पर शासन जारी रखा: इसके शासक को 1545 ईस्वी में शेरशाह सूरी की सेना ने मार डाला। महोबा में एक और छोटी शाखा ने शासन किया: दुर्गावती, इसकी एक राजकुमारी ने मंडला के गोंड शाही परिवार में शादी की। कुछ अन्य शासक परिवारों ने भी चंदेला वंश का दावा किया


वंशावली

सन्दर्भ

  • बी.ए. स्मिथ : अलीं हिस्ट्री ऑव इंडिया;
  • सी.वी.वैद्य : हिस्ट्री ऑव मेडिवल हिंदू इंडिया;
  • एन.एस. बोस: हिस्ट्री ऑव दि चंदेलाज;
  • डाइनैस्टिक हिस्ट्री ऑव इंडिया, भाग 2;
  • केशवचंद्र मिश्र : चन्देल और उनका राजत्वकाल;
  • हेमचंद्र रे, मजुमदार तथा पुसालकर : दि स्ट्रगिल फॉर दि एंपायर;
  • एस.के.मित्र : दि अर्ली रूलर्ज ऑव खजुराहो;
  • कृष्णदेव : दि टेंपुल ऑव खजुराहो; ऐंशेंट इंडिया, भाग 15
  • नेमाई साधन बोस : हिस्ट्री ऑव दि चंदेलाज;
  • शिशिरकुमार मित्र : अलीं रूलर्ज ऑव खजुराहो।

बाहरी कड़ियाँ

खजुराहो के शिलालेख

  1. Radhey Shyam Chaurasia, History of Ancient India: Earliest Times to 1000 A. D.
  2. Sailendra Sen (2013). A Textbook of Medieval Indian History. Primus. पृ॰ 22. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-80607-34-4. मूल से 14 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 जुलाई 2020.
  3. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰प॰ 27-28.
  4. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 30.
  5. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰प॰ 81-82.
  6. James C. Harle (1994). The Art and Architecture of the Indian Subcontinent. Yale University Press. पृ॰ 234. मूल से 14 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 जुलाई 2020.
  7. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 94.
  8. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰प॰ 110-111.
  9. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 111.