"विन्सटन चर्चिल": अवतरणों में अंतर

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छो चर्चिल ने 1943 मे भारत के रिजर्व रा फूड को ब्रिटिश सेना के लिए जहाजो से भिजवा दिया. जबकि उस वर्ष बंगाल मे भयंकर अकाल पड़ा था. और अन्न न होने से करीब 50 लाख लोग मरे थे. यह चर्चिल की भारतीयो से नफरत का परिणाम थी. इसलिए हम उसे अघोषित तानाशाह मानते हैा भारतीय सांसद शशीथरूर की किताब भारतीय उपनिवेशवाद देखे.
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== इन्हें भी देखें ==
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* [[ब्लड, टॉय्ल, टीयर्ज़ ऐण्ड स्वॅट|लहू, मेहनत, आँसू और]] पसीना
* [[ब्लड, टॉय्ल, टीयर्ज़ ऐण्ड स्वॅट|लहू, मेहनत, आँसू और पसीना]]
*'''भारतीयो से घृणा'''

1942 में जब ये पता चला कि गांधी अनशन पर जाने वाले हैं तो चर्चिल की वार कैबिनेट ने तय किया कि गांधी को मरने दिया जाएगा. लेकिन लिनलिथगो को शक़ था कि इस मसले पर वॉयसराय काउंसिल के कुछ भारतीय सदस्य शायद इस्तीफ़ा दे सकते हैं. जब चर्चिल को ये पता चला तो उन्होंने वायसराय को लिखा, "अगर कुछ काले लोग इस्तीफ़ा दे भी दें तो इससे फ़र्क क्या पड़ता है. हम दुनिया को बता सकते हैं कि हम राज कर रहे हैं. '''''अगर गांधी वास्तव में मर जाते हैं तो हमें एक बुरे आदमी और साम्राज्य के दुश्मन से छुटकारा मिल जाएगा.''''' ऐसे समय जब सारी दुनिया में हमारी तूती बोल रही हो, एक छोटे बूढ़े आदमी के सामने जो हमेशा हमारा दुश्मन रहा हो, झुकना बुद्धिमानी नहीं है." जब गांधी का अनशन कुछ लंबा खिच गया तो चर्चिल ने वॉयसराय लिनलिथगो को पत्र लिखा, "मैंने सुना है कि गांधी अपने अनशन के ड्रामे के दौरान पानी के साथ ग्लूकोज़ ले रहे हैं. क्या इस बात की जाँच कराई जा सकती है? अगर इस जालसाज़ी का भंडा फूटता है तो ये हमारे लिए बेशक़ीमती होगा." मार्टिन गिलबर्ट अपनी किताब 'रोड टू विक्ट्री' में लिखते हैं कि लिनलिथगो ने बाकायदा इसकी जाँच करवाई और चर्चिल के आरोप ग़लत पाए गए.

        गांधी के अनशन से चर्चिल इतना चिढ़ गया कि उसने दक्षिण अफ़्रीका के प्रधानमंत्री जनरल स्मट्स को पत्र लिखा, "मैं नहीं समझता कि गांधी के मरने की कोई इच्छा है. मेरा मानना है कि वो मुझसे बेहतर खाना खा रहे हैं." जब बंगाल के सूखे के दौरान लार्ड वेवल ने भारत को तुरंत अनाज भेजे जाने की मांग की तो चर्चिल इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने वेवल को एक तार भेजा कि "गांधी अब तक मरे क्यों नहीं हैं?" जब गांधी ने भारत की आज़ादी के आश्वासन के बदले ब्रिटेन के युद्ध प्रयासों में मदद की पेशकश की तो चर्चिल ने कहा, "वॉयसराय को इस देशद्रोही से बात नहीं करनी चाहिए और उसे दोबारा जेल में डाल देना चाहिए." वो शायद दुनिया में अकेला राष्ट्राध्यक्ष होंगा जिसने महात्मा गांधी के मरने की ख़वाहिश की थी.

सालों बाद चर्चिल ने स्वीकार किया कि उनके चुनाव हारने से सिर्फ़ एक अच्छी बात ये हुई कि भारत को आज़ादी देने का फ़ैसला जब हुआ तब वो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री नहीं थे. पाँच साल पहले जिस शख़्स ने सार्वजनिक रूप से ये ऐलान किया था कि हम अनिश्चित काल तक भारत पर राज करते रहेंगे, ये फ़ैसला लेना सबसे बड़ा अपमान होता. क्योकि भारत को लेकर चर्चिल का नज़रिया काफ़ी निराशात्मक था. उसकी नजर में भारतीय बेहूदे और गंवार थे. वे नहीं चाहता था कि भारत को आज़ादी प्रदान की जाए.

'''विंस्टन चर्चिल एक निर्लज्ज साम्राज्यवादी था''', जो यह मानता था कि भारतीय जानवरो की तरह हैं और इनका धर्म भी जानवरो वाला हैा भारत कभी एक राष्ट्र नहीं बन सकता और भारतीयों को हमेशा अंग्रेजों का गुलाम रहना चाहिए। जहां तक हिटलर और नाजियों की बात है, तो चर्चिल एकदम सही था। लेकिन गांधी और भारत को लेकर वह पूरी तरह से गलत था। घर में तो वह राष्ट्रीय स्वतंत्रता का बचाव करते थे और विदेश में नस्लीय भेदभाव को बढ़ावा देते थे, यही विंस्टन चर्चिल की राजनीति का अंतर्विरोध था।  

चर्चिल अंग्रेजो की '''फूट डालो और राज करो''' नीति का सबसे बड़ा हिमायती था. उसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों में जानबूझकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच फूट डालने के प्रयास कियें. जिसके बाद पाकिस्तान जैसा विनाशकारी परिणाम बहार आया.

'''इतिहासकार लेखिका मधुश्री मुखर्जी''' ने अपनी किताब में चर्चिल्स सीक्रेट वॉर में दावा किया था कि, 1943 में बंगाल का अकाल कोई आपदा नहीं बल्कि चर्चिल की सोची, समझी और प्रायोजित साजिश थी. जिसमें लगभग 30-50 लाख लोगों ने भूख से तड़पकर अपनी जान गंवाई थी. जहॉ बंगाल मे अकाल के कारण अन्न पैदा नही हुआ वही चर्चिल ने देश के गादामो मे रखा अन्न विश्वयुद्ध मे लड रहे अग्रेज सैनिको को जलपोतो मे भरवाकर भारत से मंगवा लिया और भारतीय बंगालियो को तड़प तड़प कर मर जाने दिया. यह संख्या किसी भी तरह से हिटलर द्वारा मारे गये यहूदियो की संख्या से कम नही हैा जिससे यह तथाकथित ब्रिटिश हीरो चर्चिल एक अघोषित तानाशाह से कतई कम नही था. इसीलिए भारतीय उपनिवेशवाद पर किताब लिखने वाले '''''भारतीय सांसद शशीथरूर चर्चिल को हिटलर के बराबर रखते हैा'''''





== बाहरी कडीयाँ ==
== बाहरी कडीयाँ ==
{{साहित्य में नोबेल पुरस्कार}}
{{साहित्य में नोबेल पुरस्कार}}
{{authority control}}
{{authority control}}हालाकि यह बड़बोला सच है कि ब्रिटेन विश्वयुद्ध का नायक बना. सच यह है कि हिटलर की हार सही मायने मे उसके गलत निर्णय था जिसमे उसने रूस पर आक्रमण किया. वहॉ का मौसम बेहिन्तहा बिगड़ चुका था जिसे जर्मन सेना सहन न कर सकी और यहॉ स्टालिन को मौका मिल गया अपनी सैन्य ताकत झोंक देने का. उस खराब मौसम की मार ने हिटलर की सेना को खदेड़ दिया और उसे नेस्तनाबूत कर दिया. इसी लिए इस विश्वयुद्ध मे रूस, स्टालिन के नेतृत्तव मे विश्वशक्ति बन कर उभरा था और लंदन आर्थिक रूप से इतना खोखला हो चुका था कि वो अपनी सम्राज्यवादी हिंसक लुटेरी नीतियो को और आगे एशियाई देशो मे चला पाने मे लगभग असमर्थ हो चुका था. नतीजतन इन्होने भारत जैसे बड़े राष्ट्रो को अपने सत्ता प्रभाव से मुक्त करना खुद के लिए ठीक समझा.

[[श्रेणी:नोबेल पुरस्कार विजेता]]
[[श्रेणी:नोबेल पुरस्कार विजेता]]
[[श्रेणी:ब्रिटेन के नेता]]
[[श्रेणी:ब्रिटेन के नेता]]

07:03, 15 मई 2020 का अवतरण

विन्सटन चर्चिल
विन्सटन चर्चिल

विन्सटन चर्चिल(30 नवंबर, 1874-24 जनवरी, 1965) अंग्रेज राजनीतिज्ञ। द्वितीय विश्वयुद्ध, 1940-1945 के समय इंगलैंड के प्रधानमंत्री थे । चर्चिल प्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ और प्रखर वक्ता थे वो सेना में अधिकारी रह चुके थे , साथ ही वह इतिहासकार, लेखक और कलाकार भी थे । वह एकमात्र प्रधानमंत्री थे जिसे नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उम्र के आख़िरी पडाव तक पहुंचते पहुंचते धीरे धीरे वह अपने सर के सारे बालों से हाथ धो बैठे थे ।

आर्मी कैरियर के दौरान चर्चिल ने भारत, सूडान और द्वितीय विश्वयुद्ध में अपना जौहर दिखाया था। उन्होने युद्ध संवाददाता के रूप में ख्याति पाई थी। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने ब्रिटिश सेना में अहम जिम्मेदारी संभाली थी। राजनीतिज्ञ के रूप में उन्होंने कई पदों पर कार्य किया। विश्वयुद्ध से पहले वे गृहमंत्रालय में व्यापार बोर्ड के अध्यक्ष रहे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वे लॉर्ड ऑफ एडमिरिल्टी बने रहे। युद्ध के बाद उन्हें शस्त्र भंडार का मंत्री बनाया गया। 10 मई 1940 को उन्हें युनाइटेड किंगडम का प्रधानमंत्री बनाया गया और उन्होंने धूरी राष्ट्रों के खिलाफ लड़ाई जीती। चर्चिल प्रखर वक्ता थे।

परिचय

चर्चिल का जन्म ३० नवम्बर १८७४ को आक्सफोर्ड शायर के ब्लेनहिम पैलेस में हुआ था। इनके पिता लार्ड रेनडल्फ चर्चिल थे, माता जेनी न्यूयार्क नगर के लियोनार्ड जेराम की पुत्री थीं। इनकी शिक्षा हैरी और सैंहर्स्ट में हुई। १८९५ में सेना में भरती हुए और १८९७ में मालकंड के युद्धस्थल में तथा १८९८ में उमदुरमान के युद्ध में भाग लिया। इन यद्धों ने उन्हें दो पुस्तकों - दि स्टोरी ऑव मालकंड फील्ड फोर्स (१८९८) और दि रिवर वार (१८९९) - के लिये पर्याप्त सामग्री प्रदान की। दक्षिणी अफ्रीका के युद्ध (१८९९-१९०२) के समय वह मार्निग पोस्ट के संवाददाता का कार्य कर रहे थे। वे वहाँ बंदी भी हुए, परंतु भाग निकले। उन्होंने अपने अनुभवों का उल्लेख 'लंदन टु लेडीस्मिथ वाया प्रिटोरिया' (१९००) में किया है।

१९०० में ओल्डहेम निर्वाचनक्षेत्र से संसत्सदस्य निर्वचित हुए। यहाँ पर वह काफी तैयारी के बाद भाषण किया करते थे। अत: आगे चलकर वादविवाद की कला में वह विशेष निपुण हुए। इनको अपन पिता के राजनीतिक संस्मरणों का काफी ज्ञान था। इसीलिये इन्होंने १९०६ में 'लाइफ ऑव लार्ड रेवडल्फ चर्चिल' लिखी जो अंग्रेजी की सर्वोत्तम रुचिकर राजनीतिक जीवनियों में गिनी जाती है। १९०४ में चेंबरलेन की व्यपारकर नीति से असंतुष्ट होकर चर्चिल लिबरल दल में सम्मिलित हुए और कैंपबेल बैनरमैन (१९०५- १९०८) के मंत्रिमंडल में वे उपनिवेशों के अधिसचिव नियुक्त हुए। १९०८ में वे मंत्रिमंडल में व्यापारमंडल के सभापति के नाते सम्मिलित हुए। १९०९ से ११ तक वे गृहसचिव रहे। औद्योगिक उपद्रवों को सँभालने में असमर्थ होने के कारण उन्हें जलसेना का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस पद पर उन्होंने बड़ी लगन और दूरदर्शिता से कार्य किया और यही कारण है कि १९१४ में जब युद्ध प्रारंभ हुआ तो ब्रिटिश जलसेना पूर्ण रूप से सुसज्जित थी। वे जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के समर्थक थे। जब उदारवादी सरकार का पतन हुआ तो उन्होंने राजनीति को त्याग युद्धस्थल में प्रवेश किया। १९१७ में लायड जार्ज के नेतृत्व में वे युद्ध तथा परिवहन मंत्री हुए। लायड जार्ज से उनकी अधिक समय तक न पटी और १९२२ में वे सदस्य भी निर्वाचित नहीं हुए।

१९२४ में वे एपिंग से संसत्सदस्य निर्वाचित हुए और स्टैंन्ली बाल्डविन ने उन्हें कंजरवेटिव दल में पुन: सम्मिलित होने के लिये आमंत्रित किया। १९२९ में उनका बाल्डविन से भारत के संबध में मतभेद हो गया। चर्चिल भारत में ब्रिटिश-साम्राज्य-सत्ता का किसी प्रकार का भी समर्पण नहीं चाहते थे। ९ वर्ष तक वे मंत्रिमंडल से बाहर रहे। परंतु संसत्सदस्य तथा प्रभावशाली नेता होने के कारण वे सार्वजनिक प्रश्नों पर अपने विचार स्पष्ट करते रहे। इन्होंने हिटलर से समझौता की नीति का खुला विरोध किया। म्यूनिख समझौते को बिना युद्ध की हार बताया। वे इंग्लैंड को युद्ध के लिये तैयार करना चाहते थे और इसके लिये सोवियत संघ से तुरंत समझौता आवश्यक समझते थे। प्रधान मंत्री चैंबरलेन ने इनके दोनों सुझावों को अस्वीकार कर दिया।

३सितंबर, १९३९ को ब्रिटेन ने जब युत्र की घोषणा की तो चर्चिल को जलसेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया। मई, १९४० में नार्वे की हार ने ब्रिटिश जनता में चैंबरलेन के प्रति विश्वास को डिगा दिया। १० मई को चैंबरलेन ने त्यगपत्र दे दिया और चर्चिल ने प्रधान मंत्री पद संभाला और एक सम्मिलित राष्ट्रीय सरकार का निर्माण किया। लोकसभा में तीन दिन बाद भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि 'मैं रक्त, श्रम, आँसू और पसीने के अतिरिक्त और प्रदान नहीं कर सकता। उनका युद्धविजय में अटूट विश्वास था, जो संकट के समय प्रेरणा देता रहा। ब्रिटिश साम्राज्य की संयुक्त शक्ति ही नहीं वरन् अमरीका और रूस की शक्तियों का जर्मनों के विरुद्ध सक्रिय रूप से प्रेरित किया।

उनके अथक परिश्रम, विश्वास, दृढ़ता और लगन के कारण मित्र राष्ट्रों की विजय हुई। इस विजय ने उनके लिये नवीन समस्याएँ उत्पन्न कर दीं। बेल्जियम, इटली और यूनान की कथित प्रतिक्रियावादी सरकारों के समर्थन का उनपर आरोप लगाया गया और साथ ही सोवियत संघ से पूर्वी यूरोप के सबंध में मतभद उत्पन्न हो गया १९४५ में युद्ध की विजय के उत्सव मनाए गए, परंतु उसी वर्ष के जून के सार्वजनिक निर्वाचन में चर्चिल के दल की हार हुई और उन्हें विरोधी नेत का पद ग्रहण करना पड़ा। जनता जानती थी कि वे युद्ध स्थिति का नेतृत्व कर सकते हैं। आवश्यकता निर्माण की नहीं बल्कि युद्ध के पश्चात् निर्माण की थी। १९४५-५० तक वे अपने संसदीय उत्तरदायित्वों के साथ साथ द्वितीय महायुद्ध का इतिहास लिखने में भी व्यस्त रहे। इसको इन्होंने छ: खंडों में लिखा है। १९५३ में उन्हें साहित्य सेवा के लिये नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। १९५० के सार्वजनिक निर्वाचन में उनके दल के सदस्यों की संख्या बढ़ी और श्रमदल का बहुमत केवल सात सदस्यों का रह गया। अक्टूबर, १९५१ के निर्वाचन में उनके दल की विजय हुई और वह पुन: प्रधान मंत्री नियुक्त हुए। वह विश्वशांति के लिये एकाग्रचित्त होकर प्रयत्नशील रहे उन्होंने अंग्रेजी भाषाभाषियों का एक वृहत् इतिहास अपने विशिष्ट दृष्टिकोण से लिखा है। वृद्धावस्था और अस्वस्थ्य के कारण उन्होंने ५ अप्रैल १९५५ को प्रधान मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया और इस प्रकार राजनीति से अवकाश ग्रहण किया।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कडीयाँ