"फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी": अवतरणों में अंतर

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* [http://www.cambaceres.org/relation/financiers/financiers.htm#CIE-INDES The French East India Company (1785-1875)] History of the last French East India Company on the site dedicated to its business lawyer Jean-Jacques Regis of Cambaceres.
* [http://www.cambaceres.org/relation/financiers/financiers.htm#CIE-INDES The French East India Company (1785-1875)] History of the last French East India Company on the site dedicated to its business lawyer Jean-Jacques Regis of Cambaceres.
* [http://www.les-compagnies-des-indes.com/ French East Indies Company nowadays]
* [http://www.les-compagnies-des-indes.com/ French East Indies Company nowadays]
== संदर्भ ==





18:46, 20 अप्रैल 2020 का अवतरण

फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी (French East India Company) एक व्यापारिक प्रतिष्ठान थी। इसकी स्थापना 1664 में की गई थी ताकि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा डच इस्ट इंडिया कंपनी से मुकाबला किया जा सके।

इसकी योजना जीन बैप्टिस्ट कोलबर्ट ने बनाई थी जिसे लूई चौदहवें ने राजाज्ञा प्रदान की। इसका उद्देश्य पूर्वी गोलार्ध में व्यापार करना था। इसका निर्माण पहले से विद्यमान तीन कम्पनियों को मिलाकर किया गया था। इसका प्रथम डाइरेक्टर जनरल डी फाये (De Faye) था।[1]

इतिहास

सूरत में फ्रेंच फैक्टरी की स्थापना

सूरत मुगल-साम्राज्य का प्रसिद्ध बन्दरगाह और संसार का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। 1612 ई. और 1618 ई. में यहाँ अंग्रेज़ और डच फैक्टरियों की स्थापना हो चुकी थी। इसके अतिरिक्त मिशनरी, यात्री और व्यापारियों के द्वारा फ्रांसीसियों को मुग़ल-साम्राज्य और उसके बन्दरगाह सूरत के विषय में विस्तृत जानकारी मिल चुकी थी। थेबोनीट, बर्नियर और टेवर्नियर फ्रांस के थे जिन्होंने अपने देशवासियों को भारत के बारे में जानकारी दी है। अत: कम्पनी ने सूरत में अपनी फैक्टरी स्थापित करने का निश्चय किया इस हेतु अपने दो प्रतिनिधि भेजे जो मार्च 1666 ई. में सूरत पहुँचे। सूरत गवर्नर ने इन प्रतिनिधियों का स्वागत किया, परन्तु पहले स्थापित इंगलिश और डच फैक्टरी के कर्मचारियों को एक नये प्रतियोगी का आना अच्छा नहीं लगा। ये प्रतिनिधि सूरत से आगरा पहुँचे, उन्होंने लुई-चौदहवें के व्यक्तिगत पत्र को औरंगजेब को दिया और इन्हें सूरत में फैक्टरी स्थापित करने की आज्ञा मिल गयी। कम्पनी ने केरोन को सूरत भेजा और इस प्रकार 1661 ई. में भारत में सूरत के स्थान पर प्रथम फ्रेंच फैक्टरी की स्थापना हुई।

व्यापारिक शत्रुता

यूरोपीय कम्पनियों में घोर व्यापारिक शत्रुता थी। ये कम्पनियाँ जियो और जीने दो के सिद्धान्त में विश्वास नहीं करती थी। जिस प्रकार ये कम्पनियाँ अपने देश में व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त करना चाहती थीं और चार्टर द्वारा उन्हें पूर्व से व्यापार करने का एकाधिकार मिला हुआ था, उसी प्रकार से कम्पनियाँ भारत और सुदूर पूर्व के दूसरे प्रदेशों पर व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त करना चाहती थीं। इस कारण इन कम्पनियों में व्यापारिक युद्ध हुए। सत्रहवीं शताब्दी में यह संघर्ष तिकोना था। अंग्रेज़-पुर्तगीज-संघर्ष, डच-पुर्तगीज संघर्ष और अंग्रेज़-डच संघर्ष। अठाहरवीं शताब्दी में यह संघर्ष अंग्रेज़ और फ्रांसीसियों के बीच हुआ।

ऐंग्लो-डच युद्ध

अंग्रेज-पुर्तगीज संघर्ष कुछ समय तक चलता रहा। परन्तु एक साझे शत्रु डचों ने दोनों को एक-दूसरे के समीप ला दिया। पुर्तगीज डचों से बहुत तंग थे और उन्होंने अंग्रेजों से मित्रता करने में अपना हित समझा। इसी प्रकार अंग्रेज़ भी पुर्तगालियों की मित्रता के लिए उत्सुक थे क्योंकि इस मित्रता से उन्हें मालाबार-तट पर मसालों के व्यापार की सुविधा प्राप्त होती थी। इस कारण गोवा के पुर्तगीज गवर्नर और सूरत के अंग्रेज प्रैजीडेन्ट में 1635 ई. में एक सन्धि हो गयी। यह मित्रता पुर्तगीज राजकुमारी केथराइन का इंग्लैण्ड के सम्राट चार्ल्स-द्वितीय से विवाह से और पक्की हो गई। इस विवाह के फलस्वरूप चार्ल्स द्वितीय को बम्बई का द्वीप दहेज में प्राप्त हुआ जिसे उसने 10 पौंड वार्षिक किराये पर कम्पनी को दे दिया।

अंग्रेज़-डच संघर्ष

डच पुर्तगालियों की अपेक्षा अंग्रेजों के अधिक प्रतिद्वन्द्वी सिद्ध हुए। अंग्रेजों और डचों दोनों ही की फैक्टरियाँ सूरत में स्थापित थीं। मसालों के व्यापार के एकाधिकार पर अंग्रेजों और डचों का संघर्ष हो गया। डच मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहते थे जिसे अंग्रेजों ने चुनौती दी। मालाबार-तट के लिए डचों ने राजाओं से समझौते किये जिसके अनुसार काली मिर्च केवल डचों को ही बेची जा सकती थी। इस समझौते के फलस्वरूप डच कम मूल्य पर काली मिर्च प्राप्त करते थे यद्यपि स्वतन्त्र रूप से बेचने पर अधिक मूल्य प्राप्त किया जा सकता था। अंग्रेजी कम्पनी के मालाबार-तट से काली मिर्च खरीदने के मार्ग में डच हर प्रकार से रोडा अटकाते थे। जो जहाज इंगलिश कम्पनी के लिए काली मिर्च ले जाते थे, इन्हें पकड़ लिया जाता था। इन सब रुकावटों के होते हुए भी इंगलिश कम्पनी मालाबार तट से बड़ी मात्रा में काली मिर्च खरीदने और उसे इंग्लैण्ड भेजने में सफल हो जाती थी।

यद्यपि इंग्लैंड और हालैंड दोनों ही प्रोस्टेंट देश थे, परन्तु व्यापारिक शत्रुता के कारण उनमे शत्रुता के कारण उनमें तीन घमासान युद्ध 1652-54 ई., 1665-66 ई. और 1672-74 ई. में हुए। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने अपने देश के व्यापारिक हित के लिए 1651 ई. में जहाजरानी कानून (नेवीगेशन्स ला) पास किया। जहाजरानी कानून डचों के व्यापारिक हित में नहीं थे और उन्होंने उन्हें मानने से इंकार कर दिया। जब प्रथम एंग्लो-डच युद्ध की सूचना मार्च, 1635 में सूरत पहुँची तो अंग्रेज़ बड़े चिंतित हुए और उन्होंने सूरत के मुगल सूबेदारों से डचों के आक्रमणों से रक्षा की प्रार्थना की। इससे प्रतीत होता है कि पूर्व में उस समय डच अंग्रेजों से अधिक शक्तिशाली थे। युद्ध की सूचना मिलते ही एक शक्तिशाली जहाजी सुआली (सूरत) पहुँच गया। मुगल अधिकारियों की सतर्कता के कारण डचों ने सूरत की इंगलिश फैक्टरी पर आक्रमण नहीं किया। यद्यपि स्थल पर संघर्ष नहीं हुआ, परन्तु समुद्र पर अंग्रेज और डचों में कई युद्ध हुए। अंग्रेज़ी जहाज डचों द्वारा पकड़े गये और व्यापार को हानि पहुँची। अन्य दो युद्धों (1665-67 ई. और 1672-74 ई.) में भी व्यापार को आघात पहुँचा। पहले की तरह इन युद्धों के समय भी अंग्रेजों ने मुगल-सरकार से सुरक्षा की प्रार्थना की। स्थल पर कोई युद्ध नहीं हुआ, परन्तु समुद्र पर डचों ने अंग्रेज़ी जहाजों को पकड़ लिया। सन् 1688 ई. की गौरवपूर्ण क्रान्ति से जिसमें विलियम इंग्लैण्ड का राजा बन गया, अंग्रेज़-डच सम्बन्ध सुधर गये।

डेनिस कम्पनी

डेनिस कपनी का आगमन 1616 ई. में हुआ। 1620 ई. में तमिलनाडु के टूकोबर नामक क्षेत्र में इसने व्यापारिक केन्द्र खोला। बाद में यह वापस चली गई।

आगे चलकर पुर्तगाली भी गोवा तक सीमित हो गए और ब्रिटिश और फ्रेंच कंपनियाँ ही रह गई। कर्नाटक के युद्धों में फ्रांसीसियों का भाग्य भी तय हो गया।

बाहरी कड़ियाँ

संदर्भ

  1. McCabe, p.104