"गोरखनाथ": अवतरणों में अंतर

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जानकारी में कालखंड गलत था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और उससे पूर्व के सभी साहित्य विद्वान गोरखनाथ का जो काल खंड मानते हैं उसे पुस्तक ‛हिंदी साहित्य का इतिहास’ लेखक राम चन्द्र शुक्ल के आधार पर ,उन्ही के शब्दों में सही किया । और गोरखनाथ के विषय मे वर्णित अतिरिक्त जानकारी भी दी!
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[[File:Guru Gorakhnath.jpg|thumb|गोरखनाथ, पुरातन प्रतिमा (गोरखनाथ मठ, ओदाद्र, [[पोरबन्दर]], [[गुजरात]], [[भारत]])]]
[[File:Guru Gorakhnath.jpg|thumb|गोरखनाथ, पुरातन प्रतिमा (गोरखनाथ मठ, ओदाद्र, [[पोरबन्दर]], [[गुजरात]], [[भारत]])]]
'''गोरखनाथ''' या '''गोरक्षनाथ''' जी महाराज प्रथम शताब्दी के पूर्व [[नाथ सम्प्रदाय|नाथ योगी]] के थे ( प्रमाण है राजा विक्रमादित्य के द्वारा बनाया गया पञ्चाङ्ग जिन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत प्रथम शताब्दी से की थी जब कि गुरु गोरक्ष नाथ जी राजा भर्तृहरि एवं इनके छोटे भाई राजा विक्रमादित्य के समय मे थे ) <ref>Omacanda Hāṇḍā. Buddhist Art & Antiquities of Himachal Pradesh, Up to 8th Century A.D. Indus Publishing. p. 71.</ref><ref>Briggs (1938), p. 249</ref> गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे [[भारत]] का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर [[उत्तर प्रदेश]] के [[गोरखपुर]] नगर में स्थित है।<ref>{{cite web|url=http://www.bbc.com/hindi/india-39317123|title=राजनीति की धुरी रहा है योगी का गोरखनाथ मठ}}</ref> गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है।
गोरखनाथ ‛नाथपंथ’ के प्रवर्तक माने जाते हैं।गोरखनाथ के नाथपंथ का मूल बौध्दों की वज्रयान शाखा है। गोरखनाथ के समय का ठीक पता नहीं ।राहुल सांकृत्यायन जी ने वज्रयानी सिद्धो की परंपरा के बीच उनका जो स्थान रखा है,उसके अनुसार उनका समय विक्रम की दसवीं शताब्दी आता है।उनका आधार सिद्धों की एक पुस्तक ‛रत्नाकर जोपम कथा’ है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पृथ्वीराज के समय के आस पास ही - विशेषतः कुछ पीछे- गोरखनाथ के होने का अनुमान दृढ़ किया है। <ref> हिंदी साहित्य का इतिहास: आचार्य राम चन्द्र शुक्ल
गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे [[भारत]] का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर [[उत्तर प्रदेश]] के [[गोरखपुर]] नगर में स्थित है। गोरखनाथ की हठयोग साधना ईश्वरवाद को लेकर चली थी अतः उसमे मुसलमानो के लिए भी आकर्षण था।ईश्वर से मिलाने वाला योग हिन्दुओ और मुसलमानों दोनों के लिए एक सामान्य साधना के रूप में आगे रखा जा सकता है , यह बात गोरखनाथ को दिखाई पड़ी। उसमे मुसलमानो को अप्रिय मूर्तिपूजा और बहुदेवोपासना की आवश्यकता न थी। अतः उन्होंने दोनों के विद्वेषभाव को दूर करके साधना का एक सामान्य मार्ग निकालने की संभावना समझी थी और वे उसका संस्कार अपनी शिष्य परंपरा में छोड़ गए।
नाथ सम्प्रदाय के सिद्धांतों , ग्रंथो में ईश्वरोपासना के बाह्यविधानो के प्रति उपेक्षा प्रकट की गई है, घट में ही ईश्वर को प्राप्त करने पर जोर दिया गया है। वेद शास्त्र का अध्यन व्यर्थ ठहराकर विद्वानों के प्रति अश्रद्धा प्रकट की गई है, तीर्थाटन आदि निष्फल कहे गए हैं।
उनके शब्दो मे
‛ योगशास्त्रं पठेन्नित्यं किमन्ये: शास्त्रविस्तरे: ’

‛ शिवं न जानामि कथं वदामि । शिवं च जानामि कथं वदामि ’

<ref>{{cite web|url=http://www.bbc.com/hindi/india-39317123|title=राजनीति की धुरी रहा है योगी का गोरखनाथ मठ}}</ref> गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है।


गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही [[नेपाल]] के [[गोरखा|गोरखाओं]] ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है [[गोरखा जिला|गोरखा]], उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यहीं दिखे थे। गोरखा जिला में एक [[गुफ़ा|गुफा]] है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहाँ हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे 'रोट महोत्सव' कहते हैं और यहाँ [[मेला]] भी लगता है। गुरू गोरक्ष नाथ जी का एक स्थान उच्चे टीले गोगा मेड़ी,राजस्थान हनुमानगढ़ जिले में भी है।इनकी मढ़ी सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के नजदीक वेरावल में है। इनके साढ़े बारह पंथ होते हैं।
गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही [[नेपाल]] के [[गोरखा|गोरखाओं]] ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है [[गोरखा जिला|गोरखा]], उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यहीं दिखे थे। गोरखा जिला में एक [[गुफ़ा|गुफा]] है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहाँ हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे 'रोट महोत्सव' कहते हैं और यहाँ [[मेला]] भी लगता है। गुरू गोरक्ष नाथ जी का एक स्थान उच्चे टीले गोगा मेड़ी,राजस्थान हनुमानगढ़ जिले में भी है।इनकी मढ़ी सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के नजदीक वेरावल में है। इनके साढ़े बारह पंथ होते हैं।

15:03, 30 मार्च 2020 का अवतरण

गोरखनाथ, पुरातन प्रतिमा (गोरखनाथ मठ, ओदाद्र, पोरबन्दर, गुजरात, भारत)

गोरखनाथ या गोरक्षनाथ जी महाराज प्रथम शताब्दी के पूर्व नाथ योगी के थे ( प्रमाण है राजा विक्रमादित्य के द्वारा बनाया गया पञ्चाङ्ग जिन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत प्रथम शताब्दी से की थी जब कि गुरु गोरक्ष नाथ जी राजा भर्तृहरि एवं इनके छोटे भाई राजा विक्रमादित्य के समय मे थे ) [1][2] गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में स्थित है।[3] गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है।

गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यहीं दिखे थे। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहाँ हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे 'रोट महोत्सव' कहते हैं और यहाँ मेला भी लगता है। गुरू गोरक्ष नाथ जी का एक स्थान उच्चे टीले गोगा मेड़ी,राजस्थान हनुमानगढ़ जिले में भी है।इनकी मढ़ी सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के नजदीक वेरावल में है। इनके साढ़े बारह पंथ होते हैं।

रचनाएँ

डॉ॰ बड़थ्वाल की खोज में निम्नलिखित ४० पुस्तकों का पता चला था, जिन्हें गोरखनाथ-रचित बताया जाता है। डॉ॰ बड़थ्वाल ने बहुत छानबीन के बाद इनमें प्रथम १४ ग्रंथों को असंदिग्ध रूप से प्राचीन माना, क्योंकि इनका उल्लेख प्रायः सभी प्रतियों में मिला। तेरहवीं पुस्तक ‘ग्यान चौंतीसा’ समय पर न मिल सकने के कारण उनके द्वारा संपादित संग्रह में नहीं आ सकी, परन्तु बाकी तेरह को गोरखनाथ की रचनाएँ समझकर उस संग्रह में उन्होंने प्रकाशित कर दिया है।[उद्धरण चाहिए] पुस्तकें ये हैं-

  1. सबदी
  2. पद
  3. शिष्यादर्शन
  4. प्राण -सांकली
  5. नरवै बोध
  6. आत्मबोध
  7. अभय मात्रा जोग
  8. पंद्रह तिथि
  9. सप्तवार
  10. मंछिद्र गोरख बोध
  11. रोमावली
  12. ग्यान तिलक
  13. ग्यान चौंतीसा
  14. पंचमात्रा
  15. गोरखगणेश गोष्ठी
  16. गोरखदत्त गोष्ठी (ग्यान दीपबोध)
  17. महादेव गोरखगुष्टि
  18. शिष्ट पुराण
  19. दया बोध
  20. जाति भौंरावली (छंद गोरख)
  21. नवग्रह
  22. नवरात्र
  23. अष्टपारछ्या
  24. रह रास
  25. ग्यान -माला
  26. आत्मबोध (2)
  27. व्रत
  28. निरंजन पुराण
  29. गोरख वचन
  30. इंद्री देवता
  31. मूलगर्भावली
  32. खाणीवाणी
  33. गोरखसत
  34. अष्टमुद्रा
  35. चौबीस सिद्ध
  36. षडक्षरी
  37. पंच अग्नि
  38. अष्ट चक्र
  39. अवलि सिलूक
  40. काफिर बोध

गुरु गोरखनाथ का समय

मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के समय के बारे में भारत में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार की बातें कही हैं। वस्तुतः इनके और इनके समसामयिक सिद्ध जालन्धरनाथ और कृष्णपाद के सम्बन्ध में अनेक दन्तकथाएँ प्रचलित हैं।

गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ-विषयक समस्त कहानियों के अनुशीलन से कई बातें स्पष्ट रूप से जानी जा सकती हैं। प्रथम यह कि मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ समसायिक थे; दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे और जालांधरनाथ कानुपा या कृष्णपाद के गुरु थे; तीसरी यह की मत्स्येंद्रनाथ कभी योग-मार्ग के प्रवर्तक थे, फिर संयोगवश ऐसे एक आचार में सम्मिलित हो गए थे जिसमें स्त्रियों के साथ अबाध संसर्ग मुख्य बात थी - संभवतः यह वामाचारी साधना थी;-चौथी यह कि शुरू से ही जालांधरनाथ और कानिपा की साधना-पद्धति मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ की साधना-पद्धति से भिन्न थी। यह स्पष्ट है कि किसी एक का समय भी मालूम हो तो बाकी सिद्धों के समय का पता असानी से लग जाएगा। समय मालूम करने के लिए कई युक्तियाँ दी जा सकती हैं। एक-एक करके हम उन पर विचार करें।

  • (1) सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ (कलकत्ता संस्कृत सीरीज़ में डॉ॰ प्रबोधचंद्र वागची द्वारा 1934 ई० में संपादित) का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।
  • (2) सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त ने अपने तंत्रालोक में मच्छंद विभु को नमस्कार किया है। ये ‘मच्छंद विभु’ मत्स्येंद्रनाथ ही हैं, यह भी निश्चचित है। अभिनव गुप्त का समय निश्चित रूप से ज्ञात है। उन्होंने ईश्वर प्रत्याभिज्ञा की बृहती वृत्ति सन् 1015 ई० में लिखी थी और क्रम स्रोत की रचना सन् 991 ई० में की थी। इस प्रकार अभिनव गुप्त सन् ईसवी की दसवीं शताब्दी के अंत में और ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में वर्तमान थे। मत्स्येंद्रनाथ इससे पूर्व ही आविभूर्त हुए होंगे। जिस आदर और गौरव के साथ आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने उनका स्मरण किया है उससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके पर्याप्त पूर्ववर्ती होंगे।
  • (3) पंडित राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में 84 वज्रयानी सिद्धों की सूची प्रकाशित कराई है। इसके देखने से मालूम होता है कि मीनपा नामक सिद्ध, जिन्हें तिब्बती परंपरा में मत्स्येंद्रनाथ का पिता कहा गया है पर वे वस्तुतः मत्स्येंद्रनाथ से अभिन्न हैं, राजा देवपाल के राज्यकाल में हुए थे। राजा देवपाल 809-49 ई० तक राज करते रहे (चतुराशीत सिद्ध प्रवृत्ति, तन्जूर 86। 1। कार्डियर, पृ० 247)। इससे यह सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी के मध्य के भाग में और अधिक से अधिक अंत्य भाग तक वर्तमान थे।
  • (4) गोविंदचंद्र या गोपीचंद्र का संबंध जालंधरपाद से बताया जाता है। वे कानिफा के शिष्य होने से जालंधरपाद की तीसरी पुश्त में पड़ते हैं। इधर तिरुमलय की शैललिपि से यह तथ्य उदधृत किया जा सका है कि दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविन्द चंजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र के पुत्र गोविंदचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविंद चंद्रेर गान’ नाम से जो पोथी उपलब्ध हुई है, उसके अनुसार भी गोविंदचंद्र का किसी दाक्षिणात्य राजा का युद्ध वर्णित है। राजेंद्र चोल का समय 1063 ई० -1112 ई० है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि गोविंदचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान थे। यदि जालंधर उनसे सौ वर्ष पूर्ववर्ती हो तो भी उनका समय दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में निश्चित होता है। मत्स्येंद्रनाथ का समय और भी पहले निश्चित हो चुका है। जालंधरपाद उनके समसामयिक थे। इस प्रकार अनेक कष्ट-कल्पना के बाद भी इस बात से पूर्ववर्ती प्रमाणों की अच्छी संगति नहीं बैठती है।
  • (5) वज्रयानी सिद्ध कण्हपा (कानिपा, कानिफा, कान्हूपा) ने स्वयं अपने गानों पर जालंधरपाद का नाम लिया है। तिब्बती परंपरा के अनुसार ये भी राजा देवपाल (809-849 ई०) के समकालीन थे। इस प्रकार जालंधरपाद का समय इनसे कुछ पूर्व ठहरता है।
  • (6) कंथड़ी नामक एक सिद्ध के साथ गोरखनाथ का संबंध बताया जाता है। ‘प्रबंध चिंतामणि’ में एक कथा आती है कि चौलुक्य राजा मूलराज ने एक मूलेश्वर नाम का शिवमंदिर बनवाया था। सोमनाथ ने राजा के नित्य नियत वंदन-पूजन से संतुष्ट होकर अणहिल्लपुर में अवतीर्ण होने की इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप राजा ने वहाँ त्रिपुरुष-प्रासाद नामक मंदिर बनवाया। उसका प्रबंधक होने के लिए राजा ने कंथड़ी नामक शैवसिद्ध से प्रर्थना की। जिस समय राजा उस सिद्ध से मिलने गया उस समय सिद्ध को बुखार था, पर अपने बुखार को उसने कंथा में संक्रामित कर दिया। कंथा काँपने लगी। राजा ने पूछा तो उसने बताया कि उसी ने कंथा में ज्वर संक्रमित कर दिया है। बड़े छल-बल से उस निःस्पृह तपस्वी को राजा ने मंदिर का प्रबंधक बनवाया। कहानी में सिद्ध के सभी लक्षण नागपंथी योगी के हैं, इसलिए यह कंथड़ी निश्चय ही गोरखनाथ के शिष्य ही होंगे। ‘प्रबंध चिंतामणि’ की सभी प्रतियों में लिखा है कि मूलराज ने संवत् 993 की आषाढ़ी पूर्णिमा को राज्यभार ग्रहण किया था। केवल एक प्रति में 998 संवत् है। इस हिसाब से जो काल अनुमान किया जा सकता है, वह पूर्ववर्ती प्रमाणों से निर्धारित तिथि के अनुकूल ही है। ये ही गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का काल-निर्णय करने के ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक अधार हैं। परंतु प्रायः दंतकथाओं और सांप्रदायिक परंमपराओं के आधार पर भी काल-निर्णय का प्रयत्न किया जाता है।

इन दंतकथाओं से संबद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों का काल बहुत समय जाना हुआ रहता है। बहुत-से ऐतिहासिक व्यक्ति गोरखनाथ के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। उनके समय की सहायता से भी गोरखनाथ के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रिग्स ने (‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज़’ कलकत्ता, 1938) इन दंतकथाओं पर आधारित काल और चार मोटे विभागों में इस प्रकार बाँट लिया है-

  • (1) कबीर नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चौदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य में होगा।
  • (2) गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।
  • (3) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते हैं।
  • (4) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ 1100 ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे। परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते। मैंने नाथ संप्रदाय में दिखाया है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। इन संप्रदायों के साथ उनकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ता है।

परंतु ऊपर के प्रमाणों के आधार पर नाथमार्ग के आदि प्रवर्तकों का समय नवीं शताब्दी का मध्य भाग ही उचित जान पड़ता है। इस मार्ग में पूर्ववर्ती सिद्ध भी बाद में चलकर अंतर्भुक्त हुए हैं और इसलिए गोरखनाथ के संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी झमेला खड़ा हो जाता है।

सन्दर्भ

  1. Omacanda Hāṇḍā. Buddhist Art & Antiquities of Himachal Pradesh, Up to 8th Century A.D. Indus Publishing. p. 71.
  2. Briggs (1938), p. 249
  3. "राजनीति की धुरी रहा है योगी का गोरखनाथ मठ".

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

गोरखनाथ पर उपलब्ध साहित्य

  1. Gorakhnāth and the Kānphaṭa Yogīs - George Weston Briggs
  2. गोरख दर्शन - गोरखनाथ मंदिर, गोरखपुर
  3. Philosophy of Gorakhnath: With Goraksha-Vacana-Sangraha - Akshaya Kumar Banerjea