"ईश्वर": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
छो बॉट: पुनर्प्रेषण ठीक कर रहा है
No edit summary
टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
{{Distinguish|देवता}}
{{Distinguish|देवता}}
{{एक स्रोत}}
{{एक स्रोत}}

हम अपने आसपास जिस प्रकृति सृष्टि और ब्रह्मांड को देखते हैं और हमारे आसपास जो भी घटनाएं घटित होती हैं उन सब का कारक एक परम सकता है या यू कहें यह हमारे सृष्टि में या वातावरण में जो भी प्रकट होता है या होने वाला है या हो रहा है उन सब के पीछे कोई एक परम सत्ता कोई एक परम तत्व कार्य करता है वही परम शक्ति परम तत्व ईश्वर है।

हमें यह तो मानना पड़ेगा किस समस्त मानव जाति और समस्त व्यस्त हो किसी न किसी परम सकता यह परम शक्ति के द्वारा ही नियंत्रित होता है इस विश्व में जो भी घटनाएं घटित होती हैं उसके पीछे किसी न किसी शक्ति का हाथ अवश्य है उस शक्ति के द्वारा ही निर्माण विकास और विनाश को नियंत्रित किया जाता है वही शक्ति हट पर व्याप्त है ‌।

संपूर्ण सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का तत्व व्याप्त रहता है चाहे वह सजीव हो या निर्जीव उस तत्व में ईश्वर का तत्व किसी न किसी रूप में उपस्थित रहता है ईश्वर ही अपने अंश के द्वारा इस सृष्टि में प्रत्येक घटने वाली घटनाओं का कारक है हम अपने आसपास जो भी देखते हैं चाहे वह प्रकृति हो या उसमें उपस्थित कोई भी तत्व हो उसमें ईश्वर विद्यमान रहता है।

संपूर्ण प्रकृति पेड़ पौधे जीव जंतु जीव सजीव ग्रह उपग्रह सूर्य चंद्रमा तारे और प्रकृति के मुख्य तत्व जल थल वायु अग्नि आकाश यह सभी ईश्वरी तत्व है।
ईश्वर हर जगह विद्यमान है वह हर तत्व में में मौजूद रहता है चाहे वह जीव हो या सजीव या निर्जीव यदि हम बात करें ईश्वर की अनुभूति कैसे हो तो उसके लिए आपको प्रकृति के समीप जाना पड़ेगा आप महसूस कीजिए आप अकेले बैठे हुए हैं और आपके सामने हरा भरा जंगल पहाड़ नदियां है उन्हें देखकर आप अपने आप को भूल जाते हैं यह ईश्वर ही तत्व है यही उसके होने का एहसास है। जब आप पृथ्वी पर चलते हैं तो क्या ऐसा नहीं लगता कि जैसे आप अपनी मां की गोद में उछल कूद कर रहे हो। जब हवा का स्पर्श आपके शरीर को छूता है तो वह ईश्वर का ही स्पर्श है मानो ईश्वर अपने हाथों से आपका स्पर्श कर रहा है। यह सब ईश्वर के प्रगट माध्यम और यही ईश्वर है इन्हीं परम सत्ता का जो रचयिता है वह ईश्वर है।

हम और आप ईश्वर का ही अंश है इस सृष्टि के कण-कण में ईश्वर व्याप्त है बस आवश्यकता है उसे महसूस करने की उसे जानने की उसे पहचानने की। ईश्वर ने हमें सब कुछ दिया है यह पृथ्वी जीवन यापन के लिए जंगल पहाड़ फल फूल सब ईश्वर की ही दें। ईश्वर के द्वारा सूरज के माध्यम से प्रकाश का देना फिर रात का होना फिर रात में चंद्रमा के द्वारा प्रकाश देना यह सब उसकी ही व्यवस्था है यह उसका ही एहसास है ईश्वर हर पल हमारे पास रहता है हम बस उसे महसूस नहीं कर पाते हर पल हम उसकी गोद में ही रहते हैं फिर भी हम ईश्वर के एहसास को यह ईश्वर को पहचान नहीं पाते हमें लगता है कि ईश्वर कोई हम जैसा ही शरीर वाला होगा ऐसा नहीं है ईश्वर को जानने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम प्रकृति के करीब होना है आप जितना प्रकृति के करीब जाएंगे उतना ईश्वर के करीब होते जाएंगे जिस दिन आप संपूर्ण रूप से प्रकृति को जान लेंगे प्रकृति के रहस्यों को समझ लेंगे आप समझ लीजिए आपने ईश्वर को पा लिया लेकिन यह सब इतना आसान नहीं मानव ईश्वर द्वारा निर्मित इस ब्रह्मांड की बहुत एक छोटी सी कृति है मानव भले ही सर्वश्रेष्ठ हो लेकिन ईश्वर परम श्रेष्ठ है मानव के द्वारा ईश्वर को समझ पाना बहुत ही मुश्किल है हम बहुत कुछ हद तक उसके एहसास को समझ सकते हैं जिस तरह हम हवा को महसूस तो कर सकते हैं लेकिन उसे देख नहीं सकते ठीक इसी तरह हम ईश्वर द्वारा बनाए गए सृष्टि ब्रह्मांड को देख तो सकते हैं महसूस कर सकते हैं परंतु उसके पीछे के सत्य को जानना अभी बाकी है।

जिस दिन आप स्वयं को ईश्वर के अधीन कर देंगे उसी दिन ईश्वर और आपके बीच का फर्क समाप्त हो जाएगा।

'''परमेश्वर''' वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस [[ब्रह्माण्ड|संसार]] का सृष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को [[भगवान]], [[परमात्मा]] या [[परमेश्वर]] भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना [[ब्रह्माण्ड]] की संरचना से जुड़ी हुई है।
'''परमेश्वर''' वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस [[ब्रह्माण्ड|संसार]] का सृष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को [[भगवान]], [[परमात्मा]] या [[परमेश्वर]] भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना [[ब्रह्माण्ड]] की संरचना से जुड़ी हुई है।
[[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] की ईश् [[धातु]] का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसी धातु से समानार्थी शब्द ईश व ईशिता बने हैं।<ref>{{ Citation
[[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] की ईश् [[धातु]] का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसी धातु से समानार्थी शब्द ईश व ईशिता बने हैं।<ref>{{ Citation

12:01, 24 मार्च 2020 का अवतरण

हम अपने आसपास जिस प्रकृति सृष्टि और ब्रह्मांड को देखते हैं और हमारे आसपास जो भी घटनाएं घटित होती हैं उन सब का कारक एक परम सकता है या यू कहें यह हमारे सृष्टि में या वातावरण में जो भी प्रकट होता है या होने वाला है या हो रहा है उन सब के पीछे कोई एक परम सत्ता कोई एक परम तत्व कार्य करता है वही परम शक्ति परम तत्व ईश्वर है।

हमें यह तो मानना पड़ेगा किस समस्त मानव जाति और समस्त व्यस्त हो किसी न किसी परम सकता यह परम शक्ति के द्वारा ही नियंत्रित होता है इस विश्व में जो भी घटनाएं घटित होती हैं उसके पीछे किसी न किसी शक्ति का हाथ अवश्य है उस शक्ति के द्वारा ही निर्माण विकास और विनाश को नियंत्रित किया जाता है वही शक्ति हट पर व्याप्त है ‌।

संपूर्ण सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का तत्व व्याप्त रहता है चाहे वह सजीव हो या निर्जीव उस तत्व में ईश्वर का तत्व किसी न किसी रूप में उपस्थित रहता है ईश्वर ही अपने अंश के द्वारा इस सृष्टि में प्रत्येक घटने वाली घटनाओं का कारक है हम अपने आसपास जो भी देखते हैं चाहे वह प्रकृति हो या उसमें उपस्थित कोई भी तत्व हो उसमें ईश्वर विद्यमान रहता है।

संपूर्ण प्रकृति पेड़ पौधे जीव जंतु जीव सजीव ग्रह उपग्रह सूर्य चंद्रमा तारे और प्रकृति के मुख्य तत्व जल थल वायु अग्नि आकाश यह सभी ईश्वरी तत्व है।

ईश्वर हर जगह विद्यमान है वह हर तत्व में में मौजूद रहता है चाहे वह जीव हो या सजीव या निर्जीव यदि हम बात करें ईश्वर की अनुभूति कैसे हो तो उसके लिए आपको प्रकृति के समीप जाना पड़ेगा आप महसूस कीजिए आप अकेले बैठे हुए हैं और आपके सामने हरा भरा जंगल पहाड़ नदियां है उन्हें देखकर आप अपने आप को भूल जाते हैं यह ईश्वर ही तत्व है यही उसके होने का एहसास है। जब आप पृथ्वी पर चलते हैं तो क्या ऐसा नहीं लगता कि जैसे आप अपनी मां की गोद में उछल कूद कर रहे हो। जब हवा का स्पर्श आपके शरीर को छूता है तो वह ईश्वर का ही स्पर्श है मानो ईश्वर अपने हाथों से आपका स्पर्श कर रहा है। यह सब ईश्वर के प्रगट माध्यम और यही ईश्वर है इन्हीं परम सत्ता का जो रचयिता है वह ईश्वर है।

हम और आप ईश्वर का ही अंश है इस सृष्टि के कण-कण में ईश्वर व्याप्त है बस आवश्यकता है उसे महसूस करने की उसे जानने की उसे पहचानने की। ईश्वर ने हमें सब कुछ दिया है यह पृथ्वी जीवन यापन के लिए जंगल पहाड़ फल फूल सब ईश्वर की ही दें। ईश्वर के द्वारा सूरज के माध्यम से प्रकाश का देना फिर रात का होना फिर रात में चंद्रमा के द्वारा प्रकाश देना यह सब उसकी ही व्यवस्था है यह उसका ही एहसास है ईश्वर हर पल हमारे पास रहता है हम बस उसे महसूस नहीं कर पाते हर पल हम उसकी गोद में ही रहते हैं फिर भी हम ईश्वर के एहसास को यह ईश्वर को पहचान नहीं पाते हमें लगता है कि ईश्वर कोई हम जैसा ही शरीर वाला होगा ऐसा नहीं है ईश्वर को जानने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम प्रकृति के करीब होना है आप जितना प्रकृति के करीब जाएंगे उतना ईश्वर के करीब होते जाएंगे जिस दिन आप संपूर्ण रूप से प्रकृति को जान लेंगे प्रकृति के रहस्यों को समझ लेंगे आप समझ लीजिए आपने ईश्वर को पा लिया लेकिन यह सब इतना आसान नहीं मानव ईश्वर द्वारा निर्मित इस ब्रह्मांड की बहुत एक छोटी सी कृति है मानव भले ही सर्वश्रेष्ठ हो लेकिन ईश्वर परम श्रेष्ठ है मानव के द्वारा ईश्वर को समझ पाना बहुत ही मुश्किल है हम बहुत कुछ हद तक उसके एहसास को समझ सकते हैं जिस तरह हम हवा को महसूस तो कर सकते हैं लेकिन उसे देख नहीं सकते ठीक इसी तरह हम ईश्वर द्वारा बनाए गए सृष्टि ब्रह्मांड को देख तो सकते हैं महसूस कर सकते हैं परंतु उसके पीछे के सत्य को जानना अभी बाकी है।

जिस दिन आप स्वयं को ईश्वर के अधीन कर देंगे उसी दिन ईश्वर और आपके बीच का फर्क समाप्त हो जाएगा।

परमेश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का सृष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुड़ी हुई है। संस्कृत की ईश् धातु का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसी धातु से समानार्थी शब्द ईश व ईशिता बने हैं।[1]

नाम यहोवा इब्रानी में

धर्म और दर्शन में परमेश्वर की अवधारणाएँ

ईश्वर में विश्वास सम्बन्धी सिद्धान्त-
  • गैर-ईश्वरवाद (नॉन-थीज्म)

ईसाई धर्म

परमेश्वर एक में तीन है और साथ ही साथ तीन में एक है -- परमपिता, ईश्वरपुत्र ईसा मसीह और पवित्र आत्मा

इस्लाम धर्म

अरबी भाषा में लिखा अल्लाह शब्द

वो ईश्वर को अल्लाह कहते हैं। इस्लाम धर्म की धार्मिक पुस्तक कुरान है और प्रत्येक मुसलमान ईश्वर शक्ति में विश्ववास रखता है।

इस्लाम का मूल मंत्र "लॉ इलाह इल्ल , अल्लाह , मुहम्मद उर रसूल अल्लाह" है,अर्थात अल्लाह के सिवा कोई माबूद नही है और मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनके आखरी रसूल (पैगम्बर)हैं।

इस्लाम मे मुसलमानो को खड़े खुले में पेशाब(इस्तीनज़ा) करने की इजाज़त नही क्योंकि इससे इंसान नापाक होता है और नमाज़ पढ़ने के लायक नही रहता इसलिए इस्लाम मे बैठके पेशाब करने को कहा गया है और उसके बाद पानी से शर्मगाह को धोने की इजाज़त दी गयी है।

इस्लाम मे 5 वक़्त की नामाज़ मुक़र्रर की गई है और हर नम्र फ़र्ज़ है।इस्लाम मे रमज़ान एक पाक महीना है जो कि 30 दिनों का होता है और 30 दिनों तक रोज़ रखना जायज़ हैजिसकी उम्र 12 या 12 से ज़्यादा हो।12 से कम उम्र पे रोज़ फ़र्ज़ नही।सेहत खराब की हालत में भी रोज़ फ़र्ज़ नही लेकिन रोज़े के बदले ज़कात देना फ़र्ज़ है।वैसा शख्स जो रोज़ा न रख सके किसी भी वजह से तो उसको उसके बदले ग़रीबो को खाना खिलाने और उसे पैसे देने या उस गरीब की जायज़ ख्वाइश पूरा करना लाज़मी है।

हिन्दू धर्म

वेद के अनुसार व्यक्ति के भीतर पुरुष ईश्वर ही है। परमेश्वर एक ही है। वैदिक और पाश्चात्य मतों में परमेश्वर की अवधारणा में यह गहरा अन्तर है कि वेद के अनुसार ईश्वर भीतर और परे दोनों है जबकि पाश्चात्य धर्मों के अनुसार ईश्वर केवल परे है। ईश्वर परब्रह्म का सगुण रूप है। शिव की एक नाम ईस्वर हे |

वैष्णव लोग विष्णु को ही ईश्वर मानते है, तो शैव शिव को।

योग सूत्र में पतंजलि लिखते है - "क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः"। (क्लेष, कर्म, विपाक और आशय से अछूता (अप्रभावित) वह विशेष पुरुष है।) हिन्दु धर्म में यह ईश्वर की एक मान्य परिभाषा है।

ईश्वर प्राणी द्वारा मानी जाने वाली एक कल्पना है इसमे कुछ लोग विश्वास करते है तो कुछ नही।

जैन धर्म

जैन धर्म में अरिहन्त और सिद्ध (शुद्ध आत्माएँ) ही भगवान है। जैन दर्शन के अनुसार इस सृष्टि को किसी ने नहीं बनाया।

नास्तिकता

नास्तिक लोग और नास्तिक दर्शन ईश्वर को झूठ मानते हैं। परन्तु ईश्वर है या नहीं इस पर कोई ठोस तर्क नहीं दे सकता।

विभिन्न हिन्दू दर्शनों में ईश्वर का अस्तित्व/नास्तित्व

भारतीय दर्शनों में "ईश्वर" के विषय में क्या कहा गया है, वह निम्नवत् है-

सांख्य दर्शन

इस दर्शन के कुछ टीकाकारों ने ईश्वर की सत्ता का निषेध किया है। उनका तर्क है- ईश्वर चेतन है, अतः इस जड़ जगत् का कारण नहीं हो सकता। पुनः ईश्वर की सत्ता किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती. या तो ईश्वर स्वतन्त्र और सर्वशक्तिमान् नहीं है, या फिर वह उदार और दयालु नहीं है, अन्यथा दुःख, शोक, वैषम्यादि से युक्त इस जगत् को क्यों उत्पन्न करता? यदि ईश्वर कर्म-सिद्धान्त से नियन्त्रित है, तो स्वतन्त्र नहीं है और कर्मसिद्धान्त को न मानने पर सृष्टिवैचित्र्य सिद्ध नहीं हो सकता। पुरुष और प्रकृति के अतिरिक्त किसी ईश्वर की कल्पना करना युक्तियुक्त नहीं है।

योग दर्शन

हालाँकि सांख्य और योग दोनों पूरक दर्शन हैं किन्तु योगदर्शन ईश्वर की सत्ता स्वीकार करता है। पतंजलि ने ईश्वर का लक्षण बताया है- "क्लेशकर्मविपाकाराशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः" अर्थात् क्लेश, कर्म, विपाक (कर्मफल) और आशय (कर्म-संस्कार) से सर्वथा अस्पृष्ट पुरुष-विशेष ईश्वर है। यह योग-प्रतिपादित ईश्वर एक विशेष पुरुष है; वह जगत् का कर्ता, धर्ता, संहर्ता, नियन्ता नहीं है। असंख्य नित्य पुरुष तथा नित्य अचेतन प्रकृति स्वतन्त्र तत्त्वों के रूप में ईश्वर के साथ-साथ विद्यमान हैं। साक्षात् रूप में ईश्वर का प्रकृति से या पुरुष के बन्धन और मोक्ष से कोई लेना-देना नहीं है।

वैशेषिक दर्शन

कणाद कृत वैशेषिकसूत्रों में ईश्वर का स्पष्टोल्लेख नहीं हुआ है। "तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्" अर्थात् तद्वचन होने से वेद का प्रामाण्य है। इस वैशेषिकसूत्र में "तद्वचन" का अर्थ कुछ विद्वानों ने "ईश्वरवचन" किया है। किन्तु तद्वचन का अर्थ ऋषिवचन भी हो सकता है। तथापि प्रशस्तपाद से लेकर बाद के ग्रन्थकारों ने ईश्वर की सत्ता स्वीकारी है एवं कुछ ने उसकी सिद्धि के लिए प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं। इनके अनुसार ईश्वर नित्य, सर्वज्ञ और पूर्ण हैं। ईश्वर अचेतन, अदृष्ट के संचालक हैं। ईश्वर इस जगत् के निमित्तकारण और परमाणु उपादानकारण हैं। अनेक परमाणु और अनेक आत्मद्रव्य नित्य एवं स्वतन्त्र द्रव्यों के रूप में ईश्वर के साथ विराजमान हैं; ईश्वर इनको उत्पन्न नहीं करते क्योंकि नित्य होने से ये उत्पत्ति-विनाश-रहित हैं तथा ईश्वर के साथ आत्मद्रव्यों का भी कोई घनिष्ठ संबंध नहीं है। ईश्वर का कार्य, सर्ग के समय, अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में संचरित कर देना; और प्रलय के समय, इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है।

न्याय दर्शन

नैयायिक उदयनाचार्य ने अपनी न्यायकुसुमांजलि में ईश्वर-सिद्धि हेतु निम्न युक्तियाँ दी हैं-

कार्यायोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः।
वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः॥ (- न्यायकुसुमांजलि. ५.१)

(क) कार्यात्- यह जगत् कार्य है अतः इसका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए। जगत् में सामंजस्य एवं समन्वय इसके चेतन कर्ता से आता है। अतः सर्वज्ञ चेतन ईश्वर इस जगत् के निमित्त कारण एवं प्रायोजक कर्ता हैं।

(ख) आयोजनात्- जड़ होने से परमाणुओं में आद्य स्पन्दन नहीं हो सकता और बिना स्पंदन के परमाणु द्वयणुक आदि नहीं बना सकते. जड़ होने से अदृष्ट भी स्वयं परमाणुओं में गतिसंचार नहीं कर सकता. अतः परमाणुओं में आद्यस्पन्दन का संचार करने के लिए तथा उन्हें द्वयणुकादि बनाने के लिए चेतन ईश्वर की आवश्यकता है।

(ग) धृत्यादेः - जिस प्रकार इस जगत् की सृष्टि के लिए चेतन सृष्टिकर्ता आवश्यक है, उसी प्रकार इस जगत् को धारण करने के लिए एवं इसका प्रलय में संहार करने के लिए चेतन धर्ता एवं संहर्ता की आवश्यकता है। और यह कर्ता-धर्ता-संहर्ता ईश्वर है।

(घ) पदात्- पदों में अपने अर्थों को अभिव्यक्त करने की शक्ति ईश्वर से आती है। "इस पद से यह अर्थ बोद्धव्य है", यह ईश्वर-संकेत पद-शक्ति है।

(ङ) संख्याविशेषात्- नैयायिकों के अनुसार द्वयणुक का परिणाम उसके घटक दो अणुओं के परिमाण्डल्य से उत्पन्न नहीं होता, अपितु दो अणुओं की संख्या से उत्पन्न होता है। संख्या का प्रत्यय चेतन द्रष्टा से सम्बद्ध है, सृष्टि के समय जीवात्मायें जड़ द्रव्य रूप में स्थित हैं एवं अदृष्ट, परमाणु, काल, दिक्, मन आदि सब जड़ हैं। अतः दो की संख्या के प्रत्यय के लिए चेतन ईश्वर की सत्ता आवश्यक है।

(च) अदृष्टात्- अदृष्ट जीवों के शुभाशुभ कर्मसंस्कारों का आगार है। ये संचित संस्कार फलोन्मुख होकर जीवों को कर्मफल भोग कराने के प्रयोजन से सृष्टि के हेतु बनते हैं। किन्तु अदृष्ट जड़ है, अतः उसे सर्वज्ञ ईश्वर के निर्देशन तथा संचालन की आवश्यकता है। अतः अदृष्ट के संचालक के रूप में सर्वज्ञ ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है।

वेदान्त

वेदान्तियों के अनुसार ईश्वर की सत्ता तर्क से सिद्ध नहीं की जा सकती. ईश्वर के पक्ष में जितने प्रबल तर्क दिये जा सकते हैं उतने ही प्रबल तर्क उनके विपक्ष में भी दिये जा सकते हैं। तथा, बुद्धि पक्ष-विपक्ष के तुल्य-बल तर्कों से ईश्वर की सिद्धि या असिद्धि नहीं कर सकती. वेदान्तियों के अनुसार ईश्वर केवल श्रुति-प्रमाण से सिद्ध होता है; अनुमान की गति ईश्वर तक नहीं है।

सन्दर्भ

  1. आप्टे, वामन शिवराम (१९६५), द प्रैक्टिकल् संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी (चौथा संस्करण), दिल्ली, वाराणसी, पटना, मद्रास: मोतीलाल बनारसीदास

इन्हें भी देखें