"वेदाङ्ग ज्योतिष": अवतरणों में अंतर
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वेदांगज्योतिष कालविज्ञापक शास्त्र है। माना जाता है कि ठीक तिथि नक्षत्र पर किये गये [[यज्ञ|यज्ञादि]] कार्य फल देते हैं अन्यथा नहीं। कहा गया है कि- |
वेदांगज्योतिष कालविज्ञापक शास्त्र है। माना जाता है कि ठीक तिथि नक्षत्र पर किये गये [[यज्ञ|यज्ञादि]] कार्य फल देते हैं अन्यथा नहीं। कहा गया है कि- |
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: ''वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।'' |
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: ''तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्येतिषं वेद स वेद यज्ञान् ॥'' (आर्चज्यौतिषम् ३६, याजुषज्याेतिषम् ३) |
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चारो वेदों के पृथक् पृथक् ज्योतिषशास्त्र थे। उनमें से सामवेद का ज्यौतिषशास्त्र अप्राप्य है, शेष तीन वेदों के ज्यौतिषात्र प्राप्त होते हैं। |
चारो वेदों के पृथक् पृथक् ज्योतिषशास्त्र थे। उनमें से सामवेद का ज्यौतिषशास्त्र अप्राप्य है, शेष तीन वेदों के ज्यौतिषात्र प्राप्त होते हैं। |
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पीछे सिद्धान्त ज्याेतिष काल मेें ज्याेतिषशास्त्र के तीन स्कन्ध माने गए- '''सिद्धान्त''', '''संहिता''' और '''होरा'''। इसीलिये इसे ज्योतिषशास्त्र को 'त्रिस्कन्ध' कहा जाता है। कहा गया है – |
पीछे सिद्धान्त ज्याेतिष काल मेें ज्याेतिषशास्त्र के तीन स्कन्ध माने गए- '''सिद्धान्त''', '''संहिता''' और '''होरा'''। इसीलिये इसे ज्योतिषशास्त्र को 'त्रिस्कन्ध' कहा जाता है। कहा गया है – |
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: सिद्धान्तसंहिताहोरारुपं स्कन्धत्रयात्मकम्। |
: ''सिद्धान्तसंहिताहोरारुपं स्कन्धत्रयात्मकम्। |
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: वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम् ॥ |
: ''वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम् ॥ |
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वेदांगज्याेतिष सिद्धान्त ज्याेतिष है, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है। वेदांगज्योतिष में [[गणित]] के महत्त्व का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया है- |
वेदांगज्याेतिष सिद्धान्त ज्याेतिष है, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है। वेदांगज्योतिष में [[गणित]] के महत्त्व का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया है- |
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: यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। |
: ''यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। |
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: तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्॥ (याजुषज्याेतिषम् ४) |
: ''तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्॥ (याजुषज्याेतिषम् ४) |
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:: (अर्थ : जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है, उसी प्रकार सभी वेदांगशास्त्रों मे गणित अर्थात् ज्याेतिष का स्थान सबसे उपर है।)'' |
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वेदांगज्याेतिष में वेदाें में जैसा (शुक्लयजुर्वेद २७।४५, ३०।१५) ही पाँच वर्षाें का एक युग माना गया है (याजुष वे.ज्याे. ५)। वर्षारम्भ उत्तरायण, शिशिर ऋतु अाैर माघ अथवा तपस् महीने से माना गया है (याजुष वे.ज्याे. ६)। युग के पाँच वर्षाें के नाम- संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर अाैर वत्सर हैं। अयन दाे हैं- उदगयन अाैर दक्षिणायन। ऋतु छः हैं- शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् अाैर हेमन्त। महीने बारह माने गए हैं - तपः (माघ), तपस्य (फाल्गुन), मधु (चैत्र), माधव (वैशाख), शुक्र (ज्येष्ठ), शुचि (अाषाढ), नभः (श्रावण), नभस्य (भाद्र), इष (अाश्विन), उर्ज (कार्तिक), सहः (मार्गशीर्ष) अाैर सहस्य (पाैष)। महीने शुक्लादि कृष्णान्त हैं। अधिकमास शुचिमास अर्थात् अाषाढमास में तथा सहस्यमास अर्थात् पाैष में ही पडता है, अन्य मासाें में नहीं। पक्ष दाे हैं- शुक्ल अाैर कृष्ण। तिथि शुक्लपक्ष में १५ अाैर कृष्णपक्ष में १५ माने गए हैं। तिथिक्षय केवल चतुर्दशी में माना गया है। तिथिवृद्धि नहीं मानी गइ है। १५ मुहूर्ताें का दिन अाैर १५ मुहूर्ताें का रात्रि माने गए हैं। |
वेदांगज्याेतिष में वेदाें में जैसा (शुक्लयजुर्वेद २७।४५, ३०।१५) ही पाँच वर्षाें का एक युग माना गया है (याजुष वे.ज्याे. ५)। वर्षारम्भ उत्तरायण, शिशिर ऋतु अाैर माघ अथवा तपस् महीने से माना गया है (याजुष वे.ज्याे. ६)। युग के पाँच वर्षाें के नाम- संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर अाैर वत्सर हैं। अयन दाे हैं- उदगयन अाैर दक्षिणायन। ऋतु छः हैं- शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् अाैर हेमन्त। महीने बारह माने गए हैं - तपः (माघ), तपस्य (फाल्गुन), मधु (चैत्र), माधव (वैशाख), शुक्र (ज्येष्ठ), शुचि (अाषाढ), नभः (श्रावण), नभस्य (भाद्र), इष (अाश्विन), उर्ज (कार्तिक), सहः (मार्गशीर्ष) अाैर सहस्य (पाैष)। महीने शुक्लादि कृष्णान्त हैं। अधिकमास शुचिमास अर्थात् अाषाढमास में तथा सहस्यमास अर्थात् पाैष में ही पडता है, अन्य मासाें में नहीं। पक्ष दाे हैं- शुक्ल अाैर कृष्ण। तिथि शुक्लपक्ष में १५ अाैर कृष्णपक्ष में १५ माने गए हैं। तिथिक्षय केवल चतुर्दशी में माना गया है। तिथिवृद्धि नहीं मानी गइ है। १५ मुहूर्ताें का दिन अाैर १५ मुहूर्ताें का रात्रि माने गए हैं। |
12:27, 23 जनवरी 2020 का अवतरण
लगध का वेदांग ज्योतिष एक प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ है। इसका काल १३५० ई पू माना जाता है। अतः यह संसार का ही सर्वप्राचीन ज्याेतिष ग्रन्थ माना जा सकता है। यह ज्योतिष का आधार ग्रन्थ है।
वेदांगज्योतिष कालविज्ञापक शास्त्र है। माना जाता है कि ठीक तिथि नक्षत्र पर किये गये यज्ञादि कार्य फल देते हैं अन्यथा नहीं। कहा गया है कि-
- वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।
- तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्येतिषं वेद स वेद यज्ञान् ॥ (आर्चज्यौतिषम् ३६, याजुषज्याेतिषम् ३)
चारो वेदों के पृथक् पृथक् ज्योतिषशास्त्र थे। उनमें से सामवेद का ज्यौतिषशास्त्र अप्राप्य है, शेष तीन वेदों के ज्यौतिषात्र प्राप्त होते हैं।
- (१) ऋग्वेद का ज्यौतिष शास्त्र - आर्चज्याेतिषम् : इसमें ३६ पद्य हैं।
- (२) यजुर्वेद का ज्यौतिष शास्त्र – याजुषज्याेतिषम् : इसमें ४४ पद्य हैं।
- (३) अथर्ववेद ज्यौतिष शास्त्र - आथर्वणज्याेतिषम् : इसमें १६२ पद्य हैं।
इनमें ऋक् अाैर यजुः ज्याेतिषाें के प्रणेता लगध नामक आचार्य हैं। अथर्व ज्याेतिष के प्रणेता का पता नहीं है। यजुर्वेद के ज्योतिष के चार संस्कृत भाष्य तथा व्याख्या भी प्राप्त होते हैं: एक सोमाकरविरचित प्राचीन भाष्य, द्वितीय सुधाकर द्विवेदी द्वारा रचित नवीन भाष्य (समय १९०८), तृतीय सामशास्त्री द्वारा रचित दीपिका व्याख्या (समय १९४०), चतुर्थ शिवराज अाचार्य काैण्डिन्न्यायन द्वारा रचित काैण्डिन्न्यायन-व्याख्यान (समय २००५)। वेदांगज्याेतिष के अर्थ की खाेज में जनार्दन बालाजी माेडक, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, लाला छाेटेलाल बार्हस्पत्य, लाे.बालगंगाधर तिलक का भी याेगदान है।
पीछे सिद्धान्त ज्याेतिष काल मेें ज्याेतिषशास्त्र के तीन स्कन्ध माने गए- सिद्धान्त, संहिता और होरा। इसीलिये इसे ज्योतिषशास्त्र को 'त्रिस्कन्ध' कहा जाता है। कहा गया है –
- सिद्धान्तसंहिताहोरारुपं स्कन्धत्रयात्मकम्।
- वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम् ॥
वेदांगज्याेतिष सिद्धान्त ज्याेतिष है, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है। वेदांगज्योतिष में गणित के महत्त्व का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया है-
- यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
- तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्॥ (याजुषज्याेतिषम् ४)
- (अर्थ : जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है, उसी प्रकार सभी वेदांगशास्त्रों मे गणित अर्थात् ज्याेतिष का स्थान सबसे उपर है।)
वेदांगज्याेतिष में वेदाें में जैसा (शुक्लयजुर्वेद २७।४५, ३०।१५) ही पाँच वर्षाें का एक युग माना गया है (याजुष वे.ज्याे. ५)। वर्षारम्भ उत्तरायण, शिशिर ऋतु अाैर माघ अथवा तपस् महीने से माना गया है (याजुष वे.ज्याे. ६)। युग के पाँच वर्षाें के नाम- संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर अाैर वत्सर हैं। अयन दाे हैं- उदगयन अाैर दक्षिणायन। ऋतु छः हैं- शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् अाैर हेमन्त। महीने बारह माने गए हैं - तपः (माघ), तपस्य (फाल्गुन), मधु (चैत्र), माधव (वैशाख), शुक्र (ज्येष्ठ), शुचि (अाषाढ), नभः (श्रावण), नभस्य (भाद्र), इष (अाश्विन), उर्ज (कार्तिक), सहः (मार्गशीर्ष) अाैर सहस्य (पाैष)। महीने शुक्लादि कृष्णान्त हैं। अधिकमास शुचिमास अर्थात् अाषाढमास में तथा सहस्यमास अर्थात् पाैष में ही पडता है, अन्य मासाें में नहीं। पक्ष दाे हैं- शुक्ल अाैर कृष्ण। तिथि शुक्लपक्ष में १५ अाैर कृष्णपक्ष में १५ माने गए हैं। तिथिक्षय केवल चतुर्दशी में माना गया है। तिथिवृद्धि नहीं मानी गइ है। १५ मुहूर्ताें का दिन अाैर १५ मुहूर्ताें का रात्रि माने गए हैं।
त्रैराशिक नियम
वेदांग ज्योतिष में त्रैराशिक नियम (Rule of three) देखिये-
- इत्य् उपायसमुद्देशो भूयोऽप्य् अह्नः प्रकल्पयेत्।
- ज्ञेयराशिगताभ्यस्तं विभजेत् ज्ञानराशिना ॥ २४
- (“known result is to be multiplied by the quantity for which the result is wanted, and divided by the quantity for which the known result is given”)[1]
- यहाँ, ज्ञानराशि (या, ज्ञातराशि) = “the quantity that is known”
- ज्ञेयराशि = “the quantity that is to be known”
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- ऋग्वेदवेदांगज्योतिषम् (संस्कृत विकिस्रोत)
- वेदांगज्याेतिषम्, साेमाकरभाष्य-काैण्डन्न्यायनव्याख्यानसहितम्, हिन्दीव्याख्यायुतम्, वाराणसी: चाैखम्बा विद्याभवन, २००५।