"सैयद अहमद ख़ान": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
No edit summary
टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
No edit summary
टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
पंक्ति 48: पंक्ति 48:


*मई 1875 में उन्होने [[अलीगढ़]] में 'मदरसतुलउलूम' एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद उन्होने इसे कॉलेज में बदलने की बुनियाद रखी। उनकी परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावज़ूद कॉलेज ने तेज़ी से प्रगति की और 1920 में यह [[अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय]] में परिवर्तित हो गया।
*मई 1875 में उन्होने [[अलीगढ़]] में 'मदरसतुलउलूम' एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद उन्होने इसे कॉलेज में बदलने की बुनियाद रखी। उनकी परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावज़ूद कॉलेज ने तेज़ी से प्रगति की और 1920 में यह [[अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय]] में परिवर्तित हो गया।

== राजनीति ==
मुस्लिम राजनीति में सर सैयद की परंपरा मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) के रूप में उभरी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885 में स्थापित) के विरूध्द उनका प्रोपेगंडा था कि कांग्रेस हिन्दू आधिपत्य पार्टी है और प्रोपेगंडा आज़ाद-पूर्व भारत के मुस्लिमों में जीवित रहा। कुछ अपवादों को छोड़कर वे कांग्रेस से दूर रहे और यहाँ तक कि वे आज़ादी की लड़ाई से भी हिस्सा नहीं लिया। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ब्रिटिश-भारत के मुस्लिम बहुल राज्यों मसलन-बंगाल, [[पंजाब]] में लगभग सभी स्वतंत्रता सेनानी हिन्दू या सिख थे।<ref>{{cite web |url=http://www.pravakta.com/story/547/comment-page-1 |title=तुष्टिकरण और इसके नतीजे |access-date= 17 अक्टूबर 2010 |last=के. पुंज |first=बलबीर |authorlink= |format= |publisher=प्रवक्ता | language = hi }}</ref>


== मृत्यु==
== मृत्यु==

05:12, 12 सितंबर 2019 का अवतरण

सर सैयद अहमद ख़ान
सर सैयद अहमद ख़ान
व्यक्तिगत जानकारी
अन्य नामसैयद अहमद ख़ान
जन्मसैयद अहमद तक़्वी
17 अक्टूबर 1817
दिल्ली, भारत
मृत्यु27 मार्च 1898(1898-03-27) (उम्र 80)
अलीगढ़, उत्तर प्रदेश
हृदय गति रुकने के कारण
वृत्तिक जानकारी
युगआधुनिक युग
क्षेत्रभारत(ब्रिटिश साम्राज्य)
मुख्य विचारसमाज सेवा, राजनीति और दर्शन
प्रमुख विचारअलीगढ़ आंदोलन, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, दो राष्ट्र सिद्धांत

सर सैयद अहमद ख़ान (उर्दू: سید احمد خان بہا در‎‎, 17 अक्टूबर 1817 - 27 मार्च 1898) हिन्दुस्तानी शिक्षक और नेता थे जिन्होंने भारत के मुसलमानों के लिए आधुनिक शिक्षा की शुरुआत की।[1] उन्होने मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएण्टल कालेज की स्थापना की जो बाद में विकसित होकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना।[2] उनके प्रयासों से अलीगढ़ क्रांति की शुरुआत हुई, जिसमें शामिल मुस्लिम बुद्धिजीवियों और नेताओं ने भारतीय मुसलमानों को शिक्षित बनाने का आह्वान किया। सय्यद अहमद खान ईस्ट इण्डिया कम्पनी में काम करते हुए काफ़ी प्रसिद्ध हुए। सय्यद अहमद १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय ब्रिटिश साम्राज्य के वफादार बने रहे और उन्होने बहुत से यूरोपियों की जान बचायी।[3] बाद में उस संग्राम के विषय में उन्होने एक किताब लिखी: असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिन्द, जिसमें उन्होने ब्रिटिश सरकार की नीतियों की आलोचना की। ये अपने समय के सबसे प्रभावशाली मुस्लिम नेता थे। उनका विचार था कि भारत के मुसलमानों को ब्रिटिश सरकार के प्रति वफ़ादार नहीं रहना चाहिये। उन्होने उर्दू को भारतीय मुसलमानों की सामूहिक भाषा बनाने पर ज़ोर दिया।

प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा

सैयद अहमद ख़ाँ का जन्म 17 अक्टूबर 1817 में दिल्ली के सादात (सैयद) ख़ानदान में हुआ था। उन्हे बचपन से ही पढ़ने लिखने का शौक़ था और उन पर पिता की तुलना में माँ का विशेष प्रभाव था। माँ के कुशल पालन पोषण और उनसे मिले संस्कारों का असर सर सैयद के बाद के दिनों में स्पष्ट दिखा, जब वह सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में आए। 22 वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु के बाद परिवार को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और थोड़ी सी शिक्षा के बाद ही उन्हें आजीविका कमाने में लगना पड़ा। उन्होने 1830 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी में लिपिक के पद पर काम करना शुरू किया, किंतु 1841 ई. में मैनपुरी में उप-न्यायाधीश की योग्यता हासिल की और विभिन्न स्थानों पर न्यायिक विभागों में काम किया। हालांकि सर्वोच्च ओहदे पर होने के बावज़ूद अपनी सारी ज़िन्दगी उन्होने फटेहाली में गुज़ारी।

कृतियाँ

  • अतहर असनादीद(उर्दू, 1847)
  • पैग़ंबर मुहम्मद साहब के जीवन पर लेख (उर्दू, 1870) जिसका उनके पुत्र के द्वारा एस्सेज़ ऑन द लाइफ़ ऑफ़ मुहम्मद शीर्षक से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया गया। साथ ही उनके बाइबिल तथा क़ुरान पर उर्दू भाषा में टीकाएँ सम्मिलित है।
  • असबाबे-बगावते-हिंद (उर्दू,1859)।
  • आसारुस्सनादीद (दिल्ली की 232 इमारतों का शोधपरक ऐतिहासिक परिचय)। गार्सां-द-तासी ने इसका फ़्रांसीसी भाषा में अनुवाद किया जो 1861 ई. में प्रकाशित हुआ।

Tehzeeb ul akhlaq Namak Patrika prarambh ki

राष्ट्रभक्ति की भावना

1857 की महाक्रान्ति और उसकी असफलता के दुष्परिणाम उन्होंने अपनी आँखों से देखा। उनका घर तबाह हो गया, निकट सम्बन्धियों का क़त्ल हुआ, उनकी माँ जान बचाकर एक सप्ताह तक घोड़े के अस्तबल में छुपी रहीं। अपने परिवार की इस बर्बादी को देखकर उनका मन विचलित हो गया और उनके दिलो-दिमाग़ में राष्ट्रभक्ति की लहर करवटें लेने लगीं। इस बेचैनी से उन्होने परेशान होकर भारत छोड़ने और मिस्र में बसने का फ़ैसला किया। अंग्रेज़ों ने उनको अपनी ओर करने के लिए मीर सादिक़ और मीर रुस्तम अली को उनके पास भेजा और उन्हे ताल्लुका जहानाबाद देने का लालच दिया। यह ऐसा मौक़ा था कि वे इनके जाल में फँस सकते थे। वे धनाढ्य की ज़िन्दगी बसर कर सकते थे, लेकिन वे बहुत ही बुद्धिमान और समझदार व्यक्ति थे। उन्होने उस वक़्त लालच को बुरी बला समझकर ठुकरा दी और राष्ट्रभक्ति को अपनाना बेहतर समझा।

बाद में उन्होने यह महसूस किया कि अगर भारत के मुसलमानों को इस कोठरी से नहीं निकाला गया तो एक दिन हमारी क़ौम तबाह और बर्बाद हो जाएगी और वह कभी भी उठ न सकेगी। इसलिए उन्होंने मिस्र जाने का इरादा बदल दिया और कल्याण व अस्तित्व की मशाल लेकर अपनी क़ौम और मुल्क़ की तरफ़ बढ़ने लगे। यह सच है कि उन्होंने ग़ैर फ़ौजी अंग्रेज़ों को अपने घर में पनाह दी, लेकिन उनके समर्थक बिल्कुल न थे, बल्कि वह इस्लामी शिक्षा व संस्कृति के चाहने वाले थे। उनकी दूरदृष्टि अंग्रेज़ों के षड़यंत्र से अच्छी तरह से वाक़िफ़ थी। उन्हें मालूम था कि अंग्रेज़ी हुकूमत भारत पर स्थापित हो चुकी है और उन्होने उन्हें हराने के लिए शैक्षिक मैदान को बेहतर समझा। इसलिए अपने बेहतरीन लेखों के माध्यम से क़ौम में शिक्षा व संस्कृति की भावना जगाने की कोशिश की ताकि शैक्षिक मैदान में कोई हमारी क़ौम पर हावी न हो सके। मुसलमान उन्हें कुफ्र का फ़तवा देते रहे बावज़ूद इसके क़ौम के दुश्मन बनकर या बिगड़कर न मिले बल्कि नरमी से उन्हें समझाने की कोशिश करते रहे। वे अच्छी तरह से जानते थे कि यह क़ौम जाहिल है, इसलिए उनकी बातों की परवाह किये बिना वे अपनी मन्ज़िल पर पहुँचने के लिए कोशिश करते रहे। आज मुस्लिम क़ौम ये बात स्वीकार करती है कि सर सैयद अहमद खाँ ने क़ौम के लिए क्या कुछ नहीं किया।

संस्थाओं की स्थापना

  • 1858 में मुरादाबाद में आधुनिक मदरसे की स्थापना की।
  • 1863 में गाजीपुर में भी एक आधुनिक स्कूल की स्थापना की।
  • उन्होने "साइंटिफ़िक सोसाइटी" की स्थापना की, जिसने कई शैक्षिक पुस्तकों का अनुवाद प्रकाशित किया उर्दू तथा अंग्रेज़ी में द्विभाषी पत्रिका निकाली।
  • 1860 के दशक के अंतिम वर्षों का घटनाक्रम उनकी गतिविधियों का रुख़ बदलने वाला सिद्ध हुआ। उन्हें 1867 में हिन्दुओं की धार्मिक आस्थाओं के केंद्र, गंगा तट पर स्थित बनारस (वर्तमान वाराणसी) में स्थानांतरिक कर दिया गया। लगभग इसी दौरान मुसलमानों द्वारा पोषित भाषा, उर्दू के स्थान पर हिन्दी को लाने का आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन तथा साइंटिफ़िक सोसाइटी के प्रकाशनों में उर्दू के स्थान पर हिन्दी लाने के प्रयासों से सैयद को विश्वास हो गया कि हिन्दुओं और मुसलमानों के रास्तों को अलग होना ही है। इसलीए उन्होंने इंग्लैंड की अपनी यात्रा 1869-1870 के दौरान 'मुस्लिम केंब्रिज' जैसी महान शिक्षा संस्थाओं की योजना तैयार कीं। उन्होंने भारत लौटने पर इस उद्देश्य के लिए एक समिति बनाई और मुसलमानों के उत्थान और सुधार के लिए प्रभावशाली पत्रिका तहदीब-अल-अख़लाक (सामाजिक सुधार) का प्रकाशन प्रारंभ किया।
  • उन्होने 1886 में ऑल इंडिया मुहमडन ऐजुकेशनल कॉन्फ़्रेंस का गठन किया, जिसके वार्षिक सम्मेलन मुसलमानों में शिक्षा को बढ़ावा देने तथा उन्हें एक साझा मंच उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न स्थानों पर आयोजित किया जाते थे।
  • मई 1875 में उन्होने अलीगढ़ में 'मदरसतुलउलूम' एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद उन्होने इसे कॉलेज में बदलने की बुनियाद रखी। उनकी परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावज़ूद कॉलेज ने तेज़ी से प्रगति की और 1920 में यह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया।

मृत्यु

इनकी मृत्यु 27 मार्च 1898 को हृदय गति रुक जाने के कारण हुई।

सन्दर्भ

  1. "आधुनिक शिक्षा के हिमायती थे सर सैयद अहमद". जागरण. अभिगमन तिथि 12 मार्च 12 मार्च 2014. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  2. "Science and Sir Syed".
  3. Glasse, Cyril, The New Encyclopedia of Islam, Altamira Press, (2001)