"सदस्य:Ashish Dave": अवतरणों में अंतर
अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) No edit summary |
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वेदांत दर्शन की प्रमुख अवधारणाएं |
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आचार्य शंकर के अनुसार ब्रह्म की यथार्थ की सत्ता है। इस प्रकार वह प्रतीति रूप, देशिक,भौतिक और चेतना जगत सब से भिन्न भिन्न है। ब्रह्म वह है जिसके संबंध में मान लिया जाता है कि वह मूलभूत है, यद्यपि वह किसी भी अर्थ में द्रव्य नहीं है। |
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(१) ब्रह्म परमार्थ सत्य है :- |
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ब्रह्म सर्वोच्च परमार्थ सत्य सत्य है । ब्रह्म पूर्ण तथा एक मात्र सत्य है। वह मनुष्य के पुरुषार्थ का चरम लक्ष्य है तथा ज्ञान का आधार भी वही है। ब्रह्म परम सत्य, सनातन तथा अपरिवर्तनीय है। जब साधक को ब्रह्मा का ज्ञान प्राप्त होता है तब उसका सांसारिक ज्ञान जो वस्तुतः अज्ञान है, नष्ट हो जाता है। |
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(२) ब्रह्म सत् है :- |
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ब्रह्म स्वयं ज्ञान है वह ज्ञाता भी है और ज्ञेय भी है। ज्ञाता और ज्ञेय के ज्ञान की प्रक्रिया में जो भेद हैं, वे ब्रह्म ज्ञान के संबंध में लागू नहीं होते हैं। ब्रह्म समस्त वस्तुओं का सत् है। ब्रह्म निर्गुण है। |
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(३) ब्रह्म सगुण है :- |
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उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म सगुण भी है और निर्गुण भी। निर्गुण ब्रह्म को पर ब्रह्म तथा सगुण ब्रह्म को अपर ब्रह्म कहा गया है। परम ब्रह्म निरुपाधि, निर्विशेष और निर्गुण है। अपर ब्रह्म सोपाधि सविशेष तथा सगुण है। |
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यही नित्य और निर्गुण जब अभिधा या उपाधि से संबंध होता है, सर्वज्ञ और शक्तिमान सर्वेश्वर्य संपन्न ईश्वर कहलाता है। जो सृष्टि का उत्पादक, पालक और प्रलयकाल में सबका उपसंहारक है। सही सब गुणों के आरोप से सगुण कहलाता है। |
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इस प्रकार ब्रह्म के दोनों रूप आचार्य शंकर ने उपरोक्त प्रकार से स्वीकार किए हैं। |
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(४) ब्रह्म पर अपर है :- |
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जहां पर अभिधा कल्पित नामरूप का निषेध करके अस्थूल और निर्गुण आदि शब्दों से भ्रम का उपदेश होता है, वहां से परब्रह्म को समझना चाहिए और जहां पर किसी नामरूप आदि के विशेषण से विशिष्ट ब्रह्म की उपासना के लिए निर्देश हो वहां अपर ब्रह्म है। |
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(५) पर और अपर का का समन्वय :- |
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इस संबंध में प्रश्न उठाया जा सकता है कि पर और अपर निर्गुण और सगुण एवं मुख्य और गौण शब्दों से अधिगम्य दो विरोधी भावों का एक ब्रह्म में ही समन्वय कैसे होगा? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए आचार्य शंकर ने अनुयायियों के लक्षण के भी दो भेद कर डाले हैं। पहला स्वरूप लक्षण का संबंध सर्वकालीन वस्तुओं की विशेषताओं से संबद्ध रहता है और दूसरा तटस्थ लक्षण का संबंध वस्तु की अल्पकालीन विशेषता से संबद्ध रहता है। |
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उदाहरण के लिए एक गडरिया रंगमंच पर राजा बनकर अभिनय करता है। वह अभिनय में अन्य राजाओं को जीतकर उन पर पर शासन करता है। |
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(६) ब्रह्म एक है :- |
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ब्रह्मा शंकर का मानना है कि ब्रह्मा के दो रूप रूप अज्ञान है और यह अज्ञान ही है जिसके कारण ब्रह्म सगुण ईश्वर और सीमित जीव के रूप में दिखाई देता है। |
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(७) अभेद :- |
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आत्मा और ब्रह्मा के मध्य कोई अंतर नहीं है। अज्ञान वश इन दोनों के मध्य अभेद बुद्धि होती है तथा जीव ब्रह्म को उपास्य समझता है। आत्मा के रूप में ब्रह्म घट-घट में व्याप्त है। अणु में भी वही है जो विभू में है। |
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(८) ब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप है :- |
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ब्रह्म सत्य और अनंत ज्ञान स्वरूप है। जो सत् है वह चित् है। जो चित् है वह सत् भी है। वह ब्रह्म समस्त गुणों से परे है। तथापि वह निषेधात्मक नहीं है। ब्रह्म का अनुभव निरपेक्ष सहज ज्ञान द्वारा किया जा सकता है। ब्रह्मानंद स्वरूप है, पर वह आनंद केवल अनुभव का विषय है। |
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(९) माया :- |
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अद्वैतवाद की महिमा माया के महामंत्र से अभिप्रमाणित है। यह माया क्या है? माया द्रव्य नहीं है। इसी कारण इसे उपादान कारण नहीं माना जा सकता। यह केवल मात्र एक व्यापार है, जो ब्राह्मरूपी उपादान कारण से उत्पन्न होने के कारण भौतिक पदार्थ जगत की उत्पत्ति करता है। माया एक वस्तु है यह अज्ञान है। माया का स्वरूप माया के दो स्वरूप तथा कार्य हैं। |
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(१) पहला आवरण अर्थात् सत्य को छिपाना दूसरे शब्दों में जगत के आधार ब्रह्म का यथार्थ स्वरूप छिपा देना। |
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(२) दूसरा विक्षेप अर्थात् उसकी मिथ्या व्याख्या करना दूसरे शब्दों में उसे संसार के रूप में अाभासित करना। |
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(१०) माया की व्यापकता :- |
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चित् सभी और दृष्टिगोचर होता है। यह केवल प्रकृति के क्षेत्र में सीमित नहीं है। प्रतीति आधार पर यह न केवल जड़ जगत पर ही वर्णन चेतन जीव तथा ईश्वर तक अपने प्रभाव को अभिव्यक्त करती है। जब तक माया या अविद्या का प्रभाव रहता है। तब तक जीव या ईश्वर का भेद बना रहता है। |
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(११) माया-अविद्या :- |
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चूंकी माया स्वरूप में छली गई है, इसे अविद्या अथवा मिथ्या ज्ञान की संज्ञा दी जाती है। पूर्ण विराम यह केवल बोध का अभाव ही नहीं है वरन् निश्चित रूप से भ्रान्ती है। जब इस व्यापार का संबंध ब्रह्म के साथ होता है। तब ब्रह्म ईश्वर हो जाता है। |
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एक अचल निरूपाधिक तब अपनी ही माया रूप शक्ति से ऐसा बन गया जिसे कर्ता की संज्ञा प्रदान कर दी गई। |
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(१२) माया और इश्वर :- |
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माया ईश्वर की शक्ति है यह ईश्वर का अंतः स्थायी बल है, जिसके द्वारा वह संभाव्यता को वास्तविक जगत के रूप में परिणत कर देता है। नित्यरूप ईश्वर ही यह उत्पादिका शक्ति है। इसी साधन से सर्वोपरि प्रभु ब्रह्म संसार की रचना करता है। माया का कोई स्थान नहीं है। यह ईश्वर के अंदर ही रहती है जिस प्रकार उष्णता अग्नि में रहती है, इसकी उपस्थिति इसके कार्यों द्वारा अनुमान से जानी जाती है। माया नाम और रूप में समान है। जो अपने अविकसित अवस्था में ईश्वर के अंदर समवाय संबंध से रहती है। जो अपनी विकसित अवस्था में जगत का निर्माण करती है। |
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आचार्य शंकर के अनुसार माया में निम्नलिखित गुण हैं- |
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(१) अनादि (२) ईश्वर की शक्ति (३) जड़ (४) यथार्थ ना होने पर भाव रूप (५) विज्ञान तथा निरस्था (६) व्यावहारिक तथा विवर्त मात्र (७) अनिर्वचनीय। |
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== काव्य शिक्षण == |
== काव्य शिक्षण == |
16:19, 20 अगस्त 2019 का अवतरण
वेदांत दर्शन की प्रमुख अवधारणाएं
आचार्य शंकर के अनुसार ब्रह्म की यथार्थ की सत्ता है। इस प्रकार वह प्रतीति रूप, देशिक,भौतिक और चेतना जगत सब से भिन्न भिन्न है। ब्रह्म वह है जिसके संबंध में मान लिया जाता है कि वह मूलभूत है, यद्यपि वह किसी भी अर्थ में द्रव्य नहीं है।
(१) ब्रह्म परमार्थ सत्य है :-
ब्रह्म सर्वोच्च परमार्थ सत्य सत्य है । ब्रह्म पूर्ण तथा एक मात्र सत्य है। वह मनुष्य के पुरुषार्थ का चरम लक्ष्य है तथा ज्ञान का आधार भी वही है। ब्रह्म परम सत्य, सनातन तथा अपरिवर्तनीय है। जब साधक को ब्रह्मा का ज्ञान प्राप्त होता है तब उसका सांसारिक ज्ञान जो वस्तुतः अज्ञान है, नष्ट हो जाता है।
(२) ब्रह्म सत् है :-
ब्रह्म स्वयं ज्ञान है वह ज्ञाता भी है और ज्ञेय भी है। ज्ञाता और ज्ञेय के ज्ञान की प्रक्रिया में जो भेद हैं, वे ब्रह्म ज्ञान के संबंध में लागू नहीं होते हैं। ब्रह्म समस्त वस्तुओं का सत् है। ब्रह्म निर्गुण है।
(३) ब्रह्म सगुण है :-
उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म सगुण भी है और निर्गुण भी। निर्गुण ब्रह्म को पर ब्रह्म तथा सगुण ब्रह्म को अपर ब्रह्म कहा गया है। परम ब्रह्म निरुपाधि, निर्विशेष और निर्गुण है। अपर ब्रह्म सोपाधि सविशेष तथा सगुण है।
यही नित्य और निर्गुण जब अभिधा या उपाधि से संबंध होता है, सर्वज्ञ और शक्तिमान सर्वेश्वर्य संपन्न ईश्वर कहलाता है। जो सृष्टि का उत्पादक, पालक और प्रलयकाल में सबका उपसंहारक है। सही सब गुणों के आरोप से सगुण कहलाता है।
इस प्रकार ब्रह्म के दोनों रूप आचार्य शंकर ने उपरोक्त प्रकार से स्वीकार किए हैं।
(४) ब्रह्म पर अपर है :-
जहां पर अभिधा कल्पित नामरूप का निषेध करके अस्थूल और निर्गुण आदि शब्दों से भ्रम का उपदेश होता है, वहां से परब्रह्म को समझना चाहिए और जहां पर किसी नामरूप आदि के विशेषण से विशिष्ट ब्रह्म की उपासना के लिए निर्देश हो वहां अपर ब्रह्म है।
(५) पर और अपर का का समन्वय :-
इस संबंध में प्रश्न उठाया जा सकता है कि पर और अपर निर्गुण और सगुण एवं मुख्य और गौण शब्दों से अधिगम्य दो विरोधी भावों का एक ब्रह्म में ही समन्वय कैसे होगा? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए आचार्य शंकर ने अनुयायियों के लक्षण के भी दो भेद कर डाले हैं। पहला स्वरूप लक्षण का संबंध सर्वकालीन वस्तुओं की विशेषताओं से संबद्ध रहता है और दूसरा तटस्थ लक्षण का संबंध वस्तु की अल्पकालीन विशेषता से संबद्ध रहता है।
उदाहरण के लिए एक गडरिया रंगमंच पर राजा बनकर अभिनय करता है। वह अभिनय में अन्य राजाओं को जीतकर उन पर पर शासन करता है।
(६) ब्रह्म एक है :-
ब्रह्मा शंकर का मानना है कि ब्रह्मा के दो रूप रूप अज्ञान है और यह अज्ञान ही है जिसके कारण ब्रह्म सगुण ईश्वर और सीमित जीव के रूप में दिखाई देता है।
(७) अभेद :-
आत्मा और ब्रह्मा के मध्य कोई अंतर नहीं है। अज्ञान वश इन दोनों के मध्य अभेद बुद्धि होती है तथा जीव ब्रह्म को उपास्य समझता है। आत्मा के रूप में ब्रह्म घट-घट में व्याप्त है। अणु में भी वही है जो विभू में है।
(८) ब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप है :-
ब्रह्म सत्य और अनंत ज्ञान स्वरूप है। जो सत् है वह चित् है। जो चित् है वह सत् भी है। वह ब्रह्म समस्त गुणों से परे है। तथापि वह निषेधात्मक नहीं है। ब्रह्म का अनुभव निरपेक्ष सहज ज्ञान द्वारा किया जा सकता है। ब्रह्मानंद स्वरूप है, पर वह आनंद केवल अनुभव का विषय है।
(९) माया :-
अद्वैतवाद की महिमा माया के महामंत्र से अभिप्रमाणित है। यह माया क्या है? माया द्रव्य नहीं है। इसी कारण इसे उपादान कारण नहीं माना जा सकता। यह केवल मात्र एक व्यापार है, जो ब्राह्मरूपी उपादान कारण से उत्पन्न होने के कारण भौतिक पदार्थ जगत की उत्पत्ति करता है। माया एक वस्तु है यह अज्ञान है। माया का स्वरूप माया के दो स्वरूप तथा कार्य हैं।
(१) पहला आवरण अर्थात् सत्य को छिपाना दूसरे शब्दों में जगत के आधार ब्रह्म का यथार्थ स्वरूप छिपा देना।
(२) दूसरा विक्षेप अर्थात् उसकी मिथ्या व्याख्या करना दूसरे शब्दों में उसे संसार के रूप में अाभासित करना।
(१०) माया की व्यापकता :-
चित् सभी और दृष्टिगोचर होता है। यह केवल प्रकृति के क्षेत्र में सीमित नहीं है। प्रतीति आधार पर यह न केवल जड़ जगत पर ही वर्णन चेतन जीव तथा ईश्वर तक अपने प्रभाव को अभिव्यक्त करती है। जब तक माया या अविद्या का प्रभाव रहता है। तब तक जीव या ईश्वर का भेद बना रहता है।
(११) माया-अविद्या :-
चूंकी माया स्वरूप में छली गई है, इसे अविद्या अथवा मिथ्या ज्ञान की संज्ञा दी जाती है। पूर्ण विराम यह केवल बोध का अभाव ही नहीं है वरन् निश्चित रूप से भ्रान्ती है। जब इस व्यापार का संबंध ब्रह्म के साथ होता है। तब ब्रह्म ईश्वर हो जाता है।
एक अचल निरूपाधिक तब अपनी ही माया रूप शक्ति से ऐसा बन गया जिसे कर्ता की संज्ञा प्रदान कर दी गई।
(१२) माया और इश्वर :-
माया ईश्वर की शक्ति है यह ईश्वर का अंतः स्थायी बल है, जिसके द्वारा वह संभाव्यता को वास्तविक जगत के रूप में परिणत कर देता है। नित्यरूप ईश्वर ही यह उत्पादिका शक्ति है। इसी साधन से सर्वोपरि प्रभु ब्रह्म संसार की रचना करता है। माया का कोई स्थान नहीं है। यह ईश्वर के अंदर ही रहती है जिस प्रकार उष्णता अग्नि में रहती है, इसकी उपस्थिति इसके कार्यों द्वारा अनुमान से जानी जाती है। माया नाम और रूप में समान है। जो अपने अविकसित अवस्था में ईश्वर के अंदर समवाय संबंध से रहती है। जो अपनी विकसित अवस्था में जगत का निर्माण करती है।
आचार्य शंकर के अनुसार माया में निम्नलिखित गुण हैं-
(१) अनादि (२) ईश्वर की शक्ति (३) जड़ (४) यथार्थ ना होने पर भाव रूप (५) विज्ञान तथा निरस्था (६) व्यावहारिक तथा विवर्त मात्र (७) अनिर्वचनीय।
काव्य शिक्षण
कविता शिक्षण के सामान्य उद्देश्य १) स्वर प्रवाह, भाव अनुसार कविता पाठ क्षमता वृद्धि।
२) छात्रों को कविता के प्रति आकर्षित करना।
३) कवि कर्म / कविता के माध्यम से सांस्कृतिक तथा पौराणिक ता धार्मिकता सामाजिकता की अनुभूति धार्मिकता सामाजिकता की अनुभूति करवाना।
४) कवि के भावों को समझने की शक्ति उत्पन्न करना।
५) अर्थ ग्रहण व भावानुभूति करने योग्य बनाना।
६) विभिन्न विभिन्न का विषय काव्य शैलियों से परिचय कराना।
७) कल्पना शक्ति में वृद्धि करना।
८) साहित्य रचना के प्रति रुचि उत्पन्न करना।
९) कविता के माध्यम से चित्त वृत्तियों का परिमार्जन करना और उच्च आदर्शों का निर्माण करना।
काव्य शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य
१) कवि विशेष के भाव विचार या या शैली के चमत्कार का आनंद प्राप्त करना।
२) कवि संदेशों को छात्रों तक पहुंचाना।
३) कविता में निहित जीवन आलोचना को स्पष्ट करना।
४) विशिष्ट शैली से परिचय कराना।
काव्य शिक्षण के मुख्य सिद्धांत
१) सस्वर प्रस्तुतीकरण का सिद्धांत
२) समवेत स्वर में प्रस्तुतीकरण का सिद्धांत
३) अध्यापक की क्षमता का का क्षमता का का सिद्धांत
४ अध्यापक की संलग्नता का सिद्धांत
५) स्तरानुसार काव्यांश चयन का सिद्धान्त
६) भाव कल्पना, विचार सौंदर्य का सिद्धांत
७) समभाव कविता पाठ का सिद्धांत
काव्य शिक्षण विधियां
१) गीत विधि
२) अभिनय विधि
३) अर्थबोध विधि
४) व्याख्यान विधि
५) व्यास विधि
६) तुलना विधि
७) समीक्षा विधि
८)विश्लेषण विधि
९) खंडान्वस विधि
१०) समीक्षा प्रणाली समीक्षा का तात्पर्य होता है कविता की आलोचना तथा मूल्यांकन करना। यह तीन प्रकार से की जाती है।
- १) ऐतिहासिक समीक्षा प्रणाली
- २) सैद्धांतिक समीक्षा प्रणाली
- ३) व्यवहारिक समीक्षा प्रणाली
११) विश्लेषण प्रणाली
- ११.१) रसात्मक विश्लेषण प्रणाली
- ११.२) भावात्मक विश्लेषण प्रणाली
कविता के प्रति रुचि बढ़ाने के साधन
१) कविता का प्रभावशाली पठन,
२) कविताओं का कंठस्थीकरण
३) कविताओं का संग्रह
४) कवि जयंती
५) कवि सम्मेलन
६) कवि गोष्ठी
७) समस्या पूर्ति
८) कवि दरबार
९) सुभाषित प्रतियोगिता
१०) कविता पाठ प्रतियोगिता
पद्य पाठ योजना
१) सामान्य उद्देश्य
२) विशिष्ट उद्देश्य २.१) संज्ञानात्मक उद्देश्य २.२) भावात्मक उद्देश्य २.३) क्रियात्मक उद्देश्य
३) सहायक उपकरण बोर्ड, पाठ्य पुस्तक, चॉक, डस्टर, संकेतिका आदि।
४) विशिष्ट उपकरण चित्र, चार्ट, ध्वनि उपकरण, दृश्य उपकरण, १) प्रस्तावना २) उद्देश्य ३) उद्देश्यकथन ४) प्रस्तुतीकरण ५) आदर्श वाचन प्रभावशाली बटन ६) अनुकरणवाचन ७) अशुद्धिसंशोधन ८) काठिन्य निवारण ९)बोध प्रश्न १०) छात्रध्यापक कथन/ शिक्षक सारांश ११) चित्र मॉडल / प्रदर्शन Ashish Dave (वार्ता) 16:55, 16 अगस्त 2019 (UTC)
पठन कौशल (भाषा कौषल)
पठन या वाचन कौशल भाषा का मूल स्वरूप उच्चारित रूप है। लिखित भाषा के ध्वन्यात्मक पाठ को मौखिक पठन कहते हैं। बिना अर्थ ग्रहण किए गए पठन को पठन नहीं कहा जा सकता। पठन की क्रिया में अर्थ ग्रहण करना आवश्यक होता है।
महत्व
(१) शिक्षा प्राप्ति में सहायक
(२) ज्ञान उपार्जन का साधन
(३) विशिष्टता और नवीनता
(४) सामाजिक विकास
(५) लोकतांत्रिक गुणों का विकास
(६) मनोरंजन
(७) राजनीतिक विकास
(८) बौद्धिक विकास
(९) साहित्यिक विकास
(१०) सांस्कृतिक विकास
उद्देश्य
१) आरोह अवरोह का अभ्यास
२) उचित स्थान का ज्ञान
३) उच्चारण का ज्ञान
४) भाव समझना और समझाना
५) ध्वनि बल निर्गम स्वर आदि का सम्यक ज्ञान
६) शुद्ध तथा स्पष्ट उच्चारण
७) मधुरता तथा प्रभाव उत्पादकता
पठन कौशल विधियां
१) शब्द तत्व पर आधारित विधियां १.१) वर्ण बोध विधि १.२) ध्वनि साम्य विधि
२) स्वर उच्चारण विधि
३) देखो और कहो
४) वाक्य विधि
५) कहानी विधि
६) अनुकरण विधि
७) संपर्क विधि
पढ़ने में त्रुटि का ज्ञान
१) अटक-अटक कर पढ़ना
२) अनुचित मुद्रा
३) वाचन में गति का अभाव
४) अशुद्ध उच्चारण
५) दृष्टि दोष से वर्णन न दिखना
६) पाठ्य सामग्री का कठिन होना
७) संयुक्ताक्षर की छपाई में त्रुटि
८) भावानुकूल आरोह-अवरोह का अभाव
९) वचन संबंधित मार्गदर्शन का अभाव
१०) अध्यापक का व्यवहार
Ashish Dave (वार्ता) 07:11, 16