"शलाकापुरुष": अवतरणों में अंतर
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जैन धर्म में तीर्थंकर (अरिहंत, जिनेन्द्र) उन २४ व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो स्वयं तप के माध्यम से आत्मज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त करते है। जो संसार सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते है, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। |
जैन धर्म में तीर्थंकर (अरिहंत, जिनेन्द्र) उन २४ व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो स्वयं तप के माध्यम से आत्मज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त करते है। जो संसार सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते है, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। |
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11:13, 21 जून 2019 का अवतरण
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जैन धर्म में ६३ शलाकापुरुष हुए है। यह है – चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ वासुदेव और नौ प्रति वासुदेव। इन ६३ महापुरुष जिन्हें त्रिषष्टिशलाकापुरुष भी कहते हैं के जीवन चरित्र दूसरों के लिए प्रेरणादायी होते है।६३ शलाकापुरुष के नाम अग्रलिखित है।
24 तीर्थंकरो के नाम
जैन धर्म में तीर्थंकर (अरिहंत, जिनेन्द्र) उन २४ व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो स्वयं तप के माध्यम से आत्मज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त करते है। जो संसार सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते है, वह तीर्थंकर कहलाते हैं।
1 ऋषभदेव
2 अजितनाथ
3 सम्भवनाथ
10 शीतलनाथ जी
11 श्रेयांसनाथ
12 वासुपूज्य जी
13 विमलनाथ जी
14 अनंतनाथ जी
15 धर्मनाथ जी
16 शांतिनाथ
17 कुंथुनाथ
18 अरनाथ जी
19 मल्लिनाथ जी
21 नमिनाथ जी
23 पार्श्वनाथ
बारह चक्रवर्तीयो के नाम
जैन दर्शन के अनुसार हर काल में ६३ शलाकापुरुष होते है जिसमें १२ चक्रवर्ती होते हैं। ऋषभदेव के पुत्र 'भरत चक्रवर्ती' इस काल के पहले चक्रवर्ती थे। 1
श्री भरत जी
2
श्री सगर जी
3
श्री मघवा जी
4
सनत्कुमार जी
5
शांतिनाथ जी
6
कुंथुनाथ जी
7
अरहनाथ जी
8
सुभौम जी
9
पद्म जी
10
हरिषेण जी
11
जय सेन जी
12
ब्रह्मदत् जी
नौ बलभद्रो के नाम
दिगम्बर परम्परा के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी काल के नौ बलभद्र के नाम निम्नलिखित हैं:
नौ वासुदेवो के नाम
1 त्रिपृष्ठ जी
2 द्विपृष्ठ जी
3 स्वयंभू जी
4 पुरुषोत्तम जी
5 पुरुषसिंह जी
6 पुरुषपुंडरीक जी
7 पुरुषदत्त जी
8 लक्ष्मण जी
9 कृष्ण जी
= नौ प्रतिवासुदेवो के नाम
1 अश्वग्रीव जी
2 तारक जी
3 मेरक जी
4 मधु कैटभ जी
5 निशुम्भ जी
6 बलि जी
7 प्रहरण जी
8 रावण जी
9 जरासंध जी
सन्दर्भ
- गुणभद्र, आचार्य; जैन, साहित्याचार्य डॉ पन्नालाल (2015), उत्तरपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-263-1738-7