"भारत दुर्दशा": अवतरणों में अंतर
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'''भारत दुर्दशा''' [[नाटक]] की रचना [[1875]] इ. में [[भारतेन्दु हरिश्चंद्र|भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]] द्वारा की गई थी। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से [[भारत]] की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। वे भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने और फिर इस दुर्दशा का अंत करने का प्रयास करने का आह्वान करते हैं। वे [[ब्रिटिश]] राज और आपसी कलह को भारत दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं। तत्पश्चात वे [[कुरीतियाँ]], रोग, आलस्य, [[मदिरा]], अंधकार, [[धर्म]], संतोष, अपव्यय, फैशन, सिफारिश, लोभ, भय, स्वार्थपरता, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़ आदि को भी भारत दुर्दशा का कारण मानते हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों की भारत को लूटने की नीति को मानते हैं। |
'''भारत दुर्दशा''' [[नाटक]] की रचना [[1875]] इ. में [[भारतेन्दु हरिश्चंद्र|भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]] द्वारा की गई थी। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से [[भारत]] की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। वे भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने और फिर इस दुर्दशा का अंत करने का प्रयास करने का आह्वान करते हैं। वे [[ब्रिटिश]] राज और आपसी कलह को भारत दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं। तत्पश्चात वे [[कुरीतियाँ]], रोग, आलस्य, [[मदिरा]], अंधकार, [[धर्म]], संतोष, अपव्यय, फैशन, सिफारिश, लोभ, भय, स्वार्थपरता, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़ आदि को भी भारत दुर्दशा का कारण मानते हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों की भारत को लूटने की नीति को मानते हैं। |
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17:37, 3 मई 2019 का अवतरण
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भारत दुर्दशा नाटक की रचना 1875 इ. में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा की गई थी। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। वे भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने और फिर इस दुर्दशा का अंत करने का प्रयास करने का आह्वान करते हैं। वे ब्रिटिश राज और आपसी कलह को भारत दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं। तत्पश्चात वे कुरीतियाँ, रोग, आलस्य, मदिरा, अंधकार, धर्म, संतोष, अपव्यय, फैशन, सिफारिश, लोभ, भय, स्वार्थपरता, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़ आदि को भी भारत दुर्दशा का कारण मानते हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों की भारत को लूटने की नीति को मानते हैं।
अंग्रेजों ने अपना शासन मजबूत करने के लिये देश में शिक्षा व्यवस्था, कानून व्यवस्था, डाक सेवा, रेल सेवा, प्रिंटिंग प्रेस जैसी सुविधाओं का सृजन किया । पर यह सब कुछ अपने लिये, अपने शासन को आसान बनाने के लिये था । देश की अर्थ व्यवस्था जिन कुटीर उद्योगों से पनपती थी उनको बरबाद करके अपने कारखानों में बने माल को जबर्दस्ती हम पर थोपने लगे । कमाई के जरिये छीन लेने से देश में भुखमरी फैल गयी । लाखों लोग अकाल और महामारी से मरने लगे । पर इससे अंग्रेज विचलित नहीं हुए । वह बदस्तूर अपनी तिजोरियाँ भरते जा रहे थे। सारा देश खामोशी से अपने को लुटते हुए देख रहा था। मरते हुए देख रहा था । बिलकुल शान्ति से । तटस्थ भाव से ।निरासक्ति से । निष्क्रियता से ।
ऐसे समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का भारत दुर्दशा नाटक प्रकाशित हुआ । उन्होंने लिखा-
- रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई।
- हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ॥
इन्हें भी देखिये
बाहरी कड़ियाँ
- भारत दुर्दशा ('हिन्दी समय' पर)
- राष्ट्रीय चेतना के वाहक भारतेन्दु हरिश्चंद्र